Hindi Stories On Life अर्थात इस article में आप पढेंगे, जीवन पर हिन्दी कहानियाँ. हमने आपके लिए इस article में “जीवन” के विषय पर 17 अलग-अलग कहानियाँ दी हैं.
Hindi Stories On Life – जीवन पर हिन्दी कहानियाँ
Contents
- 1 Hindi Stories On Life – जीवन पर हिन्दी कहानियाँ
- 1.1 जीवन कला! / ओशो
- 1.2 अछूत : दलित जीवन का अन्तर्पाठ / मुकेश मानस
- 1.3 प्रेम-मृत्यु ही जीवन है! / ओशो
- 1.4 मृत्यु और जीवन / ओशो
- 1.5 जीवन और आदर्श / ओशो
- 1.6 जन्म-मृत्यु से परे है जीवन! / ओशो
- 1.7 जीवन संगीत / ओशो
- 1.8 मनुष्य का जीवन आधार क्या है / लेव तोल्सतोय / प्रेमचंद
- 1.9 जीवन एक बांसुरी / ओशो
- 1.10 मन्देलश्ताम का जीवन / अनिल जनविजय
- 1.11 मनुष्य के जीवन की सार्थकता / बालकृष्ण भट्ट
- 1.12 जीवन एक नृत्य है / ओशो
- 1.13 जीवन-अस्तित्व असीम है!!! / ओशो
- 1.14 जीवन को तो जानो! / ओशो
- 1.15 जीवन एक कहानी है!! / ओशो
- 1.16 जीवन की मृत्यु नहीं और मृत का जीवन नहीं / ओशो
- 1.17 जीवन और मृत्यु / ओशो
- 1.18 Related Posts:
जीवन कला! / ओशो
प्रवचनमाला
मनुष्य को प्रतिक्षण और प्रतिपल नया कर लेना होता है। उसे अपने को ही जन्म देना होता है। स्वयं के सतत जन्म की इस कला को जो नहीं जानते हैं, वे जानें कि वे कभी के मर चुके हैं।
रात्रि कुछ लोग आये । वे पूछने लगे, धर्म क्या है? मैंने उनसे कहा, धर्म मनुष्य के प्रभु में जन्म की कला है। मनुष्य में आत्म-ध्वंस और आत्म-स्रजन की दोनों ही शक्तियां हैं। यही उसका स्वयं के प्रति उत्तरदायित्व है। उसका अपने प्रति प्रेम विश्व के प्रति प्रेम का उद्भव है। वह जितना स्वयं को प्रेम कर सकेगा, उतना ही उसके आत्मघात का मार्ग बंद होता है। और, जो-जो उसके लिए आत्मघाती है, वही-वही ही औरों के लिए अधर्म है।
स्वयं की सत्ता और उसकी संभावनाओं के विकास के प्रति प्रेम का अभाव ही पाप बन जाता है। इस भांति पाप और पुण्य, शुभ और अशुभ, धर्म और अधर्म का स्रोत उसके भीतर ही विद्यमान है- परमात्मा में या अन्य किसी लोक में नहीं। इस सत्य की तीव्रता और गहरी अनुभूति ही परिवर्तन लाती है और उस उत्तरदायित्व के प्रति हमें सजग करती है, जो कि मनुष्य होने में अंतर्निहित है। तब, जीवन मात्र जीना नहीं रह जाता।
उसमें उदात्त तत्वों का प्रवेश हो जाता है और हम स्वयं का सतत सृजन करने में लग जाते हैं। जो इस बोध को पा लेते हैं वे प्रतिक्षण स्वयं को ऊर्ध्व लोक में जन्म देते रहते हैं। इस सतत सृजन से ही जीवन का सौंदर्य उपलब्ध होता है, जो कि क्रमश: घाटियों के अंधकार और कुहासे से ऊपर उठकर हमारे हृदय की आंखों को सूर्य के दर्शन में समर्थ बनाता है।
जीवन एक कला है। और, मनुष्य अपने जीवन का कलाकार भी है और कला का उपकरण भी। जो जैसा अपने को बनाता है, वैसा ही अपने को पाता है। स्मरण रहे कि मनुष्य बना-बनाया पैदा नहीं होता। जन्म से तो हम अनगढ़े पत्थरों की भांति ही पैदा होते हैं। फिर, जो कुरूप या सुंदर मूर्तियां बनाती हैं, उनके स्रष्टा हम ही होते हैं।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)
अछूत : दलित जीवन का अन्तर्पाठ / मुकेश मानस
दया पवार मराठी दलित साहित्य में एक सुपरिचित नाम है। आधुनिक मराठी दलित साहित्य के बरक्स दलित साहित्य को खड़ा करने में जिन दलित साहित्यकारों ने भारी ज़द्दोज़हद का सामना किया, उनमें दया पवार का नाम कभी न भुलाया जा सकने वाला नाम है। मराठी के जिन दलित साहित्यकारों ने अपनी रचना-धर्मिता और सृजनशीलता के बल पर भारतीय साहित्य के पैमाने पर अपनी पहचान बनाई है, ऐसे साहित्यकारों में दया पवार पहली पंक्ति में खड़े नजर आते हैं।
दया पवार के 1974 में प्रकाशित काव्य संग्रह ‘कोंडवाड़ा’ (कांजी हाउस) ने न सिर्फ उनको दलित साहित्य आंदोलन में स्थापित किया अपितु उनके कविता संग्रह से मराठी दलित लेखन भी चर्चा में आया। कोंडवाड़ा और कुछ नहीं महारवाड़ा का ही पर्याय है। महारवाड़ा के लोग, उनके दु:ख और तकलीफ़ें, उनकी निराशाएं और छटपटाती वेदनाएं ही कोंडवाड़ा की अंतर्वस्तु हैं। कोंडवाड़ा एक ऐसा अदृश्य घेरा है जिसके भीतर भारत की जातिव्यवस्था के अभिशाप से ग्रस्त असंख्य निराशाएं और वेदनाएं छटपटाती नजर आती हैं। यह काव्यगत सृजन की ऐसी संवेदना और शिल्प है जो शब्दों की सीमा से बाहर आकर उसकी भयावह वेदना, अपमान और शोषण को साकार करता है।
अछूत (बलुत)1979 में पहली बार मराठी में प्रकाशित हुआ था। ‘अछूत’ दलित साहित्य का पर्याय ही बन गया। ‘अछूत’ दलित साहित्य में आत्मकथात्मक लेखन का प्रस्थान बिंदु है। दलित जीवन की असहनीय और बेवाक अनुभूतियां इसमें से झांक-झांक पड़ती हैं। ‘अछूत’ ने दया पवार को मराठी दलित साहित्य का ही नहीं, भारतीय दलित साहित्य का भी इतिहास पुरुष बना दिया। अछूत के बाद 1983 में उनके ‘विटाल’ और बाद में ‘चावड़ी’ शीर्षक से कहानी संग्रह भी आए। उन्होंने भगवान बुद्ध के ‘धम्मपद’ से कुछ गाथाओं का मराठी में अनुवाद भी किया है। देखा जाए तो उनकी साहित्यिक रचनाओं की संख्या बहुत कम है मगर वे इन्हीं के बल पर आज भी दलित साहित्यकारों के लिए प्रेरणास्रोतत बने हुए हैं।
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“कैसे बताया जा सकेगा सीधे-सीधे। वह सारा क्या एक दिन का है। पूरे चालीस साल की जिंदगी कर जीवंत इतिहास है…वैसे मैं बड़ा भुलक्कड़ हूं। विस्मरण की आदत के कारण ही जीवित रह सका नहीं तो सिर फटवा कर मरने की बात थी।”
‘अछूत’ में दया पंवार ने अपने चालीस साल की जीवन-यात्रा का बयान लिखा है। उनकी जीवन यात्रा का जो वृतांत ‘अछूत’ में मिलता है वह बहुत ही छोटा है। लेकिन अछूत के दगडू मारुति पवार के जीवन के छोटे से आत्म-वृतांत का फलक बहुत ही व्यापक है। इस मामले में ‘अछूत’ सिर्फ दगडू मारुति पवार की जीवन यात्रा का लेखा-जोखा ही नहीं हैं बल्कि ‘अछूत’ महारवाड़ा के हजारों-हजार महार युवकों, प्रौढ़ और वृद्ध पुरुषों, स्त्रियों की अछूत गाथा है। दगडू मारुति पंवार की जीवन यात्रा इन लोगों के संदर्भोंस्मृतियों और दारुण जीवन स्थितियों के साथ चलती है। महारवाड़ इस गाथा का प्रस्थान बिंदु है तो कावाखाना इसकी परिणति। महारवाड़ा और कावाखाना के दीन-हीन परिवेश में दगडू मारुति पंवार के जैसी सैकड़ों अभिशप्त जिन्दगियां हैं जिनसे अछूत गाथा की एक समूची करुण गाथा साकार होती है।
दगड़ू मारुति पंवार ने जब आंख खोलकर अपने आस-पास की दीन-हीन और अभिशप्त दुनिया को समझने की उमर पाई तो उसने खुद को बम्बई की एक बदनाम बस्ती ‘कवाखाना’ में पाया। भारत के अछूतों का जीवन कहीं से भी शुरू हो मगर उसका प्रस्थान बिंदु महारवाड़ा या चमारवाड़ा ही रहता है। वे कहीं भी जन्म लें, कहीं भी पलें-बढ़ें महारवाड़ा की अभिशप्त छाया हमेशा उनके साथ रहती है। कावाखाना बम्बई का शहरी महारवाड़ा ही है। महारवाड़ा उपेक्षा, गरीबी, बेकारी और बेरोजगारी की जिस मार से पीड़ित है लगभग वही मार उसे शहर के कावाखाना में भी भुगतनी पड़ती है। बल्कि शहर में कुछ नई समस्याएं इसमें और जुड़ जाती है। दगडू के पिता बम्बई शहर में कमाई की खातिर आए थे। यहां उन्हें मिला गोदी में हमाली और गोदी की भटटी में खुद को झुलसाने का काम। अन्य महारों की तरह वह भी शराब और रंडीबाजी जैसी बुरी आदतों के शिकार हो जाते हैं। दगडू मारुति पवार का परिवार घटिया आवास व्यवस्था के साथ-साथ अभावहीनता में जीवन-यापन करता है। मगर दगडू के पिता के मन में बेटे को पढ़ाने की चाह है। इसलिए दगडू का दाखिला शहर पालिका के स्कूल में करवा दिया जाता है। कुछ साल कावाखाने में दीन-हीन जीवन बिताने के बाद दगडू का परिवार वापस महारवाड़ा में अभिशप्त होने को पहुंच जाता है।
महारवाड़ा में रोजगार नहीं है। अस्पृश्यता की मार के अलावा बेरोजगारी और बेबसी की मार से परिवार की आर्थिक दशा दयनीय ही रहती है। दगडू का पिता लकड़ी चीरने का काम करके जैसे-तैसे घर चलाता है। लोकल बोर्ड के स्कूल में दगडू को भर्ती करा दिया जाता है। पिता की शराब की लत यहां भी नहीं छूटती। गांव में ही पिता की मृत्यु हो जाती है। जाने कैसे दगडू में पढ़ने की इच्छा बनी रहती है और उसकी मां भी उसको रोकती नहीं है। वह मेहनत मशक्कत करके घर चलाती है। गांव के स्कूल में अध्यापकों की जातीय मानसिकता उसे बेचैंन करती रहती है। अंग्रेजी में गेzस मार्क्स पाकर वह तालुका के स्कूल में आता है। यहां आकर उसे जातीय वंचना से मुक्ति का अहसास होता है मगर यह एहसास ज्यादा देर नहीं रहता। एकाध प्रगतिशील अध्यापकों को छोड़कर बाकी शिक्षकों की ऊंच-नीच की मानसिकता उसे हतोत्साहित करती है मगर वह हार नहीं मानता। एक अध्यापक की सलाह पर वह सगनेर पुणे छात्रावास में दाखिला पाता है। यह छात्रावास डा. अम्बेडकर की प्रेरणा से महार छात्रों के लिए बनाया गया था। मगर यहां आकर उसे दलित युवकों में अपने ही बिरादर भाइयों और स्त्रियों के प्रति उनकी ऊंच-नीच और पितृसत्ता की मानसिकता का पता चलता है। वह इससे बड़ा दु:खी होता है। जगह खाली होने पर उसकी मां और बहन भी छात्रावास में खाना पकाने जैसे काम के लिए छात्रावास में आती हैं। यहां उसकी मां और बहन का भयानक शोषण होता है। अपनी मां और बहन के प्रति छात्रावास के लड़कों का गुलामों सा व्यवहार और पितृसत्तावादी रुख परेशान करता है।
इस बीच उसके जीवन में बानू, गऊ जैसी लड़कियां आती हैं। बानू से उसे प्लेटोनिक लव हो जाता है। मगर उसके बाप की उच्च जाति और आर्थिक हैसियत उसके इस प्लेटोनिक लव को जल्दी ही मिट~टी में मिला देती है। गऊ को वंश चलाने के नाम पर पिता की उम्र के बहन के पति से ब्याह दिया जाता है। गरम लोहे की सलाखों से दागी जाने वाली सीता, यौंन विकृति का शिकार टांकी, मंदिर की सीढ़ियों को लात मारने वाला पागल, हरि का कोढ़ी बाप जैसे महारवाड़ा के सैकड़ों चरित्रा और उनकी दारुण और विषमतापूर्ण जीवन परिस्थितियां, महारवाड़ा की पतित मूल्य-मान्यताएं उसे लगातार अभिशप्त करती रहती हैं। वह महारवाड़ा से लगातार खुद को काटा-सा महसूस करता है। महारवाड़ा के अभिशप्त जीवन से खुद की मुक्ति की कामना उसे लगातार प्रोत्साहित करती रहती है।
तालुके के स्कूल में दगडू कविताएं लिखना शुरू करता है। दगडू का कविताएं लिखना एक तरह से महारवाड़ा से मुक्ति और महारवाड़ा की मुक्ति का ही रचनात्मक प्रतिफलन है। उसकी कविताओं में महारवाड़ा की दारुण परिस्थितियां और उनसे मुक्ति की कामना झलकती है। इसी बीच में उसे नाटक का शौक लग जाता है लेकिन प्रिंसिपल की नेक सलाह पर वह केवल पढ़ाई-लिखाई पर अपना ध्यान केंन्द्रित करता है। इसी बीच उसकी इच्छा के विरुद्ध सई से विवाह तय हो जाता है। वह एस.एस.सी. के इम्तहान में फेल हो जाता है। लेकिन दृढ़ निश्चयी दगडू पढ़ाई पर अपना ध्यान केंन्द्रित कर पास हो जाता है। उसे गांव के स्कूल में अध्यापक की नौकरी मिल सकती है फाइनल पास करके वह शहर में नौकरी करने की सोचता है। उसे लगता है कि देहात तो अस्पृश्यता रूपी बिच्छू डंकों का अंबार है। वहां रहकर वह जीवन भर अभिशप्त रहेगा।
नौकरी की तलाश में वह बम्बई आता है। लेकिन शिक्षा व्यवस्था की अन्तरनिहित कमजोरियां उसे सालती हैं। बम्बई में आकर वह नौकरी की तलाश में रोजगार दफ्तर के चक्कर काटता रहता है और एक लंबा समय बेरोजगारी में काटता है। मां बम्बई में मेहनत-मशक्कत करके घर को चलाती है। यह बात उसे सालती रहती है। कावाखाने का अभिशप्त जीवन उसकी मुक्ति के स्वप्न को चकनाचूर कर देता है। यहां आकर भी महारवाड़ा उसका पीछा नहीं छोड़ता है। महार होने के कारण आरक्षण व्यवस्था के तहत उसकी चमड़ा फैक्टरी में नौकरी लगती है। हालांकि यह नौकरी उसे फिर उसी जातीयता के दंश से अभिशप्त रखती है जिससे वह मुक्ति पाना चाहता है मगर आर्थिक अभाव उसे यह नौकरी करने पर मजबूर कर देता है।
इसी बीच दगडू की शादी साई से हो जाती है। उसका हनीमून एक दु:स्वप्न की तरह गुजरता है। लेकिन दगडू थमता नहीं। वह रूपारेल कालेज में पढ़ने लगता है। लेकिन कालेज और नौकरी की भागमभाग के कारण उसे लगातार एक अंतरद्वन्द्व से गुजरना पड़ता है। सई की सुंदरता और व्यवहार उसे सई पर शक करने को मजबूर कर देता है। सीता, जमना मौसी, गऊ, परित्यक्ता चाची और अपनी मां-बहन के दु:खों से सहानुभूति रखने वाला दगडू अंतत: पुरुषवादी मानसिकता का शिकार होकर अपनी पत्नी का परित्याग कर देता है। काफी समय तक उलझन और ऊहापोह से गुजरता हुआ वह दुबारा शादी कर लेता है। इसी बीच उसकी मन मुताबिक नौकरी लग जाती है। बस इतनी सी कथा है दगडू मारुति पंवार की जिसमें वह हमें दु:ख झेलता, अपमान सहता, टूटता और आगे बढ़ने का निश्चय करता हुआ मिलता है।
दगडू मारुति पवार का जीवन महारवाड़ा के हजारों-हजार नवयुवकों के जीवन का पर्याय है। यह जीवन जातीयता और अपमान के दंश से निर्मित होता है और गरीबी और आर्थिक अभाव की मार सहता हुआ समाज व्यवस्था की विषमता से टूटता, अपनी ही कमजोरियों से पस्त होता हुआ आगे बढ़ता है। इस समूची गाथा में हमें दगडू मारुति पवार के चरित्रा की तमाम कमजोरियों और विशेषताओं का वेबाक बयान मिलता है। यही ‘अछूत’ की विशेषता है। यह आत्मकथा अंत से शुरू होती है। शुरुआत में हम पाते हैं कि दगडू मारुति पवार एक सुखी आदमी है। मगर वह दु:खी नजर आता है। वह दु:खी नजर आता है क्योंकि वह खुद तो सुखी है। उसको तो किसी हद तक मुक्ति मिल गई मगर वह दुखी है क्योंकि उसका महारवाड़ा अभी भी वहीं ना वहीं है।
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“गांव और मेरे बीच आज भी एक अदृश्य दीवार है। वे उस पार-मैं इस पार। गांव और महारवाड़ा से सीधे एक रास्ता जाता है। वही गांव और महारवाड़ा का बार्डर है।……. एक टीले पर महारवाड़ा है-गांव के निचले हिस्से पर। ऐसा कहते हैं कि हवा और नदी का पानी उच्च-जातियों को शुद्ध मिले, इसीलिए गांव की रचना प्राचीनकाल से इसी तरह की है।”
भारत के अधिकतर गांवों की यह बनावट आज भी इसी रूप में देखने को मिलती है। एक तरफ गांव और दूसरी तरफ महारवाड़ा। महारवाड़ा- यानी महारों का मुहल्ला, ठीक उत्तर भारत के चमारवाड़े जैसा। गांव में भूमिसम्पन्न, समृद्ध उच्च-जातियों के परिवार रहते हैं। महारवाड़ा में भूमिहीनता, दरिद्रता, छुआछूत और बेगार की मार झेलने वाली महार जैसी निचली जातियों के परिवार रहते हैं। दोनों के बीच जमीन-आसमान का फर्क देखने को मिलता है। एक अदृश्य दीवार दोनों के बीच की सामाजिकऔर आर्थिक विषमता को रेखांकित करती है। यह अदृश्य दीवार एक ऐसा बाWर्डर है जिसके बीच किसी मेल की कोई गुंजाईश नहीं है। कहना चाहिए कि दोनों के बीच की विषमता की खाई सदियों से बढ़ती आई है।
महाराष्ट्र की अकोला तहसील के घामड़ गांव का महारवाड़ा समूचे देश के भीतर शोषित और उत्पीड़ित लाखों महारवाड़ाओं का प्रतिनिधि है। महारवाड़ा देश के बहुतायत दलितों के सामाजिक और आर्थिक शोषण का नंगा चित्रा है। यही महारवाड़ा दया पवार की आत्मकथा ‘अछूत’ का केन्द्रीयय आधार है। ‘अछूत’ की अछूतगाथा इसी महारवाड़ा के इर्द-गिर्द घूमती है। ‘अछूत’ का दगडू मारुति पवार दरिद्रता और छुआछूत की सतत मार से अभिशप्त इसी महारवाड़ा में पैदा होता है और अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा इसी में गुजारता है। उसके समूचे जीवन का संघर्ष इसी महारवाड़ा के अभिशाप से मुक्ति का संघर्ष है। ‘अछूत’ के लेखक और नायक की तरह यह महारवाड़ा भारत के करोड़ों-करोड़ अछूतों को जीवन पर्यंत अभिशप्त रखता है। अब तक प्रकाशित लगभग हर दलित आत्मकथा में इसी महारवाड़ा के विविध रूपों में दर्शन होते हैं।
‘अछूत’ के इस महारवाड़ा में महारों-दलितों के शोषण की तीन व्यवस्थाएं देखने को मिलती हैंµ महारकी, येसकर पाटी और बलुत। महारकी यानी उच्च-जातियों द्वारा महारों से ली जाने वाली बेगार की परंपरा और व्यवस्था। इसका न कोई निश्चित रूप है और न कोई बंधा हुआ वक्त। गांव का सारा लगान तालुके में पहुंचाना, गांव में आए बड़े अधिकारियों के घोड़ों के साथ दौड़ना, उनके जानवरों की देखभाल करना, चारा-पानी देना, ढ़िढोरा पीटना, मौत की सूचना गांव-गांव पहुंचाना, मरे ढ़ोर खींचना, लकड़ियां फाड़ना, गांव के मेले में बाजा बजाना, दूल्हे का नगर द्वार में स्वागत करना जैसे और न जाने कितने अनगिनत काम महारों के हिस्से पड़ते हैं। इसके अलावा येसकर पारी के रूप में गांव की चौकीदारी।
इन सब बेगारों के बदले में महारवाड़ा को मिलता है-बलुत। वैसे बलुत दलितों से लिए जानेवाले बेगार के बदले मिलने वाली मजदूरी है। मगर असल में यह किसी भी मायने में मजदूरी नहीं है। यह एक तरह की भीख है जो उन्हें उनसे लिए गए बेगार के बदले में नहीं मिलती बल्कि उनकी जाति की नीचता और उनकी दरिद्रता पर तरस खाकर उन्हें दी जाती है। दलितों को गांव भर में द्वार-द्वार पर जाकर बलुत मांगना पड़ता है। बलुत के रूप में प्राय: उन्हें बासी रोटियां मिलती हैं या फसल के मौके पर थोड़ी बहुत उपज, खाद्यान्न। दुनिया के किसी देश में ऐसा नहीं होता कि लोगों से काम भी लिया जाए और उनका मेहनताना भी न दिया जाए और मिल तो ऊपर से अपमान भी किया जाए। बलुत एक प्रकार की अमानवीय प्रथा है। यह दलितों के मानवीय सम्मान और आत्मविश्वास को अमानवीय ढंग से ठेस पहुंचाती है।
