National Unity and Development Essay in Hindi अर्थात इस आर्टिकल में आप पढेंगे राष्ट्रीय एकता और राष्ट्र-निर्माण के विषय पर एक विस्तार से लिखा हुआ निबंध.
राष्ट्रीय एकता और राष्ट्र-निर्माण
राष्ट्र न तो कोई भूमि का बेजान टुकडा होता है कि जिस पर किसी वस्तु का निर्माण किया जा सके । राष्ट्र किसी भवन का नाम भी. या नक्शा भी नहीं है कि जिसकी मरम्मत या फिर जिस के अनुसार किसी तरह का कोई निर्माण-कार्य किया जा सके । राष्ट्र तो एक भावना हुआ करती है कि जो व्यक्ति या व्यक्तियों को किसी भूभाग के कण-कण से, प्रत्येक जड-चेतन प्राणी और पदार्थ से जोडे रहा करती है ।
यह भावना तभी सजीव-सप्राण रह पाती है कि जब उस भावना के अनुरूप एक विशिष्ट-भूभाग से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति में एकता का भाव और संगठन हो । उसके बाद जिसे राष्ट्र-निर्माण कहा जाता है, वह संभव हुआ करता है । राष्ट्र-निर्माण का एक अर्थ होता है एकता और संगठन का अनवरत निर्माण एवं विकास, दूसरा अर्थ होता है वह एकताबद्ध एवं संगठित समाज जिस भूभाग पर निवास कर रहा है, उस का समय एवं युग-परिस्थितियो के अनुरूप विकास-कार्य, उन्नति एवं उत्कर्ष के उपाय करना आदि ।
इस तरह जन-समुदाय या समुदायों की एकता वह मूल आधार है, जिस पर भावना के स्तर पर राष्ट्रीयता और व्यवहार के स्तर पर राष्ट्र के दृश्य स्वरूप भूभाग अर्थात् देश का नव निर्माण किया जा सकता या संभव हो पाया करता है । भारतीय राष्ट्रीयता के पर्याय भारत नामक देश में या भूभाग पर अनेक धर्मों, जातियो, सभ्यता-सस्कृतियों, विश्वासों, रीति-नीतियो, रहन-सहन, खान-पान एवं भाषाओं को मानने और प्रयोग करने वाले अनेक जन-समुदाय निवास कर रहे हैं । आरम्भ से ही अनेक ऐसे दौर आते रहे, जब कई तरह के आक्रान्ताओं ने इस भूभाग पर आक्रमण कर इसे पद दलित ध्वस्त या अधीन करना चाहा । कई बार ऐसा लगा भी कि जैसे सामने चट्टान आ जाने पर?? बहती धारा रुक जाया करती है ।
उसी तरह यह देश और इसकी राष्ट्रीयता की अनवरत प्रवहणशील धारा भी रुक गई है । लेकिन जैसे धारा अपने को सचित कर इधर-उधर से रास्ता ढूँढ और बना कर फिर आगे बह जाया करती है, वैसे ही भारतीयता की धारा भी आगे बढती गई । आक्रमण करने वाले कुछ लौट गए, कुछ यहाँ की मूल धारा में समग्रत: घुलमिल कर एक हो गए और कुछ ने यहाँ का बने कर भी अपना अलग स्वरूप एव व्यक्तित्व बनाए रखा । आज जो अनेकरूपता एवं ऊपरिकथित विविधता दीख पडती है, इस कारण से तीसरे प्रकार के बहिरागत लोग ही हैं ।
अपना अलग व्यक्तित्व और विश्वास रखते हुए भी राष्ट्रीय भावना के एकत्व के कारण ही वे सब एक हैं या इस देश के ही निवासी कहलाने के अधिकारी हैं । राष्ट्र के निर्माण के लिए देश-जाति का माहौल अन्त-बाह्य हर स्तर पर शान्त ऐसा ही चाहिए । शान्ति तभी बनी रह सकती है कि अब अपने-अपने सामुदायिक विश्वास स्वतत्रतापूर्वक बनाए रखते हुए नुाईा सभी भीतर-बाहर से एक बने रहें । एकता और सगठन मे कहीं रत्ती भर भी, दशा नजर न आए । यो सामान्य मत-भेद बने रहना सहज स्वाभाविक है ।
