Poems on Trees in Hindi अर्थात इस article में आप पढेंगे, वृक्षों पर हिन्दी कविताएँ. यह कविताएँ हमें वृक्षों की रक्षा करने के लिए प्रोत्साहन देती हैं.
वृक्ष और वल्लरी / माखनलाल चतुर्वेदी
Contents
वृक्ष, वल्लरि के गले मत—
मिल, कि सिर चढ़ जायगी यह,
और तेरी मित भुजाओं—
पर अमित हो छायगी यह।
हरी-सी, मनभरी-सी, मत—
जान, रुख लख, राह लख तू
मधुर तेरे पुष्प-दल हों,
कटु स्वफल लटकायगी यह।
भूल है, पागल, गिरी तो
यह न चरणों पर रहेगी
निकट के नव वृक्ष पर,
नव रंगिणी बल खायगी यह।
वृक्ष, तेरे शीश पर के
वृक्ष से लाचार है तू?
किन्तु तेरे शीश से, उस
शीश पर भी जायगी यह।
यह समर्पण-ऋण चुकाना—
दूर, मानेगी न छन भर
तव चरण से खींच कर—
रस और को मँहकायगी यह।
मत कहो इसको अभागिन,
यह कभी न सुहाग खोती,
लिपटना इसकी विवशता—
है लिपटती जायगी यह।
बस निकट भर ही पड़े
कि न बेर या कि बबूल देखे
आम्र छोड़ करील पर
आगे बढ़ी ही जायगी यह।
तू झुका दे डालियाँ चढ़ पाय
फिर क्यों शीश पर यह;
फलित अरमानों भरी
तेरे चरण आजायगी यह।
फेंक दे तू भूमि पर सब
फूल अपने और इसके
हुआ कृष्णार्पण कि तेरी
बाँसुरी बन जायगी यह!
प्यार पाकर सिर चढ़ी, तो
प्यार पाकर सूखती है,
कलम कर दे लिपटना
फिर सौ गुनी लिपटायगी यह।
नदी का गिरना पतन है
वल्लरी का शीश चढ़ना,
पतन की महिमा बनी तब
शीश पर हरियायगी यह।
मत चढ़ा चंदन चरण पर
मत इसे व्यंजन परोसे
कुंभिपाकों ऊगती आई;
वहीं फल लायगी यह।
सहम मत, तेरे फलों का
कौन-सा आलम्ब बेली?
तू भले, फल दे, न दे,
अपनी बहारों आयगी यह।
किस जवानी की अँधेरी–
में बढ़े जा रहे दोनों
बन्द कलियाँ, बन्द अँखियाँ
कौन-सा दिन लायगी यह।
फेंक कर फूलों इरादे,
भूमि पर होना समर्पित,
सिर उठाकर पुण्य भू का
पुण्य-पथ समझायगी यह।
एक तेरी डालि छूटे,
दूसरी गह ले गरब से
डालि जो टूटी, कि अबला–
सिद्ध कर दिखलायगी यह।
मेह की झर है न तू, जो–
मौसमों में बरस बीते,
नेह की झर सूखकर
तुझको अवश्य सुखायगी यह।
तू तरुणता का सँदेशा
भूमि का विद्रोह प्यारे,
शीश पर तू फूल ला, बस
चरण में बस जायगी यह।
या कि इसको हृदय से
ऐसी लपेट की दाँव भूले
सूर्य की संगिनि दुपहरी-
सी स्वयं ढल जायगी यह।
रे नभोगामी, न लख तू
रूप इसका, रंग इसका,
तू स्वयं पुरुषार्थ दिखला
तब कला बन जायगी यह।
लता से जब लता लिपटे?
गर्व हो? किस बात का हो?
तू अचल रह, स्वयं चल कर
ही चरण पर आयगी यह।
भूमि की इच्छा, मिलन की-
साध, मिटने की प्रतीक्षा-
तब अमित बलशालिनी है
जब तुझे पा जायगी यह!