बलुत और महारकी की पंरपराएं प्राचीनकाल से चली आ रही हैं। ये परंपराएं जाति व्यवस्था का परिणाम हैं। मनु की तथाकथित महान जातिव्यवस्था ने दलितों से तमाम माननीय, सामाजिक और आर्थिक अधिकार छीन लिए। दलितों को भूमिहीन और संपतिहीन बनाया, उन्हें ज्ञान से वंचित करके लगातार एक घ्रणित गुलाम के रूप में विकसित किया गया। जाति व्यवस्था ने दलितों के सामाजिक सम्मान को तो छीना ही, उन्हें उत्पादन प्रक्रिया और उत्पादन के साधनों से वंचित करके उनका आर्थिक शोषण भी किया। उनकी तरक्की के सारे मार्ग बंद कर दिए। आज भी गांवों में दलितों की बहुतायत आबादी गरीबी की रेखा के नीचे जीने को अभिशत है। इस तथाकथित महान जाति व्यवस्था के कारण दलितों ने दोहरी मार झेली है। उनका आज का अभिशत जीवन इसी व्यवस्था का परिणाम है।
यह महारवाड़ा की विडम्बना ही है कि वह जिस जाति व्यवस्था की मार को निरंतर झेलता आया है, उसी जाति व्यवस्था का वह खुद भी शिकार है। छुआछूत और ऊंच-नीच की व्यवस्था उनके भीतर भी विभाजन और विषमता का कारण है। महारवाड़े के भीतरी विभाजन को ‘अछूत’ के लेखक ने बड़ी ईमानदारी के साथ पूरे यथार्थपूर्ण ढंग से रखा है। चमार और ठाकर आदिवासी उच्च जातियों के ऊंच-नीच पूर्ण व्यवहार को झेलते हैं और बदले में महारों के साथ छुआछूत का व्यवहार करते हैं। उत्तर भारत की दलित जातियों में भी एक-दूसरे के प्रति छुआछूत बरतने का व्यवहार देखने को मिलता है।
दलित जातियों के भीतर एक-दूसरे के प्रति मौजूद छुआछूत की भावना को रेखांकित करते हुए दया पवार ने लिखा है-“चमार लोग हमारे कुंए का पानी कभी न पीते। वे महार के पानी से छुआछूत मानते। चमार परिवारों की औरतें मराठों के कुंओं पर घंटों एक घड़ा पानी के लिए भीख मांगती बैठी रहतीं। मन में बड़ी उथल-पुथल मचती।” वह आगे चलकर लिखता है-“ वैसे ठाकर थे आदिवासी ही। स्वयं को महादेव का वंशज समझते। हमसे छुआछूत मानते। पानी तक ऊपर से पिलाते।” ठाकरों के व्यवहार में जातीयता आई कहां से? इस तरह के और भी कई उदाहरण देखने को मिलते हैं। मसलन मराठों द्वारा अपमानित होने वाला नाई भी महार लड़कों से छुआछूत और उनके बाल काटने से इंकार करता है।
ब्राह्मणवाद दलितों में आपसी विभाजन और फूट पैदा करके ही हजारों सालों से उनका शोषण करता और फलता-फूलता आया है। यह दलितों की विडम्बना ही है कि जिस ब्राह्मणवाद का मुकाबला उन्हें एकजुट होकर करना चाहिए वह उनके भीतर भी समा गया है। दलित जातियां इसी ब्राह्मणवाद का शिकार होकर अपने जातीय-बंधुओं से घृणा करते हैं। जाति व्यवस्था से अभिशप्त महारवाड़ा की आन्तरिक रचना की यह कटु सच्चाई है। यह आज के दलित संघर्ष का एक महत्वपूर्ण प्रस्थान बिंदु है। इस सच्चाई से आंखें नहीं मूंदी जा सकती हैं।
जाति व्यवस्था और गरीबी की मार से अभिशप्त महारवाड़ा से बाहर निकलने के लिए दगड़ू मारुति पंवार को एक ही रास्ता दिखता है-शिक्षा का रास्ता। वह बार-बार शिक्षा को मुक्ति के सशक्त माध्यम के रूप में देखता है। डा.अम्बेडकर ने भी जीवन भर शिक्षा पर बार-बार जोर दिया था। मगर भारतीय शिक्षा व्यवस्था भी जाति के राक्षस से अभिशप्त है। स्कूल-कालेज व्यवस्था और शिक्षक भी इसके शिकार हैं। जाति-व्यवस्था ने दलितों को शिक्षा-ज्ञान का अधिकार कभी नहीं दिया। उत्पादन व आर्थिक संसाधनों पर अधिकार के साथ-साथ ज्ञान की व्यवस्था पर भी उच्च-जातियों का ही कब्जा बना रहा है। शिक्षा प्रगति और उन्नति का मार्ग है। इसलिए उच्च-जातियों ने निम्न जातियों को शिक्षा के अधिकार से लगातार वंचित किया। यदि कभी किसी दलित ने शिक्षित होने की कोशिश की तो उसके इस प्रयास को परंपरागत मूल्यों और समाज व्यवस्था पर प्रहार माना गया। शंबूक वध, एकलव्य आदि के उदाहरण हमारे सामने हैं। आजाद भारत में शिक्षा का दरवाजा प्रत्येक भारतवासी के लिए खुलने के बावजूद उस पर उच्च जातियों का ही कब्ज बना रहा। उन्होंने दलितों के शिक्षित होने के मार्ग में तमाम तरह के अवरोध पैदा किए और उन्हें शिक्षा के अधिकार से वंचित रखने की साजिशें कीं। आज भी स्थिति में कुछ खास बदलाव देखने को नहीं मिलता है।
‘अछूत’ का दगड़ू पवार गांव और तालुके स्तर पर शिक्षा व्यवस्था में निहित जातीय विषमता के दंशों को लगातार झेलता है। इस बारे में दया पवार ने लिखा है-“ब्राह्मण मास्टर कक्षा में हमारा छुआछूत मानते हैं, यह महसूस न होता। परन्तु घर पर मास्टर बहुत ही अलग तरह का व्यवहार करते।….. स्कूल के मास्टर और घर के मास्टर में बहुत अंतर दिखाई पड़ता। ऐसा लगता कि घर आकर उन्होंने खूंटी पर टंगी अपनी जाति का जनेऊ फिर से चढ़ा लिया हो।”
ऐसे शिक्षक न तो प्रगतिवादी मूल्यों के पोषक हैं और न वे महारवाड़ा के लिए प्रेरणा स्रोत हो सकते हैं। मगर महारवाड़ा की यह विडम्बना ही है कि अधिकतर शिक्षक इसी तरह के हैं। ये लोग कदम-कदम पर दलित विद्यार्थियों को हतोत्साहित करते हैं और उनका महीन रूप में शोषण करते हैं। कुल मिलाकर इन तथाकथित ऊंची जातियों के शिक्षकों का चरित्र सड़े-गले मूल्यों वाली व्यवस्था के पोषक और पैरोकार की ही बनती है। दलित विद्यार्थियों के मामले में ये ठेठ जातिवादी ही हैं।
स्कूलों और छात्रावासों में दलित छात्रों के प्रति ऊंची जातियों के छात्रा छुआछूत का बर्ताव करते हैं। स्कूलों का पूरा माहौल उन्हें प्रोत्साहित करने की बजाए लगातार अपमानित करता हैं। शिक्षा का ब्राह्मणदी, सामंतवादी मूल्यों का पोषक और जीवन से हटा पाठयक्रम और उसकी भाषा उनके लिए दुरूह साबित होते हैं। दलित माता-पिता भी इस व्यवस्था के शिकार हैं दलितों में शिक्षा की परंपरा और उसके प्रति सम्मान की भावना न होने के कारण वे अपने बच्चों की मदद कर पाने में असमर्थ रहते हैं। कुल मिलाकर शिक्षा का समूचा चरित्र दलित विद्यार्थियों की मदद करने की बजाए उन्हें हतोत्साहित ही करता है। अपने समग्र रूप में दलित विरोधी शिक्षा व्यवस्था दलितों को अशिक्षितों की भीड़ की तरफ धकेलती है। अशिक्षित रहकर वे आर्थिक और सामाजिक तरक्की से भी वंचित रह जाते हैं। ‘अछूत’ का दगड़ू मारुति पवार इसी शिक्षा व्यवस्था में लगातार संघर्ष करता हुआ महारवाड़ा से बाहर निकलने का प्रयास करता है। मगर यह शिक्षा व्यवस्था सकारात्मक रूप में उसके व्यक्तित्व को बहुत ही कम प्रभावित कर पाती है।
इस शिक्षा व्यवस्था का एक और नकारात्मक पहलू है- शिक्षार्थी को उसके समाज से काट देना। वैसे इस शिक्षा व्यवस्था की पूरी कोशिश यही रहती है कि दलित शिक्षित न हो पाए। अगर कोई शिक्षित हो भी जाता है तो यह उसे उसके समाज से काट देती है। दगड़ू मारुति पंवार भी अपने व्यक्तित्व में इसी तरह की फांक देखता है-“जैसे-जैसे मुझमें समझ आती गई, मैं अकेला होता गया।¸ और आगे वह लिखता है- गांव में रहते हुए भी मैं बचपन से गांव से कटा-सा रहता¸ ग्रामीण शिक्षा व्यवस्था की घटिया संरचना में भी उसे मुक्ति की आशा दिखाई पड़ती है। स्कूल पहुंचने पर मेरा मन दूर आकाश में किसी पक्षी के पहाड़ की चोटी पर उड़ान भरने-सा रोमांचित हो उठता। मुक्ति का आनन्द मिलता। तालुके के सही स्कूल में मुझे अपने सही व्यक्तित्व की पहचान हुई। मुझमें कोई कमी नहीं। गांव के कांजी हाउस से बाहर निकलना ही चाहिए। उसके लिए पढ़ना जरूरी है।”
गांव के कांजी हाउस से बाहर निकलने के लिए पढ़ना जरूरी है। मगर यह पढ़ाई-लिखाई एक तो उसे महारवाड़ा से काट देती है दूसरे उसे कदम-कदम पर आतंकित करती रहती है। दगड़ू शिक्षा में मुक्ति देखता है मगर यह मुक्ति व्यक्तिगत मुक्ति है। अपने समाज से काट देना इस शिक्षा व्यवस्था की अंतिम परिणति है। फाइनल का रिजल्ट आने के बाद वह लिखता है-“फाइनल के बाद यदि थोड़ी भी कोशिश करता तो बड़ी सहजता से मास्टर बन सकता था परन्तु सारी उम्र देहात में खपने की इच्छा न थी। और देहात- वह था मात्रा बिच्छू डंकों का अंबार। जिन्दगी भर मनस्ताप होता।” अलगाववादी शिक्षा व्यवस्था अंतत: दगड़ू मारुति पवार में व्यक्तिगत मुक्ति की चाह जगाकर उसे महारवाड़ा से काट देती है। इस तरह व्यक्तिगत मुक्ति की चाह में महारवाड़ों, चमारवाड़ों और दलितवाड़ों में मौजूद दगड़ू मारुति पवारों की संख्या लाखों में है जो लौटकर महारवाड़ा की मुक्ति के लिए कुछ नहीं करते।
लेकिन महावाड़े से कटने वाले सिर्फ़ पढ़े-लिखे लोग ही नहीं हैं,अनपढ़ भी हैं।गांव की व्यवस्था उन्हें कोई रोजगार और सम्मान नहीं देती उल्टे उनसे बेगार लेकर उनका शोषण करती है, उन्हें गरीब से गरीब बनाती है। बेगार, जातिगत प्रवंचना और से मुक्ति की तलाश में लोग हजारों की तदात में शहरों की तरफ पलायन करते हैं-“येसकर पारी गई, बलुत गया बित्ता भर जमीन हडिडयां पोसने के काम आती थी, वह भी नाम मात्रा पैसों के लिए जमींदारों के पास गिरवी है। इस कारण उजड़ा पड़ा है। पेट का गडढ़ा भरने के लिए सब शहर भाग रहे हैं।”
१९७९ में पहली बार मराठी में प्रकाशित अछूत में दया पवार ने लिखा है-
“मैंने बचपन में जो महारवाड़ा देखा था, वह अब उजड़ गया है। परन्तु बचपन में वहां के देखे चित्रा मैं कैसे पोंछ सकता हूं। वे सतत् मेरी आंखों के आगे घूमते हैं।”
मगर इसके बावजूद महारवाड़ा नहीं उजड़ता। वह जस का तस बना रहता है। उसमें कुछ परिवर्तन बाहर से दिखाई पड़ते हैं मगर भीतर से वह जस का तस बना रहता है। उसका बलुत, उसकी येसकर पारी, उसके तीज-त्योहार, उसके मूल्य-मान्यताएं थोड़े बहुत बदलाव के साथ बने रहते हैं क्योंकि गांव बना रहता है। जाति व्यवस्था बनी रहती है, उच्च-जाति के लोगों का वर्चस्व बना रहता है।
इतने विस्थापनों और पलायनों के बावजूद महारवाड़ा शांत नहीं रहता है। दगड़ू मारुति पवार भले ही कावाखाना आकर बस जाते हैं मगर डॉक्टर अम्बेडकर के संघर्ष की गूजें वहां तक पहुंचती हैं। दलित आंदोलन की शिरकत और सक्रियता का असर वहां दिखाई पड़ने लगता है। परिवर्तन की लहर महारवाड़ा में उठने लगती है। मगर ऐसा नहीं है कि दलित आंदोलन से पहले महारवाड़ा में विद्रोर और संघर्ष दिखाई नहीं पड़ता। हजारों सालों से महारवाड़ा जातिव्यवस्था का विरोध अपने ही तरीके से करता आया है। मगर यह विरोध बड़े ही धीमे और स्वत: स्फूर्त ढंग से आगे बढ़ाता आया है। इस संघर्ष का एक रूप महारकी और बलुत के विषय में विकसित दंत कथाओं में देखने को मिलता है। इन गाथाओं में महारों का मेहनती और ईमानदार स्वभाव अपनी पराकाष्ठा में अभिव्यक्त हुआ है। मसलन् बादशाह की रूपवती कन्या को जंगल के रास्ते उसकी मंजिल पर पहुंचाने से पहले अपना लिंग काटकर बादशाह के पास रखकर जाने वाले महार नवयुवक की दंत कथा। बादशाह के बुर्ज को खड़ा करने के लिए अपने बहू-बेटे की बलि देने वाले येसाजी नायक की गौरव गाथा। बदले में महारों को मिलता है- महारकी के ५२ अधिकारों का तोहफा। दलितों को अपमानित करने के लिए महारों पर थोपी गई महारकी और बलुत की व्यवस्था को उन्होंने अपने अधिकार की व्यवस्था में बदल डाला। दलित जीवन में निरंतर घटित होने वाली अवमानना और शोषण से उत्पन्न निराशा और अवसाद से बचने और उसे गौरवपूर्ण रूप देने के लिहाज से ही शायद महारों ने इन दंत कथाओं को विकसित किया होगा।
इन दंत कथाओं के अलावा कुछ और भी ऐसी बातें हैं जिन्हें दलितों ने मौखिक तौर पर लगातार आगे बढ़ाया। इन बातों में दलितों के इतिहास की कड़िया छुपी हैं। इन बातों में दलितों के गौरवपूर्ण इतिहास दर्शन होते हैं। मसलन झुनझुने की लाठी का इतिहास। दया पवार ने लिखा है-
“रोटी मांगने अक्सर स्त्रियां जातीं। जिस घर में स्त्रियां न होती, उस घर से कोई बूढ़ा व्यक्ति झोली लेकर जाता। जाते समय वह झुनझुने की लकड़ी ले जाना न भूलता। इस लकड़ी की भी महारों में एक परंपरा है। कोई कहता इस लकड़ी में पहले झंडा भी होता था। हम राज्यकर्त्ता थे। युद्ध में हार गए”
उच्च जातीय शासकों और ब्राह्मणदी व्यवस्था के पैरोकारों ने उनके झंडे और हथियार छीनकर उन्हें गुलामी की निशानी के रूप में लाठी थमा दी। पता नहीं इन बातों में कितनी वास्तविकता है। मगर महारों ने अपने जीवन में कुछ ऐसी बातों को मौखिक तौर पर बनाए रखा जिसमें उनके विद्रोह की भावना दिखाई पड़ती है। वैसे अगर दलित शोद्यार्थी अगर मेहनत करें तो इन अनगिनत कड़ियों को जोड़कर दलितों के इतिहास की रचना की जा सकती है।
तरह-तरह की दंत कथाओं के विकास और ऐतिहासिक स्मृतियों को जीवित रखने के अलावा दलित-महार अपनी वर्तमान जीवन परिस्थितियों में कुछ यथार्थपूर्ण संघर्षों को अंजाम देते हैं। ब्राह्मणदी मंदिरों और कुओं पर बरती जाने वाली छुआछूत के चलते महारों ने अपने ही ढंग की उपासना पद्धति और कुओं का निर्माण किया। उन्होंने देवी-देवताओं और पीरों की समाधियां बनाकर उनकी पूजा आरंभ कर दी। हालांकि ‘अछूत’ का लेखक सामान्य प्रवृत्ति से थोड़ा आगे बढ़कर इस तरह के पूजा पाठ का भी विरोध करता दिखाई पड़ता है। महारों ने ब्राह्मणदी मानसिकता से ग्रसित और छुआछूत की भावना से अभिशप्त तीज-त्यौहारों के विरोध स्वरूप अपने ही तरह के तीज-त्योहारों को विकसित किया है। उन्होंने अपने ही तरह के खेल-कूद और आमोद-प्रमोद के तरीके बनाए हैं। इसके अलावा वे बलुत और मजदूरी के लिए संघर्ष करते हैं। ऊंची जाति के लोगों द्वारा कुएं के साथ लगे रास्ते को अस्पृश्यता के डर से महारों के लिए बंद कर दिए जाने पर पूरा महारवाड़ा इसके खिलाफ संघर्ष करता है। बेहतर रोजगार अवसरों की तलाश में गांव से पलायन भी उनके संघर्ष का ही एक रूप है। महारवाड़ा में अपने मानवीय सम्मान को बनाए रखने और बेहतर सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के लिए वे समय-समय पर संघर्ष करते हैं। मगर ये संघर्ष ज्यादातर स्वत: स्फूर्त किस्म के होते हैं जो धीरे-धीरे सांगठनिक रूप लेते जाते हैं। महारवाड़ा का लक्ष्मण और दादा साहब गायकवाड़ का आंदोलन सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर महारों के संघर्ष को ठोस रूप देता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि ‘अछूत’ में ‘महारवाड़ा’ दलित जीवन का एक व्यापक चित्रा प्रस्तुत करता है। महारों के जीवन की विडम्बनाएं और उनके संघर्षों का एक समग्र रूप ‘अछूत’ में देखने को मिलता है। इस महारवाड़ा में दलित जीवन की दरिद्रता और अस्पृश्यता के अभिशाप की तमाम परतें दिखाई पड़ती हैं। इस महारवाड़ा का अपना इतिहास है, अपनी परंपराएं हैं। इसकी अपनी निराशाएं, कुंठाएं और अवसाद हैं तो उनसे बचे रहने के लिए गढ़ी गई महार गाथाएं भी हैं। इसमें एक तरफ महारकी है, बलुत है, येसकर पारी है तो दूसरी तरफ इनके खिलाफ उठता संघर्ष भी है जो शिक्षा और संघर्ष के प्रकाश से उदित हो रहा है। इसमें अभिशप्त, थकी और बोझिल छायाएं हैं तो दूसरी तरफ मुक्तिकामी अदम्य, दृढ़निश्चयी आंखें और बाजू भी हैं।
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“गांव के काम बंद हो गए थे। इस कारण बलुत बंद। गांव में मजदूरी भी न मिलती। ग्राम व्यवस्था की उठा-पटक में उत्पादन-साधनों का कोई हिस्सा न था। रोटी पानी के लिए सब बम्बई में खो गए।”
गांव का अभिशप्त माहौल और रोजगार के अवसरों का अभाव महारों को बम्बई जैसे शहरों की ओर धकेलता है। मगर जैसे गांव की संरचना में महारवाड़ा उनके हिस्से में आता है ठीक वैसे ही बम्बई में उनके हिस्से में आता है-कावाखाना! ‘कावाखाना’-यानी गरीब और निम्न जातीय ग्रामवासियों का शहर में रहने का ठिकाना। शहर की आधुनिक जीवन शैली, चकाचौंध और आर्थिक सम्पन्नताओं से उपेक्षित एक बदनाम बस्ती। कावाखाना बम्बई का निचले स्तर का आधुनिक महारवाड़ा ही है। कावाखाना बम्बई शहर का अपने ही ढंग का महारवाड़ा है। महाराष्ट्र के अनगिनत महारवाड़ों का बम्बई शहर में मुक्ति की तलाश में आया और कावाखाना में बसने वाला हिस्सा। मगर महारवाड़े की त्रासदी यहां थी उसका पीछा नहीं छोड़ती बल्कि कावाखाने में वह नया रूप ले लेती है- शोषण और वंचना के नए तरीकों के साथ।
कावाखाना महारवाड़ा से विस्थापित महारों के सामने नई समस्याएं उत्पन्न करता है। जिन समस्याओं से मुक्ति की तलाश में महारवाड़ा शहर आता है वह नए सिरे से दूसरी समस्यों से कावाखाने में रूबरू होता है। रोजगार का अभाव, बदहाली, आवासीय सुविधाओं का अभाव ऐसी ही कुछ समस्याएं हैं जिन्हें महारवाड़ा कावाखाने में निरंतर झेलता है। कावाखाने में महारों की त्रासद जीवन परिस्थितियों के बारे में लेखक लिखता है-
“महार लोगों के मकानों की व्यवस्था बड़ी घटिया थी। एक-एक दड़बे में दो-तीन उप किराएदार। बीच में लकड़ी की पेटियों का पार्टीशन। लकड़ी के इन्हीं संदूकों में उनका सारा संसार। पुरुष हमाली करते। किसी मिल या कारखाने में जाते। औरतें भी खूब खटतीं।”
