Essay on Railway Station in Hindi अर्थात इस आर्टिकल में आप पढेंगे, रेलवे स्टेशन पर निबंध जिसका शीर्षक है, रेलवे स्टेशन: थका देने वाला दृश्य.
रेलवे स्टेशन: थका देने वाला दृश्य
महानगरों का जीवन तो थका देने वाला होता ही है, .वहाँ तक पहुँचाने वाले बड़े-बड़े रेलवे स्टेशन, वहाँ का गहमागहमी और बेतरतीब भीड़ से भरा दृश्य भी कम ऊबाऊ और थका देने वाला नहीं हुआ करता । हावड़ा हो या बम्मबई का वी. टी. स्टेशन, पुरानी दिल्ली का हो या नयी दिल्ली का रेलवे स्टेशन; सभी के अनुभव वास्तव में एक विशाल, अनन्त-अथाह जन-सागर को ज्यों-त्यों हिम्मत करके पार कर लेने से कम महत्त्वपूर्ण नहीं हुआ करते ।
आइये, आज मैं आप को नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर पहली बार जाने का अपना अनुभव सुनाता हूँ । बम्बई से हमारे कोई विशेष रिश्तेदार पहली बार दिल्ली आ रहे थे और हमारे यहाँ ही ठहरने वाले थे । सो पिता जी ने समय बताते हुए आदेश दिया कि मैं स्टेशन जाकर उन्हें घर ले आऊँ । मैं एक शादी के अवसर पर लुधियाना में उन्हें मिल चुका था और अच्छी तरह पहचानता भी था ।
सो पिताजी का आदेश शिरोधार्य कर आधा घण्टा पहले ही नई दिल्ली स्टेशन के करीब पहुँच गया । शीला सिनेमा के आगे कुतुब रोड-कनाट प्लेस वाली सड़क पर बस ज्यों रुकी, चलने का नाम न ले रही थी । पहले खिड़कियों से सिर निकाल कारण जानने का प्रयास करता रहा, फिर यह जानकर के आगे दूर तक सड़क जाम है ऊबकर बस से उतर, इधर-उधर रास्ता बनाता हुआ पैदल ही स्टेशन की तरफ चल दिया ।
जैसा कि दिल्ली में ऐसे अवसरों पर अक्सर हुआ ‘करता है; हर वाहन, यही तक मनुष्य द्वारा खींचे जा रहे ठेले वाले भी एक – दूसरे पर चढ़कर आगे निकल जाने का तिकड़म भिड़ा रहे थे । मैं भी उसी गुर को अपना कर नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के सामने तक आ गया । देखा, वहाँ वाहनों की रेल-पेल इस तरह थी कि बस में बैठे रहने पर मैं आगामी एक घण्टे तक तो स्टेशन नहीं ही पहुँच सकता था ।
राम-राम करते हुए स्टेशन के अहाते में प्रवेश किया । देखा वa*aाँ भी स्कूटरों, कारों, टैक्सियों आदि की भीड़ तो थी ही; बीच-बीच में भी-भी करती बसें भी आ-जा रही थी । जो हो, उन से बचता- बचाता सामने वाले मुसाफिर खाने-प्लस-टिकिट खिड़कियों वाले स्थान पर पहुँचा । वहाँ कहीं तिल रखने की भी जगह नहीं थी । यात्री, उनके ढेरों सामान, उन्हें छोड़ने आए यात्री-भीड़, बस भीड़-भीड़, अथाह भीड़ । मुझे स्टेशन के भीतर जाने के लिए प्लेटफार्म टिकट चाहिए था ।
देखा, तो उस खिड़की के सामने स्त्री-पुरुषों की दोहरी कतारें तो लगी ही थीं, कतार में खड़े लोगों को पटाकर एक-दो ‘ टिकिट उनके लिए खरीद देने का अनुरोध करने वालों की दोहरी तिहरी घुमन्तु कतारें अलग से सक्रिय थीं । घड़ी देखी, ट्रेन आने का समय लगभग हो ही चुका था । घबराया और सोचा कि बिना प्लेटफार्म टिकट खरीदे ही चला जाऊँ भीतर । सैकड़ों लोग ऐसा ही करते है प्रतिदिन ।
फिर मन में आया, यदि पकड़ा गया, तो? मैं तो टिकिट बाबू की मिन्नत-चिरौरी भी नहीं कर सकूँगा । तभी मुझ से कुछ आगे कतार में खड़े दो व्यक्ति आपस में कह रहे थे बम्बई वाली ट्रेन पैन्तालीस लेट चल रही है । अब और लेट न हो जाए । सुनकर धीरज बन्धा । लाईन तेज-तेज सरक रही थी, सो टिकिट लेकर प्लेटफार्म की ओर चल दिया ।
पहले ही प्लेटफार्म पर इतनी भीड़ और धक्कम धक्का हो रहा था, सामान लादे स्वयं इधर- उधर भागते अऐ:र यात्रियों को भगाते कुली हत्थ, ठेले, खोमचे वालों की बेसुरी पुकार, घरघरी कर न समझ आने वाली सूचनाएँ देता दूर प्रसारण यंत्र, शोर-अथाह शोर । उस भीड़ और शोर से बचते- बचते निकल, गिरते-पड़ते रेलवे पुल पार कर आखिर उस प्लेटफार्म पर पहुँचा, जहाँ बाम्बे मेल आ रही थी ।
