Hindi Poems on Water या पानी पर हिन्दी कविताएँ. इस आर्टिकल में बहुत सारी हिन्दी कविताओं का एक संग्रह दिया गया है जिनका विषय पानी (Water) पर आधारित है.
Water Poems in Hindi – पानी (जल) के विषय पर हिन्दी कविताएँ
Contents
- 1 Water Poems in Hindi – पानी (जल) के विषय पर हिन्दी कविताएँ
- 1.1 पानी की पुकार! / मंजुश्री गुप्ता
- 1.2 पानी / लक्ष्मीप्रसाद देवकोटा
- 1.3 पानी के बुलबुले / फ़ेर्नान्दो पेस्सोआ
- 1.4 पानी रे पानी तेरा रंग कैसा / संतोषानन्द
- 1.5 आग पानी हुई, हुई, न हुई / बलबीर सिंह ‘रंग’
- 1.6 पानी में सूर्य-किरण टूटी / योगेन्द्र दत्त शर्मा
- 1.7 पानी / अभिनंदन
- 1.8 मिट्टी का जिस्म लेके मैं पानी के घर में हूँ / राजेश रेड्डी
- 1.9 पानी में मीन प्यासी / मीराबाई
- 1.10 पानी को क्या सूझी / भवानीप्रसाद मिश्र
- 1.11 पानी / श्रीनाथ सिंह
- 1.12 ग़म की नदी में उम्र का पानी ठहरा-ठहरा लगता है / शीन काफ़ निज़ाम
- 1.13 पानी बहता है / प्रेमशंकर शुक्ल
- 1.14 पानी / अविनाश
- 1.15 मैं पानी हूँ / शरद चन्द्र गौड़
- 1.16 पानी के गीत / चन्द्रकुंवर बर्त्वाल
- 1.17 पानी / श्रीप्रसाद
- 1.18 Related Posts:
पानी की पुकार! / मंजुश्री गुप्ता
मैं…
नदियों और समुद्रों से भाप बन उड़ता
बादलों में समाता
फिर बरसता
तुम्हारे घर आंगन ,झीलों ,नदियों
वन, उपवन में
आकांक्षा यही है मेरी
कोई प्यासा न रहे
वन उपवन
हरे भरे रहें…
मगर तुम क्या कर रहे हो?
तुम्हारी संख्या तो
बढती ही जा रही है
कैसे बुझाऊँ तुम सबकी प्यास?
दिन प्रति दिन
भीड़ ही भीड़
तालाब, कुओं बावडियों,
झीलों को पाट कर
वनों वृक्षों को काट कर
उगा रहे हो कंक्रीट के जंगल
जब मैं बरसता हूँ
मुझे बहा देते हो नालों में- व्यर्थ
क्या संचित नहीं कर सकते थे मुझे?
कि कुछ और लोगों की
प्यास बुझ जाती!
और कुछ और वृक्ष हरे हो जाते?
मेरी उपेक्षा क्यों?
क्योंकि मैं बहुत सस्ता हूँ इसलिए?
मैं नाराज और उदास हूँ
ख़त्म हो रहा हूँ
बहुत जल्दी जब मैं
तुम्हारे बीच नहीं रहूँगा
तब समझ आयेगी तुम्हे मेरी कीमत
बोतलों की जगह
शीशियों में खरीदोगे मुझे
लड़ोगे तीसरा विश्व युद्ध
तो याद करोगे कि
किस तरह बर्बाद किया था
मुझे बेदर्दी से
वह दिन ज्यादा दूर नहीं
जब रह जाएगी सिर्फ कहानी
कि इस सूखी धरती पर
कभी होता था पानी!
पानी / लक्ष्मीप्रसाद देवकोटा
क.
पानीजस्तो के छ जगत्मा ?
पानी !
रानी, सब रसकी !
ख.
आम्लजन औ जलजनकी यी
कस्ती मधुर मिलन !
कस्ती तरल मिलन !
दुई प्रेमीले संसार बसाए
यस जलमा !
दुई बिलाई एक बनेथ्यो
तत्व यसैमा, कोमलमा !
प्यारका आँखा चार, बराबर,
जल बन्छन् ! जल बन्छन्,
दुईटा दिलका दूरालिङ्गन,
भावित सङ्गम,
बाफ उडीकन, बादल बन्छन् !
बादल बन्छन् !
दूरी मिटाउन घर्षन्छन् !
