इस article में आप पढेंगे, Hindi Poems on Nature अर्थात प्रकृति पर आधारित हिन्दी कवितायेँ. प्रकृति के कारण ही सब संभव है. कुदरत और हमारी प्यारी धरती के विषय पर दी गयी इन कविताओं के साथ-साथ videos भी दिए गएँ हैं, जिनमे आप कविताओं को सुन भी सकते हैं.
नीचे दिए गए Table of Contents को इस्तेमाल करके आप आसानी से कोई भी प्रकृति की कविता (Poems on Nature in Hindi) पढ़ सकते हैं. आपको बस कविता के नाम के link पर उसे पढने के लिए click करना है.
List of Hindi Poems On Nature (प्रकृति पर आधारित हिन्दी कविताओं की लिस्ट)
Contents
- 1 List of Hindi Poems On Nature (प्रकृति पर आधारित हिन्दी कविताओं की लिस्ट)
- 1.1 काँप उठी…..धरती माता की कोख !! (डी. के. निवातियाँ)
- 1.2 बसंत का मौसम (इंदर भोले नाथ)
- 1.3 मान लेना वसंत आ गया (डी. के. निवातियाँ)
- 1.4 काली घटा
- 1.5 कुदरत
- 1.6 तेरी याद सा मोसम (डॉ कुशल चन्द कटोच)
- 1.7 प्रकृति (डी. के. निवतियाँ)
- 1.8 फूल (शिशिर मधुकर)
- 1.9 मौसम बसंत का (शिशिर “मधुकर”)
- 1.10 गाँव मेरा
- 1.11 विधाता
- 1.12 जाड़ों का मौसम … (स्वाति नैथानी)
- 1.13 कहर………….. (धर्मेन्द्र कुमार निवातियाँ)
- 1.14 संभल जाओ ऐ दुनिया वालो (डी. के. निवातियाँ )
- 2 Videos on Hindi Poems On Nature
काँप उठी…..धरती माता की कोख !! (डी. के. निवातियाँ)
कलयुग में अपराध का
बढ़ा अब इतना प्रकोप
आज फिर से काँप उठी
देखो धरती माता की कोख !!
समय समय पर प्रकृति
देती रही कोई न कोई चोट
लालच में इतना अँधा हुआ
मानव को नही रहा कोई खौफ !!
कही बाढ़, कही पर सूखा
कभी महामारी का प्रकोप
यदा कदा धरती हिलती
फिर भूकम्प से मरते बे मौत !!
मंदिर मस्जिद और गुरूद्वारे
चढ़ गए भेट राजनितिक के लोभ
वन सम्पदा, नदी पहाड़, झरने
इनको मिटा रहा इंसान हर रोज !!
सबको अपनी चाह लगी है
नहीं रहा प्रकृति का अब शौक
“धर्म” करे जब बाते जनमानस की
दुनिया वालो को लगता है जोक !!
कलयुग में अपराध का
बढ़ा अब इतना प्रकोप
आज फिर से काँप उठी
देखो धरती माता की कोख !!
बसंत का मौसम (इंदर भोले नाथ)
है महका हुआ गुलाब
खिला हुआ कंवल है,
हर दिल मे है उमंगे
हर लब पे ग़ज़ल है,
ठंडी-शीतल बहे ब्यार
मौसम गया बदल है,
हर डाल ओढ़ा नई चादर
हर कली गई मचल है,
प्रकृति भी हर्षित हुआ जो
हुआ बसंत का आगमन है,
चूजों ने भरी उड़ान जो
गये पर नये निकल है,
है हर गाँव मे कौतूहल
हर दिल गया मचल है,
चखेंगे स्वाद नये अनाज का
पक गये जो फसल है,
त्यौहारों का है मौसम
शादियों का अब लगन है,
लिए पिया मिलन की आस
सज रही “दुल्हन” है,
है महका हुआ गुलाब
खिला हुआ कंवल है…!!
मान लेना वसंत आ गया (डी. के. निवातियाँ)
बागो में जब बहार आने लगे
कोयल अपना गीत सुनाने लगे
कलियों में निखार छाने लगे
भँवरे जब उन पर मंडराने लगे
मान लेना वसंत आ गया… रंग बसंती छा गया !!
