Makhanlal Chaturvedi Poems अर्थात इस आर्टिकल में आप पढेंगे, माखनलाल चतुर्वेदी की हिन्दी कविताएँ. ये आधुनिक काल के एक प्रसिद्ध भारतीय हिन्दी कवि थे. इनकी कविताओं का एक संग्रह हमने आपके लिए इसमें दिया है.
Makhanlal Chaturvedi Poems – माखनलाल चतुर्वेदी की हिन्दी कविताएँ
Contents
- 1 Makhanlal Chaturvedi Poems – माखनलाल चतुर्वेदी की हिन्दी कविताएँ
- 1.1 पुतलियों में कौन / माखनलाल चतुर्वेदी
- 1.2 बसंत मनमाना / माखनलाल चतुर्वेदी
- 1.3 अंजलि के फूल गिरे जाते हैं / माखनलाल चतुर्वेदी
- 1.4 हिमालय पर उजाला / माखनलाल चतुर्वेदी
- 1.5 यह बरसगाँठ / माखनलाल चतुर्वेदी
- 1.6 पतित / माखनलाल चतुर्वेदी
- 1.7 बोल तो किसके लिए मैं / माखनलाल चतुर्वेदी
- 1.8 हरियालेपन की साध / माखनलाल चतुर्वेदी
- 1.9 तुम भी देते हो तोल तोल / माखनलाल चतुर्वेदी
- 1.10 जहाँ से जो ख़ुद को / माखनलाल चतुर्वेदी
- 1.11 जोड़ी टूट गई / माखनलाल चतुर्वेदी
- 1.12 गुनों की पहुँच के / माखनलाल चतुर्वेदी
- 1.13 पास बैठे हो / माखनलाल चतुर्वेदी
- 1.14 वे तुम्हारे बोल / माखनलाल चतुर्वेदी
- 1.15 ये अनाज की पूलें तेरे काँधें झूलें / माखनलाल चतुर्वेदी
- 1.16 इस तरह ढक्कन लगाया रात ने / माखनलाल चतुर्वेदी
- 1.17 रोटियों की जय / माखनलाल चतुर्वेदी
- 1.18 पथ में / माखनलाल चतुर्वेदी
- 1.19 तेरा पता / माखनलाल चतुर्वेदी
- 1.20 अपना आप हिसाब लगाया / माखनलाल चतुर्वेदी
- 1.21 दूबों के दरबार में / माखनलाल चतुर्वेदी
- 1.22 तान की मरोर / माखनलाल चतुर्वेदी
- 1.23 मन की साख / माखनलाल चतुर्वेदी
- 1.24 नीलिमा के घर / माखनलाल चतुर्वेदी
- 1.25 धमनी से मिस धड़कन की / माखनलाल चतुर्वेदी
- 1.26 तुम्हारा चित्र / माखनलाल चतुर्वेदी
- 1.27 क्या आकाश उतर आया है / माखनलाल चतुर्वेदी
- 1.28 अटल / माखनलाल चतुर्वेदी
- 1.29 तुम मन्द चलो / माखनलाल चतुर्वेदी
- 1.30 आँसू से / माखनलाल चतुर्वेदी
- 1.31 Related Posts:
पुतलियों में कौन / माखनलाल चतुर्वेदी
पुतलियों में कौन?
अस्थिर हो, कि पलकें नाचती हैं!
विन्ध्य-शिखरों से
तरल सन्देश मीठे
बाँटता है कौन
इस ढालू हृदय पर?
कौन पतनोन्मुख हुआ
दौड़ा मिलन को?
कौन द्रुत-गति निज-
पराजय की विजय पर?
पत्र के प्रतिबिम्ब, धारों पर
विकल छवि बाँचती है,
पुतलियों में कौन?
अस्थिर हो, कि पलकें नाचती हैं!
बिना गूँथे, कौन
मुक्ताहार बन कर,
सिंधु के घर जा
रहा, पहुँचा रहा है?
कौन अंधा, अल्प
का सौंदर्य ढोता,
पूर्ण पर अस्तित्व
खोने जा रहा है?
कौन तरणी इस पतन का
वेग जी से जाँचती है?
पुतलियों में कौन?
अस्थिर हो, कि पलकें नाचती हैं!
