Hindi Poems on Zindagi – Life या ज़िन्दगी पर हिन्दी कविताएँ. इस आर्टिकल में बहुत सारी हिन्दी कविताओं का एक संग्रह दिया गया है जिनका विषय ज़िन्दगी (Zindagi – Life) पर आधारित है.
ज़िन्दगी पर हिन्दी कविताएँ – Hindi Poems On Zindagi
Contents
- 1 ज़िन्दगी पर हिन्दी कविताएँ – Hindi Poems On Zindagi
- 1.1 लहूलुहान हुई है ये जिंदगी देखो / त्रिपुरारि कुमार शर्मा
- 1.2 बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं / फ़िराक़ गोरखपुरी
- 1.3 जिंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात / साहिर लुधियानवी
- 1.4 कितना आसान लगता था / श्रद्धा जैन
- 1.5 ज़िन्दगी यूँ हुई बसर तन्हा / गुलज़ार
- 1.6 जिंदगी हो गई हाज़िरी की तरह / ‘सज्जन’ धर्मेन्द्र
- 1.7 गुनाहों से भरी है यह नापाक जिंदगी मेरी / हनुमानप्रसाद पोद्दार
- 1.8 बरसात, रेत और जिंदगी / अश्वनी शर्मा
- 1.9 मौत को पढ़ रही है जिंदगी / केदारनाथ अग्रवाल
- 1.10 बिखरे छंद जिंदगी के / राजेश श्रीवास्तव
- 1.11 Related Posts:
लहूलुहान हुई है ये जिंदगी देखो / त्रिपुरारि कुमार शर्मा
लहूलुहान हुई है ये जिंदगी देखो
ज़रा-सी तुम मेरे ज़ख्मों की ताजगी देखो
कहीं पे सिर्फ़ दो लाशों के लिए ताजमहल
कहीं पे सैकडों लोगों की मुफलिसी देखो
बहार कैसी है कैसा है बाग़बा देखो
चमन में झूमते फूलों की खुदकशी देखो
मकान बन गए हैं फिर यहाँ पे घर सारे
जनाब टूटते रिश्तों में दिलकशी देखो
न जाने कब से ये चलती हैं कागजी बातें
मैं चाहता हूँ कि तुम आज सत्य भी देखो
सही-ग़लत को परख तो रहा है वो लेकिन
तुम उसके द्वार की कम होती रौशनी देखो
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं / फ़िराक़ गोरखपुरी
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ऐ ज़िन्दगी, हम दूर से पहचान लेते हैं।
मेरी नजरें भी ऐसे काफ़िरों की जान ओ ईमाँ हैं
निगाहे मिलते ही जो जान और ईमान लेते हैं।
जिसे कहती दुनिया कामयाबी वाय नादानी
उसे किन क़ीमतों पर कामयाब इंसान लेते हैं।
निगाहे-बादागूँ, यूँ तो तेरी बातों का क्या कहना
तेरी हर बात लेकिन एहतियातन छान लेते हैं।
तबियत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हम ऐसे में तेरी यादों के चादर तान लेते हैं
खुद अपना फ़ैसला भी इश्क में काफ़ी नहीं होता
उसे भी कैसे कर गुजरें जो दिल में ठान लेते हैं
हयाते-इश्क़ का इक-इक नफ़स जामे-शहादत है
वो जाने-नाज़बरदाराँ, कोई आसान लेते हैं।
हमआहंगी में भी इक चासनी है इख़्तलाफ़ों की
मेरी बातें बउनवाने-दिगर वो मान लेते हैं।
तेरी मक़बूलियत की बज्हे-वाहिद तेरी रम्ज़ीयत
कि उसको मानते ही कब हैं जिसको जान लेते हैं।
अब इसको कुफ़्र माने या बलन्दी-ए-नज़र जानें
ख़ुदा-ए-दोजहाँ को देके हम इन्सान लेते हैं।
जिसे सूरत बताते हैं, पता देती है सीरत का
इबारत देख कर जिस तरह मानी जान लेते हैं
तुझे घाटा ना होने देंगे कारोबार-ए-उल्फ़त में
हम अपने सर तेरा ऎ दोस्त हर नुक़सान लेते हैं