खेतो में फसल पकने लगे
खेत खलिहान लहलाने लगे
डाली पे फूल मुस्काने लगे
चारो और खुशबु फैलाने लगे
मान लेना वसंत आ गया… रंग बसंती छा गया !!
आमो पे बौर जब आने लगे
पुष्प मधु से भर जाने लगे
भीनी भीनी सुगंध आने लगे
तितलियाँ उनपे मंडराने लगे
मान लेना वसंत आ गया… रंग बसंती छा गया !!
सरसो पे पीले पुष्प दिखने लगे
वृक्षों में नई कोंपले खिलने लगे
प्रकृति सौंदर्य छटा बिखरने लगे
वायु भी सुहानी जब बहने लगे
मान लेना वसंत आ गया… रंग बसंती छा गया !!
धूप जब मीठी लगने लगे
सर्दी कुछ कम लगने लगे
मौसम में बहार आने लगे
ऋतु दिल को लुभाने लगे
मान लेना वसंत आ गया… रंग बसंती छा गया !!
चाँद भी जब खिड़की से झाकने लगे
चुनरी सितारों की झिलमिलाने लगे
योवन जब फाग गीत गुनगुनाने लगे
चेहरों पर रंग अबीर गुलाल छाने लगे
मान लेना वसंत आ गया… रंग बसंती छा गया !!
काली घटा
काली घटा छाई है
लेकर साथ अपने यह
ढेर सारी खुशियां लायी है
ठंडी ठंडी सी हव यह
बहती कहती चली आ रही है
काली घटा छाई है
कोई आज बरसों बाद खुश हुआ
तो कोई आज खुसी से पकवान बना रहा
बच्चों की टोली यह
कभी छत तो कभी गलियों में
किलकारियां सीटी लगा रहे
काली घटा छाई है
जो गिरी धरती पर पहली बूँद
देख ईसको किसान मुस्कराया
संग जग भी झूम रहा
जब चली हवाएँ और तेज
आंधी का यह रूप ले रही
लगता ऐसा कोई क्रांति अब सुरु हो रही
.
छुपा जो झूट अमीरों का
कहीं गली में गढ़ा तो कहीं
बड़ी बड़ी ईमारत यूँ ड़ह रही
अंकुर जो भूमि में सोये हुए थे
महसूस इस वातावरण को
वो भी अब फूटने लगे
देख बगीचे का माली यह
खुसी से झूम रहा
और कहता काली घटा छाई है
साथ अपने यह ढेर सारी खुशियां लायी है
कुदरत
हे ईस्वर तेरी बनाई यह धरती , कितनी ही सुन्दर
नए – नए और तरह – तरह के
एक नही कितने ही अनेक रंग !
कोई गुलाबी कहता ,
तो कोई बैंगनी , तो कोई लाल
तपती गर्मी मैं
हे ईस्वर , तुम्हारा चन्दन जैसे व्रिक्स
सीतल हवा बहाते
खुशी के त्यौहार पर
पूजा के वक़्त पर
हे ईस्वर , तुम्हारा पीपल ही
तुम्हारा रूप बनता
तुम्हारे ही रंगो भरे पंछी
नील अम्बर को सुनेहरा बनाते
तेरे चौपाये किसान के साथी बनते
हे ईस्वर तुम्हारी यह धरी बड़ी ही मीठी
तेरी याद सा मोसम (डॉ कुशल चन्द कटोच)
ह्बायों के रुख से लगता है कि रुखसत हो जाएगी बरसात
बेदर्द समां बदलेगा और आँखों से थम जाएगी बरसात .
अब जब थम गयी हैं बरसात तो किसान तरसा पानी को
बो वैठा हैं इसी आस मे कि अब कब आएगी बरसात .
दिल की बगिया को इस मोसम से कोई नहीं रही आस
आजाओ तुम इस बे रूखे मोसम में बन के बरसात .
चांदनी चादर बन ढक लेती हैं जब गलतफेहमियां हर रात
तब सुबह नई किरणों से फिर होती हें खुसिओं की बरसात .
