जिंदगी! मैंने कभी तुमसे ख़ुदा माँगा था / निश्तर ख़ानक़ाही
Contents
- 1 जिंदगी! मैंने कभी तुमसे ख़ुदा माँगा था / निश्तर ख़ानक़ाही
- 2 जिंदगी के बड़े झमेले हैं / रंजना वर्मा
- 3 जिंदगी की दास्ताँ बस दास्ताँ-ए-गम नहीं / आनंद कुमार द्विवेदी
- 4 जिंदगी के चौराहे पर / उमा अर्पिता
- 5 जिंदगी / दुःख पतंग / रंजना जायसवाल
- 6 जिंदगी / शैलप्रिया
- 7 यह कमाल की जिंदगी / त्रिभवन कौल
- 8 जिंदगी थोड़ी है बंधन बहुत ज्यादा / डी. एम. मिश्र
- 9 जिंदगी को रोज़ इक त्यौहार कर / रंजना वर्मा
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हमने ता-उम्र भटकने का मज़ा माँगा था
घर से अपने जो कभी अपना पता माँगा था
अलकुहल हो कि हो गंगा का मुक़द्दस पानी
हमने हर जाम में जीने का नशा माँगा था
तुमने क्यों मुझसे तअल्लुक़ में वफ़ा चाही थी
मैंने क्यों तुमसे वफ़ाओं का सिला मांगा था
अपनी झोली में लिए बैठा हूँ पत्थर कितने
जिंदगी! मैंने कभी तुमसे ख़ुदा माँगा था
आग की दलदली धरती से गुज़रने के लिए
मुझसा नादान! कि सहारे का असा माँगा था
जिंदगी के बड़े झमेले हैं / रंजना वर्मा
जिंदगी के बड़े झमेले हैं
और हम चल रहे अकेले हैं
याद है झिलमिली सी साँसों में
चश्मे नम आँसुओं के रेले हैं
जो हैं आबाद उन्हीं की ख़ातिर
जिंदगी में हज़ार मेले हैं
है झपकती जो पलक पल भर भी
ख़्वाब जगते नये नवेले हैं
जीस्त आसान कब हुई किस की
हर घड़ी नित नये झमेले हैं
दूर साहिल है भँवर में कश्ती
दर्द इस दिल ने बहुत झेले हैं
एक जलती हुई चिता में हम
चिनगियों से हमेशा खेले हैं
जिंदगी की दास्ताँ बस दास्ताँ-ए-गम नहीं / आनंद कुमार द्विवेदी
जिंदगी की दास्ताँ, बस दास्तान-ए-ग़म नही
इम्तहाँ भी कम नही, तो हौसले भी कम नही
करने वाले मेरे सपनों की तिजारत कर गये
हम सरे-बाज़ार थे पर हुआ कुछ मालुम नही
कुछ नकाबें नोंच डालीं वक़्त ने, अच्छा हुआ
जो भी है अब सामने, गफ़लत तो कम से कम नही
अय ज़माने के खुदाओं अपना रस्ता नापिए
अब किसी भगवान के रहमो-करम पर हम नही
अब जहाँ जाना है लेकर वक़्त मुझको जाएगा
मौत महबूबा है, लेकिन ख़ुदकुशी लाज़िम नही
रंज मुझको ये नहीं, कि क्यों गया तू छोड़कर
रंज ये है, क्यों तेरे जाने का रंज-ओ-गम नहीं
अपने अब तक के सफ़र में खुद हुआ मालूम ये
लाख अच्छे हों, मगर ऐतबार लायक हम नही
हिज्र की बातें करे या, वस्ल का चर्चा करे
आजकल ‘आनंद’ की बातों में वैसा दम नही
जिंदगी के चौराहे पर / उमा अर्पिता
जिंदगी के चौराहे पर
हजारों व्यक्तित्व
शेषनाग-से फन उठाये
डसने को
तैयार खड़े हैं
और मैं इसी चौराहे पर
अपने जीवन का
मार्ग खोज रही हूँ,
यह जानते हुए, कि
इन फनों के
सर्पिल संवेदन से
बच नहीं पाऊँगी
फिर भी–
एक विश्वास है, जो
संजीवनी-सा
अमरत्व का
वरदान दे जाता है।
जिंदगी / दुःख पतंग / रंजना जायसवाल
मुश्किल प्रश्न लिए
कुशाग्र विद्यार्थी की तरह खड़ी है
मेरे सामने
जिंदगी
कौन समझाए कि
होते हैं कई प्रश्न
खुद अपना उत्तर
नहीं होता
हर प्रश्न का
उत्तर।
जिंदगी / शैलप्रिया
सुबह हो या शाम
हर दिन बस एक ही सिलसिला
काम, काम और काम…
जिंदगी बीत रही यूं ही
कि जैसे
अनगिनत पांवों से रौंदी हुई
भीड़-भरी शाम
सीढ़ियां
गिनती हुई
चढ़ती-उतरती
मैं
खोजती हूं अपनी पहचान
दुविधाओं से भरे पड़े प्रश्न
रात के अंधेरे में
प्रेतों की तरह खड़े हुए प्रश्न
खाली सन्नाटे में
संतरी से अड़े हुए प्रश्न
मन के वीराने में
मुर्दों से गड़े हुए प्रश्न
प्रश्नों से मैं हूं हैरान
मुश्किल में जान
जिंदगी बीत रही
जैसे हो भीड़-भरी शाम।
यह कमाल की जिंदगी / त्रिभवन कौल
यह जिंदगी भी कमाल की जिंदगी है!
