फिर इस अन्दाज़ से बहार आई / ग़ालिब
Contents
- 1 फिर इस अन्दाज़ से बहार आई / ग़ालिब
- 2 गुलशन की तेरी सोहबत अज़ बसकि ख़ुश आई है / ग़ालिब
- 3 रुबाइयां / ग़ालिब
- 4 क़फ़स में हूं गर अच्छा भी न जाने मेरे शेवन को / ग़ालिब
- 5 चाक की ख़्वाहिश / ग़ालिब
- 6 कल के लिए आज कर न ख़िस्सत शराब में / ग़ालिब
- 7 मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किये हुए / ग़ालिब
- 8 घर हमारा जो न रोते भी तो वीरां होता / ग़ालिब
- 9 जुज़ क़ैस और कोई न आया / ग़ालिब
- 10 इश्क़ तासीर से नौमेद नहीं / ग़ालिब
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फिर इस अंदाज़ से बहार आई
कि हुए मेहरो-मह तमाशाई
देखो, ऐ साकिनान-ए-ख़ित्त-ए-ख़ाक
इसको कहते हैं आलम-आराई
कि ज़मीं हो गई है सर-ता-सर
रूकशे-सतहे-चर्चे-मीनाई
सब्ज़ा को जब कहीं जगह न मिली
बन गया रू-ए-आब पर काई
सब्ज़ा-ओ-गुल के देखने के लिये
चश्मे-नर्गिस को दी है बीनाई
है हवा में शराब की तासीर
बादा-नोशी है बाद-पैमाई
क्यूँ न दुनिया को हो ख़ुशी “ग़ालिब”
शाह-ए-दींदार ने शिफ़ा पाई
गुलशन की तेरी सोहबत अज़ बसकि ख़ुश आई है / ग़ालिब
गुलशन को तेरी सोहबत अज़ बसकि ख़ुश आई है
हर ग़ुंचे का गुल होना आग़ोश-कुशाई है
वां कुनगुर-ए-इसतिग़ना हर दम है बुलंदी पर
यां नाले को और उलटा दावा-ए-रसाई है
अज़ बसकि सिखाता है ग़म, ज़ब्त के अन्दाज़े
जो दाग़ नज़र आया इक चश्म-नुमाई है
रुबाइयां / ग़ालिब
आतिशबाज़ी है जैसे शग़्ले-अतफ़ाल
है सोज़े-ज़िगर का भी इसी तौर का हाल
था मूजीदे-इश्क़ भी क़यामत कोई
लड़कों के लिए गया है क्या खेल निकाल
दिल था की जो जाने दर्द तम्हीद सही
बेताबी-रश्क व हसरते-दीद सही
हम और फ़सुर्दन, ऐ तज़ल्ली! अफ़सोस
तकरार रवा नहीं तो तजदीद सही
है ख़ल्क़ हसद क़माश लड़ने के लिए
वहशत-कदा-ए-तलाश लड़ने के लिए
यानी हर बार सूरते-क़ागज़े-बाद
मिलते हैं ये बदमाश लड़ने के लिए
दिल सख़्त निज़न्द हो गया है गोया
उससे गिलामन्द हो गया है गोया
पर यार के आगे बोल सकते ही नहीं
‘ग़ालिब’ मुंह बंद हो गया है गोया
दुःख जी के पसंद हो गया है ‘ग़ालिब’
दिल रुककर बंद हो गया है ‘ग़ालिब’
वल्लाह कि शब को नींद आती ही नहीं
सोना सौगन्द हो गया है ‘ग़ालिब’
मुश्किल है ज़बस कलाम मेरा ऐ दिल!
सुन-सुन के उसे सुख़नवराने-कामिल
आसान कहने की करते हैं फ़रमाइश
गोयम मुश्किल वगरना गोयम मुश्किल
कहते हैं कि अब वो मर्दम-आज़ार नहीं
उश्शाक़ की पुरसिश से उसे आ़र नहीं
जो हाथ कि ज़ुल्म से उठाया होगा
क्योंकर मानूं कि उसमें तलवार नहीं
हम गरचे बने सलाम करने वाले
कहते हैं दिरंग काम करने वाले
कहते हैं कहें खुदा से, अल्लाह अल्लाह
वो आप हैं सुबह शाम करने वाले
समाने-ख़ुरो-ख़्वाब कहाँ से लाऊं?
आराम के असबाब कहाँ से लाऊं?
रोज़ा मेरा ईमान है ‘ग़ालिब’ लेकिन
ख़स-ख़ाना-ओ-बर्फ़ाब कहाँ से लाऊं?