सुबह की पहली किरण जब छू लेती हें तेरी बंद पलकें
चारों तरफ कलिओं से तेरी खुशबू की हो जाती बरसात .
नहा धो कर चमक जाती हर चोटी धोलाधार की
जब पश्चिम से बादल गरजते चमकते बनते बरसात
प्रकृति (डी. के. निवतियाँ)
सुन्दर रूप इस धरा का,
आँचल जिसका नीला आकाश,
पर्वत जिसका ऊँचा मस्तक,2
उस पर चाँद सूरज की बिंदियों का ताज
नदियों-झरनो से छलकता यौवन
सतरंगी पुष्प-लताओं ने किया श्रृंगार
खेत-खलिहानों में लहलाती फसले
बिखराती मंद-मंद मुस्कान
हाँ, यही तो हैं,……
इस प्रकृति का स्वछंद स्वरुप
प्रफुल्लित जीवन का निष्छल सार
फूल (शिशिर मधुकर)
हमें तो जब भी कोई फूल नज़र आया है
उसके रूप की कशिश ने हमें लुभाया है
जो तारीफ़ ना करें कुदरती करिश्मों की
क्यों हमने फिर मानव का जन्म पाया है.
मौसम बसंत का (शिशिर “मधुकर”)
लो आ गया फिर से हँसी मौसम बसंत का
शुरुआत है बस ये निष्ठुर जाड़े के अंत का
गर्मी तो अभी दूर है वर्षा ना आएगी
फूलों की महक हर दिशा में फ़ैल जाएगी
पेड़ों में नई पत्तियाँ इठला के फूटेंगी
प्रेम की खातिर सभी सीमाएं टूटेंगी
सरसों के पीले खेत ऐसे लहलहाएंगे
सुख के पल जैसे अब कहीं ना जाएंगे
आकाश में उड़ती हुई पतंग ये कहे
डोरी से मेरा मेल है आदि अनंत का
लो आ गया फिर से हँसी मौसम बसंत का
शुरुआत है बस ये निष्ठुर जाड़े के अंत का
ज्ञान की देवी को भी मौसम है ये पसंद
वातवरण में गूंजते है उनकी स्तुति के छंद
स्वर गूंजता है जब मधुर वीणा की तान का
भाग्य ही खुल जाता है हर इक इंसान का
माता के श्वेत वस्त्र यही तो कामना करें
विश्व में इस ऋतु के जैसी सुख शांति रहे
जिसपे भी हो जाए माँ सरस्वती की कृपा
चेहरे पे ओज आ जाता है जैसे एक संत का
लो आ गया फिर से हँसी मौसम बसंत का
शुरुआत है बस ये निष्ठुर जाड़े के अंत का
गाँव मेरा
इस लहलाती हरियाली से , सजा है ग़ाँव मेरा…..
सोंधी सी खुशबू , बिखेरे हुऐ है ग़ाँव मेरा… !!
जहाँ सूरज भी रोज , नदियों में नहाता है………
आज भी यहाँ मुर्गा ही , बांग लगाकर जगाता है !!
जहाँ गाय चराने वाला ग्वाला , कृष्ण का स्वरुप है …..
जहाँ हर पनहारन मटकी लिए, धरे राधा का रूप है !!
खुद में समेटे प्रकृति को, सदा जीवन ग़ाँव मेरा ….
इंद्रधनुषी रंगो से ओतप्रोत है, ग़ाँव मेरा ..!!
जहाँ सर्दी की रातो में, आले तापते बैठे लोग……..
और गर्मी की रातो में, खटिया बिछाये बैठे लोग !!
जहाँ राम-राम की ही, धव्नि सुबह शाम है………
यहाँ चले न हाय हेलो, हर आने जाने वाले को बस ” सीता राम ” है !!
भजनों और गुम्बतो की मधुर धव्नि से, है संगीतमय गाँव मेरा….
नदियों की कल-कल धव्नि से, भरा हुआ है गाँव मेरा !!
जहाँ लोग पेड़ो की छाँव तले, प्याज रोटी भी मजे से खाते है ……
वो मजे खाना खाने के, इन होटलों में कहाँ आते है !!