‘महार लोगों के मकानों की व्यवस्था बड़ी घटिया थी’- इस वाक्य के ‘घटिया’ शब्द में कावाखाने में रहने वाले महारों की पूरी ‘जीवन परिस्थिति’ के हालात का यथार्थ छिपा हुआ है। महारवाड़ा में महारों की स्थिति जैसी थी लगभग वैसी ही स्थिति कावाखाने में है। कावाखाने में भी उनके हिस्से बदहाली पूर्ण जीवन और निम्न स्तर के काम ही आते हैं। कावाखाने में भी वे बदहाल और वंचित जीवन जीने को अभिशप्त रहते हैं। बम्बई शहर आर्थिक सम्पन्नता की ऊंचाईयां छूते हुए उन्हें उपेक्षित ही रखता है।
महारवाड़े की जातीय प्रवंचना से बचने और रोजगार की तलाश में दगड़ू मारुति पवार के पिता बम्बई शहर में आते हैं। उन्हें गोदी में हमाली का काम मिलता है और कावाखाने में सिर छिपाने की जगह। लेखक लिखता है-“शुरू-शुरू में अकेले पिताजी ही गोदी में काम करते थे। बाद में उन्होंने एक-एक करके सबको गोदी में चिपका दिया।” धीरे-धीरे उसके परिवार के अन्य सदस्य भी कावाखाने में घुसते जाते हैं। फिर लेखक और उसकी मां को भी वहां बुला लिया जाता है-“कावाखाने में हमारे रिश्तेदारों का एक छोटा द्वीप ही था। बारिश में ज्यों आदमी अपना कोट समेट लेता है। ठीक उसी तरह ये सारे रिश्तेदार एक दूसरे के साथ रहते। उनका प्रेम और द्वेष साथ-साथ चलते।”
कावाखाने में महारकी नहीं हैं, न येसकर पारी और न बलुत। यहां हमाली है और मजदूरी है- नगद। गोदी है, गोदी की तपती भटटी है और मेहनताना है। मगर यह मजदूरी और मेहनताना इतना नहीं है कि महारों को उनकी गरीबी और बदहाली से मुक्ति दिला दे उन्हें आर्थिक रूप से सम्पन्न बना दे। घर चलाने के लिए घर की औरतों को भी तरह-तरह से खटना पड़ता है। साथ ही, नौकरी छूट जाने और आर्थिक तंगी की तलवार उनके सिर पर लटकती रहती है। नौकरी छूट जाने पर फिर उसी महारवाड़ा में अभिशप्त होने वापस लौट जाते हैं जहां से मुक्ति की तलाश में भागकर आए थे। यह आना-जाना महारवाड़ा से पूर्ण संबंध विच्छेद होने या मृत्यु होने तक चलता रहता है।
कावाखाने में गांव जैसी साफ तौर पर दिखने वाली छुआछूत नहीं है मगर एक अदृश्य किस्म का सामाजिक भेदभाव है जो आर्थिक तौर पर काफी स्पष्ट दिखता है। अमीर और सुविधासंपन्न बम्बई, गरीब और सुविधाहीन कावाखाना। कारखाना और दफ्तर मालिक बम्बई, हमाल और मजदूर कावाखाना। कावाखाना बम्बई शहर को अपना श्रम बेचता है और अपनी गुजर-बसर करता है। मगर महारवाड़ा की तरह कावाखाना में भी आगे बढ़ने की इच्छा है और सम्पन्न होने की चाहत। इसे पूरा करने के लिए सीधे तरीकों के अलावा चोरी, जेब तराशी जैसे उल्टे तरीके भी अपनाए जाते हैं। कावाखाना में महारों की आर्थिक स्थिति में तो थोड़ा बहुत बदलाव दिखता है मगर सांस्कृतिक परिवेश और पारिवारिक संबंध ज्यों के त्यों बने रहते हैं- खास तौर से औरतों और बच्चों के मामले में। कावाखाने के महार पुरुष शराब और रंडीबाजी जैसी पैसा लुटाने वाली लतों के शिकार होकर अपनी बदहाल जिन्दगी को और बदतर बनाते हैं।
‘कावाखाना’ दगड़ू मारुति पवार को महारवाड़े की तरह अभिशप्त रखता है। लेकिन बम्बई शहर उसे लगातार आकर्षित करता है। बम्बई उसे ‘मुक्ति का शहर’ लगता है। उसके बचपन का कुछ हिस्सा कावाखाने में गुजरता है और युवा होने तक वहां के चक्कर लगाता रहता है। युवा होने पर महारवाड़ा छोड़कर वह यहीं बस जाता है। अपनी शिक्षा पूरी करके वह रोजगार की तलाश में बम्बई आता है। और कावाखाने में अपने रिश्तेदारों के द्वीप में उसके लिए जगह बन जाती है। मगर नौकरी उसे इतनी आसानी से नहीं मिलती-“बम्बई में कदम रखते ही नौकरी मिलना संभव न था…… रोजगार दफ्तर की सीढ़ियां-चढ़ता उतरता था। निराश मन लिए घर आता था। शैडयूल्ड कास्ट की अलग लिस्ट होती। आज सी गंभीर परिस्थिति उन दिनों नहीं थी। काल भी आती परन्तु इंटरव्यू में मैं साफ उड़ जाता।”
रोजगारहीनता युवाओं में कुंठाएं पैदा करती है, उन्हें कदम-कदम पर हतोत्साहित करती है। पढ़ने-लिखने के बाद पढ़ने-लिखने वाली नौकरी मिलनी चाहिए। यह चाहत शिक्षित दगड़ू मारुति पवार को मजदूरी भी न करने देती। वह मां की मजदूरी पर पलता है और शर्मशार होता रहता है। इसी बीच मां और रिश्तेदारों के जोर देने पर सई से उसका विवाह होता है। उसका हनीमून एक दु:स्वप्न की तरह गुजरता है। मां और बीबी के झगड़े उसके उत्साह को तोड़ते हैं। अंत में उसे नौकरी मिल जाती है- बीमार जानवरों के गोबर की जांच और जानवरों की चीड़-फाड़ करने वाले विभाग में। यह नौकरी उसके महार होने की वजह से उसे मिलती है। नौकरी पाकर उसे खुशी कम कोफ्त ज्यादा होती है। अपने आक्रोश को स्वर देता हुआ लेखक लिखता है-“विचारों के तनाव से सिर फटने को होता। लगता, साला इतना पढ़-लिख गए, फिर भी बापजादों का धंधा ही अपने हिस्से क्यों आया।” जाति की मानसिकता से ग्रस्त भारतीय समाज की यह विडम्बना ही है कि जिन गंदे कामों से मुक्ति के लिए दलित शिक्षित होता है, शिक्षित होकर भी वही काम उसके हिस्से आते हैं।
लेकिन इसे दगड़ू मारुति पवार के चरित्रा की खूबी की कही जाएगी कि वह लगातार इस व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह और आक्रोश प्रकट करता है और आगे बढ़ने के रास्ते खोजता रहता है। यहां भी आगे बढ़ने का एकमात्रा रास्ता उसे शिक्षा ही लगती है। वह रूपारेल कालेज जाने लगता है। नौकरी और कालेज में किसी तरह संतुलन बनाए रखकर वह बी.ए. करता है। अंतत: उसे एक मनमुताबिक सरकारी नौकरी मिल जाती है। तनावों और अन्तरद्वंद्वों से किसी हद तक मुक्ति मिल जाती है।
उम्र के चालीसवें पड़ाव पर उसे एक सुखी जीवन जीने का अहसास होता है। वह एक प्रसिद्ध दलित साहित्यकार और आफिसर के रूप में स्थापित होता है यहां आकर वह लिखता है
“मैंने एक सुखी आदमी की शर्ट पहन रखी है। सात-आठ सौ की सरकारी नौकरी है। माई-बाप सरकार ने, किराए का ही सही, सबर्ब में मकान दिया है। पत्नी पढ़ी लिखी है। दो लड़कियां पढ़ रही हैं। अपना नाम चलाने के लिए पांच-छह साल का लड़का हाथों-कंधों पर फुदक रहा है। बड़ी लड़की की शादी हो गई। पिछले साल ही उसे लड़का भी हो गया है। यानी मैं उम्र के चालीसे में ही नाना बन गया। कुल मिलाकर बेल ऊपर चढ़ती हुई फल-फूल रही है।”
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यूं तो ‘अछूत’ दगड़ू मारुति पवार के चालीस साल की संघर्ष गाथा है और इसका केन्द्रीयय पात्रा भी वह खुद ही है। महार ‘अछूत’ से गुजरने के बाद लगता है कि अछूत का केन्द्रीयय पात्रा दगड़ू मारुति पवार नहीं है बल्कि ‘महारवाड़ा’ और ‘खावाखाना’ हैं। लगता है कि जैसे अछूत ‘महारवाड़ा’ और ‘खावाखाना’ की ही अभिशप्त गाथा। इन दोनों के इर्द-गिर्द सैकड़ों ऐसे पात्रा और उनकी त्रासद जीवन परिस्थितियां हैं जो कहीं न कहीं जाकर इनके व्यापक रूप का ही प्रतीक मात्रा हैं।
महारवाड़ा और कावाखाना के बीच पिसते, घुटते और सिसकते सैकड़ों ऐसे चरित्रा हैं जो इन्हीं के बीच उभरते हैं और इन्हीं की सीमाओं के भीतर समाप्त हो जाते हैं। ‘अछूत’ का एक छोर महारवाड़ा है तो दूसरा कावाखाना। इन दोनों के बीच केन्द्रीय चरित्रा दगड़ू मारुति पवार है और उसके इर्द-गिर्द सैकड़ों अभिशप्त चरित्रा हैं। महारवाड़ा और कावाखाना ग्रामीण और शहरी त्रासद दलित जीवन का समूचा चित्रा बनाते हैं। इस चित्र में दगड़ू मारुति पवार की संघर्ष गाथा तो है ही उसके अलावा सैकड़ों ऐसी गाथाएं हैं जिनका आधार महारवाड़ा और कावाखाना के सैकड़ों छोटे-बड़े, अच्छे-बुरे दलित पात्र हैं।
दगड़ू मारुति पवार के जीवन में बहुत-सी स्त्रियां आती हैं। कुछ उसके जीवन से सीधे जुड़ी हैं। कुछ से उम्दा पारिवारिक संबंध है। कुछ ऐसी स्त्रियां भी हैं जो न उसके जीवन से सीधे जुड़ी हैं और न उनके साथ उनके पारिवारिक संबंध हैं। वह उसकी गाथा की सतहों पर समय-समय पर दिखाई पड़ती हैं और लुप्त हो जाती हैं। लेकिन ये सारी की सारी स्त्रियां उसकी जीवन गाथा के परिवेश में जूझती, हताश होती और शोषित होती दिखाई पड़ती हैं। ये स्त्रियां दोहरे अभिशाप से पीड़ित हैं। वह स्त्री होने के कारण घर के भीतर शोषित होती हैं और एक अछूत स्त्री होने के कारण बाहर भी उत्पीड़ित होती हैं। अछूत में जो स्त्रियां हमें घूमती दिखाई पड़ती हैं उनका व्यक्तित्व आधा-अधूरा ही है। वह अपने समूचे चरित्रा के रूप में हमारे सामने नहीं आती हैं। यही उनकी त्रासदी है, यही उनकी विडंबना है।
महारवाड़ा में अछूतपन की सीधा शिकार दलित, स्त्रियां ही हैं। अस्पृश्यता और ऊंच-नीच की जातीय मानसिकता का सबसे ज्यादा शिकार वहीं होती हैं। यह जानकर पुरुष की दलित चिंतकों को धक्का लगेगा कि बलुत और जूठन की जिस परंपरा के अभिशाप के बारे में वे बढ़-चढ़ कर अपनी आत्मकथाओं में लिखते आए हैं, उस अभिशाप का पहला शिकार दरअसल दलित समाज की स्त्रियां ही होती हैं। बलुत और जूठन मांगने जैसे नीच काम को उन्हें ही करना पड़ता है। वह अपने पतियों और परिवार के सदस्यों द्वारा तो सताई जाती ही हैं बल्कि उनकी निचली जाति और गरीबी का फायदा उठाकर ऊंची जाति के पुरुष भी उनका दैहिक शोषण करते हैं।
स्त्रियों को दोहरे शोषण की मार जीवन भर झेलनी पड़ती है। मुक्ति का शहर लगने वाले बम्बई शहर के कावाखाने में भी अछूत स्त्रियों की ही दुर्दशा ज्यादा होती है। उन्हें कहीं मुक्ति नहीं मिलती, न महारवाड़ा में और न कावाखाने में। कावाखाने में आकर भी दलित स्त्रियों को दलित पुरुषों की पुरुषवादी मानसिकता का शिकार होना पड़ता है। कावाखाने में आकर उन्हें जूठन और बलुत मांगने जैसी नीच काम नहीं करना पड़ता मगर उनका शोषण कम नहीं होता। घर में खटने के बाद दलित स्त्रियों को पतियों की बुरी लतों के कारण उत्पन्न आर्थिक अभावों के कारण घर चलाने के लिए छोटे-मोटे धंधे भी करने पड़ते हैं। लेखक लिखता है-“औरतें भी खूब खटतीं। सड़कों पर पड़ी चिंदियां, कागज, कांच के टुकड़े, लोहा, लंगर, बोतलें बीनकर लाना, उन्हें कांट-छांट की अलग करना और सुबह बाजार में ले जाकर बेचना यही उनका धंधा था। कुछ औरतें पास के वेश्यालयों में वेश्याओं की साड़ियां धोती।” फिर भी उनकी कमाई पर उनका हक नहीं होता। वह अपनी कमाई खुद पर खर्च नहीं कर सकती बल्कि घर गृहस्थी में ही यह खर्च होती है। जबकि आदमी अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा शराब और रंडीबाजी जैसी अपनी बुरी लतों में खर्च करता है।
महारों-दलितों में किसी शक के बिना पर, बच्चा न पैदा होने की स्थिति में, या फिर अकारण ही अपनी औरतों को छोड़ देने की परंपरा घर कर गई है। यह उनकी पुरुषवादी सोच का ही नतीजा हैं। महारवाड़ा अगर उनसे बेगार करवाता है तो वह अपनी स्त्री को भी अपने बंधुआ मजदूर के रूप में ही इस्तेमाल करते हैं। जब तक चाहते हैं उसका हर संभव शोषण करते हैं और जब चाहे छोड़ देते हैं। अछूत में ऐसी हुई परित्यकता स्त्रियां हैं जो अपने पतियों द्वारा बदहाल और लाचार स्थिति में छोड़ दी जाती हैं। उनमें से कइयों को वेश्यालय में ठिकाना मिलता है जहां वे प्रतिदिन अपने जमीर और जिस्म का सौदा करती हैं और तिल-तिल मरने को अभिशप्त रहती हैं। सारी अच्छी बुरी दलित मूल्य-मान्यताओं और लोकाचारों का दुष्परिणाम भी उन्हीं को झेलना पड़ता है। दलित पुरुष हर कदम पर और हर रूप में उनका शोषण करते दिखाई पड़ते हैं।
महारवाड़ा में दगड़ू मारुति पवार की परित्यक्ता चाची की दुर्दशा उसके बालमन पर अभिट छाप छोड़ जाती है। चाचा अपनी औरत को छोड़कर शहर में दूसरी शादी कर लेता है। दगड़ू का पिता घर में स्त्री होने के बावजूद वेश्यालय में जाता है और रंडीबाजी करता है। उसका चाचा खेल दिखाने वाली औरत का लंबे समय तक मुफ्त दैहिक शोषण करता है। बम्बई में उसकी जमना मौसी को वेश्यालय नसीब होता है और वह वहीं तिल-तिल जीवन जीते हुए मर जाती है। बड़ी बहन के बच्चा न होने पर सीधी-साधी गऊ को अपने ही जीजा से ब्याह दिया जाता है। वह अपनी ही बहन की सौत बनकर जीने को अभिशप्त करती है। महारवाड़ा की एक जवान औरत का पति बम्बई कमाने जाता है। उनका ससुर उससे दुष्कर्म करने की कोशिश करता है। पंचायत लगती है तो उसका पति अपनी पत्नी पक्ष लेने की बजाए उसे अपने और अपने बाप के साझे की स्त्री बनाता है। बेटे की पत्नी ससुर की रखैल बनने को मजबूर होती है। यौंन विकृति की मारी सीता को इज्जत बचाने के नाम पर बड़े ही अमानवीय ढंग से दागा जाता है।
स्त्रियों के प्रति महारवाड़ा के पुरुषों जैसा ही बर्ताव खुद दगड़ू मारुति पवार में भी देखने को मिलता है। अपनी परित्यकता चाची और सीता के प्रति अपनी सहानुभूति दर्ज करने वाला दगड़ू अपनी स्त्री सई का दूसरे मर्द के साथ संबंध होने के शक करता है और उसे छोड़कर दूसरा विवाह कर लेता है। यह दया पंवार की लेखकीय और व्यक्तिगत ईमानदारी ही कही जाएगी कि उन्होंने ‘अछूत’ के तमाम स्त्री पात्रों की त्रासद जीवन परिस्थितियों को पूरे यथार्थपूर्ण ढंग से अपनी आत्मकथा में रखा है।
दगड़ू मारुति पवार की मां सखू का समूचा जीवन एक दलित स्त्री की त्रासद गाथा है। बचपन में शादी हो जाती है। पति शराबी और रंडीबाज निकलता है। वह रो-धोकर अपने पति के साथ अपने जीवन का एक हिस्सा गुजारती है और पति के मर जाने के बाद बाकी जीवन अपने बेटे के साथ। उसे कदम-कदम पर परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है। पति के मर जाने पर पेट में गर्भ ठहर जाने पर उसका खुद का बेटा उस पर शक करता है। वह किसी तरह उसे विश्वास दिलाती है। लेकिन धीरे-धीरे उसका संघर्षशील व्यक्तित्व उजागर होता है जो एक दलित स्त्री की महानता और साहसिक उच्चता का ही पर्याय है। डा. अम्बेडकर का संदेश किसी रूप में उनके कानों तक पहुंचता है-“महारन के मन में अपने बेटे के लिए कौन से सपने होते हैं। यही कि वह चपरासी हो या सिपाही। पर ब्राह्मणी की इच्छा होती है उसका बेटा कलक्टर बने। ऐसी इच्छाएं महार की मां को क्यों नहीं होती।” शायद इसी भाषण का अनजाने में उस पर असर हो गया होगा इसीलिए अपने बेटे को पढ़ाने के लिए वह हर कष्ट उठाने को तैयार हो जाती है। गांव में मेहनत-मजदूरी करके घर चलती है। छात्रावास की नौकरी करके दिन रात खुद को भटटी में तपाती है। अपनी मां के पुरुषार्थ के बारे में लेखक लिखता है –“मां ने मर्दों-सी कमर कस ली। जिंदगी भर तूफानी कष्ट उठाए। उनके सामर्थ से मैं चकाचौंध हो गया।” कावाखाने में बेटे के साथ आकर भी वह छोटे-मोटे धंधे करती रहती है। अंत में महारवाड़ा में आकर उनकी जीवन लीला समाप्त हो जाती है। जिस मुक्ति के लिए दगड़ू निरंतर बेचैन और संघर्षशील रहता है वह मुक्ति उसकी मां के संघर्ष के बिना संभव नहीं हो सकती थी।
‘महारवाड़ा’ अछूत के नायक दगड़ू मारुति पवार को जीवन पय±त अभिशप्त रखता हैं। वह निरंतर महारवाड़ा के अभिशाप से ग्रस्त मुक्ति की तलाशता में छटपटाता है मगर कावाखाना में आने के बाद उसे नौकरी मिल जाती हैं। अंत में उसे सरकारी नौकरी भी मिल जाती है। इस प्रकार जिस मुक्ति के लिए वह निरंतर छटपटाता है, वह उसे किसी हद तक मिल भी जाती हैं। उम्र के चालीसवें पड़ाव में आकर वह लगभग एक सुखी जीवन जीता है।
मगर महारवाड़ा और कावारखाना के बीच सैकड़ों ऐसे दलित पुरुष पात्र हैं जिनकी जिन्दगियों में यह सुख नसीब नहीं होता। वह महारवाड़ा और कावाखाना के अभिशप्त घेरे के बीच छटपटाते हुए जीवन गुजारते हैं और अंत में उसी में मर भी जाते हैं। महारवाड़ा के हरि का कोढ़ी बाप घृणा का कारण बनता है। उसका बेटा उनकी खूब सेवा करता है और इस सेवा का परिणाम यह होता है कि हरि को भी कोढ़ हो जाता है। अपने बाप के कोढ़ को हरि जीवन पर्यत ढोता है। यौंन विकृति का शिकार रामू ऊंची जात वालों की घोड़ियों के साथ संभोग करके अपनी बेगार और घृणा के बर्ताव का बदला लेता है और पूरे महारवाड़ा के भीतर ‘घोड़ी-चोद’ के रूप में बदनाम होता है। नौजवान शंकर किसी सनक में मंदिर की सीढ़ियों पर लात मारता है और पागल करार दे दिया जाता है। धीरे-धीरे वह पागल हो भी जाता है। लावण नामक तात्याबा शिंदे शहर के थियेटर परदे खींचकर अपना जीवन गुजारता है। जावजी बुआ और उनका लड़का बबन शराब की लत का शिकार होकर अपनी जर्जर काया के साथ अपनी जीवन लीला समाप्त करते हैं। दगड़ू के बचपन का साथी महादू जुए की लत का शिकार होकर बर्बाद हो जाता है। शराब की लत खुद दगड़ू के पिता को भी बर्बाद कर देती है। महारवाड़ा में नाटकों में अच्छा अभिनय करके प्रसिद्धि पानेवाला सदासिव घटिया दलित राजनीति का शिकार होकर अपने दु:खांत पर पहुंचता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि विविध कारणों से महारवाड़ा के महार पुरुष घनघोर दरिद्रता और पतित मानवीय विकृतियों की मार से अभिशप्त होते हैं। कुछ महारवाड़ा में ही जीते मरते हैं, कुछ भागकर कावाखाना पहुंचते हैं और उनकी जीवन लीला वहीं समाप्त होती है। कुछ बदहाली की हालत में महारवाड़ा वापस लौटते हैं और मृत्यु को प्राप्त होते हैं। यूं तो ‘अछूत’ दगड़ू मारुति पवार की जीवन गाथा है मगर उसमें हमें सैकड़ों ऐसे अनेक दलित पात्रा दिखाई पड़ते हैं जो महारवाड़ा की त्रासद अमानवीय परिस्थितियों में अमानवीयता की हद तक पहुंचते हैं और मिट~टी में मिल जाते हैं। दरअसल ये सारे दलित पात्र समग्रता में एक दलित जीवन का चित्रा प्रस्तुत करते हैं जिन्हें महारवाड़ा का दंश कदम-कदम पर डसता है। उनकी निराशाएं, कुंठाएं, छटपटाहटें सबकी सब दलित जीवन की अन्तर वेदनाएं हैं जो उनके साकार रूप में हमें अछूत में दिखाई पड़ती हैं। ये सारे के सारे दलित पात्रा एक ऐसे अभिशप्त दलित जीवन को साकार करते हैं जिसमें दु:ख ही दु:ख हैं, सुख की कोई आशा नहीं है, जिसमें पतन ही पतन है, उत्थान की कोई राह नहीं है। सबके सब जाति, दरिद्रता और पतनशील सांस्कृतिक माहौल वाले महारवाड़ा में पैदा होते हैं और उसी में मर जाते हैं।