हमारी हर नजर तुझसे नयी सौगन्ध खाती है
तो तेरी हर नजर से हम नया पैगाम लेते हैं
रफ़ीक़-ए-ज़िन्दगी थी अब अनीस-ए-वक़्त-ए-आखिर है
तेरा ऎ मौत! हम ये दूसरा एअहसान लेते हैं
ज़माना वारदात-ए-क़्ल्ब सुनने को तरसता है
इसी से तो सर आँखों पर मेरा दीवान लेते हैं
‘फ़िराक’ अक्सर बदल कर भेस मिलता है कोई काफ़िर
कभी हम जान लेते हैं कभी पहचान लेते हैं
जिंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात / साहिर लुधियानवी
ज़िंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात
एक अनजान हसीना से मुलाक़ात की रात
ज़िंदगी भर नहीं भूलेगी …
हाय वो रेशमी ज़ुल्फ़ों से बरसता पानी
फूल से गालों पे रुकने को तरसता पानी
दिल में तूफ़ान उठाते हुए
दिल में तूफ़ान उठाते हुए हालात की रात
ज़िंदगी भर नहीं भूलेगी …
डर के बिजली से अचानक वो लिपटना उसका
और फिर शर्म से बल खाके सिमटना उसका
कभी देखी न सुनी ऐसी हो
कभी देखी न सुनी ऐसी तिलिस्मात की रात
ज़िंदगी भर नहीं भूलेगी …
सुर्ख आँचल को दबाकर जो निचोड़ा उसने
दिल पे जलता हुआ एक तीर-सा छोड़ा उसने
आग पानी में लगाते हुए
आग पानी में लगाते हुए जज़बात की रात
ज़िंदगी भर नहीं भूलेगी …
मेरे नग़्मों में जो बसती है वो तस्वीर थी वो
नौजवानी के हसीं ख़्वाब की ताबीर थी वो
आसमानों से उतर आई थी जो रात की रात
ज़िंदगी भर नहीं भूलेगी …
[लता:]
ज़िंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात
एक अनजान मुसाफ़िर से मुलाक़ात की रात
ज़िंदगी भर नहीं भूलेगी
हाय जिस रात मेरे दिल ने धड़कना सीखा
शोख़ जज़बात ने सीने में भड़कना सीखा
मेरी तक़दीर में निखरी हुई, हो
मेरी तक़दीर में निखरी हुई सरमात की रात
ज़िंदगी भर नहीं भूलेगी
दिल ने जब प्यार के रंगीन फ़साने छेड़े
आँखों-आँखों ने वफ़ाओं के तराने छेड़े
सोज़ में डूब गई आज वही
सोज़ में डूब गई आज वही नग़्मात की रात
ज़िंदगी भर नहीं भूलेगी
[रफ़ी]
रूठनेवाली !
रूठनेवाली मेरी बात पे मायूस ना हो
बहके-बहके ख़्यालात से मायूस ना हो
ख़त्म होगी ना कभी तेरे, हो
ख़त्म होगी ना कभी तेरे मेरे साथ की रात
ज़िंदगी भर नहीं …
कितना आसान लगता था / श्रद्धा जैन
कितना आसान लगता था
ख़्वाब में नए रंग भरना
आसमाँ मुट्ठी में करना
ख़ुश्बू से आँगन सजाना
बरसात में छत पर नहाना
कितना आसान लगता था
दौड़ कर तितली पकड़ना
हर बात पर ज़िद में झगड़ना
झील में नए गुल खिलाना
कश्तियों में, पार जाना
कितना आसान लगता था
जिंदगी में पर हक़ीक़त
ख़्वाब सी बिलकुल नहीं है
जिंदगी समझौता है इक
कोई जिद चलती नहीं है
जिंदगी में पर हक़ीक़त
ख़्वाब सी बिलकुल नहीं है
ज़िन्दगी यूँ हुई बसर तन्हा / गुलज़ार
ज़िंदगी यूँ हुई बसर तन्हा
क़ाफिला साथ और सफ़र तन्हा
अपने साये से चौंक जाते हैं
उम्र गुज़री है इस क़दर तन्हा
रात भर बोलते हैं सन्नाटे
रात काटे कोई किधर तन्हा
दिन गुज़रता नहीं है लोगों में
रात होती नहीं बसर तन्हा
हमने दरवाज़े तक तो देखा था
फिर न जाने गए किधर तन्हा
