इस article से हम विक्रम और बेताल की कहानियां शुरू करने जा रहें हैं, जिसमे सबसे पहले है इस कहानी का प्रारंभ, जोकि नीचे दिया गया है. (Start of Vikram and Betal Story)
प्रारंभ
यह कहानी बहुत प्राचीन काल की है । उस समय उज्जयिनी में चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य का शासन था । विक्रमादित्य एक प्रजा वत्सल राजा थे । उनकी न्यायप्रियता के चर्चे दूर-दूर तक प्रसिद्ध थे । राज्य की समूची प्रजा अपने राजा से बहुत स्नेह करती थी । राजा विक्रमादित्य भी प्रत्येक व्यक्ति की सहायता के लिए सदैव तत्पर रहते थे । नित्य ही वे निर्बल, दीन-दुखी लोगों को दान-दक्षिणा दिया करते थे । सज्जन एवं धर्म-परायण व्यक्ति सदैव उनके दरबार में प्रतिष्ठा प्राप्त करते थे । एक दिन उनके पास एक योगी आया । शिष्टाचार के अनुसार राजा ने अपने सिंहासन से उठकर उसका सम्मान किया और उसे बैठने के लिए एक ऊंचा आसन दिया । योगी ने राजा को आशीर्वाद दिया और फिर अपने कंधे पर लटके झोले में से चंदन की लकड़ी से निर्मित एक खूबसूरत काष्ठ-मंजूषा निकालकर राजा को भेंट में दी । राजा ने काष्ठ-मंजूषा खोलकर देखी तो उसके अंदर एक बहुत ही खूबसूरत रत्न दिखाई दिया । राजा उस रत्न को हथेली पर रखकर उलट-पुलटकर देख ही रहा था कि योगी उठा और राजा को बगैर कुछ बताए चुपचाप वहां से चला आया । राजा उसकी दी हुई भेंट के बदले उसे कुछ भी न दे सका ।
दो दिन बाद वह योगी फिर राजा के दरबार में पहुंचा । पहले की तरह इस बार भी उसने एक मूल्यवान भेंट राजा को दी और राजा से बिना कोई दान-दक्षिणा लिए वहां से बाहर चला आया । तीसरी बार जब वह राजा के पास अपनी एक अन्य भेंट लेकर पहुंचा तो राजा ने उससे पुछा- “हे योगीराज! आप दो बार हमें बेशकीमती रत्न भेंट कर चुके हैं । अब आप तीसरी बार फिर हमें कोई बहुमूल्य वस्तु भेंटस्वरूप देना चाहते हैं । हम इसका कारण जानना चाहते हैं । आप हमें बताइए कि किस कारण से आप हमें ये उपहार भेंटस्वट्रप दे रहे हैं ?”
योगी बोला- “राजन! यह बात तो आप भी भली- भांति जानते होंगे कि इस स्वार्थी दुनिया में कोई भी व्यक्ति किसी को अकारण ही कोई भेंट नहीं दिया करता । मेरी इस भेंट को आपको देने के पीछे भी एक रहस्य है, जो मैं आपको एकांत में बताऊंगा ।“
योगी के ऐसा कहने पर राजा उसे एक एकांत कक्ष में ले आया । वहां योगी ने उसे बताया-‘ ‘ राजन! जैसा कि आप देख ही रहे हैं कि मैं एक योगी हूं और एक अनुष्ठान कर रहा हूं। नगर से बाहर कोस के फासले पर मेरी कुटिया है, जहां मैं उस अनुष्ठान को कुछ पूरा करने के लिए कृत संकल्प हूं र लेकिन वह अनुष्ठान तब तक पूरा नहीं हो सकता, जब तक आप मेरी सहायता नहीं करते । उस अनुष्ठान को पूरा करने के लिए मुझे आपकी सहायता चाहिए । क्या आप कृपा करके मेरा वह अनुष्ठान पूरा कराएंगे?”