सम्झनाका बिजुली–लहरा
विलसन्छन् क्या
द्रवाभिपुख ती पानीमा !
हृदयले सारा रस नै निचोरी,
बाहिर झिक्दा,
आउँछन् पानी, नानीमा !
ग.
पानी–रानी आइरहिछन्
ज्येठको दिनमा गगनमा !
धुवा भुवामा, धुवा भुवामा,
शानी गतिमा, बगुवामा !
घुम्टो डाली,
माकुर–जाली
पर्दा–नशीन झैं, पर्दा–नशीन झैं, वरुणकुमारी,
सुकुमारी !
रत्नाञ्चला छन् भारी, प्यारी !
वायुप्ङखी चढीरहिछन्, लगाम रोकी
पर्वतवारि !
पाश्र्वमा छ चाँदीपत्ती कुँदिएको क्या
जलझारी !
फटिक महलमा भेट्न उमाकन
बढ्छिन् उत्तरतिर ती, के ? भन !
कोमलताले खुशले चुमिई
वनस्थली क्या मस्की !
पानी आइन् !
कविकी कहानी
पानी, रानी सब रसकी !
घ.
उत्तर लम्क, उत्तर लम्क !
स्वागत गर्छौ नेपाली !
खुस्की मोती–पोल्टो, छम्क,
झर्र झमटमा गानाको धन,
पुलकित तृणमा अफाली !
ङ.
पृथिवी परिथिन् विविध कटौरा
पक्रन, पहिलो वर्षणमा !
देश देशका सिमाना सब,
नीला, लगायौ तिमीले रानी !
प्रथम प्रलयको घर्षणमा !
पर्वतबाट खेल्यौ सुरेली
बेल्यौ बनायौ गर्त, दरी !
पृथ्वीको यो अनेहार बनायौ,
शिल्पिवरी !
समतल, अवतल, उत्तल सुन्दर !
आरोहण औ अवरोहणको
सङ्गीत सरि !
तिम्रा पद, पद, पन्ना उब्ज्यो,
हरियो लाग्यो सुन्दरता !
सभ्यताले मन्दिर पायो,
दुनियाँ बन्यो, भो जग–रमिता !
पहिलो भाषा, शब्दको खानी !
पहिलो चित्र, नभपट भित्र,
पहिलो शिल्प हिमानी !
दृगमा रसायौ पहिलो प्रीति
सलिल तरङ्ग हो पहिला गीति !
नाच्न सिकेथ्यो चराचरले,
तिम्रै तरल पयरले !
पानी ! पानी ! जादूगर्नी !
सभ्यता हो तिम्री छोरी !
तारीफ तिमी छौ दिशि दशकी !
पानी ! रानी सब रसकी !
च.
लहडी नानी !
ए पानी !
वसन–गुलाफी, श्रृङ्गार–सुनौली,
उषालु वेला,
दिव्य गगनमा, क्या स्वर्बाला !
अनुपम, नौली !
करबाल लिएकी बिजुली, चमचम,
वर्षा–समरको भूमि गगनमा,
हाँक्दा वीरा रुपौली !
आँधिकेशर आरुढा तिमी
कालो कराली,
सङ्क्रान्ति–कालकी गजौंली !
बीभत्स–स्वरुपिणीमा
बष्यौंली !
पुस्करिणीमा शान्तरसकी
स्वर प्रतिविम्बी दर्पण निश्चल
साधु उरझै्र झल्कौली !
उत्तुङ्ग शिखरमा वसुन्धरा
तिमी तपस्विनी ज्ञानी !
सेती, फटिक हिमानी !
पार्वतीकी रोगन शानी !
उच्चताकी अमर कहानी !
ध्यानी !
शिवकी प्रिया छौ,
स्वर्णदीपिका भाव–शिखरले पूजा गर्दी
शङ्कपद अभिमानी !
ए पानी !
छ.
बुरबुर चीनी सल्लाघारीहरुमा राति
बुट्टा जाति, बहुभाँति !
सुस्त हवाको चलनीद्धारा
छिर्दै, मधुकर मैदा झाछर्यौ !
एकान्तलाई पाउडर लगाई,
सफेद सिंगाछर्यौ !
पर्वतबाट हाम्फालेर,
समतल सम्झी,
माइती जाने बाटो वेली
नूपुर पछाछर्यौ !
चल्दाचल्दै बाटामा तिमी
पलपल उपल, उपलमा कोमल
चाँदी–बेली सिंगाछर्यौ !