धूलि में भी प्राण हैं
जल-दान तो कर,
धूलि में अभिमान है
उट्ठे हरे सर,
धूलि में रज-दान है
फल चख मधुर तर,
धूलि में भगवान है
फिरता घरों घर,
धूलि में ठहरे बिना, यह
कौन-सा पथ नापती है
पुतलियों में कौन?
अस्थिर हो, कि पलकें नाचती हैं!
बसंत मनमाना / माखनलाल चतुर्वेदी
चादर-सी ओढ़ कर ये छायाएँ
तुम कहाँ चले यात्री, पथ तो है बाएँ।
धूल पड़ गई है पत्तों पर डालों लटकी किरणें
छोटे-छोटे पौधों को चर रहे बाग में हिरणें,
दोनों हाथ बुढ़ापे के थर-थर काँपे सब ओर
किन्तु आँसुओं का होता है कितना पागल ज़ोर-
बढ़ आते हैं, चढ़ आते हैं, गड़े हुए हों जैसे
उनसे बातें कर पाता हूँ कि मैं कुछ जैसे-तैसे।
पर्वत की घाटी के पीछे लुका-छिपी का खेल
खेल रही है वायु शीश पर सारी दनिया झेल।
छोटे-छोटे खरगोशों से उठा-उठा सिर बादल
किसको पल-पल झांक रहे हैं आसमान के पागल?
ये कि पवन पर, पवन कि इन पर, फेंक नज़र की डोरी
खींच रहे हैं किसका मन ये दोनों चोरी-चोरी?
फैल गया है पर्वत-शिखरों तक बसन्त मनमाना,
पत्ती, कली, फूल, डालों में दीख रहा मस्ताना।
अंजलि के फूल गिरे जाते हैं / माखनलाल चतुर्वेदी
अंजलि के फूल गिरे जाते हैं
आये आवेश फिरे जाते हैं।
चरण-ध्वनि पास-दूर कहीं नहीं
साधें आराधनीय रही नहीं
उठने,उठ पड़ने की बात रही
साँसों से गीत बे-अनुपात रही
बागों में पंखनियाँ झूल रहीं
कुछ अपना, कुछ सपना भूल रहीं
फूल-फूल धूल लिये मुँह बाँधे
किसको अनुहार रही चुप साधे
दौड़ के विहार उठो अमित रंग
तू ही `श्रीरंग’ कि मत कर विलम्ब
बँधी-सी पलकें मुँह खोल उठीं
कितना रोका कि मौन बोल उठीं
आहों का रथ माना भारी है
चाहों में क्षुद्रता कुँआरी है
आओ तुम अभिनव उल्लास भरे
नेह भरे, ज्वार भरे, प्यास भरे
अंजलि के फूल गिरे जाते हैं
आये आवेश फिरे जाते हैं।।
हिमालय पर उजाला / माखनलाल चतुर्वेदी
लिपट कर गईं बलवान चाहें,
घिसी-सी हो गईं निर्माल्य आहें,
भृकुटियाँ किन्तु हैं निज तीर ताने
हुए जड़ पर सफल कोमल निशाने।
लटें लटकें, भले ही ओठ चूमें,
पुतलियाँ प्राण पर सौ साँस झूमें।
यहाँ है किन्तु अठखेली नवेली,
हिमालय के चढ़ी सिर एक बेली।
नगाधिप में हवा कुछ छन रही है,
नगाधिप में हवा कुछ बन रही है।
किरन का एक भाला कह रहा है,
हिमालय पर उजाला हो रहा है।
रचनाकाल: खण्डवा-१९५२
यह बरसगाँठ / माखनलाल चतुर्वेदी
किस तरुणी के प्रथम-हृदय-अर्पण के साहस-सी ये साँसें,
और तरुण के प्रथम-प्रेम-सी जमुहाती, अटपटी उसाँसें,
गई साँस के लौट-लौट आने का यह
करोड़वाँ-सा क्षण
वह क्षण जो बनने आया है
परम याद के कर का कंकण।
टेढ़े पल,
उलझी घड़ियाँ,
काले दिन, ये–
मट्मैली रातें;
बन्दन, बलि, बन्दीगृह जिन पर
बोते रहे विषम सौगातें।
उन साँसों की एक डोर का
एक छोर,
बरस-गाँठ
तेरी यह बरस-गाँठ
रचनाकाल: बुरहानपुर–४ अप्रैल, १९३६
पतित / माखनलाल चतुर्वेदी
ममता के मीठे आमिष पर रहा टूटता भूखा-सा,
भावों का सोता कर डाला, तीव्र ताप से रूखा-सा।
कैसे? कहाँ? बता, चढ़ पाए जीवन-पंकज सूखा-सा,
आवे क्यों दिलदार, जहाँ दिल हो, दावों से दूखा-सा?