चढ़न है विश्वास इसका,
लिपटना इसकी परमता,
जो न चढ़ पाई कहीं तो
नष्ट मुरझा जायगी यह।
पहिन कर बंधन, न बंधन
में इसे तू जान गाफ़िल,
जिस तरफ फैली कि नव-
बन्धन बनाती जायगी यह।
डालियाँ संकेत विभु के
वल्लरी उन्माद भाषा,
लिपटने के तुक मिलाते
छन्द गढ़ती जायगी यह।
और जो होना समर्पण है,
इसी की साध बनकर
शीश ले इसके फलों को
तब बहारों आयगी यह।
वृक्ष था हरा भरा / ममता किरण
वृक्ष था हरा-भरा
फैली थी उसकी बाँहें
उन बाहों में उगे थे
रेशमी मुलायम नरम नाजुक नन्हें से फूल
उसके कोटर में रहते थे
रूई जैसे प्यारे प्यारे फाहे
उसकी गोद में खेलते थे
छोटे छोटे बच्चे
उसकी छांव में सुस्ताते थे पंथी
उसकी चौखट पर विसर्जित करते थे लोग
अपने अपने देवी देवता
पति की मंगल कामना करती
सुहागिनों को आशीषता था
कितना कुछ करता था सबके लिए
वृक्ष था हरा भरा।
पर कभी-कभी
कहता था वृक्ष धीरे से
फाहे पर लगते उड़ जाते हैं
बच्चे बड़े होकर नापते हैं
अपनी अपनी सड़कें
पंथी सुस्ता कर चले जाते हैं
बहुएँ आशीष लेकर
मगन हो जाती हैं अपनी अपनी गृहस्थी में
मेरी सुध कोई नहीं लेता
मैं बूढ़ा हो गया हूँ
कमज़ोर हो गया हूँ
कब भरभरा कर टूट जाएँ
ये बूढ़ी हड्डियाँ
पता नहीं
तुम सबसे करता हूँ एक निवेदन
एक बार उसी तरह
इकट्ठा हो जाओ
मेरे आँगन में
जी भरकर देख तो लूँ।
वृक्ष और मनुष्य / कविता गौड़
मनुष्य कभी वृक्ष नहीं बन सकता
क्योंकि उसमें वो त्याग और परोपकार
का भाव नहीं होता
मनुष्य कभी वृक्ष नहीं बन सकता
क्योंकि उसमें दूसरों द्वारा पहुँचाए कष्ट
सहने की ताकत नहीं होती
मनुष्य कभी वृक्ष नहीं बन सकता
क्योंकि वह अपनी जड़ें खोदने वाले
को कभी शरण नहीं देता
मनुष्य कभी वृक्ष नहीं बन सकता
क्योंकि वह करता नहीं क्षमा
याद रखता है और बदला लेता है
मनुष्य कभी वृक्ष नहीं बन सकता
क्योंकि अपना सब कुछ मनुष्यों के
लिए अर्पण करने वाले वृक्ष को भी
मनुष्य नहीं बख़्शता
काट डालता है
क्योंकि वह जलता है वृक्ष की नम्रता से
वृक्ष की कर्त्तव्य-निष्ठा से
मनुष्य कभी वृक्ष नहीं बन सकता
वृक्ष की मौत पर / तरुण भटनागर
वह मिटा,
कि मेरा घर आंगन,
यतीम, गुमनाम बना।
तपी न था कोई,
तभी तो नहीं बना,
वह बोधि वृक्ष।
पर वह,
कड़वा नीम आंगन वाला,
अब चिपका है,
मेरी स्मृति दीवार पर,
जैसे फिल्म वाला पोस्टर।
पोस्टर पर है,
कुछ अधूरे चित्र,
युद्ध में,
बमवषर्कों की सूचना देने वाले,
सायरन की तरह,
सहमा देने वाले।
सूखी डाल पर कोंपल-गीला नव शिशु
पतझर-झाड़ते, झड़ते पल,
मेरा मन-शायद उसकी पुचकार,
भीतर की सूनी-डाल पर गीत सीखती चिडि़या,
मेरी नींद-हवा में उसकी झूमती डालियां,
मस्तक पर टीका-उच्च होकर उसका टेकना आकाश,
सलेटी शाम-उसका चमकता बोरला,
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मैंने नहीं छोड़ीं,
उस दधीचि की हिडडयां
निविर्कार भिक्षा मुझे,
जाने कब लड़ना पड़े,
धूप से।
पर,
किसको पड़ी,
तुम जो नहीं अमेजन के जंगल।
बस एक न ढलने वाला शून्य रह गया है।
जो अकस्मात,
भुला देता है,
आैर मैं सोच पड़ता हंू,
शायद पसरी हों,
आंगन में तेरी छांव,
आैर मैं,
बैठूंगा उसमें,
रोज सुबह की तरह,
पढ़ने अखबार।
वृक्ष की नियति / तारादत्त निर्विरोध
उसने सूने-जंगलाती क्षेत्र में
एक पौधा रोपा
और हवाओं से कहा,
इसे पनपने देना,
जब विश्वास का मौसम आएगा
यह विवेक के साथ विकसित होकर
अपने पाँवों पर खडा होगा,
एक दिन यह जरूर बडा होगा।
फिर उसने
मानसून की गीली आँखों में
हिलती हुई जडों
फरफराते पत्तों
और लदी लरजती शाखों के
फलों को दिखा कर कहा,
मौसम चाहे कितने ही रूप बदले
यह वृक्ष नहीं गिरना चाहिए
और यह भी नहीं कि कोई इसे
समूल काट दे,
संबंधों की गंध के नाम पर
बाँट दे,
तुम्हें वृक्ष को खडा ही रखना है,
प्रतिकूल हवाओं में भी
बडा ही रखना है।
एक अन्तराल के बाद
वृक्ष प्रेम पाकर जिया
और उसने बाद की पीढयों को भी
पनपने दिया।
वृक्ष और भी लगाए गए,
वृक्षारोपण के लिए
सभी के मन जगाए गए।
फिर एक दिन ऐसा आया
वृक्ष की शाखों को काट ले गए
लोग,
पत्तों से जुड गए अभाव-अभियोग,
एक बूढा वृक्ष गिर-खिर गया,
युगों-युगों का सपना
आँखों में पला, तिरा
और पारे की तरह
बिखर गया।
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