ढुङ्गालाई बोल दिईकन बुलबुल पाछर्यौ !
अथवा, चिसापानी गढीमा,
हिउँका पुतली फुरफुर झाछर्यौ !
अथवा सुन्दरताको स्वपना
रँगिलो धुनमा लच्का माछर्यौ !
अथवा तीतरपङ्खहरुले
व्योम बराबर सुन्दर सिंगाछर्यौ ।
अथवा, एकली वाष्पिल तरणी
नीलो दधिमा विहरी तछर्यौ ।
अथवा, बेरी इन्दुलाई सौन्दर्यक्षुधाले,
मस्त सुधाले,
भूवातनका स्नायु लस्दी,
विस्मृत गति भई क्षणभर बस्दी
अमृतगोला छाती हाली
चकोर भूचर डाहा भछर्यौ
अहिले तहतह चाँगीचाँगी
हाँगा हाँगी
पत्ती कुँदेकी, चमकी चाँदी,
दक्षिणबाट उताछर्यौ !
अस्पष्टताकी मोहनी बन्दा
हेमन्त–कुहर भै क्या झछर्यौ !
अथवा सानो पुत्लो मन्त्री ,
उपत्यका नै क्या भछर्यौ !
पहाड पाखा–पटुकी भे वा,
कोमल मलमल क्या बेछर्यौ !
साँझ, बिहान, स्वर्गका लहँगा,
रँगरँग ठाटी, क्या धछर्यौ !
गरीब शब्दावली नै अड्छे
आफै झस्की !
पानी ! रानी सब रसकी !
ज.
फूल–जरामा पस्दी रानी !
पूmल–कोपीमा बस्दी रानी !
शीत–विन्दुमा खस्दी रानी !
किरणहरुमा लस्दी रानी !
हे महाध्र्या पानी !
झ.
ढुङ्गा अजङ्गका
बोकी, वम्का मारी दम्की
भूमा धम्की,
वृक्ष उखेडी ढयाम्मै पारी
खाडी डम्की,
उम्किन्छयौ जब उग्र गतिले,
मच्चाईकन भीषण उत्सव
बाढी गौरव !
रिसले उर्ली,
फींजका फौज बटारी, हुरली,
क्रान्तिनादिनी वेगकी काली
हेर्दछु केवल, रसनाबद्ध,
उग्र प्रशंसा पाली ।
जब हे ! पर्वत–छाm उछाली
हान्छयौ धराका ठोस किनारा,
सारा !
‘पोथी क्रोध’ म भन्छु तिमीकन
भीमा भामिनी !
ध्वंसकी दामिनी
‘माता’ भन्दछु ‘सब रसकी ! ’
पानी ! रानी सब रसकी !
ञ.
सागरकी काली !
सागर–नीलो
हिउँकी गौरी !
वज्र–करा !
पर्वत–शिल्पिनि !
ध्वंस–प्रजल्पिनि !
वर्षा–विलपिनि !
छाँगा–छहरा !
देवि ! तिम्रो रुप छ अनगिन
नाम अनन्त छ पारावार !
माई ! धाई !
वर्णन गर्न तिम्रो आज,
सक्तिन हाई !
केवल गर्छु नमस्कार !
ट.
तर सबभन्दा तिम्रो महिमा
मानवीय दुई नानीमा !
प्यार क्षारकी सिन्धु हे विन्दु !
विश्वगोला बनेर अटाउँछयौ,
दृगनानीमा ! दृगनानीमा
सृष्टिको मुटुको रस भै आउँछयौ
झछर्यौ कविको कहानीमा
तब सरस्वती वीणा रोकी,
क्षणभर हेर्छिन् जिल्ल परीकन,
पानीमा !
विन्दु झिल्किंदो नानीमा !