गिरने को जी चाह रहा है आगे और रसातल से,
ऊँचा शीश उठाकर देखूँ? पर, देखूँ किसके बल से?
रचनाकाल: सिवनी-मालवा-१९२४
बोल तो किसके लिए मैं / माखनलाल चतुर्वेदी
बोल तो किसके लिए मैं
गीत लिक्खूँ, बोल बोलूँ?
प्राणों की मसोस, गीतों की-
कड़ियाँ बन-बन रह जाती हैं,
आँखों की बूँदें बूँदों पर,
चढ़-चढ़ उमड़-घुमड़ आती हैं!
रे निठुर किस के लिए
मैं आँसुओं में प्यार खोलूँ?
बोल तो किसके लिए मैं
गीत लिक्खूँ, बोल बोलूँ?
मत उकसा, मेरे मन मोहन कि मैं
जगत-हित कुछ लिख डालूँ,
तू है मेरा जगत, कि जग में
और कौन-सा जग मैं पा लूँ!
तू न आए तो भला कब-
तक कलेजा मैं टटोलूँ?
बोल तो किसके लिए मैं
गीत लिक्खूँ, बोल बोलूँ?
तुमसे बोल बोलते, बोली-
बनी हमारी कविता रानी,
तुम से रूठ, तान बन बैठी
मेरी यह सिसकें दीवानी!
अरे जी के ज्वार, जी से काढ़
फिर किस तौल तोलूँ
बोल तो किसके लिए मैं
गीत लिक्खूँ, बोल बोलूँ?
तुझे पुकारूँ तो हरियातीं-
ये आहें, बेलों-तरुओं पर,
तेरी याद गूँज उठती है
नभ-मंडल में विहगों के स्वर,
नयन के साजन, नयन में-
प्राण ले किस तरह डोलूँ!
बोल तो किसके लिए मैं
गीत लिक्खूँ, बोल बोलूँ?
भर-भर आतीं तेरी यादें
प्रकृति में, बन राम कहानी,
स्वयं भूल जाता हूँ, यह है
तेरी याद कि मेरी बानी!
स्मरण की जंजीर तेरी
लटकती बन कसक मेरी
बाँधने जाकर बना बंदी
कि किस विधि बंद खोलूँ!
बोल तो किसके लिए मैं
गीत लिक्खूँ, बोल बोलूँ?
हरियालेपन की साध / माखनलाल चतुर्वेदी
गौरव-शिखरों! नहीं, समय की मिट्टी में मिलवाओ,
फिर विन्ध्या के मस्तक से करुणा-घन हो झरलाओ,
पृथिवी के आकर्षण के प्रतिकूल उठूँ, दिन लाओ,
जल से प्रथम मुझे आतप की किरणों में नहलाओ!
कई गुना होकर अर्पित
यह मिट्टी में मिल जाना;
हरियाला मस्ताना दाना
कहे कि तुझको जाना।
रचनाकाल: उज्जैन-१९३१
तुम भी देते हो तोल तोल / माखनलाल चतुर्वेदी
तुम भी देते हो तोल-तोल!
नभ से बजली की वह पछाड़,
फिर बूँदें बनना गोल-गोल,
नभ-पति की भारी चकाचौंध,
उस पर बूँदों का मोल-तोल,
बूँदों में विधि के मिला बोल।
तुम भी देते हो तोल-तोल!
भू पर हरितीमा का उभार,
उस पर किसान की काट-छाँट,
हिरनों की उसमें रेल-पेल,
मर्कट-दल की कविता-कुलाँट,
बादल, छवि देते ढोल-ढोल।
तुम भी देते हो तोल-तोल!