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“जिन आंदोलनों के बीच मैं बड़ा हुआ, वहां राजनीति और समाज सेवा की रेखाएं आपस में उलझ चुकी थीं। पैदा होते ही पार्टी का कार्ड मिलता है। सोशल फोर्स ही इतना था कि आप अलग पार्टी में जाने की इच्छा रखते हुए भी उसका चुनाव न कर सकते। जिन्होंने ऐसा किया, वे बहिष्कृत हुए।”
अछूत में राजनीति के कई आयाम देखने को मिलते हैं।एक तरफ महारवाड़ा के स्वत: स्फूर्त और संगठित आंदोलन हैं तो दूसरी तरफ दलितों के नाम पर सत्ता की राजनीति करने वाली पार्टियाँ है। एक तरफ सत्ता के संस्थागत चरित्र और उसके सरोकार में बदलाव चाहने वाली राजनीति है तो दूसरी तरफ संस्थागत सत्ता के विकल्प के लिए संघर्षशील समाजवादी और साम्यवादी राजनीति है। दया पवार हिंदुस्तान के दलितों की उस पीढ़ी के प्रतिनिधि हैं जो पैदा तो हुई उपनिवेशवादी भारत में और पली-बढ़ी आजाद भारत में। आजाद भारत में इस पीढ़ी ने कांग्रेस के सामंतवादी-ब्राह्मणदी और पूंजीवादी चरित्र की मार झेली और संपूर्ण मुक्ति के लिए संघर्षशील वाम राजनीति में अपनी मुक्ति की चाह देखी। मगर दलित मुक्ति के प्रश्न पर इन दोनों की असफलता और संकीर्णता ने उन्हें अपना ही आंदोलन खड़ा करने को मजबूर कर दिया। आजाद भारत में संगठित दलित राजनीति का उभार हुआ। दलित राजनीति ने देश भर के लाखों-करोड़ों दलितों को उनकी मुक्ति की इच्छा शक्ति पैदा की। मगर दलित राजनीति की यह विडम्बना ही है कि वह जिस प्रश्न को लेकर सत्ता के मैदान में उतरी थी, वह उसी सत्ता के खेल में मशगूल हो गई।
1947 में अंग्रेज हिंदुस्तान छोड़कर चले गए और हिंदुस्तान की सत्ता कांग्रेस के हाथों में आ गई। स्वतंत्राता आंदोलन के दौर में कांग्रेस का मजबूत संगठन, देश के लगभग हर तबके में उसकी पकड़ और स्वतंत्राता आंदोलन में उसकी व्यापक सक्रियता आदि ऐसी वजहें थी जिनके चलते सत्ता उसके हाथों में आ गई। मगर कांग्रेस अपने समग्र रूप में सामंतवादी, ब्राह्मणदी और पूंजीवादी शक्तियों के गठजोड़ का केन्द्र थी। 1947 के बाद भी उनका यह गठजोड़ जस का तस बना रहा। सत्ता में आने के बाद कांग्रेस ने देश के विकास का जो रास्ता अख्तियार किया, उससे देश के मजलूमों, गरीबों, उत्पीड़ितों और वंचितों के हालात में कोई खास बदलाव नहीं आया। दया पंवार ने इस बारे में लिखा है-
“स्वतंत्रता की जलेबी चौथी कक्षा में मिली। एक चमकदार बिल्ला मिला जिसमें भारत-माता की प्रतिमा अंकित थी। बड़े गर्व से छाती पर लगाकर उसे घूमता। परन्तु स्वतंत्राता मिली अर्थात वास्तव में क्या हुआ वैसे जीवन में किसी प्रकार का परिवर्तन याद नहीं।”
वामपंथी राजनीति ने कांग्रेस के परंपरागत गठजोड़ का असली रूप उजागर किया। भारत की जनता में अपने व्यापक समर्थन के बावजूद वामपंथी आंदोलन कांग्रेस की सत्ता को उलट पाने में नाकाम रहा। दलित प्रश्न को लेकर वामपंथी आंदोलन की ऊहापोह और उसकी संकीर्णता ने दलितों में उनके व्यापक आधार में दरारें पैदा कर दीं। इस बारे में दया पवार ने ‘अछूत’ में लिखा है-
“उस समय के वामपंथियों को इस बात की तनिक भी जानकारी नहीं थी कि अस्पृश्यों की अपनी अलग समस्याएं हैं। जेड. पी. शक्कर के कारखाने और महाराष्ट्र की राजकीय सत्ता के हाथों में रहने के बाद भी अनजाने में इन्होंने ब्राह्मण संस्कृति की तरफदारी की…….। इनकी मानसिकता पारंपरिक ही थी। गांव का धनवान आदमी, चाहे वह समाजवादी हो या कम्युनिस्ट अस्पृश्यों की मजदूरी-समस्या की ओर पहले सा ही मगरूर होकर देखता।”
दलित प्रश्न पर कांग्रेस की असफलता और वामपंथी राजनीति की संकीर्णता के कारण एक स्वतंत्र दलित आंदोलन का उभार हुआ। डा. अम्बेडकर ने अपने अथक प्रयासों से एक सशक्त और व्यापक दलित आंदोलन को पैदा किया। डा. अम्बेडकर ने दलित समस्या को सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक स्तर पर ही नहीं देखा, उन्होंने इस समस्या के आर्थिक और राजनीतिक पहलू पर भी ध्यान दिया। उन्होंने जीवन भर दलितों के शैक्षिक, आर्थिक और सामाजिक उत्थान के बारे में सोचा और इस दिशा में भरपूर मेहनत की। एक तरफ उन्होंने सत्ता के सांस्थानीकत ढांचे में दलितों की भागीदारी सुनिश्चित कराने के लिए संविधान बनाने जैसा महत्वपूर्ण कार्य किया तो दूसरे स्तर पर दलित संघर्ष को संगठित रूप देने की लगातार कोशिश की। उनका निजी व्यक्तित्व अपने आप में एक ‘संघर्षशील व्यक्ति’ की अप्रतिम मिसाल था। पंवार ने उनके बारे में लिखा है-
“अम्बेडकर ने आंदोलन की दाहकता सिखाई।”
संविधानिक स्तर पर दलित हितों के रक्षात्मक उपाय सुनिश्चित करा लेने के बावजूद उन्होंने आजाद भारत में रिपब्लिकन पार्टी आWफ इंडिया की स्थापना की। मगर उनकी मृत्यु के बाद आर.पी.आई. न सिर्फ उनके सिद्धांतों से नीचे उतर गई बल्कि उसमें विखराव भी पैदा हो गया और वह कई हिस्सों में विभाजित होकर लगभग शक्तिहीन सी हो गई।
डा. अम्बेडकर की मृत्यु के बाद महाराष्ट्र में सत्ता के दशक में एक जबरदस्त सामाजिक-राजनीतिक दलित आंदोलन का उभार हुआ। महारवाड़ा के दादासाहब गायकवाड़ के राजनीतिक आंदोलन ने दलित प्रश्न पर एक नई दिशा दिखाई। महारवाड़ा में लक्ष्मण गायकवाड़ जैसे सामाजिक कार्यकत्र्ताओं और ‘दलित पेंथर’ जैसे आंदोलन ने दलित आंदोलन को एक व्यापक सक्रिय और जुझारू संघर्ष में तब्दील कर दिया। महारवाड़ा के समाज सुधार आंदोलन के कार्यकत्र्ता गांव-गांव पहुंचते। वे दलितों के आत्म सम्मान और आत्मविश्वास को पुनर्जाग्रत करने के लिए दलितों को सामूहिक तौर पर गंदे कार्य छोड़ने के लिए तैयार करते। इससे महारवाड़ों में एक भारी हलचल उत्पन्न हुई। सदियों से शोषित महार संगठित होकर अपने आत्म सम्मान, रोजगार व शिक्षा के अधिकार के लिए संघर्षरत होने लगे।
डा. अम्बेडकर के बाद दादासाहब गायकवाड़ महारवाड़ा के ऐसे जुझारू नेता के रूप में सामने आए जिन्होंने समूचे महारवाड़ा के दलित युवकों को काफी प्रभावित किया। दलितों को आर्थिक तौर पर उठाने के लिहाज से उन्होंने भूमि अधिकार आंदोलन की शुरुआत की। इससे दलित आंदोलन को संघर्ष को एक वास्तविक आयाम मिला। दया पंवार ने दादासाहब गायकवाड़ के इस कदम की काफी सराहना की है। कावाखाने पहुंचकर जब दगड़ू मारुति पवार नौकरी पाने के लिए मंत्री बन चुके दादासाहब के पास मदद के लिए पहुंचता तो उनके परिवर्तित व्यवहार से वह उदास होता है और उसका व्यक्तिगत स्तर पर मोभंग होता है हालांकि सामाजिक स्तर पर वह दादासाहब गायकवाड़ के योगदान को महत्वपूर्ण मानता है। दया पंवार ने लिखा है-“आज भी मेरा उनके प्रति जो प्रेम है, वह आंदोलनों वाले दादासाहब पर है जिसने विद्रोह करना सिखाया।”
डा. अम्बेडकर के बाद जो दलित नेता उभरे वे सभी दादासाहब जैसे न थे। उनमें से अधिकतर आगे चलकर दलित समाज पर बोझ ही साबित हुए। इनमें से अधिकतर नेता सुधारवादी नेता थे और मध्यम वर्ग से आए थे। उनमें से अधिकतर मध्यवर्ग की जानी-पहचानी कमजोरियों की मिसाल थे। बहुतों की मानसिकता पुरातन मूल्यों की पोषक और समझौतावादी मानसिकता ही थी। ये सभी सत्ता में बने रहने के लिए किसी भी हद तक पतित हो सकते थे। डा. अम्बेडकर के बाद आर.पी.आई. नेतृत्व पर हावी हुए बहुत से दलित नेता विकृत सामाजिक मानसिकता से ग्रस्त थे। इन लोगों ने डा. अम्बेडकर की बाहरी बातों की हूबहू नकल की। मगर सैद्धांतिक और व्यावहारिक स्तर पर ये लोग विकृत मानसिकता के लोग थे। यह कहा जा सकता है कि ऐसे लोगों ने दलित आंदोलन की व्यापकता और दाहकता को काफी नुकसान पहुंचाया। देखा जाए तो आज भी ऐसे नेताओं की कमी नहीं है। दया पंवार ने ऐसे नेताओं के बारे में लिखा है-
“इनमें से अधिकांश नेता बाबासाहब की हूबहू नकल करते। बाबासाहब कुत्ता पालते तो ये भी पालते। बाबासाहब कीमती पेन रखते, ये भी रखने लगे। सूट पहनना आम बात हो गई थी।…… देहातों में जनता रास्तों पर धूल में पत्तलें बिछाकर लपसी खाती है और ये नेता अपने घरों में मुर्गी-शराब में मस्त। यह विसंगति बहुत खटकती। निश्चित ही इनके ये शौक लोगों के चंदे से पूरे होते।…….. अनुयायियों के साथ गुलामों सा व्यवहार करने में उन्हें शर्म न आती।”
राजनीतिक स्तर पर ये नेता और इनका दृष्टिकोण बाबासाहब के चिंतन और संघर्ष के स्तर तक ही सीमित हो गया। बाबा साहब मरते दम तक दलित उत्थान के लिए अपने सिद्धांतों और व्यावहारिक रणनीति में काफी पेफर बदल करते रहे थे। बाबा साहब दलित आंदोलन को मंदिर प्रवेश, कुंआं साझीदारी और धार्मिक स्तर पर समानता से आगे ले आए थे। उन्होंने दलित समस्या के राजनीतिक और आर्थिक पहलू पर ज्यादा ध्यान देना शुरू कर दिया था। इससे पहले कि वे इस बारे में कोई ठोस पहलकदमी कर पाते उनकी मृत्यु हो गई। आर.पी.आई. के सत्तावादी और सुधारवादी मानसिकता के नेताओं ने दलित आंदोलन के वैचारिक पक्ष में कुछ खास इज़ाफा नहीं किया। उन्होंने बाबासाहब को देवता बना डाला। उनके चिंतन को अपरिवर्तनशील संपूर्ण। वे सामाजिक विकास के लिए स्तर पर और खासतौर पर आजादी के बाद दलित समाज के सामने आ रहीं चुनौतियों और समस्याओं को सुलझाने में नाकाम रहे। कहना चाहिए कि ऐसे लोगों ने दलित समस्या की जटिलता की गतिशीलता की पहचान को रणनीति बनाने की बजाए, उसे और उलझा दिया। दया पंवार ने इस बारे में लिखा है-
“सुधारवादी नेता आकर्षक नारे देने में बड़े निपुण थे। ‘पार्टी का हाथी चुनाव चिहन फिर वापिस लाना है। एक ऐसी ही आकर्षक घोषणा थी। देश की संपूर्ण बुद्ध गुफाएं हमारे अधिकार में हो’। सारा भारत बुद्धमय करना है।” उ
नकी यह घोषणाएं उनकी पिछड़ी राजनीतिक समझ को ही उजागर करती हैं। यह कहने में कोई गुरेज नहीं होता कि ये लोग सत्तावादी और समझौतावादी किस्म के लोग हैं जो दलित आंदोलन जो काफी नुकसान पहुंचा रहे थे। उन्हें दलितों की आर्थिक समस्याओं से कुछ लेना देना नहीं था। दलित आबादी से प्रतिनिधित्व पाकर अपना ही पेट भरने वाले लोग परंपरागत मूल्य मान्यताओं की पोषक, दलित और जन विरोधी राजनीतिक सत्ता के पैरोकार ही हैं। दया पवार ने ‘अछूत’ में इन लोगों का बड़ा ही यथार्थपरक चित्र खींचा है। उन्होंने ऐसे नेताओं को काफी करीब से देखा। उनकी व्यक्तिगत विकृतियों और राजनीतिक विसंगतियों पर दया पंवार ने ‘अछूत’ के आखिरी भाग में बड़ी बेबाक टिप्पिणयां की हैं। दलित राजनीति की विसंगतियों और सीमाओं को शायद दया पंवार ने ही काफी साफ तौर पर रेखांकित किया है।
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भारतीय साहित्य में आत्मकथात्मक लेखन एक आधुनिक व्यवहार का प्रतिपालन है। आधुनिकता ने मनुष्य को व्यक्ति के स्तर पर स्वतंत्रा किया। उसके विवेक, उनकी जीवनाभूतियों और व्यक्तित्व को समाज के स्तर पर मान्यता मिली। आधुनिकता ने मनुष्य को तो नई दृष्टि दी ही मगर वह खुद भी साहित्य और समाज के केन्द्र में आ गया। मगर वह आधुनिक मनुष्य की कई तरह की सीमाओं में जकड़ा रहा है। इन सीमाओं ने उनकी विवेकशीलता और रचनाधर्मिता को कई स्तरों पर प्रभावित किया है। दलित आत्मकथात्मक लेखन इस मायने में मनुष्य की आधुनिक जकड़बंदियों से मुक्ति का पर्याय बनकर सामने आया है।
वैसे भारतीय साहित्य में ‘आत्मकथा लेखन’ बहुत कम हुआ है। मगर आधुनिक भारतीय साहित्य में जितनी आत्मकथाएं लिखी गई हैं उन्होंने आत्मकथा लेखन के कुछ मापदंड तो बना ही दिए हैं। मसलन आत्मकथा लेखन के बारे में अक्सर यह सुनने में आता है कि यह जीवन के अंतिम पड़ाव पर जीवन के तमाम अनुभवों के निचोड़ के रूप में लिखी जाने वाली कोई चीज है। लेकिन दलित साहित्यकारों ने इस मापदंड को चुनौती देते हुए जीवन के बीच के पड़ावों तक के अपने अनुभवों पर आत्मकथाएं लिखी हैं।
आत्मकथा लेखन के बारे में एक और बात सामने आती है। अक्सर आत्मकथा लिखते वक्त लेखक व्यक्तिगत स्तर पर थोड़ा सीमित और रोमानी हो जाता है। वह अक्सर अपने जीवन के ऐसे अनुभवों की चर्चा ही ज्यादा करता है जो उसे एक श्रेष्ठ मनुष्य के रूप में दिखाते हैं। लेकिन दलित आत्मकथा लेखन ने साहित्य की इस परंपरावादी और अभिजात्यवादी मानसिकता को तोड़ा है। उन्होंने आत्मकथा लेखन में एक व्यक्ति के तौर पर अपने जीवन की व्यक्तिगत निराशा, कुंठा, अवसाद और अवमाननाओं की वेबाक अभिव्यक्ति की है। कहा जाता है कि दलितों का जीवन एक दु:ख भरी कहानी है। इसलिए आत्मकथाओं में इस दु:ख की, इस त्रासदी का बार-बार आना लाजमी है। मगर दलितों का यह दु:ख, यह त्रासदी व्यक्तिगत न होकर सामाजिक है। यह भारत के बहुतायत दलितों के शोषित, वंचित, कुंठित जीवन की पर्याय है। इस मामले में दलित आत्मकथाएं दलित जीवन की दु:ख भरी त्रासदी का पर्याय हैं। दया पवार के ‘अछूत’ में दगड़ू मारुति पवार के व्यक्तिगत जीवन की करूणगाथा महारवाड़ा के शोषित वंचित और उपेक्षित करूणगाथा का प्रतिनिधित्व करती है। ‘अछूत’ अकेले दगड़ू मारुति पवार की जीवन की गाथा नहीं है बल्कि वह हजारों-हजार दगड़ूओं की त्रासद जीवन गाथा है। इस मामले में दलित आत्मकथाएं सामूहिक और सामाजिक आत्मकथाएं हैं।
दलित आत्मकथाओं के बारे में अक्सर कहा जाता है कि उसमें दलितों द्वारा अतीत में झेली गई प्रवंचनाओं, उपेक्षाओं और दु:खानुभूतियों का ही ज्यादा दर्शन होता है, वर्तमान जीवन की विसंगतियों के बारे में वह बहुत ही कम अभिव्यक्त कर पाती हैं। दलितों का वर्तमान जीवन अतीतकालीन जीवन की दु:खद स्मृतियों और गाथाओं की निर्मित है। दलित मुक्ति की राह भूतकाल के जीवनानुभवों को जानकर ही बनाई जा सकती है। भविष्य की दिशा अतीत से तय होती है। उनके वर्तमान जीवन के यथार्थ का आधार अतीत से ही निकलकर आता है। दलित आत्मकथाएं दरअसल अतीतकालीन जीवन की करूण और यथार्थपरक जीवन परिस्थितियों की जटिलताओं को खोलती हैं। इसलिए वे इस मामले में परंपरागत आधुनिक साहित्य के आदर्शवादी ढांचे के बरक्स एक यथार्थपरक अन्तर्वस्तु और भाषा में रची गई आत्मकथाएं हैं। तमाम संघर्षों और आंदोलनों के बावजूद परंपरागत आधुनिक साहित्य मध्यवर्गीय रूझानों और सीमाओं में फंसकर अपने जनवादी चरित्रा को खोता रहा है और किसी हद तक वह ठहर सा गया है। दलित आत्मकथाओं ने इस मामले में भारतीय साहित्य लेखन को एक नई दिशा दिखाई है। दलित साहित्य आधुनिक भारतीय साहित्य की सीमाओं और जकड़वंदियों से उसकी मुक्ति का आगाज़ बनकर सामने आया है। इस मामले में ‘अछूत’ एक बेमिसाल कृति है।
कुल मिलाकर ‘अछूत’ दलित साहित्य की एक श्रेष्ठ और सशक्त रचना है। इसने दलित साहित्य को न सिर्फ स्थापित किया है बल्कि अपनी समग्र अंतर्वस्तु और शिल्प के माध्यम से आधुनिक परंपरागत साहित्य की सीमाओं और जकड़बंदियों को जबरदस्त चुनौती पेश की है। ‘अछूत’ दलित जीवन की त्रासदी का ही पर्याय नहीं है, वह भारत की बहुतायत आबादी के शोषित, वंचित, उपेक्षित जीवन और त्रासद जीवन परिस्थितियों का पर्याय भी है।
अपेक्षा, जुलाई-सितम्बर 2003 में प्रकाशित
प्रेम-मृत्यु ही जीवन है! / ओशो
प्रवचनमाला
सुबह घूमकर लौटा था। नदी तट पर एक छोटे से झरने से मिलना हुआ। राह के सूखे पत्तों को हटाकर वह झरना नदी की ओर भाग रहा था। उसकी दौड़ देखी और फिर नदी में उसका आनंदपूर्ण मिलन भी देखा। फिर देखा कि नदी भी भाग रही है।
और फिर देखा कि सब कुछ भाग रहा है। सागर से मिलने के लिए, असीम में खोने के लिए। पूर्ण को पाने के लिए समस्त जीवन ही- राह के सूखे-मृत पत्तों को हटाता हुआ-भागा जा रहा है।
बूंद सागर होना चाहती है। यही सूत्र समस्त जीवन का ध्येय-सूत्र है। उसके आधार पर ही सारी गति है और उसकी पूर्णता में ही आनंद है। सीमा दुख है, अपूर्णता दुख है। जीवन सीमा के, अपूर्णता के समस्त अवरोधों के पार उठना चाहता है। उनके कारण उसे मृत्यु झेलनी पड़ती है। उसके अभाव में वह अमृत है। उनके कारण वह खण्ड है, उनके अभाव में वह अखण्ड हो जाता है।
पर मनुष्य अहं की बूंद पर रुक जाता है और वहीं वह जीवन के अनंत प्रवाह में खण्डित हो जाता है। इस भांति वह अपने ही हाथों सूरज को खोकर एक क्षीणकाय दीये की लौ में तृप्ति को खोजने का निरर्थक प्रयास करता है। उसे तृप्ति नहीं मिल सकती है, क्योंकि बूंद, बूंद बनी रहकर कैसे तृप्त हो सकती है? सागर हुए बिना कोई राह नहीं है। सागर ही गंतव्य है। सागर होना ही होगा। बूंद को खोना जरूरी है। अहं को मिटाना जरूरी है। अहं ब्रह्मं बने, तभी संतृप्ति संभव है।
सागर होने की संतृप्ति ही सत्य में प्रतिष्ठित करती है और वह संतृप्ति ही मुक्त करती है। क्योंकि जो संतृप्त नहीं है, वह मुक्त कैसे हो सकती है!