पानी के बुलबुले / फ़ेर्नान्दो पेस्सोआ
आग के एक बड़े अध-मिटे धब्बे-सा
डूबता सूरज
ठहरे बादलों में कुछ देर ठहर जाता है ।
साँझ के मौन में दूर कहीं
सुनता हूँ सीटी कि धीमी आवाज़ ।
कोई रेलगाड़ी जा रही होगी ।
इस पल में
एक अस्पष्ट-सा विरह मुझे घेर लेता है
साथ ही एक अज्ञात और शान्त-सी चाह
जो आती है, जाती है ।
ऐसे ही, कभी, नदियों की सतह पर,
होते हैं पानी के बुलबुले
जो बनते हैं फिर फूट जाते हैं ।
और उनका कोई अर्थ नहीं होता
सिवाय पानी के बुलबुले होना
जो बनते हैं फिर फूट जाते हैं ।
पानी रे पानी तेरा रंग कैसा / संतोषानन्द
पानी रे पानी तेरा रंग कैसा
जिसमें मिला दो लगे उस जैसा
इस दुनिया में जीनेवाले ऐसे भी हैं जीते
रूखी-सुखी खाते हैं और ठंडा पानी पीते।
तेरे एक ही घूँट में मिलता जन्नत का आराम
पानी रे पानी तेरा रंग कैसा
भूखे की भूख और प्यास जैसा।
गंगा से जब मिले तो बनता गंगाजल तू पावन
बादल से तू मिले तो रिमझिम बरसे सावन
सावन आया सावन आया रिमझिम बरसे पानी
आग ओढ़कर आग पहनकर, पिघली जाए जवानी
कहीं पे देखो छत टपकती, जीना हुआ हराम
पानी रे पानी तेरा रंग कैसा
दुनिया बनाने वाले रब जैसा।
वैसे तो हर रंग में तेरा जलवा रंग जमाए
जब तू फिरे उम्मीदों पर तेरा रंग समझ ना आए
कली खिले तो झट आ जाए पतझड़ का पैगाम
पानी रे पानी तेरा रंग कैसा
सौ साल जीने की उम्मीदों जैसा।
आग पानी हुई, हुई, न हुई / बलबीर सिंह ‘रंग’
आग पानी हुई, हुई, न हुई,
मेहरबानी हुई, हुई, न हुई।
कौन जाने फिज़ाये ज़न्नत में,
ज़िन्दगानी हुई, हुई, न हुई।
आप हों, हम हों, सारा आलम हो,
ऋतु सुहानी हुई, हुई, न हुई।
सरफिरे दिल के बादशाहों की,
राजधानी हुई, हुई, न हुई।
‘रंग’ हाजिर है बज़्मे याराँ में,
कद्रदानी हुई, हुई, न हुई।
पानी में सूर्य-किरण टूटी / योगेन्द्र दत्त शर्मा
रेती पर एक नाम पढ़ के
आ पहुंचा सूरज रथ चढ़ के!
मौसम ने गंध-पाश खोल दिया
खुशबू को सांसों में घोल दिया
उपवन में मालिन ने पांव धरे
एक फूल तोड़ लिया बढ़ के
हवा मंद-मंद मुसकरा गई
ओसीले स्वप्न हरहरा गई
कलियों ने रस की बौछारें कीं
भौंरों पर व्यर्थ दोष मढ़ के!
तालों में जलमुर्गी झूम गईं
पांखुरियां कमलों की चूम गईं
सूर्य-किरण टूट गई पानी में
सतरंगी रूप खूब गढ़ के!
भाव-विहग चलपड़े उड़ान पर
कल्प-तीर चढ़ गये कमान पर
कविता के पंख कुलमुला गये
छंदों के अंग-अंग फड़के!