टहनी बाहों-सी झूली हो,
हो हवा, किन्तु पथ-भूली हो,
चिडियाँ पंखों से झलती हों,
आँधियाँ कठोर मचलती हों,
मीठे में कड़ुवा घोल-घोल।
तुम भी देते हो तोल-तोल!
रचनाकाल: खण्डवा-१९४४
जहाँ से जो ख़ुद को / माखनलाल चतुर्वेदी
जहाँ से जो ख़ुद को
जुदा देखते हैं
ख़ुदी को मिटाकर
ख़ुदा देखते हैं ।
फटी चिन्धियाँ पहिने,
भूखे भिखारी
फ़कत जानते हैं
तेरी इन्तज़ारी
बिलखते हुए भी
अलख जग रहा है
चिदानंद का
ध्यान-सा लग रहा है ।
तेरी बाट देखूँ,
चने तो चुगा जा,
हैं फैले हुए पर,
उन्हें कर लगा जा,
मैं तेरा ही हूँ इसकी
साखी दिला जा,
ज़रा चुहचुहाहट
तो सुनने को आ जा,
जो तु यों इछुड़ने-
बिछुडने लगेगा
तो पिंजड़े का पंछी
भी उड़ने लगेगा ।
जोड़ी टूट गई / माखनलाल चतुर्वेदी
तरुणाई के प्रथम चरण में जोड़ी टूट गई,
फूली हुई रात की रानी, प्रातः रूठ गई!
गन्ध बनी, साँसों भर आई
छन्द बनी फूलों पर छाई
बन आनन्द धूलि पर बिखरी
यौवन के तुतलाते वैभव, सन्ध्या लूट गई!
फूलों भरी रात की रानी सहसा रूठ गई।
मुसुकों भरी मनोरम बेली
यादों की डालों पर खेली
गिरी सभी साधें अलबेली
ऊँचे पर उठती अभिनवता पथ में छूट गई
फूली हुई रात की रानी, कैसे रूठ गई?
रचनाकाल: पातल पानी रेलवे स्टेशन-१९५२
गुनों की पहुँच के / माखनलाल चतुर्वेदी
गुनों की पहुँच के
परे के कुओं में,
मैं डूबा हुआ हूँ
जुड़ी बाजुओं में,
जरा तैरता हूँ, तो
डूबों हुओं में,
अरे डूबने दे
मुझे आँसुओं में!
रे नक्काश, कर लेने
दे अपने जी की,
मिटाऊँ, ला तस्वीर
मैं आइने की!
पास बैठे हो / माखनलाल चतुर्वेदी
चट जग जाता हूँ, चिराग को जलाता हूँ,
हो सजग तुम्हें मैं देख पाता हूँ कि पैठे हो;
पास नहीं आते, हो पुकार मचवाते,
तकसीर बतलाओ क्यों यों बदन उमैठे हो?
दरश दिवाना, जिसे नाम को ही बाना,
उसे शरण विलोकते भी देव-देव ऐंठे हो;
सींखचों में घूमता हूँ, चरणों को चूमता हूँ,
सोचता हूँ, मेरे इष्टदेव पास बैठे हो।
रचनाकाल: बिलासपुर जेल-१९२१
वे तुम्हारे बोल / माखनलाल चतुर्वेदी
वे तुम्हारे बोल!
वह तुम्हारा प्यार, चुम्बन,
वह तुम्हारा स्नेह-सिहरन
वे तुम्हारे बोल!
वे अनमोल मोती
वे रजत-क्षण!
वह तुम्हारे आँसुओं के बिन्दु
वे लोने सरोवर
बिन्दुओं में प्रेम के भगवान का
संगीत भर-भर!
बोलते थे तुम,
अमर रस घोलते थे
तुम हठीले,
पर हॄदय-पट तार
हो पाये कभी मेरे न गीले!
ना, अजी मैंने
सुने तक भी–
नहीं, प्यारे–
तुम्हारे बोल,
बोल से बढ़कर, बजा, मेरे हृदय में
सुख क्षणों का ढोल!
वे तुम्हारे बोल!
किंतु
आज जब,
तुव युगुल-भुज के
हार का
मेरे हिये में–
है नहीं उपहार,
आज भावों से भरा वह–
मौन है, तव मधुर स्वर सुकुमार!
