ओ मेरी जिंदगी / दुष्यंत कुमार
Contents
- 1 ओ मेरी जिंदगी / दुष्यंत कुमार
- 2 कैसे बदले जिंदगी / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल
- 3 ठस्स होती जिंदगी / समझदार किसिम के लोग / लालित्य ललित
- 4 जिंदगी फूस की झोपड़ी / उदयभानु ‘हंस’
- 5 विचित्र जिंदगी / तरुण भटनागर
- 6 ये असंगति जिन्दगी के द्वार सौ-सौ बार रोई / भारत भूषण
- 7 मिलती है जिंदगी में मोहब्बत कभी कभी / साहिर लुधियानवी
- 8 जिंदगी उसकी ज़माना भी उसी का होता / डी. एम. मिश्र
- 9 खुली किताब / बिन्देश्वर प्रसाद शर्मा ‘बिन्दु’
- 10 गुलों की तरह हमने जिंदगी को इस कदर जाना / बशीर बद्र
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मैं जो अनवरत
तुम्हारा हाथ पकड़े
स्त्री-परायण पति सा
इस वन की पगडंडियों पर
भूलता-भटकता आगे बढ़ता जा रहा हूँ,
सो इसलिए नहीं
कि मुझे दैवी चमत्कारों पर विश्वास है,
या तुम्हारे बिना मैं अपूर्ण हूँ,
बल्कि इसलिए कि मैं पुरुष हूँ
और तुम चाहे परंपरा से बँधी मेरी पत्नी न हो,
पर एक ऐसी शर्त ज़रूर है,
जो मुझे संस्कारों से प्राप्त हुई,
कि मैं तुम्हें छोड़ नहीं सकता।
पहले
जब पहला सपना टूटा था,
तब मेरे हाथ की पकड़
तुम्हें ढीली महसूस हुई होगी।
सच,
वही तुम्हारे बिलगाव का मुकाम हो सकता था।
पर उसके बाद तो
कुछ टूटने की इतनी आवाज़ें हुईं
कि आज तक उन्हें सुनता रहता हूँ।
आवाज़ें और कुछ नहीं सुनने देतीं!
तुम जो हर घड़ी की साथिन हो,
तुमझे झूठ क्या बोलूँ?
खुद तुम्हारा स्पंदन अनुभव किए भी
मुझे अरसा गुजर गया!
लेकिन तुम्हारे हाथों को हाथों में लिए
मैं उस समय तक चलूँगा
जब तक उँगलियाँ गलकर न गिर जाएँ।
तुम फिर भी अपनी हो,
वह फिर भी ग़ैर थी जो छूट गई;
और उसके सामने कभी मैं
यह प्रगट न होने दूँगा
कि मेरी उँगलियाँ दग़ाबाज़ हैं,
या मेरी पकड़ कमज़ोर है,
मैं चाहे कलम पकड़ूँ या कलाई।
मगर ओ मेरी जिंदगी!
मुझे यह तो बता
तू मुझे क्यों निभा रही है?
मेरे साथ चलते हुए
क्या तुझे कभी ये अहसास होता है
कि तू अकेली नहीं?