जहाँ शीतल जल इन नदियों का, दिल की प्यास बुझाता है …
वो मजा कहाँ इन मधुशाला की बोतलों में आता है…. !!
ईश्वर की हर सौगात से, भरा हुआ है गाँव मेरा …….
कोयल के गीतों और मोर के नृत्य से, संगीत भरा हुआ है गाँव मेरा !!
जहाँ मिटटी की है महक, और पंछियो की है चहक ………
जहाँ भवरों की गुंजन से, गूंज रहा है गाँव मेरा…. !!
प्रकृति की गोद में खुद को समेटे है गाँव मेरा ……….
मेरे भारत देश की शान है, ये गाँव मेरा… !!
विधाता
कोन से साँचो में तूं है बनाता , बनाता है ऐसा तराश-तराश के ,
कोई न बना सके तूं ऐसा बनाता , बनाता है उनमें जान डाल के!
सितारों से भरा बरह्माण्ड रचाया , ना जाने उसमे क्या -क्या है समाया ,
ग्रहों को आकाश में सजाया , ना जाने कैसा अटल है घुमाया ,
जो नित नियम गति से अपनी दिशा में चलते हैं ,
अटूट प्रेम में घूम -घूम के, पल -पल आगे बढ़ते हैं !
सूर्य को है ऐसा बनाया, जिसने पूरी सुृष्टि को चमकाया ,
जो कभी नहीं बुझ पाया ,ना जाने किस ईंधन से जगता है ,
कभी एक शोर , कभी दूसरे शोर से ,
धरती को अभिनदंन करता है !
तारों की फौज ले के , चाँद धरा पे आया ,
कभी आधा , कभी पूरा है चमकाया ,
कभी -कभी सुबह शाम को दिखाया ,
कभी छिप -छिप के निगरानी करता है !
धरती पे माटी को बिखराया ,कई रंगो से इसे सजाया ,
हवा पानी को धरा पे बहाया, सुरमई संगीत बजाया ,
सूर्य ने लालिमा को फैलाया ,दिन -रात का चकर चलाया ,
बदल -बदल के मौसम आया ,कभी सुखा कभी हरियाली लाया !
आयु के मुताबिक सब जीवो को बनाया,
कोई धरा पे , कोई आसमान में उड़ाया ,
किसी को ज़मीन के अंदर है शिपाया ,
सबके ह्रदय में तूं है बसता ,
सबका पोषण तूं ही करता !
अलग़ -अलग़ रुप का आकार बनाया ,
फिर भी सब कुश सामूहिक रचाया ,
सबको है काम पे लगाया ,
नीति नियम से सब कुश है चलाया ,
हर रचना में रहस्य है शिपाया ,
दूृश्य कल्पनाओं में जग बसाया ,
सब कुश धरा पे है उगाया ,
समय की ढ़ाल पे इसमें ही समाया !
जब -जब जग जीवन संकट में आया ,
किसी ने धरा पे उत्पात मचाया ,
बन-बन के मसीहा तूं ही आया ,
दुनिया को सही मार्ग दिखाया ,
तेरे आने का प्रमाण धरा पे ही पाया ,
तेरे चिन्हों पे जग ने शीश झुकाया !
इस जग का तूं ही कर्ता ,
जब चाहे करिश्में करता ,
सब कुश जग में तूं ही घटता ,
पल पल में परिवर्तन करता !
बन बन के फ़रिश्ता धरा पे उतरना ,
इस जग पे उपकार तूँ करना ,
मानव मन में सोच खरी भरना ,
जो पल पल प्रकृति से खिलवाड़ है करता !