आज मैंने
बीन खोई
बीन-वादक का
अमर स्वर-भार
आज मैं तो
खो चुका
साँसें-उसाँसें;
और अपना लाड़ला
उर ज्वार!
आज जब तुम
हो नहीं, इस-
फूस कुटिया में
कि कसक समेत;
’चेत’ की चेतावनी देने
पधारे हिय-स्वभाव अचेत।
और यह क्या,
वे तुम्हारे बोल!
जिनको वध किया था
पा तुम्हें “सुख साथ!”
कल्पना के रथ चढ़े आये
उठाये तर्जना का हाथ।
आज तुम होते कि
यह वर माँगता हूँ
इस उजड़ती हाट में
घर माँगता हूँ!
लौटकर समझा रहे
जी भा रहे तव बोल,
बोल पर, जी दूखता है
रहे शत शिर डोल,
जब न तुम हो तब
तुम्हारे बोल लौटे प्राण
और समझाने लगे तुम
प्राण हो तुम प्राण!
प्राण बोलो वे तुम्हारे बोल!
कल्पना पर चढ़
उतर जी पर
कसक में घोल
एक बिरिया
एक विरिया
फिर कहो वे बोल!
ये अनाज की पूलें तेरे काँधें झूलें / माखनलाल चतुर्वेदी
ये अनाज की पूलें तेरे काँधें झूलें
तेरा चौड़ा छाता
रे जन-गण के भ्राता
शिशिर, ग्रीष्म, वर्षा से लड़ते
भू-स्वामी, निर्माता !
कीच, धूल, गन्दगी बदन पर
लेकर ओ मेहनतकश!
गाता फिरे विश्व में भारत
तेरा ही नव-श्रम-यश !
तेरी एक मुस्कराहट पर
वीर पीढ़ियाँ फूलें ।
ये अनाज की पूलें
तेरे काँधें झूलें !
इन भुजदंडों पर अर्पित
सौ-सौ युग, सौ-सौ हिमगिरी
सौ-सौ भागीरथी निछावर
तेरे कोटि-कोटि शिर !
ये उगी बिन उगी फ़सलें
तेरी प्राण कहानी
हर रोटी ने, रक्त बूँद ने
तेरी छवि पहचानी !
वायु तुम्हारी उज्ज्वल गाथा
सूर्य तुम्हारा रथ है,
बीहड़ काँटों भरा कीचमय
एक तुम्हारा पथ है ।
यह शासन, यह कला, तपस्या
तुझे कभी मत भूलें ।
ये अनाज की पूलें
तेरे काँधें झूलें !
इस तरह ढक्कन लगाया रात ने / माखनलाल चतुर्वेदी
इस तरह ढक्कन लगाया रात ने
इस तरफ़ या उस तरफ़ कोई न झाँके।
बुझ गया सूर्य
बुझ गया चाँद, तस्र् ओट लिये
गगन भागता है तारों की मोट लिये!
आगे-पीछे,ऊपर-नीचे
अग-जग में तुम हुए अकेले
छोड़ चली पहचान, पुष्पझर
रहे गंधवाही अलबेले।
ये प्रकाश के मरण-चिन्ह तारे
इनमें कितना यौवन है?
गिरि-कंदर पर, उजड़े घर पर
घूम रहे नि:शंक मगन हैं।
घूम रही एकाकिनि वसुधा
जग पर एकाकी तम छाया
कलियाँ किन्तु निहाल हो उठीं
तू उनमें चुप-चुप भर आया
मुँह धो-धोकर दूब बुलाती
चरणों में छूना उकसाती
साँस मनोहर आती-जाती
मधु-संदेशे भर-भर लाती।
रोटियों की जय / माखनलाल चतुर्वेदी
राम की जय पर खड़ी है रोटियों की जय?
त्याग कि कहने लग गया लँगोटियों की जय?
हाथ के तज ’काम’ हों आदर्श के बस ’काम’
राम के बस काम क्यों? हों काम के बस राम।
अन्ध-भाषा अन्ध-भावों से भरा हो देश,
ईश का सिर झुक रहा हो रूढ़ि के आदेश!