कहावत है न. जहाँ पर अनेक बर्तन रखे होगे, उठाते-रखते समय वे थोडे-बहुत टकराएंगे ही । टकराने पर उनकी खनक मी अवश्य सुनाई देगी, पर इसी कारण कोई उन्हे उठाकर रसोई घर से बाहर नही फेक दिया करता । उसी तरह बहुत सारे लोगो मे वैचारिक-सामुदायिक जैसे भेद-भाव बने रहने पर भी शान्ति बनी रह सकती है कि जो राष्ट्र-हित और निर्माण की पहली शर्त है । शान्ति बनी रहने पर वह सारा धन, शक्ति और समय निर्माण-कार्यों पर लगाया जा सकता है कि जो अराजकता और अशान्ति की स्थिति में उसे मिटाने या सम्भालने में खर्च किया जाता है ।
राष्ट्रीय स्तर पर एक और संगठित राष्ट्र एक बडीशक्ति के रूप में उभर कर सामने आया करते हैं । उस शक्ति मे अपनी-अपनी स्थिति एवं सामर्थ्य के अनुसार सभी का स्वाभाविक योगदान रहा और मान लिया जाता है । उस सामूहिक शक्ति का उपयोग करके कोई देश जैसा भी निर्माण-कार्य कर सकता है । स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद अभी तक हमारा देश क्योकि राष्ट्र-निर्माण के तरह-तरह के कार्यो मे लगा हुआ है, अत: उसे सभी के सहयोग की पूर्ण आवश्यकता है । जैसे बून्द-बून्द से घडा भरा करता है, वैसे ही व्यक्ति-व्यक्ति के पारस्परिक मेल से एकता का उदय हुआ करता है । वह एकता ही उस शक्ति का प्रतीक हुआ करती है, जिसे निर्मायक या निर्मातृ शक्ति कहा जाता है ।
आज भारत को इसी शक्ति की आवश्यकता है इसके यानि एकता के अभाव मे कोई भी देश न तो अपना निर्माण ही कर सकता है और न एक कदम भी आगे बढ सकता है । जो राष्ट्र एक एव संगठित हुआ करता है, उसे कोई तोड नहीं सकता । कोई भी उसका कुछ बिगाड नहीं सकता ।
उसे प्रगति ओर विकास की राह पर निरन्तर आगे बढते रहने से कोई रोक भी नहीं सकता । जैसे मोटे रस्से को रेशे-रेशे अलग कर के तो तोडा जा सकता है; पर अपने बटे हुए मूल रूप में नहीं, उसी प्रकार देशों-राष्ट्रों की भी स्थिति हुआ करती है । आज कई बार जब भाडे के. टद्द विदेशी एजेण्ट या फिर पैसे के लिए अपनी अस्मिता को बेच देने वाले स्वार्थी लोग अपने हत्थकण्डों से अराजकता फैला कर राष्ट्र को तोडने का प्रयास करने लगते हैं, तब चिन्ता होना स्वाभाविक हुआ करता है ।
प्रत्येक सच्चे मानव और राष्ट्रजन का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि वह अपने आस-पास चौकन्नी दृष्टि रख इस तरह के तत्त्वों को पनपने या सिर उठाने का क्षीण-सा भी अवसर प्रदान न करे ताकि वह शान्ति स्थायी रूप से बनी रहे कि राष्ट्र-निर्माण और विकास-कार्यों के लिए जो परम आवश्यक हुआ करती है । उसके बिना गुजारा हो पाना सभव नहीं । यदि राष्ट्रीय एकता बनाए रख कर हम निर्माण और विकास-कार्य न कर सके, तो भविष्य का इतिहास हमे कभी क्षमा न कर सकेगा, यह निश्चित है ।
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