”बताइए योगीराज! कैसी सहायता चाहते हैं आप? क्या आपको किसी शत्रु का भय है, जो आपके अनुष्ठान में विप्न पैदा कर सकता है? यदि एसा है तो मैं आपकी कुटिया पर अपने सुरक्षा प्रहरी युक्त करवा हूं, शत्रु नि देता जो आपके को आपके नजदीक भी फटकने नहीं देंगे, या फिर दूसरी कोई व्यवस्था, जिसे आप मुनासिब समझते हों । ” राजा ने कहा ।
योगी ने इंकार में सिर हिलाया और कहा-‘ ‘ राजन! न तो मुझे किसी शत्रु का भय है और न आपकी कोई सुरक्षा व्यवस्था ही चाहिए । मुझे तो बस आपके साहस और शौर्य की आवश्यकता है । वह काम सिर्फ आप ही कर सकते हैं । ” योगी ने कहा ।
”और वह काम क्या है?” राजा ने पूछा ।
“नगर से बाहर महाश्मशान है, जहां एक शिशम्पा (सिरस) के वृक्ष पर एक बेताल रहता है । अनुष्ठान पूरा करने के लिए उस बेताल की आवश्यकता है । आप एक धीर-गंभीर एवं व्यक्ति हैं । मुझे पूरा विश्वास है कि आप उस बेताल को पकड़कर मुझे सौंप सकते हैं । मेहरबानी करके उस बेताल को काबू कर मुझे सौंप दें, ताकि मैं अपना अनुष्ठान पूरा कर सकूँ ।”
”ठीक है । मैं उस बेताल को पकड़कर आपका? सौंप दूंगा । ” राजा ने वचन दे दिया । राजा से आश्वासन पाकर योगी प्रसन्न भाव से वहां से लौट गया ।
योगी को दिए हुए वचन को पूरा करने के लिए उस रात राजा महाश्मशान में पहुंचा । रात्रि में महाश्मशान का भयावह दृश्य देखकर वह स्तब्ध रह गया । श्मशान में नर मांस जलने की दुर्गंध फैली हुई थी । अनेक जली और अधजली चिताओं में अग्नि धधक रही थी । अनेक जंगली हिंसक जीव ठंडी हुई चिताओं के आसपास घूमते हुए नर मांस को खाने की कोशिश कर रहे थे । कुछ दूरी पर गीदड़ों का एक विशाल झुंड हुआ-हुआ की आवाजें करता हुआ वातावरण को और भी भयभीत बना रहा था ।
ऐसे भयप्रद वातावरण को देखकर भी राजा किंचित भी न डरा । चिताओं के बीच से गुजरते हुए वह योगी द्वारा बताए हुए सिरस के वृक्ष के नीचे पहुंचा और दाएं-बाएं देखने लगा । तभी वृक्ष के ऊपर से अजीब-से अंदाज में एक स्वर गूंजा-” कौन है रे मानव त् जो रात्रि के इस प्रहर में श्मशान में इस तरह घूम रहा है?”
”मैं उज्जयिनी नरेश विक्रम हूं। ” विक्रमादित्य ने कहा-” मैं यहां एक बेताल की खोज में आया हूं? जो इसी वृक्ष पर रहता है । अगर तू ही वह बेताल है तो चुपचाप नीचे उतर आ, मुझे बल प्रयोग करने का मौका न दे, नहीं तो मैं बलात् तुझ पर अधिकार करके यहां से जाऊंगा । ” राजा का परिचय जानकर आवाज का स्वामी, जो निश्चय ही वही बेताल था, किंचित भयभीत हो उठा । उसने कहा- “हे उज्जयिनी नरेश! मेरी तो आपसे किसी प्रकार की शत्रुता भी नहीं है, न ही मैंने आपका आज तक कोई अपकार किया है, फिर आप मुझे यहां से ले जाने के लिए क्यों कटिबद्ध हैं?”