प्रेम का वध ही जहाँ हो धर्म का व्यवसाय,
जब हिमायत ही बनी हो श्रेष्ठता का न्याय,
भूत कुछ पचता न हो, भावी न रुचता हाय!
क्यों न वह युग वर्तमानों में पड़ा मर जाय?
जब कलम रचने लगी नव-नवल-कुंभीपाक,
तीन से अनगिनित पत्ते जन रहा जब ढाक!
जब कि वाणी-कामिनी, नित पहिन घुँघुरू यार,
गूँजती मेले लगा कर अन्नदाता-द्वार।
उस दिवस, क्या कह उठे तुम–साधना? क्या मोह!
माँगने दो आज पीढ़ी को सखे विद्रोह।
आज मीठे कीच में ऊगे प्रलय की बेल,
कलम कर कर उठे, फूलें, सिर चढों का खेल,
प्रणय-पथ मिलने लगें अब प्रलय-पथ से दौड़,
सूलियों पर ऊगने में युग लगाये होड़,
ज्वार से? ना ना किसी तलवार से सिर जाय,
प्यार से सिर आय तो ललकार दो सिर जाय।
रचनाकाल: खण्डवा-१९५३
पथ में / माखनलाल चतुर्वेदी
यौवन की पुकार करते हो, जीने दो दरकार नहीं,
रूप-राशि का दम भरते हो, मुझे किन्तु एतबार नहीं,
नहीं सीपियों पर ललचूँगी, मुझे चाहिए वे मोती,
भूतल हीतल अंतरतल में जगमग हो जिनकी जोती,
चाँदी-सोने मकराने की व्यर्थ झोलियाँ ले आये,
चमक और कीमत पर भूले, निष्ठुरता पर ललचाये,
जो हीतल को शीतल कर दे, जहाँ पुकारूँ मिल जाये,
मीठे जलवाली मिट्टी की कलशी कहाँ छोड़ आये!
सूरत देखी, मूरत देखी,
देखे शान मान एहसान,
प्राण-प्रतिष्ठा करूँ बताओ पाऊँ कहाँ प्रेम-भगवान!
रचनाकाल: खण्डवा-१९२१
तेरा पता / माखनलाल चतुर्वेदी
तेरा पता सुना था उन दुखियों की चीत्कारों में,
तुझे खेलते देखा था, पगलों की मनुहारों में,
अरे मृदुलता की नौका के माँझी, कैसे भूला,
मीठे सपने देख रहा काग़ज की पतवारों में?
सागर ने खोला सदियों से,
देख बधिक का द्वार,
रे अन्तरतम के स्वामी उठ, तेरी हुई पुकार।
रचनाकाल: खण्डवा-१९२६
अपना आप हिसाब लगाया / माखनलाल चतुर्वेदी
अपना आप हिसाब लगाया
पाया महा दीन से दीन,
डेसिमल पर दस शून्य जमाकर
लिखे जहाँ तीन पर तीन।
इतना भी हूँ क्या? मेरा मन
हो पाया निःशंक नहीं,
पर मेरे इस महाद्वीप का
इससे छोटा अंक नहीं!
भावों के धन, दाँवों के ॠण,
बलिदानों में गुणित बना,
और विकारों से भाजित कर
शुद्ध रूप प्यारे अपना!
दूबों के दरबार में / माखनलाल चतुर्वेदी
क्या आकाश उतर आया है
दूबों के दरबार में?
नीली भूमि हरी हो आई
इस किरणों के ज्वार में !
क्या देखें तरुओं को उनके
फूल लाल अंगारे हैं;
बन के विजन भिखारी ने
वसुधा में हाथ पसारे हैं।
नक्शा उतर गया है, बेलों
की अलमस्त जवानी का
युद्ध ठना, मोती की लड़ियों से
दूबों के पानी का!
तुम न नृत्य कर उठो मयूरी,
दूबों की हरियाली पर;
हंस तरस खाएँ उस मुक्ता
बोने वाले माली पर!
ऊँचाई यों फिसल पड़ी है
नीचाई के प्यार में!
क्या आकाश उतर आया है
दूबों के दरबार में?