क़फ़स में हूं गर अच्छा भी न जाने मेरे शेवन को / ग़ालिब
क़फ़स में हूं गर अचछा भी न जानें मेरे शेवन को
मिरा होना बुरा क्या है नवा-संजान-ए-गुलशन को
नहीं गर हम-दमी आसां न हो यह रश्क कया कम है
न दी होती ख़ुदाया आरज़ू-ए-दोस्त दुश्मन को
न निकला आंख से तेरी इक आंसू उस जराहत पर
किया सीने में जिस ने ख़ूं-चकां मिज़गान-ए-सोज़न को
ख़ुदा शरमाए हाथों को कि रखते हैं कशाकश में
कभी मेरे गरेबां को कभी जानां के दामन को
अभी हम क़तल-गह का देखना आसां समझते हैं
नहीं देखा शिनावर जू-ए-ख़ूं में तेरे तौसन को
हुआ चरचा जो मेरे पांव की ज़ंजीर बनने का
किया बेताब कां में जुनबिश-ए जौहर ने आहन को
ख़ुशी क्या खेत पर मेरे अगर सौ बार अब्र आवे
समझता हूं कि ढूंढे है अभी से बरक़ ख़िरमन को
वफ़ादारी ब-शरत-ए-उसतुवारी अस्ल-ए-ईमां है
मरे बुत-ख़ाने में तो काबे में गाढ़ो बरहमन को
शहादत थी मिरी क़िसमत में जो दी थी यह ख़ू मुझ को
जहां तलवार को देखा झुका देता था गरदन को
न लुटता दिन को तो कब रात को यूं बे-ख़बर सोता
रहा खटका न चोरी का दुआ देता हूं रहज़न को
सुख़न क्या कह नहीं सकते कि जूया हों जवाहिर के
जिगर क्या हम नहीं रखते कि खोदें जा के मादन को
मिरे शाह-ए-सुलैमां-जाह से निसबत नहीं ग़ालिब
फ़रीदून-ओ-जम-ओ-कैख़ुसरव-ओ-दाराब-ओ-बहमन को
चाक की ख़्वाहिश / ग़ालिब
चाक की ख़्वाहिश, अगर वहशत ब-उरियानी करे
सुबह के मानिन्द ज़ख़्म-ए-दिल गिरेबानी करे
जल्वे का तेरे वह आ़लम है कि गर कीजे ख़याल
दीदा-ए दिल को ज़ियारत-गाह-ए हैरानी करे
है शिकस्तन से भी दिल नौमीद या रब कब तलक
आब-गीना कोह पर अ़रज़-ए गिरां-जानी करे
मै-कदा गर चश्म-ए-मस्त-ए-नाज़ से पावे शिकसत
मू-ए-शीशा दीदा-ए-साग़र की मिज़ग़ानी करे
ख़त्त-ए-आ़रिज़ से लिखा है, ज़ुल्फ़ को उल्फ़त ने अ़हद
यक-क़लम मंज़ूर है, जो कुछ परेशानी करे
कल के लिए आज कर न ख़िस्सत शराब में / ग़ालिब
कल के लिये कर आज न ख़िस्सत शराब में
यह सू-ए ज़न है साक़ी-ए कौसर के बाब में
हैं आज कयूं ज़लील कि कल तक न थी पसनद
गुसताख़ी-ए फ़रिशतह हमारे जनाब में
जां कयूं निकलने लगती है तन से दम-ए समा`
गर वह सदा समाई है चनग-ओ-रबाब में
रौ में है रख़श-ए-उमर कहां देखिये थमे
ने हाथ बाग पर है न पा है रकाब में
उतना ही मुझ को अपनी हक़ीक़त से बु`द है
जितना कि वहम-ए ग़ैर से हूं पेच-ओ-ताब में
असल-ए शुहूद-ओ-शाहिद-ओ-मशहूद एक है
हैरां हूं फिर मुशाहदह है किस हिसाब में
है मुशतमिल नुमूद-ए सुवर पर वुजूद-ए बहर
यां कया धरा है क़तरह-ओ-मौज-ओ-हुबाब में
शरम इक अदा-ए नाज़ है अपने ही से सही
हैं कितने बे-हिजाब कि यूं हैं हिजाब में
आराइश-ए जमाल से फ़ारिग़ नहीं हनूज़
पेश-ए नज़र है आइनह दाइम नक़ाब में
है ग़ैब-ए ग़ैब जिस को समझते हैं हम शुहूद
हैं ख़वाब में हनूज़ जो जागे हैं ख़वाब में
ग़ालिब नदीम-ए दोसत से आती है बू-ए दोसत
मशग़ूल-ए हक़ हूं बनदगी-ए बू-तुराब में
मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किये हुए / ग़ालिब
मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किये हुए
जोश-ए-क़दह से बज़्म-ए-चिराग़ां किये हुए
करता हूँ जमा फिर जिगर-ए-लख़्त-लख़्त को
अर्सा हुआ है दावत-ए-मिज़गां किये हुए
फिर वज़ा-ए-एहतियात से रुकने लगा है दम
बरसों हुए हैं चाक गिरेबां किये हुए
फिर गर्म-नाला हाये-शररबार है नफ़स
मुद्दत हुई है सैर-ए-चिराग़ां किये हुए
फिर पुर्सिश-ए-जराहत-ए-दिल को चला है इश्क़
सामान-ए-सद-हज़ार-नमकदां किये हुए
फिर भर रहा है ख़ामा-ए-मिज़गां ब-ख़ून-ए-दिल
साज़-ए-चमन-तराज़ी-ए-दामां किये हुए
बाहमदिगर हुए हैं दिल-ओ-दीदा फिर रक़ीब
नज़्ज़ारा-ओ-ख़याल का सामां किये हुए
दिल फिर तवाफ़-ए-कू-ए-मलामत को जाये है
पिंदार का सनम-कदा वीरां किये हुए
फिर शौक़ कर रहा है ख़रीदार की तलब
अर्ज़-ए-मताअ़ ए-अ़क़्ल-ओ-दिल-ओ-जां किये हुए
दौड़े है फिर हरेक गुल-ओ-लाला पर ख़याल
सद-गुलसितां निगाह का सामां किये हुए
फिर चाहता हूँ नामा-ए-दिलदार खोलना
जां नज़र-ए-दिलफ़रेबी-ए-उन्वां किये हुए
माँगे है फिर किसी को लब-ए-बाम पर हवस
ज़ुल्फ़-ए-सियाह रुख़ पे परेशां किये हुए
चाहे फिर किसी को मुक़ाबिल में आरज़ू
सुर्मे से तेज़ दश्ना-ए-मिज़गां किये हुए
इक नौबहार-ए-नाज़ को ताके है फिर निगाह
चेहरा फ़ुरोग़-ए-मै से गुलिस्तां किये हुए
फिर जी में है कि दर पे किसी के पड़े रहें
सर ज़रे-बार-ए-मिन्नत-ए-दरबां किये हुए
जी ढूँढता है फिर वही फ़ुर्सत, कि रात दिन
बैठे रहें तसव्वुर-ए-जानां किये हुए
“ग़ालिब” हमें न छेड़ कि फिर जोश-ए-अश्क से
बैठे हैं हम तहय्या-ए-तूफ़ां किये हुए
घर हमारा जो न रोते भी तो वीरां होता / ग़ालिब
घर हमारा जो न रोते भी तो वीरां होता
बहर गर बहर न होता तो बयाबां होता
तंगी-ए-दिल का गिला क्या ये वो काफ़िर दिल है
कि अगर तंग न होता, तो परेशां होता
बादे-यक उम्र-वराअ बार तो देता बारे
काश, रिज़्वां ही दर-ए-यार का दरबां होता
जुज़ क़ैस और कोई न आया / ग़ालिब
जुज़ क़ैस और कोई न आया बरूए-कार
सहरा मगर बतंगी-ए-चश्मे-हसूद था
आशुफ़्तगी ने नक़्शे-सवैदा किया दुरुस्त
ज़ाहिर हुआ कि दाग़ का सरमाया दूद था
था ख़्वाब में ख़याल को तुझसे मुआमला
जब आँख खुल गई न ज़ियां था न सूद था
लेता हूँ मकतबे-ग़मे-दिल में सबक़ हनूज़
लेकिन यही कि ‘रफ़्त’-‘गया’, और ‘बूद’-था
ढाँपा कफ़न ने दाग़े-अ़यूबे-बरहनगी
मैं वर्ना हर लिबास में नंगे-वजूद था
तेशे बग़ैर मर न सका कोहकन ‘असद’
सरगश्ता-ए ख़ुमारे-रुसूम-ओ-क़यूद था
इश्क़ तासीर से नौमेद नहीं / ग़ालिब
इश्क़ तासीर से नोमीद नहीं
जां-सुपारी शजर-ए-बेद नहीं
सल्तनत दस्त-ब-दस्त आई है
जाम-ए-मै ख़ातिम-ए-जमशेद नहीं
है तजल्ली तेरी सामाने-वजूद
ज़र्रा बे-परतवे-ख़ुर्शीद नहीं
राज़-ए-माशूक़ न रुसवा हो जाये
वर्ना मर जाने में कुछ भेद नहीं
गर्दिश-ए-रंग-ए-तरब से डर है
ग़म-ए-महरूमी-ए-जावेद नहीं
कहते हैं जीते हैं उम्मीद पे लोग
हम को जीने की भी उम्मीद नहीं
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