कैसे बदले जिंदगी / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल
मैं इसी में खुश था
कि तुमसे बात हो जाती थी
छीन ली तुमने वो भी खुशी
ये कहकर कि तुम पराई हो
अब तो बस उदासी है और आँसू
धुँधला-धँधला-सा सब
क्यों किसी पराये को
अपना समझ बैठा
ये मेरी हद में ना था
कि बदल लेता जिंदगी
उसी से जिसे तुम अपना समझती हो
पाऊँ तुम्हें अगले जन्म
इतना बस में नहीं
मेरे हाथ, मेरी सोच,
नाप नहीं सकते आने वाला कल
ना ही पकड़ सकते
बीतते हुए क्षण
जीना चाहता हूँ बस वर्तमान
बंधनों से रहित
ताकि इंतजार ना रहे भविष्य का
अफसोस ना हो उसका
जो बीत गया।
ठस्स होती जिंदगी / समझदार किसिम के लोग / लालित्य ललित
ठस्स होती जिंदगी में
बचा ही क्या है
खोने को और बोने को
बीज अंकुरित होने से पहले ही
नष्ट हो गए
गोद में खिलाने से पहले ही
भ्रूण हत्या
अपनी फिगर खराब न हो जाए,
बोतल का दूध
दूसरे के कंधे पर बंदूक
अपना उल्लू सीधा करते लोग
जिस्म बेचती आधुनिकाएं
किडनी किंग
गोदामों में बंद पड़ी किताबें
चौराहों पर एंट्री उगाहते
ट्रैफिक हवलदार
खोने को मुद्रा शेयर बाजारी-कारोबार
अवैध निर्माण, प्रभात फेरी
हर-हर महादेव का जोर
बजरंग दल, सिमी की खबरें
नेताओं का भाषण
आर्थिक मंदी से घबराए लोग
सोना महंगा होगा
बाजार में खरीदारी का जोर
हलवाईयों की दुकान में
सजी मिठाइयां इतराती हैं
मॉल में पंडित जी ‘हाथ’ देखते हैं
चौराहे चुगलियां करते हैं
मॉरिस-नगर हो या
छात्रावास के दरवाजे
सभी उमंग से भरे पड़े हैं
दुर्घटना, घटना, बहना,
गहना, सजना, बिकना
अनिवार्य अंग हो चुके हैं
रोजमर्रा के
बूढे भी दे रहे गति
वर्तमान को
समाज को
अपने अतीत पर इतराते हैं
च्वयनप्राश खाते हैं
अनार का रस पीते है।
महिलाएं किटी में या कीर्तन में रमी हैं
और अधेड़ होते मर्द
रेव पार्टी में मस्त हैं
नीम हकीम भी ऐंठ रहे
निम्न आय वाले रोगियों को
बार बालाएं ‘बार’ से निकल
नौटंकियों में बारातों में
झक़ास मस्त है
व्यापारी अपना मुनाफा कमाने में व्यस्त है
चाहे मिलाना पड़े उसे आलुओं को सीमेंट में
उसको फर्क नहीं पड़ता
ना ही पड़ेगा
सरकारी मास्टर ट्यूशन पर
जोर देता है
राशन की चीनी कार्डधारियों को
नहीं मिलती
कितने ही फार्म भर लो
डी.डी.ए. क्या जी.डी.ए. का
मकान क्या फ्लैट नहीं निकलेगा
25 की उम्र में रोजगार
कार्यालय में आवेदन कर गए
अगर गलती से
रिटायर उम्र तक भी चिट्ठी
नहीं आएगी कि प्यारे
नौकरी खाली है
मकान बनाओ तो रिश्वत
लाइसेंस बनाओ तो रिश्वत
और तो और
डेथ सर्टिफिकेट के लिए भी
‘घूस’ माँगते हैं
क्या जमाना है यारो
कुछ महिला पत्रकार
‘नीट’ पीती है
शाम होते ही विचारों का
मंथन प्रेस क्लब में
दिखना शुरू होता है
कला दीर्घाओं को आत्मसात
करते कला चिपकू
श्रीराम सेंटर में
या तो नाटक देखेंगे
या नुक्कड़ पर चाय पियेंगे
कुछ साथी हो संुदर से
तो समोसा लेंगे
कहेंगे, नहीं तो
सुंदर-सा बहाना ठांेक कट लेंगे!
‘मेट्रो’ में आते लोग
जाते लोगों की
जीवन शैली बदल गई है
लेकिन रिक्शा वालों की नहीं
दस बनते हांे तो पच्चीस माँगते हैं
अपने को धकेलते लोग
चल रहे हैं
मुरगे बिक रहे हैं
कहीं 100 में कहंी 120 में
क्वालिटी का भरोसा नहीं
हलक से उतर जाएंगे
तभी न ठीक होंगे
दो पेग पी चुके
घिस्सू ने कहा था
कबाड़ियों का संसार भी
विचित्र है
जमाने भर का गंद बटोर लायेंगे
बदले में देंगे
स्टील के बर्तन
दो साड़ी की जगह एक बाल्टी
चार पेंट की जगह
एक स्टील की परात
इसी उधेड़बुन में लगी है
औरतें!