तान की मरोर / माखनलाल चतुर्वेदी
तू न तान की मरोर
देख, एक साथ चल,
तू न ज्ञान-गर्व-मत्त–
शोर, देख साथ चल।
सूझ की हिलोर की
हिलोरबाज़ियाँ न खोज,
तू न ध्येय की धरा–
गुंजा, न तू जगा मनोज।
तू न कर घमंड, अग्नि,
जल, पवन, अनंग संग
भूमि आसमान का चढ़े
न अर्थ-हीन रंग।
बात वह नहीं मनुष्य
देवता बना फिरे,
था कि राग-रंगियों–
घिरा, बना-ठना फिरे।
बात वह नहीं कि–
बात का निचोड़ वेद हो,
बात वह नहीं कि-
बात में हज़ार भेद हो।
स्वर्ग की तलाश में
न भूमि-लोक भूल देख,
खींच रक्त-बिंदुओं–
भरी, हज़ार स्वर्ण-रेख।
बुद्धि यन्त्र है, चला;
न बुद्धि का गुलाम हो।
सूझ अश्व है, चढ़े–
चलो, कभी न शाम हो।
शीश की लहर उठे–
फसल कि, एक शीश दे।
पीढ़ियाँ बरस उठें
हज़ार शीश शीश ले।
भारतीय नीलिमा
जगे कि टूट-टूट बंद
स्वप्न सत्य हों, बहार–
गा उठे अमंद छन्द।
रचनाकाल: सत्यनारायण कुटीर, प्रयाग–१९४८
मन की साख / माखनलाल चतुर्वेदी
मन, मन की न कहीं साख गिर जाये,
क्यूँ शिकायत है?-भाई हर मन में जलन है।
दृग जलधार को निहारने का रोज़गार–
कैसे करें?-हर पुतली में प्राणधन है।
व्यथा कि मिठास का दिवाला कैसे काढ़े उर?
कान कहाँ जायें? लगी प्राणों से लगन है।
प्यार है दिवाना उसे कुछ भी न पाना
वह तेरे द्वार धूनियाँ रमाने में मगन है।
रचनाकाल: खण्डवा-१९४५
नीलिमा के घर / माखनलाल चतुर्वेदी
यह अँगूठी सखि निरख एकान्त की,
जड़ चलो हीरा उपस्थिति का, सुहागन जड़ चलो।
दामिनी भुज की–सयम की–अँगुली छिगुनी,
पहिन कर बैठे जरा नीलम भरे जल-खेत में,
साढ़साती हो, पहिन लो समय,
नग जड़ी, नीलम लगी है यह अँगूठी!
नील तुम, फिर नील नग, फिर नील नभ,
फिर नील सागर, नीलिमा के घर
अनोखी नीलिमा की छवि
सलोनी नीलिमा के घर
पधारे आज
नीतोत्पल सदृश भगवान मेरे!
और पानी हों बरसते गान मेरे!
लुट गये नभ के दिये वरदान मेरे!
अब हँसा तो, बिजलियाँ चमकें,
कि हीरक हार दीखे,
फिर यशोदा को कि माटी भरे मुख में
प्यार दीखे, ज्वार दीखे!
और नव संसार दीखे।
रचनाकाल: खण्डवा, फरवरी-१९५६
धमनी से मिस धड़कन की / माखनलाल चतुर्वेदी
धमनी से मिस धड़कन की
मृदुमाला फेर रहे? बोलो!
दाँव लगाते हो? घिर-घिर कर
किसको घेर रहे? बोलो!
माधव की रट है? या प्रीतम-
प्रीतम टेर रहे? बोलो!
या आसेतु-हिमाचल बलि-
का बीज बखेर रहे? बोलो!
या दाने-दाने छाने जाते
गुनाह गिन जाने को,
या मनका मनका फिरता
जीवन का अलाव जगाने को।
तुम्हारा चित्र / माखनलाल चतुर्वेदी
मधुर! तुम्हारा चित्र बन गया
कुछ नीले कुछ श्वेत गगन पर
हरे-हरे घन श्यामल वन पर
द्रुत असीम उद्दण्ड पवन पर
चुम्बन आज पवित्र बन गया,
मधुर! तुम्हारा चित्र बन गया।
तुम आए, बोले, तुम खेले
दिवस-रात्रि बांहों पर झेले
साँसों में तूफान सकेले
जो ऊगा वह मित्र बन गया,
मधुर! तुम्हारा चित्र बन गया।
ये टिमटिम-पंथी ये तारे
पहरन मोती जड़े तुम्हारे
विस्तृत! तुम जीते हम हारे!