जीसस क्राइस्ट ने कहा है,
‘जो जीवन को बचाता है, वह उसे खो देता है और जो उसे खो देता है, वह उसे पा जाता है।’
यही मुझे भी कहने दें। यही प्रेम है। अपने को खो देना ही प्रेम है। प्रेम का मृत्यु को अंगीकार करना ही, प्रभु के जीवन को पाने का उपाय है।
तभी तो मैं कहता हूं,
‘बूंदो! सागर की ओर चलो। सागर ही गंतव्य है। प्रेम की मृत्यु को वरण करो, क्योंकि वही जीवन है। जो सागर के पहले ठहर जाता है, वह मर जाता है और जो सागर में पहुंच जाता है, वह मृत्यु के पार पहुंच जाता है।’
( सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)
मृत्यु और जीवन / ओशो
प्रवचनमाला
भोर का आखिरी तारा डूब रहा है। कुहासे में ढंकी सुबह का जन्म होने को है। पूरब पर प्रसव की लाली फैल गयी है।
मित्र ने अपने किसी प्रियजन की मृत्यु की खबर दी है। रात्रि ही देह से उनका संबंध टूटा है। फिर थोड़ी देर की चुप्पी के बाद वे मृत्यु पर बात करने लगे हैं। बहुत सी बातें और अंत में उन्होंने पूछा : ‘रोज मृत्यु होती है, फिर भी प्रत्येक ऐसे जीता है कि जैसे उसे मरना नहीं है! यह समझ में ही नहीं आता है कि मैं भी मर सकता हूं। इतनी मृत्यु के बीच, यह अमृत्व का विश्वास क्यों?’
यह विश्वास बहुत अर्थपूर्ण है। यह इसलिए है कि मर्त्य देह में जो बैठा है, वह मर्त्य नहीं है। मृत्यु की परिधि है, पर केंद्र पर मृत्यु नहीं है।
वह जो देख रहा है- देह-मन का दृष्टा है- वह जानता है कि मैं देह और मन से पृथक हूं। वह मर्त्य का दृष्टा, मर्त्य नहीं है। वह जान रहा है : सब मृत्युओं को पार करके भी मैं अमृत शेष रह जाता हूं।’
पर यह बोध अचेतन है, इसे चेतन बना लेना ही मुक्त हो जाना है। मृत्यु प्रत्यक्ष दीखती है, अमृत का बोध परोक्ष है- उसे भी जो प्रत्यक्ष बना लेता है, वह जान लेता है उसे- जिसका न जन्म है, न मृत्यु है।
वह जीवन-जो जीवन और मृत्यु के अतीत है- पा लेना ही मोक्ष है। वह प्रत्येक के भीतर है, उसे केवल जानना भर है।
एक साधु से किसी ने पूछा था, ‘मृत्यु क्या है और जीवन क्या है? यह जानने मैं आपके पास आया हूं।’ उस साधु ने प्रत्युत्तर में जो कहा, वह अद्भुत है। उसने कहा था, ‘तब कहीं और जाओ। मैं जहां हूं, वहां न मृत्यु है, न जीवन है।’
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)
जीवन और आदर्श / ओशो
प्रवचनमाला
आदर्श-विहीन जीवन कैसा है? उस नाव की भांति जिसमें मल्लाह न हो या कि हो तो सोया हो। और यह स्मरण रहे कि जीवन के सागर पर तूफान सदा ही बने रहते हैं। आदर्श न हो तो जीवन की नौका को डूबने के सिवाय और कोई विकल्प ही नहीं रह जाता है।
श्वाइत्जर ने कहा है, आदर्शो की ताकत मापी नहीं जा सकती। पानी की बूंद में हमें कुछ भी ताकत दिखाई नहीं देती। लेकिन उसे किसी चट्टान की दरार में जम कर बर्फ बन जाने दीजिए, तो वह चट्टान को फोड़ देगी। इस जरा से परिवर्तन से बूंद को कुछ हो जाता है और उसमें प्रसुप्त शक्ति सक्रिय और परिणामकारी हो उठती है। ठीक यही बात आदर्शो की है। जब तक वे विचार रूप बने रहते हैं, उनकी शक्ति परिणामकारी नहीं होती। लेकिन जब वे किसी के व्यक्तित्व और आचरण में ठोस रूप लेते हैं, तब उनसे विराट शक्ति और महत परिणाम उत्पन्न होते हैं।
आदर्श-अंधकार से सूर्य की ओर उठने की आकांक्षा है। जो उस आकांक्षा से पीडि़त नहीं होता है, वह अंधकार में पड़ा रह जाता है। लेकिन आदर्श आकांक्षा मात्र ही नहीं हैं। वह संकल्प भी है। क्योंकि, जिन आकांक्षाओं के पीछे संकल्प का बल नहीं, उनका होना या न होना बराबर ही है। और, आदर्श संकल्प मात्र भी नहीं है, वरन उसके लिए सतत श्रम भी है। क्योंकि , सतत श्रम के अभाव में कोई बीज कभी वृक्ष नहीं बनता है।
मैंने सुना है, जिस आदर्श में व्यवहार का प्रयत्न न हो, वह फिजूल है और जो व्यवहार आदर्श प्रेरित न हो वह भयंकर है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)
जन्म-मृत्यु से परे है जीवन! / ओशो
प्रवचनमाला
मैं एक शवयात्रा में गया था। जो वहां थे, उनसे मैंने कहा- यदि यह शवयात्रा तुम्हें अपनी ही मालूम नहीं होती है, तो तुम अंधे हो। मैं तो स्वयं को अर्थी पर बंधा देख रहा हूं। काश! तुम भी ऐसा ही देख सको, तो तुम्हारा जीवन दूसरा हो जावे। जो स्वयं की मृत्यु को जान लेता है, उसकी दृष्टिं संसार से हटकर सत्य पर केंद्रित हो जाती है।
शेखसादी ने लिखा है- बहुत दिन बीते दजला के किनारे एक मुरदे की खोपड़ी ने कुछ बातें एक राहगीर से कही थीं। वह बोली थी,’ओ! प्यारे, जरा होश में चल। मैं भी कभी शाही दबदबा रखती थी और मेरे ऊपर ताज था। फतह मेरे पीछे-पीछे चली और मेरे पैर जमीन पर न पड़ते थे। होश ही न था कि एक दिन सब समाप्त हो गया। कीड़े मुझे खा गए हैं और हर पैर मुझे ठोकर मार जाता है। तू भी अपने कानों से गफलत की रुई निकाल डाल, ताकि तुझे मुरदों की आवाज से उठने वाली नसीहत हासिल हो सके।’
मुरदों की आवाज से उठने वाली नसीहत क्या है? और, क्या कभी हम उसे सुनते हैं! जो उसे सुन लेता है, उसका जीवन ही बदल जाता है।
जन्म के साथ मृत्यु जुड़ी है। उन दोनों के बीच जो है, वह जीवन नहीं, जीवन का आभास ही है। जीवन वह कैसे होगा, क्योंकि जीवन की मृत्यु नहीं हो सकती है! जन्म का अंत है, जीवन का नहीं। और, मृत्यु का प्रारंभ है, जीवन का नहीं। जीवन तो उन दोनों से पार है। जो उसे नहीं जानते हैं, वे जीवित होकर भी जीवित नहीं हैं। और, जो उसे जान लेते हैं, वे मर कर भी नहीं मरते।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाडंडेशन)
जीवन संगीत / ओशो
प्रवचनमाला
एक युवक ने मुझ से पूछा, जीवन में बचाने जैसा क्या है? मैंने कहा, स्वयं की आत्मा और उसका संगीत। जो उसे बचा लेता है, वह सब बचा लेता है और जो उसे खोता है, वह सब खो देता है।
एक वृद्ध संगीतज्ञ किसी वन से निकलता था। उसके पास बहुत सी स्वर्ण मुद्राएं थीं। मार्ग में कुछ डाकुओं ने उसे पकड़ लिया। उन्होंने उसका सारा धन तो छीन ही लिया, साथ ही उसका वाद्य वायलिन भी। वायलिन पर उस संगीतज्ञ की कुशलता अप्रतिम थी। उस वाद्य का उस-सा अधिकारी और कोई न था। उस वृद्ध ने बड़ी विनय से वायलिन लौटा देने की प्रार्थना की। वे डाकू चकित हुए। वृद्ध अपनी संपत्ति न मांग कर अति साधारण मूल्य का वाद्य ही क्यों मांग रहा था? फिर, उन्होंने भी सोचा कि यह बाजा हमारे किस काम का और उसे वापस लौटा दिया। उसे पाकर वह संगीतज्ञ आनंद से नाचने गा और उसने वहीं बैठकर उसे बजाना प्रारंभ कर दिया। अमावस का रात्रि, निर्जन वन। उस अंधकार पूर्ण निस्तब्ध निशा में उसके वायलिन से उठे स्वर अलौकिक हो गूंजने लगे। शुरू में तो डाकू अनमने पन से सुनते रहे, फिर उनकी आंखों में भी नरमी आ गई। उनका चित्त भी संगीत की रसधार में बहने लगा। अंत में भव विभोर हो वे उस वृद्ध संगीतज्ञ के चरणों में गिर पड़े। उन्होंने उसका सारा धन लौटा दया। यही नहीं, वे उसे और भी बहुत-सा धन भेंटकर वन के बाहर तक सुरक्षित पहुंचा गये थे।
ऐसी ही स्थिति में क्या प्रत्येक मनुष्य नहीं है? और क्या प्रत्येक व्यक्ति प्रतिदिन ही लूटा नहीं जा रहा है? पर, कितने हैं, जो कि संपत्ति नहीं, स्वयं के संगीत को और उस संगीत-वाद्य को बचा लेने का विचार करते हैं?
सब छोड़ो और स्वयं के संगीत को बचाओ और उस वाद्य को जिससे कि जीवन संगीत पैदा होता है। जिन्हें थोड़ी भी समझ है, वे यही करते हैं और जो यह नहीं कर पाते हैं, उनके विश्व भर की संपत्ति को पा लेने का भी कोई मूल्य नहीं है। स्मरण रहे कि स्वयं के संगीत से बड़ी और कोई संपत्ति नहीं है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)
मनुष्य का जीवन आधार क्या है / लेव तोल्सतोय / प्रेमचंद
माधो नामी एक चमार जिसके न घर था, न धरती, अपनी स्त्री और बच्चों सहित एक झोंपड़े में रहकर मेहनत मजदूरी द्वारा पेट पालता था। मजूरी कम थी, अन्न महंगा था। जो कमाता था, खा जाता था। सारा घर एक ही कम्बल ओ़कर जाड़ों के दिन काटता था और वह कम्बल भी फटकर तारतार रह गया था। पूरे एक वर्ष से वह इस विचार में लगा हुआ था कि दूसरा वस्त्र मोल ले। पेट मारमारकर उसने तीन रुपये जमा किए थे, और पांच रुपये पास के गांव वालों पर आते थे।
एक दिन उसने यह विचारा कि पांच रुपये गांव वालों से उगाहकर वस्त्र ले आऊं। वह घर से चला, गांव में पहुंचकर वह पहले एक किसान के घर गया। किसान तो घर में नहीं था, उसकी स्त्री ने कहा कि इस समय रुपया मौजूद नहीं, फिर दे दूंगी। फिर वह दूसरे के घर पहुंचा, वहां से भी रुपया न मिला। फिर वह बनिये की दुकान पर जाकर वस्त्र उधार मांगने लगा। बनिया बोला-हम ऐसे कंगालों को उधार नहीं देते। कौन पीछेपीछे फिरे? जाओ, अपनी राह लो।
वह निराश होकर घर को लौट पड़ा। राह में सोचने लगा-कितने अचरज की बात है कि मैं सारे दिन काम करता हूं, उस पर भी पेट नहीं भरता। चलते समय स्त्री ने कहा था कि वस्त्र अवश्य लाना। अब क्या करुं, कोई उधार भी तो नहीं देता। किसानों ने कह दिया, अभी हाथ खाली है, फिर ले लेना। तुम्हारा तो हाथ खाली है, पर मेरा काम कैसे चले? तुम्हारे पास घर, पशु, सबकुछ है, मेरे पास तो यह शरीर ही शरीर है। तुम्हारे पास अनाज के कोठे भरे पड़े हैं, मुझे एकएक दाना मोल लेना पड़ता है। सात दिन में तीन रुपये तो केवल रोटी में खर्च हो जाते हैं। क्या करुं, कहां जाऊं? हे भगवान्! सोचता हुआ मन्दिर के पास पहुंचकर देखता क्या है कि धरती पर कोई श्वेत वस्तु पड़ी है। अंधेरा हो गया, साफ न दिखाई देता है। माधो ने समझा कि किसी ने इसके वस्त्र छीन लिये हैं, मुझसे क्या मतलब? ऐसा न हो, इस झगड़े में पड़ने से मुझ पर कोई आपत्ति खड़ी हो जाए, चल दो।
थोड़ी दूर गया था कि उसके मन में पछतावा हुआ। मैं कितना निर्दयी हूं। कहीं यह बेचारा भूखों न मर रहा हो। कितने शर्म की बात है कि मैं उसे इस दशा में छोड़, चला जाता हूं। वह लौट पड़ा और उस आदमी के पास जाकर खड़ा हो गया।
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पास पहुंचकर माधो ने देखा कि वह मनुष्य भलाचंगा जवान है। केवल शीत से दुःखी हो रहा है। उस मनुष्य को आंख भरकर देखना था कि माधो को उस पर दया आ गई। अपना कोट उतारकर बोला-यह समय बातें करने का नहीं, यह कोट पहन लो और मेरे संग चलो।
मनुष्य का शरीर स्वच्छ, मुख दयालु, हाथपांव सुडौल थे। वह परसन्न बदन था। माधो ने उसे कोट पहना दिया और बोला-मित्र, अब चलो, बातें पीछे होती रहेंगी।
मनुष्य ने परेमभाव से माधो को देखा और कुछ न बोला।
माधो-तुम बोलते क्यों नहीं? यहां ठंड है, घर चलो। यदि तुम चल नहीं सकते, तो यह लो लकड़ी, इसके सहारे चलो।
मनुष्य माधो के पीछेपीछे हो लिया।
माधो-तुम कहां रहते हो?
मनुष्य-मैं यहां का रहने वाला नहीं।
माधो-मैंने भी यही समझा था, क्योंकि यहां तो मैं सबको जानता हूं। तुम मन्दिर के पास कैसे आ गए?
मनुष्य-यह मैं नहीं बतला सकता।
माधो-क्या तुमको किसी ने दुःख दिया है?
मनुष्य-मुझे किसी ने दुःख नहीं दिया, अपने कर्मों का भोग है। परमात्मा ने मुझे दंड दिया है।
माधो-निस्संदेह परमेश्वर सबका स्वामी है, परन्तु खाने को अन्न और रहने को घर तो चाहिए। तुम अब कहां जाना चाहते हो?
मनुष्य-जहां ईश्वर ले जाए।
माधो चकित हो गया। मनुष्य की बातचीत बड़ी पिरय थी। वह ठग परतीत न होता था, पर अपना पता कुछ नहीं बताता था। माधो ने सोचा, अवश्य इस पर कोई बड़ी विपत्ति पड़ी है। बोलो-भाई, घर चलकर जरा आराम करो, फिर देखा जायेगा।
दोनों वहां से चल दिए। राह में माधो विचार करने लगा, मैं तो वस्त्र लेने आया था, यहां अपना भी दे बैठा। एक नंगा मनुष्य साथ है, क्या यह सब बातें देखकर मालती परसन्न होगी! कदापि नहीं, मगर चिन्ता ही क्या है? दया करना मनुष्य का परम धर्म है।
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उधर माधो की स्त्री मालती उस दिन जल्दीजल्दी लकड़ी काटकर पानी लायी, फिर भोजन बनाया, बच्चों को खिलाया, आप खाया, पति के लिए भोजन अलग रखकर कुरते में टांका लगाती हुई यह विचार करने लगी-ऐसा न हो, बनिया मेरे पति को ठग ले, वह बड़ा सीधा है, किसी से छल नहीं करता, बालक भी उसे फंसा सकता है। आठ रुपये बहुत होते हैं, इतने रुपये में तो अच्छे वस्त्र मिल सकते हैं। पिछली सर्दी किस कष्ट से कटी। जाते समय उसे देर हो गई थी, परन्तु क्या हुआ, अब तक उसे आ जाना चाहिए था।
इतने में आहट हुई। मालती बाहर आयी, देखा कि माधो है। उसके साथ नंगे सिर एक मनुष्य है। माधो का कोट उसके गले में पड़ा है। पति के हाथों में कोई गठरी नहीं है, वह शर्म से सिर झुकाए खड़ा है। यह देखकर मालती का मन निराशा से व्याकुल हो गया। उसने समझा, कोई ठग है, त्योरी च़ाकर खड़ी हो देखने लगी कि वह क्या करता है।
माधो बोला-यदि भोजन तैयार हो तो ले आओ।
मालती जलकर राख हो गई, कुछ न बोली। चुपचाप वहीं खड़ी रही। माधो ताड़ गया कि स्त्री क्रोधग्नि में जल रही है।
माधो-क्या भोजन नहीं बनाया?
मालती-(क्रोध से) हां, बनाया है, परन्तु तुम्हारे वास्ते नहीं, तुम तो वस्त्र मोल लेने गए थे? यह क्या किया, अपना कोट भी दूसरे को दे दिया? इस ठग को कहां से लाए? यहां कोई सदाबरत थोड़े ही चलता है।
माधो-मालती, बसबस! बिना सोचेसमझे किसी को बुरा कहना उचित नहीं है। पहले पूछ तो लो कि यह कैसा….
मालती-पहले यह बताओ कि रुपये कहां फेंके?
माधो-यह लो अपने तीनों रुपये, गांव वालों ने कुछ नहीं दिया।
मालती-(रुपये लेकर) मेरे पास संसार भर के नंगेलुच्चों के लिए भोजन नहीं है।
माधो-फिर वही बात! पहले इससे पूछ तो लो, क्या कहता है।
मालती-बसबस! पूछ चुकी। मैं तो विवाह ही करना नहीं चाहती थी, तुम तो घरखोऊ हो।
माधो ने बहुतेरा समझाया वह एक न मानी। दस वर्ष के पुराने झगड़े याद करके बकवाद करने लगी, यहां तक कि क्रोध में आकर माधो की जाकेट फाड़ डाली और घर से बाहर जाने लगी। पर रास्ते में रुक गई और पति से बोली-अगर यह भलामानस होता तो नंगा न होता। भला तुम्हारी भेंट इससे कहां हुई?
माधो-बस, यही तो मैं तुमको बतलाना चाहता हूं। यह गांव के बाहर मन्दिर के पास नंगा बैठा था। भला विचार तो कर, यह ऋतु बाहर नंगा बैठने की है? दैवगति से मैं वहां जा पहुंचा, नहीं तो क्या जाने यह मरता या जीता। हम क्या जानते हैं कि इस पर क्या विपत्ति पड़ी है। मैं अपना कोट पहनाकर इसे यहां ले आया हूं। देख, क्रोध मत कर, क्रोध पाप का मूल है। एक दिन हम सबको यह संसार छोड़ना है।
मालती कुछ कहना चाहती थी, पर मनुष्य को देखकर चुप हो गई। वह आंखें मूंदे, घुटनों पर हाथ रखे, मौन धारण किए स्थिर बैठा था।
माधो-प्यारी! क्या तुममें ईश्वर का परेम नहीं?
यह वचन सुन, मनुष्य को देखकर मालती का चित्त तुरन्त पिघल गया, झट से उठी और भोजन लाकर उसके सामने रख दिया और बोली-खाइए।
मालती की यह दशा देखकर मनुष्य का मुखारविंद खिल गया और वह हंसा। भोजन कर लेने पर मालती बोली-तुम कहां से आये हो?
मनुष्य-मैं यहां का रहने वाला नहीं।
मालती-तुम मन्दिर के पास किस परकार पहुंचे?
मनुष्य-मैं कुछ नहीं बता सकता।
मालती-क्या किसी ने तुम्हारा माल चुरा लिया?
मनुष्य-किसी ने नहीं। परमेश्वर ने यह दंड दिया है!
मालती-क्या तुम वहां नंगे बैठे थे?
मनुष्य-हां, शीत के मारे ठिठुर रहा था। माधो ने देखकर दया की, कोट पहनाकर मुझे यहां ले आया, तुमने तरस खाकर मुझे भोजन खिला दिया। भगवान तुम दोनों का भला करे।
मालती ने एक कुरता और दे दिया। रात को जब वह अपने पति के पास जाकर लेटी तो यह बातें करने लगी-
मालती-सुनते हो?
माधो-हां।
मालती-अन्न तो चुक गया। कल भोजन कहां से करेंगे? शायद पड़ोसिन से मांगना पड़े।
माधो-जिएंगे तो अन्न भी कहीं से मिल ही जाएगा।
मालती-वह मनुष्य अच्छा आदमी मालूम होता है। अपना पता क्यों नहीं बतलाता?
माधो-क्या जानूं। कोई कारण होगा।
मालती-हम औरों को देते हैं, पर हमको कोई नहीं देता?
माधे ने इसका कुछ उत्तर नहीं दिया, मुंह फेरकर सो गया।
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परातःकाल हो गया। माधो जागा, बच्चे अभी सोये पड़े थे। मालती पड़ोसिन से अन्न मांगने गयी थी। अजनबी मनुष्य भूमि पर बैठा आकाश की ओर देख रहा था, परन्तु उसका मुख अब परसन्न था।
माधो-मित्र, पेट रोटी मांगता है, शरीर वस्त्र; अतएव काम करना आवश्यक है। तुम कोई काम जानते हो?
मनुष्य-मैं कोई काम नहीं जानता।
माधो-अभ्यास बड़ी वस्तु है, मनुष्य यदि चाहे तो सबकुछ सीख सकता है।
मनुष्य-मैं सीखने को तैयार हूं, आप सिखा दीजिए।
माधो-तुम्हारा नाम क्या है?