औरतें जानती हैं
खर्च करना
गृहस्थी बनाना और
बिगाड़ना
या बुद्धू बनाना
तरीके से सलीके से
आदमी बुद्धू बनता है
यह वह भी जानता है
टेलिविजन चैनल समाचार बनाता है
इतना पेलता है
कि सोचने वाला दिमाग सुन्न हो जाए
रही सही ताकत कहीं लुट जाए
‘वियाग्रा’ को अपनाते लोग
लोग ही कहां रहे
अध्यात्म से दूर अब
उन्होंने राह पकड़ ली है
भोग की
और अब वे निकल गए
उस गली से
जहां नुक्कड़ को सड़क
मुड़ती है
नाले से सटे श्मशान घाट को
लकड़ियों के ढेर पर लेटा हो
फूलसिंह पूर्व नेता
या दस्यु सुंदरी चमेली बाई
तो पत्रकार साथी
कैमरा कंधे पर लटकाये
यहां-वहां शॉट लेंगे
या किसी कि ‘बाइट’
और निकाल लेंगे
‘नवयौवना’ एक ही रात में
कंप्रोमाइज कर बैठी
एक ‘सी’ ग्रेड की फिल्म
में अभिनेत्री और
फिर
वही होना था जो
उनका हुआ था
जी हां!
मेहनत करना कोई नहीं चाहता
पंजाब के गांव बिहारियों से
भरे पड़े हैं
अपने खेत में जुतना
मजूरी करना पसंद नहीं
अमृतसर हो या दिल्ली
गाजियाबाद हो या फरीदाबाद
रिक्शा चलाते मिल जायेंगे
बीसियों, तीसियों
चौराहे भरे पड़े हैं
ऐसे लोगों से
जिन्हें काम की तलाश है
और कामियों को कामगारों की
प्रूफ रीडरों, लेखकों
कवियों को मंच की
रचनाओं को कुशल संपादक की
रचनाओं को प्रकाशक की
यानि कारवां लंबा है
ओ माई
क्या गंगा में डुबकी लगाई है
जरा वहां लेना
वहां काई बहुत थी
शायद उसने सुना नहीं
निकल गया
ऐसे ही जिंदगी निकल
जाती है
बहुत पास से और बहुत पास रहते हुए
भी
दो पड़ोसी कभी नहीं मिल पाते
पति-पत्नी में अनबन
रहती है
पता नहीं
जिंदगी कहां रहती है ?
कहां हो जिंदगी
तुम्हारी ही तलाश है
मेरा पता नोट कर लो
या मेरे मेल पर मेल कर देना
मिलते ही जवाब दूंगा
जवाब मुझे पसंद है
चाय पिलाऊंगा गरम-गरम
खांसी ठीक हो जाती है
माँ कहती थी
माँ तो रही नहीं
कोई बात नहीं
चाय तो तुम्हें
पिलाऊंगा ही
यह वायदा रहा
और वायदा मैं –
कभी तोड़ता नहीं
सुना तुमने…
जिंदगी फूस की झोपड़ी / उदयभानु ‘हंस’
ज़िंदगी फूस की झोंपड़ी है,
रेत की नींव पर जो खड़ी है।
पल दो पल है जगत का तमाशा,
जैसे आकाश में फुलझ़ड़ी है।
कोई तो राम आए कहीं से,
बन के पत्थर अहल्या खड़ी है।
सिर छुपाने का बस है ठिकाना,
वो महल है कि या झोंपड़ी है।
धूप निकलेगी सुख की सुनहरी,
दुख का बादल घड़ी दो घड़ी है।
यों छलकती है विधवा की आँखें.,
मानो सावन की कोई झ़ड़ी है।
हाथ बेटी के हों कैसे पीले
झोंपड़ी तक तो गिरवी पड़ी है।
जिसको कहती है ये दुनिया शादी,
दर असल सोने की हथकड़ी है।
देश की दुर्दशा कौन सोचे,
आजकल सबको अपनी पड़ी है।
मुँह से उनके है अमृत टपकता,
किंतु विष से भरी खोपड़ी है।
विश्व के ‘हंस’ कवियों से पूछो,
दर्द की उम्र कितनी बड़ी है।
विचित्र जिंदगी / तरुण भटनागर
१
मौत से बस एक कदम पहले,
डूबते सूरज के पास जाते हुए,
देखी थी,