जिंदगी हो गई हाज़िरी की तरह / ‘सज्जन’ धर्मेन्द्र
ज़िंदगी हो गई हाज़िरी की तरह।
हाज़िरी हो गई ज़िंदगी की तरह।
काम देते नहीं मेरे मन का मुझे,
और कहते हैं कर बंदगी की तरह।
प्यार करने का पहले हुनर सीख लो,
फिर इबादत करो आशिकी की तरह।
था वो कर्पूर रोया नहीं मोम सा,
नित्य जलता गया आरती की तरह।
रोज़ दिल के सभी राज़ मुझसे कहे,
फिर छुपाए मुझे डॉयरी की तरह।
एक दो झूठ जो उनके हक में कहे,
उसको मानेंगे वो ज्योतिषी की तरह।
वन से आई ख़बर सुन नगर काँपता,
जानवर हो गए आदमी की तरह।
गुनाहों से भरी है यह नापाक जिंदगी मेरी / हनुमानप्रसाद पोद्दार
गुनाहोंसे भरी है यह नापाक जिंदगी मेरी।
परवरदिगार! कभी न गई गुनाहोंपर नजर तेरी॥
तूने हमेशा मुझ गुनहगारपर नजरे मेहर की।
प्यारसे पास बिठलाया, कभी भी दुत्कार न दी॥
कहा-’बच्चे! तुझ बेसमझके सारे गुनाह माफ हैं।
तेरे लिये मेरी रहमका रास्ता सदा साफ है’॥
क्या शुक्रिया अदा करूँ, मालिक! मैं खादिम तेरा।
कदमोंमें पड़ा रख औ कहता रह-’तू गुलाम मेरा’॥
बरसात, रेत और जिंदगी / अश्वनी शर्मा
टूट कर बरसी बरसात के बाद
इन टीलों पर
बहुत आसान होता है
रेत को किसी भी रूप में ढालना
मेरे पांव पर
रेत को थपक-थपक कर
तुम ने जो इग्लुनुमा
रचना बनाई थी
कहा था उसे घर
मैं भी बहुत तल्लीनता से
इकटठ्े कर रहा था
उसे सजाने के सामान
कोई तिनका, कंकर, कांटा
किसी झाड़ी की डाली
कोई यूं ही सा
जंगली फूल
चिकनी मिट्टी के ढेले
तुमने सबको
कोई नाम कोई अर्थ
दे दिया था
अगले दिन जब
हम वहां पहुंचे
तो कुछ नहीं था
एक आंधी उड़ा ले गयी थी
सब कुछ
रेत ने
महसूस किये थे
हमारे वो
सूखे आंसू
रूंधे गले
सीने में उठती पीर
और पेट में
उड़ती तितलियां
तब हम कितनी शिद्दत से
महसूस करते थे
छोटे-छोटे सुख-दुःख
कहां जानता था तब मैं
जिन्दगी ऐसे ही
घरौंदे बनाने
और सुख-दुःख सहेजने का नाम है।
मौत को पढ़ रही है जिंदगी / केदारनाथ अग्रवाल
मौत को पढ़ रही है जिंदगी
जो मर गई है
अमेरिकी अनाज पाकर
कर्ज का जाज बजाकर
रचनाकाल: १९-१०-१९६७
बिखरे छंद जिंदगी के / राजेश श्रीवास्तव
किसी अतुकांत कविता की तरह
बिखर गए हैं छंद-तुम्हारी मेरी जिंदगी के।
कई पंक्तियों में मिलकर भी हम प्रश्नचिह्न हो जाते हैं
हम दो बंजारे शब्द रुके भी तो विराम खो जाते हैं
कितनी विसंगतियों के हाशिए
छोड़ बैठे हम मासूम अध्याय में सादगी के।
कहीं भी किसी भी मोड़ पर जिंदगी में सम नहीं होते
समझौते ही टकराते हैं केवल हम नहीं होते
कभी स्वार्थ, कभी लालच, कभी डर
क्या-क्या न अर्थ निकाले हमने बंदगी के।
कभी लय नहीं मिलती, कभी ताल तो कभी तुक नहीं होती
अब मिलने में जाने क्यूं पहले-सी कुहुक नहीं होती
फिर भी अच्छे खासे अभिनेता हैं हम
रिश्तों-नातों की रस्मों की अदायगी के।
पंचमाक्षरों–सी अब कोमलता नहीं, मीठी-मधुर ताल नहीं
फिर भी मलाल ये है किसी को भी ज़रा-सा मलाल नहीं
चंद बासी कटुताएं अब तक क्यूं
पाले बैठे हो तुम ताजमहल में ताज़गी के।
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