“बेताल! ” राजा ने कहा- ”तुम्हारी आवश्यकता नहीं है । तुम्हारी आवश्यकता है किसी को, जिसे मैंने वचन दिया है कि मैं तुम्हें श्मशान से ले जाकर उसके हवाले कर दूंगा ।” विक्रम ने -सच्ची बात बेताल को बता दी ।
यह सुनकर बेताल बोला-” राजन! इस नगर में अनेक ऐसे धूर्त कापालिक और अघोरी हैं, जो सिर्फ अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए अनुष्ठान कर रहे हैं । उन सभी को अपनी कार्य सिद्धि के लिए मेरी बलि. की आवश्यकता है । लगता है कि तुम भी किसी ऐसे ही धूर्त अघोरी को मुझे लाने का वचन दे बैठे हो! मेरा परामर्श है कि अपने घर लौट जाओ और प्रजा की सुख-सुविधा के लिए कार्य करो । इन अघोरियों और कापालिकों के चक्कर में पड़े तो तुम्हारा अनिष्ट होने की आशंका है । व्यर्थ में अपने विश्राम का समय बर्बाद कर एक धूर्त साधु को दिए वचन को पूरा करने के लिए क्यों आतुर हो रहे हो?”
बेताल की बात सुनकर कुछ देर के लिए राजा सोच में पड गया-‘ ठीक ही तो कह रहा था बेताल । क्या जरूरत है उसे इस बेताल को ले जाने की । योगी अगर अपने अभीष्ट की सिद्धि चाहता है तो अपने बलबूते पर ही वह क्यों बेताल पर अधिकार नहीं करता । दूसरी बात, इस बात का भी कोई निश्चय नहीं कि वह योगी किसी अच्छे कार्य के लिए इस बेताल को पाना चाहता है । बेताल ठीक ही तो कह रहा है, उसने तो कभी उसका कोई अहित भी नहीं किया, फिर क्यों उसे ले जाकर योगी को सौंप दूं । ‘ इन्हीं विचारों में खोया हुआ राजा कुछ देर के लिए किंकर्तव्यविमूढ़ की भांति वृक्ष के नीचे खड़ा रहा, लेकिन फिर उसे योगी को दिया हुआ अपना वचन याद हो आया । उसने मन में सोचा कि जब वचन दिया है तो उसे निभाना भी चाहिए, अतः मन में एक दृढ़ निश्चय करके वह वृक्ष पर चढ गया ।
बेताल ने अपने बचने के लिए बहुत हाथ-पैर मारे, किंतु वह. राजा की मजबूत गिरफ्त से आजाद न हो सका । राजा ने उसे अपने मजबूत कंधों पर लादा और उसे लेकर वृक्ष के नीचे उतर आया । फिर वह बेताल को कंधे पर लादकर योगी की कुटिया की ओर चल पड़ा ।
जब श्मशान की सीमा समाप्त हो गई तो बेताल ने अपना मौन तोड़ा । उसने राजा से कहा-” उज्जयिनी नरेश! मैं जानता हूं कि तू अपनी हठ का पक्का व्यक्ति है । मुझे यह भी पता है कि तू मुझे ले जाकर मेरे किसी शत्रु को जरूर सौंप देगा, किंतु रास्ता लंबा है और मंजिल दूर है । मुझे वहां तक ले जाने में तुझे बहुत परिश्रम करना पड़ेगा । तेरे परिश्रम को भुलाने के लिए मैं तुझे एक कहानी सुनाता ? पर मेरी एक शर्त है ।”
”कैसी शर्त?” राजा ने पूछा ।”
शर्त यह है कि कहानी के दौरान तू मौन धारण किए रहेगा । यदि बीच में तूने अपना भंग कर दिया तो मैं अपने वचन से मुक्त हो जाऊंगा और तत्काल तुझे छोड्कर चला जाऊंगा । यदि तुझे मेरी यह बात स्वीकार है तो बता । मैं शुरू करूं अपनी कहानी?”
”जरूर करो बेताल!” राजा ने वचन दिया-” मैं तुम्हें वचन देता हूं कि कहानी सुनने के दौरान बिल्कुल मौन धारण किए रहूंगा ।”
To be Continued…..
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आपके ब्लॉग में आकर बहुत अच्छा लगा। आपका ब्लॉग बहुत बढ़िया है. विक्रम बेताल की यह कहानी बढ़िया लगी।