क्षितिज रेखा,
फैले आकाश,
आैर सिकुड़ी जमीन के बीच।
शांत बादलों,
आैर अपने शहर के हल्ले के बीच।
भागते पक्षी,
आैर गटर किनारे सोते लोगों के बीच।
उभरते अंधेरों,
आैर रोड़ों, चौराहों की चमचमाहट के बीच।
प्रसन्न घर लौटते लोगों,
आैर डूबते सूरज के बीच।
ऊपर आैर नीचे के बीच।
सच आैर झूठ के बीच।
प्यार आैर डर के बीच।
़ ़ ़ ़ ़
बीच वाली,
क्षितिज रेखा,
जिस पर मैं,
मौत तक,
लटका रहा हंू,
बिजली के तार पर,
चिपककर उल्टे लटके,
चमगादड़ की तरह।
२
दिन रिसते हैं,
रिसते रहे हैं,
शताब्िदयों से,
गहरी काली गुफाआें में,
इस उम्मीद में,
कि वे एक दिन,
वहां रौशनी कर देंगे।
यादों की कोख में,
उन दिनों की,
ऐसी कई कहानियां,
कैद हैं,
कैद होती रही हैं,
शताब्िदयों से ़ ़ ़।
३
कई टुकड़े,
एक दूसरे में गंुथे।
हर टुकड़े में,
एक कहानी।
हर कहानी,
शब्द, दर शब्द ़ ़ ़।
हर शब्द के लिए तय,
उसका अपना समय।
हर समय,
क्षितिज के पार,
बर्ह्माण्ड के परे,
सोचने के पार,
जाने कहां से आता है?
पर जहां से आता है,
वहां से लाता है,
नवीनतायें आैर यादें,
जो बदल देती हैं,
उस कहानी को ़ ़ ़।
४
मेरे कहने पर,
बीच रास्ते में,
उसने,
मुझे कैमरे में कैद कर लिया।
फोटोगर्ाफर के डाकर् रूम से निकलकर,
बना हंू,
दीवार पर टंगी,
ब्लैक ऐण्ड व्हाइट फोटो।
पर फिर,
पता चला,
कि, कुछ दिनों बाद,
मैं,
सीपियां रंग का हो जाउंगा,
बरसात में सील सकता हंू,
डिफ्यूज़ सा होकर मिट जाउंगा,
फिर सिफर् सफेद कागज़ ही रह जायेगा,
़ ़ ़ ़ ़
मैं घबरा गया।
मैंने उससे कहा,
वह मुझे पहले जैसा बना दे,
पर वह,
पूछने लगा –
क्या मैं पहले की तरह सांस ले पाउंगा?
कहीं मैं धड़कना भूल तो नहीं गया?
क्या भूला तो नहीं छूकर महसूस करना?
५
धड़कनें फाइलों की तरह,
फाइल नहीं हो पाती हैं।
उनके बंद होने के बाद भी,
एक उम्मीद होती है,
अधूरे छूटे कामों से,
़ ़ ़ ़ ़ ़
गुमशुदा लोगों की तरह,
जिनकी कोई –
अंत्येष्टी, चिता, कबर् ़ ़ ़
कभी नहीं,
कहीं नहीं,
जो चाहकर भी,
नहीं पा सकते हैं,
मौत का वीज़ा।
६
उसे पत्र लिखते समय,
मुझे नहीं मालूम था,
कि वह मर चुका है।
पर,
रिडायरेक्ट होकर मिलने पर,
उस पत्र में,
मैंने सिफर् उसके ही शब्द पाये,
मानो बदल गये हों,
मेरे अपने शब्द,
या,
मैंने खो दी हो,
अपने ही शब्दों को पहचानने की क्षमता।
उसके शब्द,
मेरे शब्दों को मिटाकर,
या उनपर करेक्शन फ्ल्यूड लगाकर,
फिर से नहीं लिखे गये थे,
उन्होंने,
बस मेरे शब्दों का मतलब बदल दिया था।
ये असंगति जिन्दगी के द्वार सौ-सौ बार रोई / भारत भूषण
ये असंगति जिन्दगी के द्वार सौ-सौ बार रोई
बांह में है और कोई चाह में है और कोई
साँप के आलिंगनों में
मौन चन्दन तन पड़े हैं
सेज के सपनो भरे कुछ
फूल मुर्दों पर चढ़े हैं
ये विषमता भावना ने सिसकियाँ भरते समोई
देह में है और कोई, नेह में है और कोई