चाँद साथ सौमित्र बन गया।
मधुर! तुम्हारा चित्र बन गया।
क्या आकाश उतर आया है / माखनलाल चतुर्वेदी
क्या आकाश उतर आया है
दूबों के दरबार में
नीली भूमि हरि हो आई
इस किरणों के ज्वार में।
क्या देखें तरुओं को, उनके
फूल लाल अंगारे हैं
वन के विजन भिखारी ने
वसुधा में हाथ पसारे हैं।
नक्शा उतर गया है बेलों
की अलमस्त जवानी का
युद्ध ठना, मोती की लड़ियों
से दूबों के पानी का।
तुम न नृत्य कर उठो मयूरी
दूबों की हरियाली पर
हंस तरस खायें उस-
मुक्ता बोने वाले माली पर।
ऊँचाई यों फिसल पड़ी है
नीचाई के प्यार में,
क्या आकाश उतर आया है
दूबों के दरबार में?
अटल / माखनलाल चतुर्वेदी
हटा न सकता हृदय-देश से तुझे मूर्खतापूर्ण प्रबोध,
हटा न सकता पगडंडी से उन हिंसक पशुओं का क्रोध,
होगा कठिन विरोध करूँगा मैं निश्वय-निष्क्रिय-प्रतिरोध
तोड़ पहाड़ों को लाऊँगा उस टूटी कुटिया का बोध।
चूकेंगें आगे आने पर सारे दाँव विधाता के,
धोऊँगा पद-कंज आँसुओं से मैं जीवन-दाता के।
रचनाकाल: प्रताप प्रेस, कानपुर-१९१९
तुम मन्द चलो / माखनलाल चतुर्वेदी
तुम मन्द चलो,
ध्वनि के खतरे बिखरे मग में-
तुम मन्द चलो।
सूझों का पहिन कलेवर-सा,
विकलाई का कल जेवर-सा,
घुल-घुल आँखों के पानी में-
फिर छलक-छलक बन छन्द चलो।
पर मन्द चलो।
प्रहरी पलकें? चुप, सोने दो!
धड़कन रोती है? रोने दो!
पुतली के अँधियारे जग में-
साजन के मग स्वच्छन्द चलो।
पर मन्द चलो।
ये फूल, कि ये काँटे आली,
आये तेरे बाँटे आली!
आलिंगन में ये सूली हैं-
इनमें मत कर फर-फन्द चलो।
तुम मन्द चलो।
ओठों से ओठों की रूठन,
बिखरे प्रसाद, छुटे जूठन,
यह दण्ड-दान यह रक्त-स्नान,
करती चुपचाप पसंद चलो।
पर मन्द चलो।
ऊषा, यह तारों की समाधि,
यह बिछुड़न की जगमगी व्याधि,
तुम भी चाहों को दफनाती,
छवि ढोती, मत्त गयन्द चलो।
पर मन्द चलो।
सारा हरियाला, दूबों का,
ओसों के आँसू ढाल उठा,
लो साथी पाये-भागो ना,
बन कर सखि, मत्त मरंद चलो।
तुम मन्द चलो।
ये कड़ियाँ हैं, ये घड़ियाँ हैं
पल हैं, प्रहार की लड़ियाँ हैं
नीरव निश्वासों पर लिखती-
अपने सिसकन, निस्पन्द चलो।
तुम मन्द चलो।
आँसू से / माखनलाल चतुर्वेदी
अरे निवासी अन्तरतर के
हृदय-खण्ड जीवन के लाल
त्रास और उपहास सभी में
रहा पुतलियाँ किये निहाल।
संकट में वह गोद, मोद कर
जहाँ टपकता धन्य रहा,
मार-मार में गिर न हठीले
निर्जन है, मैं वन्य रहा।
ठहर जरा तुझ से प्यारे के
चरण कमल धुल जाने दे
और जोर से सिसक सकूँ
वे मंजुल घड़ियाँ आने दे।
रचनाकाल: प्रताप प्रेस, कानपुर-१९४४
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