मनुष्य-मैकू।
माधो-भाई मैकू, यदि तुम अपना हाल सुनाना नहीं चाहते तो न सुनाओ, परन्तु कुछ काम अवश्य करो। जूते बनाना सीख लो और यहीं रहो।
मैकू-बहुत अच्छा।
अब माधो ने मैकू को सूत बांटना, उस पर मोम च़ाना, जूते सीना आदि काम सिखाना शुरू कर दिया। मैकू तीन दिन में ही ऐसे जूते बनाने लगा, मानो सदा से चमार का ही काम करता रहा हो। वह घर से बाहर नहीं निकलता था, बोलता भी बहुत कम था। अब तक वह केवल एक बार उस समय हंसा था जब मालती ने उसे भोजन कराया था, फिर वह कभी नहीं हंसा।
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धीरेधीरे एक वर्ष बीत गया। चारों ओर धूम मच गई कि माधो का नौकर मैकू जैसे पक्के मजबूत जूते बनाता है, दूसरा कोई नहीं बना सकता। माधो के पास बहुत काम आने लगा और उसकी आमदनी बहुत ब़ गई।
एक दिन माधो और मैकू बैठे काम कर रहे थे कि एक गाड़ी आयी, उसमें से एक धनी पुरुष उतरकर झोंपड़े के पास आया। मालती ने झट से किवाड़ खोल दिए; वह भीतर आ गया।
माधो ने उठकर परणाम किया। उसने ऐसा सुन्दर पुरुष पहले कभी नहीं देखा था। वह स्वयं दुबला था, मैकू और भी दुबला और मालती तो हिड्डयों का पिंजरा थी। यह पुरुष तो किसी दूसरे ही लोक का वासी जान पड़ता था-लाल मुंह, चौड़ी छाती, तनी हुई गर्दन; मानो सारा शरीर लोहे में ला हुआ है।
पुरुष-तुममें उस्ताद कौन है?
माधो-हुजूर, मैं।
पुरुष-(चमड़ा दिखाकर) तुम यह चमड़ा देखते हो?
माधो-हां, हुजूर।
पुरुष-तुम जानते हो कि यह किस जात का चमड़ा है?
माधो-महाराज, यह चमड़ा बहुत अच्छा है।
पुरुष-अच्छा, मूर्ख कहीं का! तुमने शायद ऐसा चमड़ा कभी नहीं देखा होगा। यह जर्मन देश का चमड़ा है, इसका मोल बीस रुपये है।
माधो-(भय से) भला महाराज, ऐसा चमड़ा मैं कहां से देख सकता था?
पुरुष-अच्छा, तुम इसका बूट बना सकते हो।
माधो-हां, हुजूर, बना सकता हूं।
पुरुष-हां, हुजूर की बात नहीं, समझ लो कि चमड़ा कैसा है और बनवाने वाला कौन है। यदि साल भर के अन्दर कोई टांका उखड़ गया अथवा जूते का रूप बिगड़ गया तो तुझे बंदीखाने जाना पड़ेगा, नहीं तो दस रुपये मजूरी मिलेगी।
माधो ने मैकू की ओर कनखियों से देखकर धीरे से पूछा कि काम ले लूं? उसने कहा-हां, ले लो। माधो नाप लेने लगा।
पुरुष-देखो, नाप ठीक लेना, बूट छोटा न पड़ जाए। (मैकू की तरफ देखकर) यह कौन है?
माधो-मेरा कारीगर।
पुरुष-(मैकू से) होहो, देखो बूट एक वर्ष चलना चाहिए। पूरा एक वर्ष, कम नहीं।
मैकू का उस पुरुष की ओर ध्यान ही नहीं था। वह किसी और ही धुन में मस्त बैठा हंस रहा था।
पुरुष-(क्रोध से) मूर्ख! बात सुनता है कि हंसता है। देखो, बूट बहुत जल्दी तैयार करना, देर न होने पाए।
बाहर निकलते समय पुरुष का मस्तक द्वार से टकरा गया। माधो बोला सिर है कि लोहा, किवाड़ ही तोड़ डाला था।
मालती बोली-धनवान ही बलवान होते हैं। इस पुरुष को यमराज भी हाथ नहीं लगा सकता, और की तो बात ही क्या है?
उस आदमी के जाने के बाद माधो ने मैकू से कहा-भाई, काम तो ले लिया है, कोई झगड़ा न खड़ा हो जाए। चमड़ा बहुमूल्य है और यह आदमी बड़ा क्रोधी है, भूल न होनी चाहिए। तुम्हारा हाथ साफ हो गया है, बूट काट तुम दो, सी मैं दूंगा।
मैकू बूट काटने लगा। मालती नित्य अपने पति को बूट काटते देखा करती थी। मैकू की काट देखकर चकरायी कि वह यह कर क्या रहा है। शायद बड़े आदमियों के बूट इसी परकार काटे जाते हों, यह विचार कर चुप रह गई।
मैकू ने चमड़ा काटकर दोपहर तक स्लीपर तैयार कर लिये। माधो जब भोजन करके उठा तो देखता क्या है कि बूट की जगह स्पीलर बने रखे हैं। वह घबरा गया और मन में कहने लगा-इस मैकू को मेरे साथ रहते एक वर्ष हो गया, ऐसी भूल तो उसने कभी नहीं की। आज इसे क्या हो गया! उस पुरुष ने तो बूट बनाने को कहा था, इसने तो स्लीपर बना डाले। अब उसे क्या उत्तर दूंगा, ऐसा चमड़ा और कहां से मिल सकता है! (मैकू से)-मित्र, यह तुमने क्या किया? उसने तो बूट बनाने को कहा था न! अब मेरे सिर के बाल न बचेंगे।
यह बातें हो ही रही थी कि द्वार पर एक आदमी ने आकर पुकारा। मालती ने किवाड़ खोल दिए। यह उस धनी आदमी का वही नौकर था, जो उसके साथ यहां आया था। उसने आते ही कहा-रामराम, तुमने बूट बना तो नहीं डाले?
माधो-हां, बना रहा हूं।
नौकर-मेरे स्वामी का देहान्त हो गया, अब बूट बनाना व्यर्थ है।
माधो-अरे!
नौकर-वह तो घर तक भी पहुंचने नहीं पाये, गाड़ी में ही पराण त्याग दिए। स्वामिनी ने कहा है कि उस चमड़े के स्लीपर बना दो।
माधो-(परसन्न होकर) यह लो स्लीपर।
आदमी स्लीपर लेकर चलता बना।
6
मैकू को माधो के साथ रहतेरहते छः वर्ष बीत गए। अब तक वह केवल दो बार हंसा था, नहीं तो चुपचाप बैठा अपना काम किए जाता था। माधो उस पर अति परसन्न था और डरता रहता था कि कहीं भाग न जाए। इस भय से फिर माधो ने उससे पताबता कुछ नहीं पूछा।
एक दिन मालती चूल्हे में आग जल रही थी, बालक आंगन में खेल रहे थे, माधो और मैकू बैठे जूते बना रहे थे कि एक बालक ने आकर कहा-चाचा मैकू, देखो, वह स्त्री दो लड़कियां संग लिये आ रही हैं।
मैकू ने देखा कि एक स्त्री चादर ओ़े, छोटीछोटी कन्याएं संग लिए चली आ रही है। कन्याओं का एकसा रंगरूप है, भेद केवल यह है कि उनमें एक लंगड़ी है। बुयि भीतर आयी तो माधो ने पूछा-माई, क्या काम है?
उसने कहा-इन लड़कियों के जूते बना दो।
माधो बोला-बहुत अच्छा।
वह नाप लेने लगा तो देखा कि मैकू इन लड़कियों को इस परकार ताक रहा है, मानो पहले कहीं देखा है।
बुयि-इस लड़की का एक पांव लुंजा है, एक नाप इसका ले लो। बाकी तीन पैर एक जैसे हैं। ये लड़कियां जुड़वां है।
माधो-(नाप लेकर) यह लंगड़ी कैसे हो गई, क्या जन्म से ही ऐसी है?
बुयि-नहीं, इसकी माता ने ही इसकी टांग कुचल दी थी।
मालती-तो क्या तुम इनकी माता नहीं हो?
बुयि-नहीं, बहन, न इनकी माता हूं, न सम्बन्धी। ये मेरी कन्याएं नहीं। मैंने इन्हें पाला है।
मालती-तिस पर भी तुम इन्हें बड़ा प्यार करती हो?
बुयि-प्यार क्यों न करुं, मैंने अपना दूध पिलापिलाकर इन्हें बड़ा किया है। मेरा अपना भी बालक था, परन्तु उसे परमात्मा ने ले लिया। मुझे इनके साथ उससे भी अधिक परेम है।
मालती-तो ये किसकी कन्याएं हैं?
बुयि-छह वर्ष हुए कि एक सप्ताह के अंदर इनके मातापिता का देहांत हो गया। पिता की मंगल के दिन मृत्यु हुई, माता की शुक्रवार को। पिता के मरने के तीन दिन पीछे ये पैदा हुईं। इनके मांबाप मेरे पड़ोसी थे। इनका पिता लकड़हारा था। जंगल में लकड़ियां काटतेकाटते वृक्ष के नीचे दबकर मर गया। उसी सप्ताह में इनका जन्म हुआ। जन्म होते ही माता भी चल बसी। दूसरे दिन जब मैं उससे मिलने गयी तो देखा कि बेचारी मरी पड़ी है। मरते समय करवट लेते हुए इस कन्या की टांग उसके नीचे दब गई। गांव वालों ने उसका दाहकर्म किया। इनके मातापिता रंक थे, कौड़ी पास न थी। सब लोग सोचने लगे कि कन्याओं का कौन पाले। उस समय वहां मेरी गोद में दो महीने का बालक था। सबने यही कहा कि जब तक कोई परबन्ध न हो, तुम्हीं इनको पालो। मैंने इन्हें संभाल लिया। पहलेपहल मैं इस लंगड़ी को दूध नहीं पिलाया करती थी, कयोंकि मैं समझती थी कि यह मर जायेगी, पर फिर मुझे इस पर दया आ गई और इसे भी दूध पिलाने लगी। उस समय परमात्मा की कृपा से मेरी छाती में इतना दूध था कि तीनों बालकों को पिलाकर भी बह निकलता था। मेरा बालक मर गया, ये दोनों पल गईं। हमारी दशा पहले से अब बहुत अच्छी है। मेरा पति एक बड़े कारखाने में नौकर है। मैं इन्हें प्यार कैसे न करुं, ये तो मेरा जीवनआधार हैं।
यह कहकर बुयि ने दोनों लड़कियों को छाती से लगा लिया।
मालती-सत्य है, मनुष्य मातापिता के बिना जी सकता है, परन्तु ईश्वर के बिना जीता नहीं रह सकता।
ये बातें हो रही थीं कि सारा झोंपड़ा परकाशित हो गया। सबने देखा कि मैकू कोने में बैठा हंस रहा है।
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बुयि लड़कियों को लेकर बाहर चली गयी, तो मैकू ने उठकर माधो और मालती को परणाम किया और बोला-स्वामी, अब मैं विदा होता हूं। परमात्मा ने मुझ पर दया की। यदि कोई भूलचूक हुई हो तो क्षमा करना।
माधो और मालती ने देखा कि मैकू का शरीर तेजोमय हो रहा है।
माधो दंडवत करके बोला-मैं जान गया कि तुम साधारण मनुष्य नहीं। अब मैं तुम्हें नहीं रख सकता, न कुछ पूछ सकता हूं। केवल यह बता दो कि जब मैं तुम्हें अपने घर लाया था तो तुम बहुत उदास थे। जब मेरी स्त्री ने तुम्हें भोजन दिया तो तुम हंसे। जब वह धनी आदमी बूट बनवाने आया था तब तुम हंसे। आज लड़कियों के संग बुयि आयी, तब तुम हंसे। यह क्या भेद है? तुम्हारे मुख पर इतना तेज क्यों है?
मैकू-तेज का कारण तो यह है कि परमात्मा ने मुझ पर दया की, मैं अपने कर्मों का फल भोग चुका। ईश्वर ने तीन बातों को समझाने के लिए मुझे इस मृतलोक में भेजा था, तीनों बातें समझ गया। इसलिए मैं तीन बार हंसा। पहली बार जब तुम्हारी स्त्री ने मुझे भोजन दिया, दूसरी बार धनी पुरुष के आने पर, तीसरी बार आज बुयि की बात सुनकर।
माधो-परमेश्वर ने यह दंड तुम्हें क्यों दिया था? वे तीन बातें कौनसी हैं, मुझे भी बतलाओ?
मैकू-मैंने भगवान की आज्ञा न मानी थी, इसलिए यह दंड मिला था। मैं देवता हूं, एक समय भगवान ने मुझे एक स्त्री की जान लेने के लिए मृत्युलोक में भेजा। जाकर देखता हूं कि स्त्री अति दुर्बल है और भूमि पर पड़ी है। पास तुरन्त की जन्मी दो जुड़वां लड़कियां रो रही हैं। मुझे यमराज का दूत जानकर वह बोली-मेरा पति वृक्ष के नीचे दबकर मर गया है। मेरे न बहन है, न माता, इन लड़कियों का कौन पालन करेगा? मेरी जान न निकाल, मुझे इन्हें पाल लेने दे। बालक मातापिता बिना पल नहीं सकता। मुझे उसकी बातों पर दया आ गई। यमराज के पास लौट आकर मैंने निवेदन किया कि महाराज, मुझे स्त्री की बातें सुनकर दया आ गई। उसकी जुड़वां लड़कियों को पालनेवाला कोई नहीं था, इसलिए मैंने उसकी जान नहीं निकाली, क्योंकि बालक मातापिता के बिना पल नहीं सकता। यमराज बोले-जाओ, अभी उसकी जान निकाल लो, और जब तक ये तीन बातें न जान लोगे कि (1) मनुष्य में क्या रहता है, (2) मनुष्य को क्या नहीं मिलता, (3) मनुष्य का जीवनआधार क्या है, तब तक तुम स्वर्ग में न आने पाओगे। मैंने मृत्युलोक में आकर स्त्री की जान निकाल ली। मरते समय करवट लेते हुए उसे एक लड़की की टांग कुचल दी। मैं स्वर्ग को उड़ा, परन्तु आंधी आयी मेरे पंख उखड़ गए और मैं मन्दिर के पास आ गिरा।
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अब माधो और मालती समझ गए कि मैकू कौन है। दोनों बड़े परसन्न हुए कि अहोभाग्य, हमने देवता के दर्शन किए।
मैकू ने फिर कहा-जब तक मनुष्य मनुष्यशरीर धारण नहीं किया था, मैं शीतगमीर्, भूखप्यास का कष्ट न जानता था, परन्तु मृत्युलोक में आने पर परकट हो गया कि दुःख क्या वस्तु है। मैं भूख और जाड़े का मारा मन्दिर में घुसना चाहता था, लेकिन मंन्दिर बंद था। मैं हवा की आड़ में सड़क पर बैठ गया। संध्यासमय एक मनुष्य आता दिखाई दिया। मृत्युलोक में जन्म लेने पर यह पहला मनुष्य था, जो मैंने देख था, उसका मुख ऐसा भयंकर था कि मैंने नेत्र मूंद लिये। उसकी ओर देख न सका। वह मनुष्य यह कह रहा था कि स्त्रीपुत्रों का पालनपोषण किस भांति करें, वस्त्र कहां से लाये इत्यादि। मैंने विचारा, देखो, मैं तो भूख और शीत से मर रहा हूं, यह अपना ही रोना रो रहा है, मेरी कुछ सहायता नहीं करता। वह पास से निकल गया। मैं निराश हो गया। इतने में मेरे पास लौट आया, अब दया के कारण उसका मुख सुंदर दिखने लगा। माधो, वह मनुष्य तुम थे। जब तुम मुझे घर लाये, मालती का मुख तुमसे भयंकर था, क्योंकि उसमें दया का लेशमात्र न था, परन्तु जब वह दयालु होकर भोजन लायी तो उसके मुख की कठोरता जाती रही! तब मैंने समझा कि मनुष्य में तत्त्ववस्तु परेम है। इसीलिए पहली बार हंसा।
एक वर्ष पीछे वह धनी मनुष्य बूट बनवाने आया। उसे देखकर मैं इस कारण हंसा कि बूट तो एक वर्ष के लिए बनवाता है और यह नहीं जानता कि संध्या होने से पहले मर जाएगा। तब दूसरी बात का ज्ञान हुआ कि मनुष्य जो चाहता है सो नहीं मिलता, और मैं दूसरी बार हंसा।
छह वर्ष पीछे आज यह बुयि आयी तो मुझे निश्चय हो गया कि सबका जीवन आधार परमात्मा है, दूसरा कोई नहीं, इसलिए तीसरी बार हंसा।
9
मैकू परकाशस्वरूप हो रहा था, उस पर आंख नहीं जमती थी। वह फिर कहने लगा-देखो, पराणि मात्र परेम द्वारा जीते हैं, केवल पोषण से कोई नहीं जी सकता। वह स्त्री क्या जानती थी कि उसकी लड़कियों को कौन पालेगा, वह धनी पुरुष क्या जानता था कि गाड़ी में ही मर जाऊंगा, घर पहुंचना कहां! कौन जानता था कि कल क्या होगा, कपड़े की जरूरत होगी कि कफन की।
मनुष्य शरीर में मैं केवल इस कारण जीता बचा कि तुमने और तुम्हारी स्त्री ने मुझसे परेम किया। वे अनाथ लड़कियां इस कारण पलीं कि एक बुयि ने परेमवश होकर उन्हें दूध पिलाया। मतलब यह है कि पराणी केवल अपने जतन से नहीं जी सकते। परेम ही उन्हें जिलाता है। पहले मैं समझता था कि जीवों का धर्म केवल जीना है, परन्तु अब निश्चय हुआ कि धर्म केवल जीना नहीं, किन्तु परेमभाव से जीना है। इसी कारण परमात्मा किसी को यह नहीं बतलाता कि तुम्हें क्या चाहिए, बल्कि हर एक को यही बतलाता है कि सबके लिए क्या चाहिए। वह चाहता है कि पराणि मात्र परेम से मिले रहें। मुझे विश्वास हो गया कि पराणों का आधार परेम है, परेमी पुरुष परमात्मा में, और परमात्मा परेमी पुरुष में सदैव निवास करता है। सारांश यह है कि परेम और पमेश्वर में कोई भेद नहीं।
यह कहकर देवता स्वर्गलोक को चला गया।
जीवन एक बांसुरी / ओशो
प्रवचनमाला
रात्रि के इस सन्नाटे में कोई बांसुरी बजा रहा है। चांदनी जम गयी-सी लगती है। सर्द एकांत रात्रि और दूर से आते बांसुरी के स्वर। स्वप्न सा मधुर! विश्वास न हो, इतना सुंदर है, यह सब।
एक बांस की पोंगरी कितना अमृत बरसा सकती है!