जाड़ों का मौसम … (स्वाति नैथानी)
लो, फिर आ गया जाड़ों का मौसम ,
पहाड़ों ने ओढ़ ली चादर धूप की
किरणें करने लगी अठखेली झरनों से
चुपके से फिर देख ले उसमें अपना रूप ।
ओस भी इतराने लगी है
सुबह के ताले की चाबी
जो उसके हाथ लगी है ।
भीगे पत्तों को अपने पे
गुरूर हो चला है
आजकल है मालामाल
जेबें मोतियों से भरीं हैं ।
धुंध खेले आँख मिचोली
हवाओं से
फिर थक के सो जाए
वादियों की गोद में ।
आसमान सवरने में मसरूफ है
सूरज इक ज़रा मुस्कुरा दे
तो शाम को
शरमा के सुर्ख लाल हो जाए ।
बर्फीली हवाएं देती थपकियाँ रात को
चुपचाप सो जाए वो
करवट लेकर …
कहर………….. (धर्मेन्द्र कुमार निवातियाँ)
रह रहकर टूटता रब का कहर
खंडहरों में तब्दील होते शहर
सिहर उठता है बदन
देख आतंक की लहर
आघात से पहली उबरे नहीं
तभी होता प्रहार ठहर ठहर
कैसी उसकी लीला है
ये कैसा उमड़ा प्रकति का क्रोध
विनाश लीला कर
क्यों झुंझलाकर करे प्रकट रोष
अपराधी जब अपराध करे
सजा फिर उसकी सबको क्यों मिले
पापी बैठे दरबारों में
जनमानष को पीड़ा का इनाम मिले
हुआ अत्याचार अविरल
इस जगत जननी पर पहर – पहर
कितना सहती, रखती संयम
आवरण पर निश दिन पड़ता जहर
हुई जो प्रकति संग छेड़छाड़
उसका पुरस्कार हमको पाना होगा
लेकर सीख आपदाओ से
अब तो दुनिया को संभल जाना होगा
कर क्षमायाचना धरा से
पश्चाताप की उठानी होगी लहर
शायद कर सके हर्षित
जगपालक को, रोक सके जो वो कहर
बहुत हो चुकी अब तबाही
बहुत उजड़े घरबार,शहर
कुछ तो करम करो ऐ ईश
अब न ढहाओ तुम कहर !!
अब न ढहाओ तुम कहर !!
संभल जाओ ऐ दुनिया वालो (डी. के. निवातियाँ )
संभल जाओ ऐ दुनिया वालो
वसुंधरा पे करो घातक प्रहार नही !
रब करता आगाह हर पल
प्रकृति पर करो घोर अत्यचार नही !!
लगा बारूद पहाड़, पर्वत उड़ाए
स्थल रमणीय सघन रहा नही !
खोद रहा खुद इंसान कब्र अपनी
जैसे जीवन की अब परवाह नही !!
लुप्त हुए अब झील और झरने
वन्यजीवो को मिला मुकाम नही !
मिटा रहा खुद जीवन के अवयव
धरा पर बचा जीव का आधार नहीं !!
नष्ट किये हमने हरे भरे वृक्ष,लताये
दिखे कही हरयाली का अब नाम नही !
लहलाते थे कभी वृक्ष हर आँगन में
बचा शेष उन गलियारों का श्रृंगार नही !
कहा गए हंस और कोयल, गोरैया
गौ माता का घरो में स्थान रहा नही !
जहाँ बहती थी कभी दूध की नदिया
कुंए,नलकूपों में जल का नाम नही !!
तबाह हो रहा सब कुछ निश् दिन
आनंद के आलावा कुछ याद नही
नित नए साधन की खोज में
पर्यावरण का किसी को रहा ध्यान नही !!
विलासिता से शिथिलता खरीदी
करता ईश पर कोई विश्वास नही !
भूल गए पाठ सब रामयण गीता के,
कुरान,बाइबिल किसी को याद नही !!
त्याग रहे नित संस्कार अपने
बुजुर्गो को मिलता सम्मान नही !
देवो की इस पावन धरती पर
बचा धर्म -कर्म का अब नाम नही !!
संभल जाओ ऐ दुनिया वालो
वसुंधरा पे करो घातक प्रहार नही !
रब करता आगाह हर पल
प्रकृति पर करो घोर अत्यचार नही !!
Videos on Hindi Poems On Nature
नीचे कुछ प्रकृति पर कविताओं की कुछ videos दी गयी हैं:
रंग बिरंगी धरती
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A great khazana of hindi poem that we will preserve it life time thank you.
बहुत ही बढ़िया कविता संग्रह
धन्यवाद. 🙂
Nice Article