स्वप्न के शव पर खड़े हो
मांग भरती हैं प्रथाएं
कंगनों से तोड़ हीरा
खा रहीं कितनी व्यथाएं
ये कथाएं उग रही हैं नागफन जैसी अबोई
सृष्टि में है और कोई, दृष्टि में है और कोई
जो समर्पण ही नहीं हैं
वे समर्पण भी हुए हैं
देह सब जूठी पड़ी है
प्राण फिर भी अनछुए हैं
ये विकलता हर अधर ने कंठ के नीचे सँजोई
हास में है और कोई, प्यास में है और कोई
मिलती है जिंदगी में मोहब्बत कभी कभी / साहिर लुधियानवी
मिलती है ज़िंदगी में मोहब्बत कभी-कभी
होती है दिल्बरों की इनायत कभी-कभी
शर्मा के मुँह न फेर नज़र के सवाल पर
लाती है ऐसे मोड़ पर क़िस्मत कभी-कभी
खुलते नहीं हैं रोज़ दरिचे बहार के
आती है जान-ए-मन ये क़यामत कभी-कभी
तनहा न कट सकेंगे जवानी के रास्ते
पेश आएगी किसीकी ज़रूरत कभी-कभी
फिर खो न जाएँ हम कहीं दुनिया की भीड़ में
मिलती है पास आने की मुहलत कभी-कभी
होती है दिलबरों की इनायत कभी-कभी
मिलती है ज़िंदगी में मोहब्बत कभी कभी
जिंदगी उसकी ज़माना भी उसी का होता / डी. एम. मिश्र
जिंदगी उसकी ज़माना भी उसी का होता
जिसकी आँखों में कोई ख़्वाब सुहाना होता।
मंजिलें उसकी, रास्ते भी उसी के होते
अपने पाँवों पे जिसे पूरा भरोसा होता।
किसी इन्सान को पहचानना आसां है कहाँ
एक चेहरे पे चढ़ा और भी चेहरा होता।
अब किसे ग़ैर कहें सब तो यहाँ अपने हैं
जख़्म देकर जो गया क़ाश दूसरा होता।
खुली किताब / बिन्देश्वर प्रसाद शर्मा ‘बिन्दु’
जिंदगी खुली किताब यारों
चाहे जो कोई पढ़ ले
आ जाये पसंद अगर तो
दिल में उसको मढ़ ले।
दो पहिए पर चलती है ये
खुशी-गम की गाड़ी
चित्मन भी ठंढी पड़ जाती
गरम खून की नाड़ी।
चार दिन की जिंदगी में
चाहे जो भी कर ले
जिंदगी खुली किताब यारों
चाहे तो इसे पढ़ ले।
प्यार से कोई रूठ जाता
कोई प्यार में जाता लुट
धागा कमजोर है इतना
झटके में जाता टूट।
ये दुनिया अनजान इतना
चाहे जितना भी बन ले
जिंदगी खुली किताब यारों
चाहे तो कोई पढ़ ले।
मानवता का पाठ पढ़ानें
कौन यहाँ पर आयेगा
छल-कपट में रहने वाला
क्या अब पाठ पढ़ायेगा।
बहुत कम इंसान बचे हैं
अपने को तुम गढ़ ले
जिंदगी खुली किताब यारों
चाहे तो कोई पढ़ ले।
गुलों की तरह हमने जिंदगी को इस कदर जाना / बशीर बद्र
गुलों की तरह हमने ज़िन्दगी को इस क़दर जाना
किसी की ज़ुल्फ़ में एक रात सोना और बिखर जाना
अगर ऐसे गये तो ज़िन्दगी पर हर्फ़ आयेगा
हवाओं से लिपटना, तितलियों को चूम कर जाना
धुनक के रखा दिया था बादलों को जिन परिन्दों ने
उन्हें किस ने सिखाया अपने साये से भी डर जाना
कहाँ तक ये दिया बीमार कमरे की फ़िज़ा बदले
कभी तुम एक मुट्ठी धूप इन ताक़ों में भर जाना
इसी में आफ़िअत है घर में अपने चैन से बैठो
किसी की सिम्त जाना हो तो रस्ते में उतर जाना
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