जीवन भी बांसुरी की भांति है। अपने में खाली और शून्य, पर साथ ही संगीत की अपरिसीम सामर्थ्य भी उसमें है।
पर सब कुछ बजाने वाले पर निर्भर है। जीवन वैसा ही हो जाता है, जैसा व्यक्ति उसे बनाता है। वह अपना ही निर्माण है। यह तो एक अवसर मात्र है- कैसा गीत कोई गाना चाहता है, यह पूरी तरह उसके हाथों में है। मनुष्य की महिमा यही है कि वह स्वर्ग और नर्क दोनों के गीत गाने को स्वतंत्र है।
प्रत्येक व्यक्ति दिव्य स्वर अपनी बांसुरी से उठा सकता है। बस थोड़ी सी उंगलियां भर साधने की बात है। थोड़ी सी साधना और विराट उपलब्धि है। न-कुछ करने से ही अनंत आनंद का साम्राज्य मिल जाता है।
मैं चाहता हूं कि एक-एक हृदय में कह दूं कि अपनी बांसुरी को उठा लो। समय भागा जा रहा है, देखना कहीं गीत गाने का अवसर बीत न जाए! इसके पहले कि परदा गिरे, तुम्हें अपना जीवन-गीत गा लेना चाहिए।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)
मन्देलश्ताम का जीवन / अनिल जनविजय
दोस्तो, आपने रूस के लेनिनग्राद यानी पितेरबुर्ग नगर की सफ़ेद रातों के बारे में अवश्य पढ़ा या सुना होगा। जिन्हें रूसी साहित्य से लगाव है, उन्होंने फ़्योदर दस्तायेवस्की की उपन्यासिका ’सफ़ेद रातें’ भी पढ़ी होगी। भारत में हम लोग इस बात पर केवल अचरज ही कर सकते हैं कि रूस के पितेरबुर्ग नगर में वर्ष भर में क़रीब एक माह का समय ऐसा होता है जब दिन कभी नहीं छिपता। सूरज कुछ समय के लिए डूबता ज़रूर है, लेकिन पूरी तरह से नहीं। दिन का इतना प्रकाश गगन में छाया रहता है कि आप आराम से खुले आकाश के नीचे कहीं भी बैठकर पुस्तक पढ़ सकते हैं। पितेरबुर्ग में ये रातें अद्भुत्त होती हैं। दुनिया भर से लोग इन ’सफ़ेद रातों’ को देखने के लिए जून माह में पितेरबुर्ग आते हैं। कवियों-लेखकों व कलावन्तों के लिए भी ये दिन रचनात्मक सक्रियता के, आन्तरिक उत्साह और ऊर्जा के, दुस्साहस के तथा जोश और जोख़िम उठाकर अपने सम्वेदी मन को पुख़्ता बनाने के दिन होते हैं।
1921 में वे सफ़ेद रातों के ही दिन थे, जब साहित्यकारों के बीच यह अफ़वाह फैल गई कि कवि ओसिप मन्देलश्ताम अचानक न जाने कहाँ ग़ायब हो गए।
मन्देलश्ताम जैसा चपल, चुलबुला और मिलनसार व्यक्ति, जो दिन-भर यहाँ से वहाँ भाग-दौड़ करता रहता था और पूरे पितेरबुर्ग में लोग उसे ख़ूब अच्छी तरह जानते-पहचानते थे, एक शाम अचानक ही दिखना बन्द हो गया। उन दिनों मन्देलश्ताम अक्सर सुबह-सवेरे अपना चुरुट दाँतों में दबाए क़िताबों की किसी दुकान पर खड़े दिखाई दे जाते थे। तब वे अपने साथ खड़े लोगों पर अपने चुरुट की राख उड़ाते हुए हाल ही में प्रकाशित किसी नए कविता-संग्रह पर बहस कर रहे होते। इसके क़रीब डेढ़-दो घण्टे बाद वे किसी पत्रिका के सम्पादकीय कार्यालय में लेखकों के बीच बैठे अपना सिर ऊपर को उठाए अपनी कविताएँ सुनाते नज़र आते। दोपहर में वे सरकारी कैण्टीन में लेखकों के साथ बैठे वह दलिया खा रहे होते, जो 1917 की समाजवादी क्रान्ति के बाद के उन अकालग्रस्त वर्षों में नई मज़दूर सरकार द्वारा लेखकों को विशेष रूप से जारी कूपनों के बदले ही मिलता था। दोपहर के बाद मन्देलश्ताम कभी लाइब्रेरी में बैठे नज़र आते, कभी विश्वविद्यालय में कोई लैक्चर सुनते हुए तो कभी किसी साहित्यिक गोष्ठी में भाग लेते हुए। उनकी शामें अक्सर कॉफ़ी हाउस में बीता करतीं, जहाँ वे अपने हम-उम्र युवा लेखकों से घिरे साहित्य-सम्बन्धी नई से नई योजनाएँ बनाया करते।
और अचानक ही पूरे शहर में मन्देलश्ताम दिखाई देने बन्द हो गए। एक दिन गुज़र गया, फिर दूसरा दिन, फिर तीसरा…फिर एक हफ़्ता, दूसरा हफ़्ता…। और फिर लेखकों के बीच अचानक यह ख़बर फैली कि मन्देलश्ताम ने विवाह कर लिया है।
ओसिप मन्देलश्ताम ने विवाह कर लिया? यह एक ऐसी बेहूदी और बेतुकी ख़बर थी, जिस पर किसी को भी तुरन्त विश्वास नहीं हुआ। आन्ना अख़्मातवा अपने संस्मरणों में लिखती हैं — ’उस समय कोई यह कल्पना तक नहीं कर सकता था कि मन्देलश्ताम जैसा आदमी शादी भी कर सकता है…’
कियेव की बीस वर्षीया चित्रकार नाद्या हाज़िना और कवि ओसिप मन्देलश्ताम की मुलाक़ात 1919 में यानी उनके विवाह से क़रीब डेढ़-पौने दो वर्ष पहले कियेव नगर की सबसे बड़ी सराय के तहख़ाने में बने उस रात्रि-क्लब में हुई थी, जहाँ तब कियेव के लेखक-कलाकार इकट्ठे हुआ करते थे। इस क्लब का नाम था — ’काठ-कबाड़’। बाहर से कियेव आने वाला हर लेखक-कलाकार ’काठ-कबाड़’ में ज़रूर आता था। कियेव की हर हस्ती से वहाँ मुलाक़ात हो जाती थी।
1919 की उन गर्मियों में एक दिन ओसिप मन्देलश्ताम ख़ारकफ़ से कियेव पहुँचे तो सराय के प्रबन्धक ने उनके लिए सराय का सबसे शानदार कमरा खुलवा दिया। मन्देलश्ताम ख़ुद दंग हो रहे थे कि उन्हें ठहरने के लिए इतना अच्छा कमरा दे दिया गया है। शायद सराय के मैनेजर ने उन्हें कोई और व्यक्ति समझ लिया था। ख़ैर…। शाम को ’काठ-कबाड़’ क्लब के हॉल में घुसते ही मन्देलश्ताम की नज़र सबसे पहले छोटे-छोटे बालों वाली, पतली-दुबली-सी एक बेहद शर्मीली लड़की पर पड़ी जो युवक-युवतियों के एक झुण्ड में चुपचाप बैठी हुई थी और बस कभी-कभी किसी बात पर मुस्कराने लगती थी। मन्देलश्ताम उस झुण्ड के पास पहुँचे ही थे कि वहाँ बैठे एक नवयुवक ने उन्हें पहचान लिया। अब उस मेज़ पर बैठे सभी लोग उनसे वहीं पर बैठ जाने और नई कविताएँ सुनाने का आग्रह करने लगे। जैसाकि बाद में मन्देलश्ताम ने नाद्या हाज़िना को बताया कि वे उनके साथ वहाँ नहीं बैठना चाहते थे, लेकिन नाद्या के आकर्षण के कारण वे उनके बीच बैठ गए और थोड़ी-सी ना-नुकर के बाद अपनी कविताएँ सुनाने लगे। उनके बारे में अपने संस्मरणों में कवि आन्ना अख़्मातवा लिखती हैं —
“मन्देलश्ताम लोगों को अपनी कविताएँ सुनाने के लिए हमेशा तैयार रहते थे। यहाँ तक कि कभी-कभी वे लोगों के अनुरोध पर सड़क पर खड़े-खड़े ही अपनी कविताओं का पाठ शुरू कर देते। कविता-पाठ करते हुए वे कविता में इतना डूब जाते कि अपने आसपास के वातावरण तक को भूल जाते और अधमुन्दी आँखों से स्वयं अपने कविता-पाठ का आनन्द उठाते हुए देर तक कविताएँ पढ़ते रहते।”
उस दिन उस मेज़ पर मन्देलश्ताम की कविताओं ने नाद्या हाज़िना को जैसा मोहित कर लिया था। वह उनसे इतना प्रभावित हुई कि मन्देलश्ताम के आग्रह पर वह उनके उस शानदार कमरे में भी चली गई जो उन्हें ग़लती से दे दिया गया था। मन्देलश्ताम ने जैसे अपनी कविताओं के वशीकरण से उसे बाँध लिया था। बाद में अपने संस्मरणों में नाद्या ने लिखा — “तब कौन सोच सकता था कि हम सारी ज़िन्दगी के लिए एक-दूसरे के हो जाएँगे?… हाँलाकि शायद ओसिप जानबूझकर मुझे उस झुण्ड से उठाकर अपने साथ ले गए थे क्योंकि वे किसी के भी साथ होने वाली पहली मुलाक़ात में ही यह अन्दाज़ लगा लेते थे कि इस व्यक्ति की उनके जीवन में आगे क्या भूमिका होने वाली है…।”
लेकिन नाद्या मन्देलश्ताम की तरह दूरदर्शी नहीं थी। तब वह नहीं जानती थी कि उसे आख़िरकार मन्देलश्ताम की पत्नी बनना है। अपने संस्मरणों में नाद्या ने लिखा है — “पहले दिन ही हम दोनों के बीच गहरी दोस्ती हो गई। लेकिन मुझे लग रहा था कि हमारी यह दोस्ती दो हफ़्ते से ज़्यादा चलने वाली नहीं। मैं बस इतना चाहती थी कि जब हम एक-दूसरे से अलग हों तो मैं बहुत अधिक भावुक न हो जाऊँ और अपने भावावेगों के कारण मुझे बेहद पीड़ा और कष्ट न उठाने पड़ें।”
परन्तु बाद में जो स्थिति बनी, वह नाद्या की इस इच्छा के एकदम विपरीत थी। नाद्या को मन्देलश्ताम के साथ सारा जीवन न केवल कष्ट झेलने पड़े, बल्कि भारी पीड़ा भी उठानी पड़ी। यह अलग बात है कि उन्हें यह कष्ट मन्देलश्ताम के साथ अपने प्रेम-सम्बन्ध और भावुकता के कारण नहीं, बल्कि जीवन की उन वास्तविक परिस्थितियों के कारण झेलने पड़े, जिनसे उस समय का सारा रूसी समाज और जनजीवन ही भयानक रूप से प्रभावित रहा। लेकिन यह सब बाद की बात है। उस समय तो नाद्या को सब कुछ बेहद रोमाण्टिक और आकर्षक लग रहा था। नाद्या के लिए वे दिन सुखद प्रेम के दिन थे और वह उस सुख में पूरी तरह से डूबी हुई थी। उन दिनों की अपनी मनःस्थिति का ज़िक्र करते हुए बाद में नाद्या हाज़िना ने लिखा — “मैं तब तक इतनी उजड्ड थी कि मैं यह समझती ही नहीं थी कि पति और प्रेमी में क्या फ़र्क होता है। हम लोगों ने एक-दूसरे से वफ़ादारी बरतने का भी कोई वायदा नहीं किया। हम किसी भी क्षण अपना यह सम्बन्ध तोड़ने के लिए तैयार थे क्योंकि हमारे लिए हमारा यह संयोग महज एक इत्तफ़ाक के अलावा और कुछ नहीं था।”
लेकिन फिर भी उन दोनों ने खेल-खेल में विवाहनुमा एक रस्म तो की ही थी। मिख़ाइलफ़ मठ के बाहर बने बाज़ार से उन्होंने एक-एक पैसे वाली दो नीली अँगूठियाँ ख़रीद लीं, पर वे अँगूठियाँ उन्होंने एक-दूसरे को पहनाई नहीं। मन्देलश्ताम ने वह अँगूठी अपनी जेब में ठूँस ली और नाद्या हाज़िना ने उसे अपने गले में पहनी ज़ंजीर में पिरो लिया। मन्देलश्ताम ने इस अनोखी शादी के मौक़े पर शरबती आँखों वाली अपनी अति सुन्दर व आकर्षक प्रेमिका को उसी बाज़ार से एक उपहार भी ख़रीदकर भेंट किया। यह उपहार था — लकड़ी की एक हस्तनिर्मित ख़ूबसूरत कंघी, जिस पर लिखा हुआ था — ईश्वर तुम्हारी रक्षा करे। हनीमून की जगह मन्देलश्ताम नाद्या को द्नेपर नदी में नौका-विहार के लिए ले गए और उसके बाद नदी किनारे बने कुपेचिस्की बाग़ में अलाव जलाकर उसमें आलू भून-भून कर खाते हुए दोनों ने अपने इस तथाकथित विवाह की सुहागरात मनाई।
उजड्ड नाद्या को यह सब एक खेल ही लग रहा था और वह बड़े मज़े के साथ सहज ही इस खेल में हिस्सा ले रही थी। वे किसी धार्मिक त्यौहार के दिन थे। कुपेचिस्की बाग़ में मेला लगा हुआ था जो दिन-रात जारी रहता था। सब त्यौहार की मस्ती में डूबे हुए थे और इस तरह के खेलों को कोई भी उन दिनों गम्भीरता से नहीं लेता था। घूमते-घुमाते मन्देलश्ताम नाद्या को कुपेचिस्की बग़ीचे से उस प्रसिद्ध व्लदीमिर पहाड़ी पर ले गए, जिसके लिए जनता के बीच आज भी यह मान्यता बनी हुई है कि यदि स्त्री-पुरुष का जोड़ा यहाँ आता है, तो वे सदा के लिए एक-दूसरे के हो जाते हैं। पहाड़ी पर पहुँचकर मन्देलश्ताम ने नाद्या को बताया कि उनका यह सम्बन्ध कोई आकस्मिक संयोग नहीं है बल्कि उन्हें नाद्या से बहुत गहरा प्रेम हो गया है और वे उसे स्थाई रूप देने का निर्णय ले चुके हैं।
इसके उत्तर में नाद्या खिलखिलाने लगी। वह मन्देलश्ताम के साथ अपने इस प्रेम-सम्बन्ध को अस्थाई माने हुए थी। तब भी, जब मन्देलश्ताम को कुछ ही दिनों में स्थिति स्पष्ट हो जाने के बाद सराय के उस शानदार कमरे से निकाल दिया गया और वे अपना सामान उठाकर उसके घर पर रहने के लिए पहुँच गए। तब भी, जब दोनों एक साथ मास्को की यात्रा पर रवाना हुए और फिर वहाँ से जार्जिया पहुँच गए। इस बीच जब कभी कोई किसी को नाद्या का परिचय ’मन्देलश्ताम की पत्नी’ के रूप में देता तो वह बुरी तरह से नाराज़ हो जाती — “तुम्हें इससे क्या लेना-देना है कि मैं किसके साथ रहती-सोती हूँ, यह मेरा अपना निजी मामला है… तुम मुझे उसकी पत्नी क्यों कहते हो?” नाद्या को तब भी यह लगता था कि उनका यह सम्बन्ध अस्थाई है।
1919 के अन्त में दोनों अलग हो गए। वे क्रान्ति के तुरन्त बाद रूस में शुरू हुए गृह-युद्ध के दिन थे। लोगों के पास न कोई काम-धन्धा था, न नौकरी। जीवन रोज़ नए रंग दिखाता था और लोगों को एक जगह से दूसरी जगह खदेड़ देता था। क्रान्ति-समर्थक लाल सेना और क्रान्ति-विरोधी श्वेत सेना के बीच भारी लड़ाई जारी थी। शहरों, गाँवों, बस्तियों पर कभी क्रान्ति-समर्थकों का अधिकार हो जाता तो कभी क्रान्ति-विरोधियों का। लोग मिलते थे, लोग बिछुड़ जाते थे। उन्हें आदत पड़ गई थी कि अन्ततः अलग होना ही है। नाद्या ने भी यह सोच लिया था कि अब ओसिप मन्देलश्ताम से उसकी मुलाक़ात शायद ही होगी।
लेकिन क़रीब डेढ़ वर्ष के बाद मन्देलश्ताम फिर से कियेव में दिखाई दिए। यही वह समय था जब पितेरबुर्ग में लोगों के बीच मन्देलश्ताम के अचानक रहस्यात्मक रूप से ग़ायब होने की चर्चा शुरू हो गई थी। तब तक नाद्या का परिवार अपने पुराने घर को छोड़कर नए घर में शिफ़्ट हो चुका था। तब नई क्रान्तिकारी मज़दूर सरकार किसी से कभी भी उसका घर ख़ाली करा लेती थी और उसे उससे बड़े या छोटे घर में शिफ़्ट कर देती थी। अमीरों से उनके घर छीनकर ग़रीबों और बेघरबार लोगों के बीच बाँटे जा रहे थे। डेढ़ वर्ष के इस छोटे से काल में दो बार ऐसा हुआ कि हाज़िन परिवार से उनका फ़्लैट लेकर उन्हें पहले से छोटा फ़्लैट दिया गया। तीसरे नए फ़्लैट में हाज़िन परिवार अभी पहुँचा ही था, अभी उन्होंने अपना सामान खोला भी नहीं था कि उनका फ़्लैट देखने के लिए फिर से नई सरकार का कोई अफ़सर वहाँ पहुँच गया और उसने उन्हें बताया कि उन्हें यह फ़्लैट भी ख़ाली करना पड़ेगा। वह अफ़सर अपने साथ फ़्लैट की सफ़ाई करवाने के लिए मज़दूरों को भी लाया था। हाज़िन परिवार बड़े ऊहापोह की स्थिति में था। क्या करें और क्या नहीं। उसी समय मन्देलश्ताम उनके इस नए फ़्लैट में नमूदार हुए।
नाद्या उन्हें वहाँ देखकर दंग रह गई। लेकिन मन्देलश्ताम वहाँ उपस्थित मज़दूरों, वहाँ फैले सामान और परिवार के बीच अफ़रा-तफ़री की हालत देखकर भी वैसे ही सहज बने रहे। और थोड़ी ही देर बाद मन्देलश्ताम वहाँ सबको अपनी कविताएँ सुना रहे थे। अचानक उन्होंने कविता पढ़ना बन्द कर दिया और अपने सुनहरी दाँत चमकाते हुए ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे और फिर नाद्या से बोले — “अबकी बार मैं तुझे छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा।” इसके तीन सप्ताह बाद ही वे दोनों मास्को के लिए रवाना हो गए। फ़रवरी 1922 में उन दोनों ने पितेरबुर्ग में अधिकृत रूप से विवाह कर लिया। और फिर एक-दूसरे से वे कभी नहीं बिछुड़े। ’फिर कभी नहीं बिछुड़े’ से हमारा तात्पर्य है कि वे फिर हमेशा के लिए एक-दूसरे के हो गए। बिछुड़ना तो उन्हें कई बार पड़ा। पहली बार तब जब नाद्या को अस्थमा हो गया। मन्देलश्ताम ने ज़बरदस्ती नाद्या को कुछ महीनों के इलाज के लिए याल्ता सेनेटोरियम में भेज दिया। लेकिन वह उन दोनों का शारीरिक बिछोह था। मन से, आत्मा से दोनों एक-दूसरे से गहरे जुड़े हुए थे। मन्देलश्ताम हर रोज़ नाद्या को एक पत्र लिखते। नाद्या भी उनके हर ख़त का जवाब ज़रूर देती। अब वे सभी पत्र प्रकाशित हो चुके है। उन्हें पढ़कर पता लगता है कि उनके बीच कितना गहरा लगाव और आत्मीयता थी, उनका पारिवारिक जीवन कितना सफल था। लेकिन फिर भी नाद्या ने अपने संस्मरणों में लिखा है — “पत्नी की भूमिका मेरे लिए कोई विशेष महत्त्व नहीं रखती थी। समय भी ऐसा नहीं था कि मैं सही अर्थों में उनकी पत्नी बन पाती। पत्नी तब होती है, जब घर हो, घरबार हो, बच्चे हों, आय का कोई स्थाई साधन हो… और हमारे जीवन में यह सब कुछ कभी नहीं रहा… अपना घर तो हमें कभी मिला ही नहीं रहने के लिए। हमारे क़दमों के नीचे धरती हमेशा डोलती रहती थी।”
और इसका कारण उन पर लगातार गिरने वाली राजनीतिक विपत्तियों की गाज़ ही नहीं थी बल्कि पारस्परिक दाम्पत्य-सम्बन्धों में लगातार बना रहने वाला उलझाव भी था। नाद्या के लिए ’विवाह’ एक ऐसा बेकार शब्द था, जिसका वह जीवन में कोई महत्त्व नहीं समझती थी, लेकिन मन्देलश्ताम के लिए नाद्या के साथ यह सम्बन्ध जैसे उनके जीवन का मुख्य-आधार था। नाद्या हाज़िना ने अपने संस्मरणों में लिखा है — “सच-सच कहूँ तो वे जैसे मुझे अपनी काँटेदार हथेलियों के बीच बन्द करके रखते थे। मैं मन ही मन उनसे बेहद डरती थी, लेकिन ऊपर से सहज दिखाई देती थी और बराबर इस कोशिश में लगी रहती थी कि किसी तरह इन भयानक हथेलियों के बीच से फिसल कर बाहर निकल सकूँ, हमेशा के लिए नहीं तो कम से कम कुछ देर के लिए ही सही।”
और कभी-कभी नाद्या अपने इस उद्देश्य की पूर्त्ति में सफल हो भी जाती थी। एक बार वह मन्देलश्ताम के पिंजरे से ऐसे उड़ी कि ख़ुद मन्देलश्ताम भी दंग हो गए। दो सीटों वाले हवाई जहाज़ के एक पायलट ने नाद्या को आकाश में उड़ने का निमन्त्रण दिया। उन दिनों हवाई जहाज़ों की उड़ान ऐसी आम नहीं थी, जैसी कि आज है। वायुयान का आविष्कार हुए कुछ ही वर्ष हुए थे। नाद्या ने पायलट का निमन्त्रण स्वीकार कर लिया और उसके साथ उसके हवाई जहाज़ में उड़ चली। लेकिन पायलट ने कुछ देर की उड़ान के बाद, आकाश में अपनी उड़ान के कुछ साहसी करतब उसे दिखाने के बाद अपने यान को वापिस नीचे उतार लिया और बड़ी शिष्टता से नाद्या के लिए यान से बाहर निकलने का दरवाज़ा खोल दिया।
निश्चय ही नाद्या की इस बहादुरी के लिए मन्देलश्ताम ने उसे मालाओं से नहीं लाद दिया। मदेलश्ताम से उसे भयानक डाँट-फटकार सुननी पड़ी। क्यों गई थी वहाँ? क्या ज़रूरत थी ख़तरा उठाने की? कोई दुर्घटना हो जाती तो? मदेलश्ताम किसी भी तरह यह नहीं समझ पा रहे थे कि उनकी पत्नी, जो उनके अपने ’स्व’ का ही एक हिस्सा है, के जीवन-मूल्य उनके अपने जीवन-मूल्यों से अलग कैसे हो सकते हैं। ऐसा कैसे हो सकता है कि नाद्या कोई भी बात मन्देलश्ताम से अलग सोचे? ऐसा कैसे हो सकता है कि जब वे उसे अभी-अभी लिखी गई या सिर्फ़ सोची गई कोई कविता पढ़कर सुनाएँ तो वह उसे याद न रह जाए? उनका ख़याल था कि उनके मन की बात उसके दिमाग़ में भी ज्यों की त्यों उतर जानी चाहिए। नाद्या लिखती है — “मन्देलश्ताम हमेशा इस बात को लेकर दुखी रहते कि मुझे उनकी कविताएँ याद क्यों नहीं रह जातीं। कभी वे अपनी कोई कविता सुनाते, मैं उसे ज्यों का त्यों लिख लेती। और जब बाद में उन्हें उनकी वे कविता-पँक्तियाँ पढ़कर सुनाती तो उन्हें वे पसन्द नहीं आतीं तो वे यह नहीं समझ पाते थे कि मैंने क्यों यह सब बकवास लिख डाली है। पर जब कभी-कभी मैं उनकी मिज़ाजपुर्सी करते-करते बेहद तंग आ जाती और उनकी कही हुई बातें लिखना नहीं चाहती तो वे बड़े अधिकार से मुझसे कहते — ’अरे, तुम यह क्या कर रही हो। यहाँ आओ, मेरे पास बैठो। और जो कुछ भी मैं बोल रहा हूँ, चुपचाप लिखती जाओ।’ ”
लेकिन मन्देलश्ताम का एक दूसरा रूप भी था। एक बार गर्मियों के दिनों में जब मन्देलश्ताम नाद्या के साथ जार्जिया के बातूमी नगर में किसी के यहाँ रुके हुए थे तो भयानक गर्मी की वजह से उन दोनों को रात में खुली छत पर सोना पड़ गया। छत पर मच्छर बहुत थे। रात को अचानक नाद्या की आँख खुली तो उसने देखा की मन्देलश्ताम — “वहाँ पलंग के पास ही कुर्सी पर बैठे हुए थे और उनके हाथ में एक अख़बार था” जिससे वे पंखा-सा बनाकर नाद्या के ऊपर हवा कर रहे थे और मच्छरों को उड़ा रहे थे। नाद्या लिखती है — “एक-दूसरे के साथ हम दोनों का जीवन कितना सुखद था। पता नहीं क्यों, दुनिया वालों ने हमें एक साथ वह जीवन जीने नहीं दिया?”