खुद ही अपने जीवन से #2340;्रस्त है
हर दूसरी जिंदगी , जो
काम, क्रोध, लोभ, मोह से ग्रस्त है
कहीं व्यभिचार तो कहीं दुराचार
कहीं भ्रष्टाचार तो कहीं अनाचार
किसी न किसी’ चार’ का यहाँ बोलबाला है
जिंदगी सब कुछ सहती है
न जाने क्यूँ उसके मुँह पर ताला है I
यह जिंदगी भी कमाल की जिंदगी है!
ज़्यादातर किस्मत की मोहताज रहती है
मंजिल पाने की ललक न हो
तो भटकाने की ताक़ में रहती है
राह सीधी मिले तो किस्मत का नाम होता है
न मिले तो बेचारा सिक्का बदनाम होता हैI
यह जिंदगी भी कमाल की जिंदगी है!
मेहनत मजदूरी का ज्यादा मोल नहीं यहाँ
सच का मुखौटा पहन, झूठ का राज यहाँ
चीर हरण होते हैं सरे आम सडकों पर
चंद चांदी के सिक्के, और, बिके सैंकड़ों ईमान यहाँ I
विड़ंबना यह कि समय से पहले, जिंदगी
मौत को दावत नहीं दे सकती
जो देख रही है ,घटते हुए
‘ चलता है’ के नाम पर
सुख से सो भी नहीं सकती I
चलो इस कमाल कि जिंदगी को
बेमिसाल बना दें
दुल्हन के समान सजा कर
इसको संवार दें.
‘अपना भला ज़रूरी है’
यह सोंच बदल दें
नासूर बन गए ज़ख्मो पर
मरहम जो लगा दें
सच का आदर करें
‘इज्ज़त’ को मान दें
नफरत की आग जब भड़के तो
एक प्यार कि जोत जला दें I
फिर मौत भी जिंदगी को
हंसकर यूँ गले लगाएगी
आत्मा भी पुन:जन्म पाने को
ललकित हो जाएगी I
हर जिंदगी तब बनेगी
कमाल से बेमिसाल
हर जिंदगी की होगी फिर
दास्ताँ बेमिसालI
जिंदगी थोड़ी है बंधन बहुत ज्यादा / डी. एम. मिश्र
जिंदगी थोड़ी है बंधन बहुत ज्यादा
दोस्त कम हैं और दुश्मन बहुत ज़्यादा।
चार दिन पहले उसी से दोस्ती थी
आजकल उससे है अनबन बहुत ज़्यादा।
कल तलक तस्वीर लेकर घूमता था
और अब मिलता है बेमन बहुत ज़्यादा।
हर किसी को एक ही चिंता सताती
राम कम हैं और रावन बहुत ज़्यादा।
जिंदगी को रोज़ इक त्यौहार कर / रंजना वर्मा
जिंदगी को रोज़ इक त्यौहार कर
मौत भी हो सामने तो प्यार कर
देश का सम्मान जो करते नहीं
अब न तू इनसे चमन गुलज़ार कर
हो जहाँ दीवार मजहब की नहीं
चल इमारत का उसी दीदार कर
देश की ख़ातिर जो देते जान हैं
तू न उन पर संग की बौछार कर
जिंदगी ग़र दर्द का दरिया बना
हौसलों की एक फिर पतवार कर
बाजुओं में हैं लिपटते नाग तो
मार उनको आस्तीन सुधार कर
जिंदगी रहमत ख़ुदा की मान ले
ख़ुदकुशी कर तू न उस को ख़्वार कर
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