पानी / अभिनंदन
पानी ही सें जीव छै, एकरै सें संसार
जे पानी छै प्राण रं, वही बहै बेकार ।
अमृत रं ई पानी के, जे नै समझै मोल
ऊ उत्सव में, पर्व में, एकदम फुट्टा ढोल ।
नै बूझै छै बात केॅ, इखनी उन्मत घोर
बुझतै पानी की छेकै, जखनी सुखतै ठोर ।
पानी चलले जाय छै, एकदम्मे पाताल
की होतै संसार के, वृक्ष-जीव के हाल ।
धन-दौलत के वास्तें, इखनी लड़ै छै लोग
लड़तै पानी वास्तें, ई भी लगतै रोग ।
सतयुग द्वापर ही रहेॅ या कलयुग के काल
पानी किनतै देवता, किन्नर-नर बेहाल ।
पानी पानी राखतै सब लोगोॅ के मान
ओकरोॅ काल नगीच छै, जे यै सें अनजान ।
मिट्टी का जिस्म लेके मैं पानी के घर में हूँ / राजेश रेड्डी
मिट्टी का जिस्म लेके मैं पानी के घर में हूँ
मंज़िल है मेरी मौत, मैं हर पल सफ़र में हूँ
होना है मेरा क़त्ल ये मालूम है मुझे
लेकिन ख़बर नहीं कि मैं किसकी नज़र में हूँ
पीकर भी ज़हरे-ज़िन्दगी ज़िन्दा हूँ किस तरह
जादू ये कौन-सा है, मैं किसके असर में हूँ
अब मेरा अपने दोस्त से रिश्ता अजीब है
हर पल वो मेरे डर में है, मैं उसके डर में हूँ
मुझसे न पूछिए मेरे साहिल की दूरियाँ
मैं तो न जाने कब से भँवर-दर-भँवर में हूँ
पानी में मीन प्यासी / मीराबाई
पानी में मीन प्यासी। मोहे सुन सुन आवत हांसी॥ध्रु०॥
आत्मज्ञानबिन नर भटकत है। कहां मथुरा काशी॥१॥
भवसागर सब हार भरा है। धुंडत फिरत उदासी॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। सहज मिळे अविनशी॥३॥
पानी को क्या सूझी / भवानीप्रसाद मिश्र
मैं उस दिन
नदी के किनारे पर गया
तो क्या जाने
पानी को क्या सूझी
पानी ने मुझे
बूँद–बूँद पी लिया
और मैं
पिया जाकर पानी से
उसकी तरंगों में
नाचता रहा
ररत-भर
लहरों के साथ-साथ
सितारों के इशारे
बाँचता रहा!
पानी / श्रीनाथ सिंह
बादल है पानी की माया।
सागर है पानी की काया।
नदी और तालाब निराले।
गये सभी पानी से ढाले।
पानी में हम नाव चलाते,
पानी में हम रोज नहाते,
पानी में हम पाते मोती,
पानी से ही खेती होती।
पानी में लकड़ी बहती है,
पानी में मछली रहती है,
पानी ही से है हरियाली,
पानी है ईश्वर का माली।
पानी लाओ – पानी लाओ,
प्यास लगी है पानी लाओ।
ठंडा पानी पीता हूँ मैं,
पानी के बल जीता हूँ मैं।
पानी तो है बड़े काम का,
फिर भी मिलता बिना दाम का
ऐसे ही होते वे बच्चे,
जो जग के हैं सेवक सच्चे।
ग़म की नदी में उम्र का पानी ठहरा-ठहरा लगता है / शीन काफ़ निज़ाम
ग़म की नदी में उम्र का पानी ठहरा-ठहरा लगता है
ये फ़िक़रा झूठा है लेकिन कितना सच्चा लगता है
जीत के जज़्बे ने क्या जाने कैसा रिश्ता जोड़ दिया
जानी दुश्मन भी मुझ को अब मेरा अपना लगता है
पापा-पापा कह कर मेरे पास नहीं आया कोई
आज नहीं है वो तो घर भी सहमा सहमा लगता है
चार पलों या चार दिनों में होगा वो महदूद मगर
उम्र के घर में ज़ीस्त का आँगन फैला-फैला लगता है
इस बस्ती की बात न पूछो इस बस्ती का क़ातिल भी
सीधा-सादा भोला-भाला प्यारा-प्यारा लगता है
दरवाज़े तक छोड़ने मुझ को आज नहीं आया कोई
बस इतनी सी बात है लेकिन जाने कैसा लगता है
पानी बहता है / प्रेमशंकर शुक्ल
पानी बहता है
चाहे कहीं भी हो पानी
वह बह रहा है
पत्तेे पर रखा बूँद बह रहा है
बादल में भी पानी बह रहा है
झील-कुआँ का पानी
बहने के सिवा और वहाँ
कर क्या रहा होता है!
गिलास में रखा पानी भी
दरअसल बह रहा है
घूँट में भी पानी
बह कर ही तो पहुँचता है प्यास तक
सूख रहा पानी भी बह रहा है
अपने पानीपन के लिए
मेरे शब्दो ! तुम्हारे भीतर भी तो
बह रहा है स्वर-जल
नहीं तो कहना कैसे होता प्रांजल
पानी बहता है
तभी तक पानी
पानी रहता है !