उस प्लेटफार्म का दृश्य तो और भी लोमहर्षक था । कई जगहों पर ब्रेकवैन आदि में लादे जाने वाले सामान के ढेर लगे थे, एक स्थान को डाक-शैलों आदि ने घेरे रखा था । जहाँ-तहाँ मैचों पर, ढेर सारे सामान पर यात्री बैठे-पसरे ट्रेन आने की प्रतीक्षा कर रहे थे । धन्य थे वे कुली जो इतनी भीड़ में भी सिरों, कन्धों, बाँहों पर ढेरों सामान लादे लगभग भागते हुए आ-जा रहे थें । कुछ कुली गाड़ी पर सवार होने के इच्छुकों से भाव-ताव करते सीट दिला देने के पक्के वायदे भी कर रहे थे ।
मैंने आजिजी में सिर उठाकर दूर तक देखा, कहीं बैठने की जगह तो क्या ठीक से पैर टिकाने ” तक की जगह नहीं दीख पड़ रही थी खड़े होने की कोशिश में बार-बार किसी आने-जाने वाले से टकरा कर गिरते-गिरते बचा । लोगों की बातें, उस पर खोमचे वालों की दहाड़े । भीख माँगने वालों की मनुहारें, हरिद्वार या अन्य तीर्थ यात्रा पर जाने वाले तथाकथित साधुओं के कई तरह के बोल ध्वनि-प्रदूषण की इन्तहा कर रहे थे ।
यहाँ तक कि अपना स्वर आप सुन पाना भी जैसे असम्भव हो गया था । तभी किसी ने जोर से कहा-वह आ गई ट्रेन । देखा, सचमुच ट्रेन आ रही थी । बस, फिर क्या था? प्लेटफार्म पर तो जैसे घमासान युद्ध मच गया । सामान जल्दी से लादकरआगे कुली और पीछे यात्री इधर-से-उधर भागने लगे ।
मैं भी प्लेटफार्म पर लग रही ट्रेन की तरफ भागा; पर भीड़ के रेले ने धकेलकर कहीं बहुत पीछे फेंक दिया । मैं बार-बार आगे बढ़ता और बार- बार पीछे धकेला जाता रहा । सो कोशिश कर के भी मेहमान को न था. जब वापिस घर पहुँचा, तो मेहमान समेत सभी चिन्तित मुद्रा में मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे ।
ज़रूर पढ़ें:
- Natural Disaster: Tsunami Essay in Hindi – सुनामी पर निबंध
- Library Essay in Hindi – पुस्तकालय पर निबंध
- A Rainy Season Day Essay in Hindi – वर्षा ऋतू का एक दिन निबंध
- Taj Mahal Essay in Hindi – ताजमहल पर निबंध
- Global Warming Essay in Hindi – ग्लोबल वार्मिंग पर निबंध
- Rani Lakshmi Bai Essay in Hindi – रानी लक्ष्मीबाई पर निबंध
- Essay on Holi in Hindi – होली त्यौहार पर निबंध
- Gautama Buddha Life Essay in Hindi – गौतम बुद्ध का जीवन
- Morning Walk Essay in Hindi – प्रातःकाल की सैर पर निबंध
- Raksha Bandhan Essay in Hindi – रक्षा बंधन पर निबंध
- Janmashtami Essay in Hindi – जन्माष्टमी पर निबंध
- Prime Ministers of India Essays – भारतीय प्रधानमंत्रियों पर निबंध
- Animal & Birds Essays in Hindi – विभिन्न जानवरों और पक्षियों पर निबंध
- Science Essay in Hindi – विज्ञान के चमत्कार पर निबंध
- Newspapers Essay in Hindi – समाचार-पत्रों का महत्त्व अथवा लाभ-हानियाँ पर निबंध
हमारे इस blog पर आपको अलग-अलग विषयों पर बहुत सारे निबंध मिल जायेंगे, आप उन्हें भी नीचे दिए गए link को browse करके ज़रूर पढ़ें.
हमें पूरी आशा है कि आपको हमारा यह article बहुत ही अच्छा लगा होगा. यदि आपको इसमें कोई भी खामी लगे या आप अपना कोई सुझाव देना चाहें तो आप नीचे comment ज़रूर कीजिये. इसके इलावा आप अपना कोई भी विचार हमसे comment के ज़रिये साँझा करना मत भूलिए. इस blog post को अधिक से अधिक share कीजिये और यदि आप ऐसे ही और रोमांचिक articles, tutorials, guides, quotes, thoughts, slogans, stories इत्यादि कुछ भी हिन्दी में पढना चाहते हैं तो हमें subscribe ज़रूर कीजिये.
Leave a Reply