पानी / अविनाश
अब पीया नहीं जाता पानी
मन बेमन रह जाता है
प्यास बाक़ी
आत्मा अतृप्त
सन चौरासी में पहली बार देखा था फ्रिज
सन चौरानबे में पीया था पहली बार उसका पानी
दो हज़ार चार में अपना फ्रिज था
गर्मी में घर लौटना अच्छा लगता था
बीच-बीच में उठ कर फ्रिज से बोतल निकालना
दो घूँट गले में डाल कर फिर बिस्तर पर लेटना
किताब पढ़ना छत की ओर देखना कुछ सोचना
हमने पानी की यात्रा एक गिलास, एक लोटे से शुरू की थी
आज अपना फ्रिज है फ्रिज में ठंडा होता पानी अपनी मिल्कियत
मौसम बदल रहा है
ठंडा पानी पीया नहीं जाता
कम ठंडा भी गले से उतरता नहीं
ज़रूरत भर ठंडा पानी जब तक कहीं से आये
प्यास धक्का देकर कहीं भाग जाती है
कैसे लोग होते हैं वे
जिनकी प्यास जैसे ही लगती है बुझ जाती है!
सचिवालय का किरानी पीने भर ठंडा पानी कहाँ से मंगवाता है!
क्या दिल्ली में मिलता है पानी!
यमुना किनारे बसे लोग तो पानी के नाम से ही काँपते होंगे
सुना है प्रधानमंत्री के लिए परदेस से आता है पानी
थक कर प्यास से बेकल घर पहुँच कर भी
पानी भरा हुआ गिलास मेरी हथेलियों के बीच फँसा है
बहुत ठंडा है बहुत गर्म
हम साधारण आदमी का सफ़र फिर से शुरू करना चाहते हैं
नगरपालिका के टैंकर के आगे कतार में खड़े होना चाहते हैं
बस से उतर कर पारचून की दुकानों में सजी बंद बोतलों से मुँह चुराना चाहते हैं
सड़क पर ठेले का पानी मिलता है सिर्फ़ पचास पैसे में
एक के सिक्के में दो गिलास
पर इसमें मिट्टी की बास आती है
गले में खुश्की जम जाती है
मुझे रुलाई आती है
मुझे ज़ोर की प्यास सताती है!
मैं पानी हूँ / शरद चन्द्र गौड़
मैं पानी हूँ
आपकी आँखों का पानी
प्यासे की प्यास
बुझाने वाला पानी
रंगहीन, गंधहीन पानी
झील नदी नालों
पोखरों
तालाब और कुँए का पानी
वर्षा का पानी
ओस का पानी
समुन्दर का लहलहाता
इठलाता बलखाता पानी
बर्फ़ का जमा
बादलों का वाष्पित पानी
नदियों में बहता
तालाब पोखरों में बँधता
बादलों में आसमान छूता
उड़ता बरसता
फिर बहता
मैं रूकता नहीं
मैं चलता रहता हूँ
अपनी मंज़िल की ओर
सारा जहाँ मेरी मंज़िल
समंदर मेरा अन्तिम पड़ाव
जहाँ पर भी
मैं मारता हिलोरे
और उड़ जाता
बादल बन कर
मेरे बिना जीवन नहीं
मेरे बिना जग नहीं
मैं ना गिरूँ तो
पड़ जाता सूखा
मैं बरस पड़़ूँ
तो आ जाती बाढ़
मेरे जीवन चक्र
को मत रोको
मैं अनमोल हूँ
मुझे सहेजो
पानी के गीत / चन्द्रकुंवर बर्त्वाल
कविता का एक अंश ही उपलब्ध है । शेषांश आपके पास हो तो कृपया जोड़ दें या कविता कोश टीम को भेज दें
युवती थी काँख में
सूनी गागर लिए
आती है दूर निज
उर को केन्द्रित किए
पानी के पास आ,
गगरी जल में डुबा
जल का कल शब्द सुन
तन-मन की सुध भुला
उठती क्यों गुनगुना ?
पानी / श्रीप्रसाद
मुँह धोऊँगा पानी से
मुन्ना बोला नानी से
प्यासे पानी पीते हैं
पानी से हम जीते हैं
जाने कब से पानी है
कितनी बड़ी कहानी है
कहीं ओस है, बर्फ कहीं
पानी ही क्या भाप नहीं
सब रूपों में पानी है
कहती ऐसा नानी है
नदियाँ बहतीं कल-कल-कल
झरने गाते झल-छल-छल
तालों में लहराता जल
कुओं में आता निर्मल
धरती पर जीवन लाया
खेत सींचकर लहराया
करता है यह कितने काम
कभी नहीं करता आराम
पर जब बाढ़ें लाता है
भारी आफत ढाता है।
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ati sundar , bhahut ,hi acha bhut ki acha