नाद्या ने मन्देलश्ताम के साथ अपने जीवन के संस्मरणों की मोटी-मोटी तीन किताबें लिखी हैं, जिनमें उसने विस्तार से तत्कालीन सोवियत समाज का चित्रण किया है कि कौन लोग उन दिनों सुखपूर्वक सहज जीवन बिता रहे थे, कौन लोग किसी तरह जीवन जीने की कोशिश कर रहे थे और वे कौन लोग थे जो लोगों का जीवन जीना दूभर बना रहे थे।
किसी भी अन्य सच्चे कवि की तरह मन्देलश्ताम कभी घुन्ने नहीं हो सकते थे। स्तालिन-विरोधी जो कविताएँ उन्होंने लिख ली थीं, अगर वे उन्हें छिपाए रहते या अपना नाम गुप्त रखकर जनता के बीच फैला देते तो उन्हें वे कष्ट नहीं झेलने पड़ते जो सत्ता ने उन्हें दिए। लेकिन मन्देलश्ताम तो उन दिनों सबको अपनी वे स्तालिन-विरोधी कविताएँ ही सुनाते नज़र आते। जब मई 1934 में उन्हें पहली बार गिरफ़्तार किया गया तब भी उन्होंने अपनी कविताओं से किनारा नहीं किया और एकदम यह बात मान ली कि वे कविताएँ उन्हीं की लिखी हुई हैं। बाद में पुलिस-हिरासत में ही उन्होंने अपनी कलाई की नस काट कर आत्महत्या करने की कोशिश की। पर मन्देलश्ताम को बचा लिया गया और तीन वर्ष के लिए मास्को से साइबेरियाई नगर चेरदिन के लिए निर्वासित कर दिया गया। लेकिन आन्ना अख़्मातवा और पस्तेरनाक जैसे कवियों तथा बुख़ारिन जैसे राजनेता ने जब मन्देलश्ताम की पैरवी की और गारण्टी दी तो उनकी सज़ा कम करके उनका निर्वासन वरोनिझ नगर के लिए कर दिया गया जो चेरदिन के मुक़ाबले कहीं बेहतर शहर माना जाता था। नाद्या को निर्वासन की सज़ा नहीं दी गई थी। नाद्या चाहती तो मास्को में ही रह सकती थी। लेकिन नाद्या ने भी अपने पति ओसिप मन्देलश्ताम के साथ स्वैच्छिक-निर्वासन की राह चुनी। शायद नाद्या द्वारा की गई सेवा-सुश्रुषा के कारण ही उस वर्ष मन्देलश्ताम की जान बच गई और उनका जीवन कुछ और लम्बा हो गया। स्तालिन की सरकार द्वारा बुरी तरह से तिरस्कृत और प्रताड़ित किए जा रहे महाकवि मन्देलश्ताम ने अप्रैल 1936 में वरोनिझ से महाकवि पस्तेरनाक को लिखे एक पत्र में सूचित किया — “मैं वास्तव में बहुत बीमार चल रहा हूँ। मेरे बचने की आशा कम ही है। अब शायद ही कोई ताक़त मुझे बचा पाए। पिछले दिसम्बर से ही मेरी हालत लगातार ख़राब होती जा रही है। अब तो कमरे से बाहर निकलना भी मुश्किल हो गया है। मैं यह जो अपना नया जीवन आज थोड़ा-बहुत जी पा रहा हूँ, इसका सारा श्रेय मेरी जीवन-संगिनी को जाता है। वह नहीं होती तो मैं न जाने कब का ख़ुदा को प्यारा हो चुका होता।”
1937 में सज़ा पूरी होने के बाद मन्देलश्ताम दम्पत्ति मास्को वापिस लौट आए। लेकिन कुछ समय बाद ही 2 मई 1938 को मन्देलश्ताम को फिर से गिरफ़्तार कर लिया गया। मन्देलश्ताम दम्पत्ति इस दिन हमेशा अपने विवाह की वर्षगाँठ मनाते थे। लेकिन तब मन्देलश्ताम की हालत बहुत ख़राब थी और वे मास्को के निकट स्थित समातीख़ा सेनेटोरियम में इलाज के लिए भरती हुए थे। सेनेटोरियम में उस दिन सवेरे उन्हें लाइब्रेरी के निकट वाले कमरे में शिफ़्ट कर दिया गया। थोड़ी देर बाद दो फ़ौजी अधिकारी उस कमरे में आए। उन्होंने मन्देलश्ताम को उनकी गिरफ़्तारी का वारण्ट दिखाया और अपने साथ चलने के लिए कहा। मन्देलश्ताम के पास एक छोटी-सी अटैची थी, जिसमें उनकी कुछ पुस्तकें, डायरियाँ और कुछ अन्य छोटा-मोटा निजी सामान था। यह सारा सामान फ़ौजी अफ़सरों ने अटैची से निकालकर एक काले से थैले में डाल दिया। नाद्या भी उनके साथ जाना चाहती थी। परन्तु फ़ौजियों ने उन्हें इसकी इजाज़त नहीं दी। दो अगस्त को उन्हें फिर से क्रान्ति-विरोधी गतिविधियों में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए पाँच वर्ष की सज़ा सुना दी गई और साइबेरिया के यातना-शिविर में भेज दिया गया।
मन्देलश्ताम के जीवन के अन्तिम दिनों के बारे में प्रत्यक्षदर्शियों के बहुत से संस्मरण और कथाएँ सुनने में आती हैं। इन संस्मरणों के अनुसार मन्देलश्ताम अपने अन्तिम दिनों में अर्ध-विक्षिप्त से हो गए थे — “फटे हुए कपड़े पहने छोटे क़द का वह पाग़ल अपने कोटे की तम्बाकू के बदले यातना-शिविर के अन्य क़ैदियों से चीनी लेने की कोशिश करता था और जब उसके पास देने के लिए कुछ भी नहीं होता था तो वह उन्हें चीनी के बदले अपनी कविताएँ सुनाने लगता था। कभी-कभी वह किसी क़ैदी की रोटी चुराकर खा लेता, जिस पर उसकी बुरी तरह से पिटाई होती। लेकिन वह पाग़ल अपने कोटे की रोटी कभी नहीं खाता था क्योंकि वह डरता था कि उसमें ज़हर मिला हुआ है।”
यातना-शिविर में हुई उनकी मृत्यु के बारे में भी बहुत-से क़िस्से सुनने में आते हैं। लेकिन लेखक वरलाम शलामफ़ ने, जो मन्देलश्ताम के साथ ही उस यातना-शिविर में बन्द थे, मन्देलश्ताम के देहान्त की कथा अपनी कहानी ’चेरी की ब्राण्डी’ (मन्देलश्ताम की एक कविता का शीर्षक है यह) में लिखी है। ’कवि मर रहा था’ — इन शब्दों से यह कहानी शुरू होती है —
“कवि मर रहा था। भूख और ठण्ड के कारण उसकी हथेलियाँ और कलाइयाँ सूज कर ख़ूब मोटी हो गई थीं। रक्तविहीन सफ़ेद उँगलियों और गन्दगी के कारण काले पड़ चुके लम्बे-लम्बे नाख़ूनों वाले उसके हाथ उसकी छाती पर पड़े हुए थे। वह उन्हें ठण्ड से बचाने की कोई कोशिश नहीं कर रहा था। जबकि पहले वह उन्हें अपनी दोनों बगलों में दबा लेता था। लेकिन अब उसके नंगे शरीर में इतनी गरमी ही बाक़ी नहीं रह गई थी कि वह उसके हाथों को गरमा सके।”
नाद्या भी बिना यह जाने ही कि किस दिन उसके पति ने आँखें मूँदीं, दूसरी दुनिया में चली गई। उनकी मृत्यु के बहुत दिनों बाद सोवियत सरकार ने वे गुप्त दस्तावेज़ आम जानकारी के लिए खोले, जिनसे यह पता लगता था कि मन्देलश्ताम की मृत्यु 27 दिसम्बर 1938 को हुई। मन्देलश्ताम की मृत्यु से क़रीब दो माह पहले ही यह सोचकर कि शायद वह मन्देलश्ताम से पहले ही मर जाएगी, नाद्या ने मन्देलश्ताम के नाम अपना अन्तिम पत्र लिखा था —
“ओस्या, मेरे प्रियतम, मेरे दोस्त, मेरे जीवन, इस पत्र में तुमसे कुछ कहने के लिए मेरे पास अब शब्द ही नहीं बचे हैं। हो सकता है कि तुम यह पत्र कभी नहीं पढ़ पाओ। मैं यह पत्र जैसे अन्तरिक्ष में लिख रही हूँ। हो सकता है, तुम लौट आओ, लेकिन मैं तब तक शेष नहीं रहूँगी। तब यह तुम्हारे लिए मेरा अन्तिम स्मृति-चिह्न होगा।”
अन्तरिक्ष में भेजे जाने के लिए लिखा गया यह पत्र विश्व पत्र-साहित्य सम्पदा का एक सबसे मर्मभेदी पत्र है — “मेरा हर विचार तुम्हारे बारे में है। मेरा हर आँसू, मेरी हर मुस्कान तुम्हें ही समर्पित। मेरे दोस्त, मेरे हमदम, मेरे रहबर, मैं अपने कड़वे जीवन के हर दिन, उसके हर घण्टे को असीस देती हूँ…” इसके बाद अपने पत्र में नाद्या ने अपने एक सपने का ज़िक्र किया है कि कैसे वह किसी छोटे से शहर के होटल की कैण्टीन में खड़ी है। उसने मन्देलश्ताम के लिए खाने-पीने का सामान ख़रीदा है। लेकिन यह सामान लेकर उसे कहाँ जाना है, वह यह नहीं समझ पा रही है। जब अचानक उसकी आँख खुलती है तो वह पाती है कि उसका सारा माथा ठण्डे पसीने से तर है। नाद्या ने अपने पत्र में आगे लिखा है — ” …मैं यह नहीं जानती कि तुम जीवित भी हो या नहीं। तुम्हारा अता-पता मैं खो चुकी हूँ। तुम्हारे साथ मेरा कोई सम्पर्क ही नहीं है। मुझे तो यह भी नहीं मालूम कि तुम कहाँ हो। तुम मेरी बात सुनोगे भी या नहीं। तुम यह कभी जान भी पाओगे या नहीं कि मैं तुम्हें अपने जीवन के अन्तिम क्षण तक बेहद-बेहद प्यार करती रही हूँ। मैं उस दिन तुम्हें विदा करते हुए यह बात न कह पाई।
आज भी किसी और व्यक्ति के सामने मैं यह बात नहीं कह रही, सिर्फ़ तुम्हें बता रही हूँ कि मैं तुम्हें, केवल तुम्हें बहुत-बहुत प्रेम करती हूँ… तुम हमेशा मेरे साथ रहे, मेरे मन में, मेरे हृदय की गहराइयों में और मैं जंगली व उजड्ड तुम्हारे सामने कभी रो तक न पाई… आज रो रही हूँ, सिर्फ़ रो ही रही हूँ, और तुम्हें याद कर रही हूँ..” और पत्र के अन्त में नाद्या ने लिखा था — “यह मैं हूँ — तुम्हारी नाद्या। तुम कहाँ हो?”
इस सवाल का उत्तर आज भी हमारे पास नहीं है। व्लदीवस्तोक के उस यातना-शिविर में उन वर्षों में मारे गए बन्दियों की तीन विशाल सामूहिक-क़ब्रें पाई गई हैं, लेकिन उन तीनों में से किस सामूहिक-क़ब्र में मन्देलश्ताम को दफ़्न किया गया था, यह पूरी तरह से अज्ञात है। उन दिनों क़ैदियों को
सामूहिक-क़ब्र में फेंकते हुए उनके पैर में एक टैग बाँध दिया जाता था, जिस पर हर क़ैदी का नाम लिखा होता था। वे टैग कब के गलकर मिट्टी में मिल चुके हैं।
लेकिन ऐसा नहीं है कि उनकी आत्मा अभी भी इस धरती पर भटक रही है। रूसी आर्थोडॉक्स ईसाई धर्म के अनुयायी यह मानते हैं कि जब तक मृतक की आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना करके मृतक व्यक्ति के शरीर को उसके प्रिय व्यक्ति के निकट नहीं दफ़नाया जाता, तब तक उसकी आत्मा हमारी इस दुनिया में भटकती रहती है। और मन्देलश्ताम की आत्मा को 1980 में उनकी प्रिया नाद्या ने शरण दी और अब वे दोनों बलूत की लकड़ी के एक साधारण से सलीब के नीचे मास्को के स्तारो-कून्त्सेव्स्की क़ब्रिस्तान में चैन की नींद सो रहे हैं। उनकी उस क़ब्र पर एक छोटा-सा पत्थर रखा हुआ है, जिस पर लिखा है — ’कवि ओसिप ऐमिल्येविच मन्देलश्ताम की पावन स्मृति को समर्पित’।
मनुष्य के जीवन की सार्थकता / बालकृष्ण भट्ट
हमारे जीवन की सार्थकता क्या है और कैसे होती है इस पर जुदे-जुदे लोगों के जुदे-जुदे विचार और उद्देश्य हैं, अधिकतर इसका उद्देश्य समाज पर निर्भर है अर्थात हम जिस समाज में जैसे लोगों के बीच रहते हैं उनके साथ जैसा बर्ताव रखते हैं उसी के अनुसार हमारे जीवन की सार्थकता समझी जाती है। यद्यपि कवियों ने मनुष्य जन्म की सार्थकता को अपनी-अपनी उक्ति के अनुसार कुछ और ढंग से ढुलका लाए हैं जैसे भारवि ने कहा है-
स पुमानर्थवज्जन्मा यस्य नाम्नि पुरस्थिते।
नान्याड़्गुलि समभ्येति संख्याया मुद्यताड़्गुलि :।
पुमान् पुरुष वह है जिसमें पुरुषार्थ का अंकुर हो; सार्थक जन्म वही पुरुष है कि जिसके पौरुषेय गुणों की गणना में जो अँगुली उसके नाम पर उठे वही फिर दूसरे के नाम पर नहीं-अर्थात जो किसी प्रकार के गुण में एकता प्राप्त्ा किए हैं संसार में उसके बराबरी का दूसरा मनुष्य न हो। इस तरह की बहुतेरी कवियों की कल्पनाएँ पाई जाती हैं किंतु यहाँ इन कल्पनाओं से हमारा प्रयोजन नहीं है जिसे हम जीवन की सार्थकता कहेंगे वह बात ही निराली है। समाज के बर्ताव के अनुसार सफल इसे अलबत्ता कहेंगे जैसा –
यस्य दानजितं मित्रं शत्रवो युधि निर्जिता:
अन्नपानजिता दारा सफलं तस्य जीवितम्।।
जिसने समय-समय धन दे मित्रों को अपने काबू में कर लिया, जिसने शत्रुओं को संग्राम में जीता, भाँति-भाँति के गहने और कपड़ों से जिसने अपनी स्त्री का संतोष किया उसी का जीवन सफल है। बस यही सफल जीवन की इयत्ता या ओर-छोर है, तात्पर्य यह कि जिसने स्वार्थ-साधन को भरपूर समझा वही यहाँ सफल जन्मा है। विलायत में जब तक अपने देश या जाति के लिए कोई ऐसी बात न कर गुजरा जिसमें सर्व साधारण का कुछ उपकार है तब तक जीवन की सफलता नहीं कही जा सकती क्योंकि इतना तो जानवर भी कर लेते हैं-अपने बच्चों को पालना पोसना वे भी भरपूर जानते हैं, जो उनके शत्रु हैं उनसे लड़ना, जो उसके साथ भलाई करते हैं उन्हें उपकार पहुँचने का ज्ञान उन्हें भी रहता है, वरन कुत्ते और घोड़े आदि कई एक पशुओं में कृतज्ञता और स्वामि भक्ति मनुष्यों से भी अधिक पाई जाती है तब मनुष्य और जानवर में क्या अंतर रहा।
इससे निश्चय होता है कि जन्म की सफलता का ज्ञान केवल समाज पर निर्भर है जिस काम को या जिस बात को समाज के लोग पसन्द करते हों और भला सझते हों उस ओर हमारी प्रवृत्ति का होना ही जीवन की सफलता है। जैसा इस गुलामी की हालत में पढ़-लिख सौ-पचास की नौकरी पाय अपनी जिंदगी दूसरे के अधीन कर देना ही जन्म की सफलता है। सच है –
‘सेवाविक्रीतकायानां स्वेच्छाविहरणं कुत:’
जिन्होंने दूसरे की सेवा में अपने को दूसरे के हाथ बेच डाला है उनकी फिर आजादगी कहाँ? सैकड़ों वर्ष से गुलामी में रहते पुश्तहा-पुश्त बीत गए स्वच्छंदता या आजादगी की कदर हमारे मन से उठी गई। इस हीरे की परख के जौहरी इंग्लैंड तथा यूरोप और अमेरिका के देशों में पैदा होने लगे या अब इस समय जापान को इसकी कदर का ज्ञान होने लगा है हमारे यहाँ तो न जानिए वह कौन सा जमाना था जब मनु महाराज लिख गए कि –
‘सर्व परवशं दु:ख सर्वमात्मवशं सुखम्।।’
सब कुछ जो अपने वश का है सुख है जो दूसरे के अधीन है वही दु:ख है। सुख-दु:ख का सर्वोत्तम लक्षण यही निश्चय किया गया है। सो अब इस समय दस-बीस की नौकरी भी ऐसी सोने की खेती हो रही है कि हमारे नव-युवक इसके लिए तरस रहे हैं। बड़े से बड़ा इम्तिहान पास कर अर्जीं हाथ में लिए बगलें मारे फिरते हैं और दुरदुराए जाते हैं। उसमें भी वर्तमान समय के कर्मचारियों की कुछ ऐसी पालिसी हो रही है कि सौ रुपये से जियादह की नौकरी नेटिवों को न दी जाय-सेना विक्रीत काया इस नौकरी में भी वह समय अब दूर गया जब दो एक जुमले अंगरेजी के लिखने और बोल लेने ही मात्र से सैकड़ों रुपये महीने की नौकरी सुलभ थी। सच है –
गत: स कालो वत्रास्ते मुक्तानां जन्म शुक्तिषु।
उदुम्बरफलेनापि स्पृहयामो s धुना वयम्।।
आजादगी के अनन्य भक्त कोई-कोई नव युवक स्वच्छंद जीवन (इंडिपेंडेंट) की धुन बाँधे हुए कोई आजाद पेशा किया चाहते हैं तो पास पूँजी नहीं कि हौसले के माफिक कुछ कर दिखाएँ। कंपनी प्रणबंधगोष्ठी की चाल अपने यहाँ न ठहरी कि उन्हें कहीं से सहारा मिलता। हमारा ऐसा सर्वस्व हरण होता जाता है कि न तो धन रहा न कोई जीविका बच रही है कि ये लोग अपना हौसला पूरा करते। जिनके पास रुपया है वे रुपयों के सूद के घाटे का परता पहले फैला लेंगे तो टेंटा ढीला करेंगे। यों चाहें रुपया रखा रह जाय एक पैसा ब्याज न आवे पर रुपया कहीं लगाने के समय ब्याज का परता जरूर फैला लेंगे। जिन बेचारों ने हिम्मत बाँध कुछ रुपया कहने सुनने से लगाया भी तो पीछे उन्होंने ऐसा गच्चा खाया कि चित्त हो गए। उन्हें कोई ऐसा दियानतदार आदमी न मिला कि उनका उत्साह बढ़ता और मिल कर हम कोई काम करना नहीं जानते यह कलंक हमसे दूर हटता। माँ होती तो मौसी को कौन झींखता, हम मिलता जानते होते तो वर्तमान दास्यभाव की दशा को क्यों पहुँचते। अस्तु –
इस जीवन के सफलता के अनेक और दूसरे-दूसरे उदाहरण हैं। संसार को मिथ्या मानने वाले अहंब्रह्मास्मि की धनु बाँधे हुए स्वभाववादी जीवन की सफलता इसी में मानते हैं कि हमें बोध हो जाय कि हमीं ब्रह्म हैं और जगत् के सब काम आपसे आप होते जाते हैं कोई इसका प्रेरक नहीं है। पाप और पुण्य भला और बुरा दोनों एक-से हैं-चित में ऐसा पूरा-पूरा भास हो जाय तो बस हम जीवन मुक्त हो गए। अब हमें कुछ करना धरना न रहा। सब ओर से अकर्मण्य हो बैठे और आगे बढ़ो तो मन को नाश कर डालो, क्योंकि सब उत्साह और आगे को तरक्की करने का मूल कारण मन में न रहेगा तो बुराई का काम चाहे न भी रुके पर भलाई तो तुम से कभी होगी ही नहीं और यह सब भी तभी तक जब तक अपनी जरा भी किसी तरह की हानि नहीं है बस केवल जवानी जमाखर्च मात्र रहे आत्म त्याग के उसूल कहीं छू भी न जाए कसौटी के समय चट्ट फिसल कर चारों खाने चित्त गिर पड़ा करो-ऐसा ही सेवक भक्त अपने प्रभु की सेवा में लीन होना ही जीवन की सफलता मानता है। स्मरण, कीर्तन, वंदन, पादसेवन, सख्य, आत्मनिवेदन, आदि नवधा भक्ति के द्वारा जो अपने सेव्य प्रभु में लीन हो गया वास्तव में उसका जीवन सफल है। इस उत्तम कोटि के महात्मा अब इस समय बहुत कम जन्मते हैं। अहं ब्रह्मास्मि कहने वाले धूर्त वंचकों से तो यही भले। यद्यपि जिस बात की पुकार हमें है सो तो दासोस्मि में भी नहीं पाई जाती फिर भी प्रेम और दृश्य जगत् सर्वथा निस्सार नहीं है सर्वनाशकारी अकर्मण्यता ही का दखल इनमें है इससे ये बहुत अंशों में सर्वथा सराहनीय हैं। चतुर सयाने चलते-पुरजे चालाक कहीं पर हों अपनी चालाकी से न चूकने ही को जन्म का साफल्य मानते हैं। किसी कवि ने ऐसों ही का चित्र नीचे के श्लोक में बहुत अच्छा उतारा है –
आदौ भाग: पंचघार्ष्टस्य देया: द्वौ विद्याया: द्वौ मृषाभषाणस्य।
एकं भागं भंडिमाया: प्रदेयं पृथ्वी वश्यामेषयोग: करोति।।
पहला 5 हिस्सा धृष्टता का हो तब दो विद्या का दो झूठ बोलने का और एक हिस्सा भड़ौआ का भी होना ही चाहिए जिनमें ये सब मिला के दस हिस्से हुनर के हैं वे इन सबों के योग से पृथ्वी भर को अपने काबू में ला सकते हैं। संसार में इन्हीं का नाम चलता पुरजा है हम ऐसे गोबर गनेश बोदे लोगों का किया क्या हो सकता है जो निरे अपटु दस-पाँच आदमियों को भी अपनी मूठी में नहीं ला सकते। इसी से हम पहले अंक में लिख आए हैं कि हाँ हम ऐसे हताश क्यों जन्मे? प्रयोजन यह कि जिसने झूठ-सच बोल दूसरों को धोखा दे रुपया कमाना अच्छी तरह सीखा है, वही सफल-जन्मा है।
सभ्य समाज के मुखिया हमारे बाबू लोगों में सफल जीवन का सूत्र साहब बनना है जब तक कहीं पर किसी अंश में भी हम हिंदुस्तानी हैं इसकी याद बनी रहेगी, तब तक उनके सफल जीवन की त्रुटि दूर होने वाली नहीं। इससे वे सब-सब स्वांग लाते हैं क्या करें लाचार हैं अपना चमड़ा गोरा नहीं कर सकते। अस्तु, ये कई एक नमूने सफल जीवन के दिखाए इन सबों में सफल जीवन किसी का भी नहीं है वरन सफल जीवन उसी पुरुष का कहा जाएगा जिसने अपने देश तथा अपने देश बांधव के लिए कुछ कर दिखाया है जो आत्म-सुखरत न हो खुदगरजी से दूर हटा है, इस तरह के उदार भाव का उन्मूलन हुए यहाँ बहुत दिन हुए। नई शिक्षा प्रणाली नए सिरे से हम लोगों में पुन: उसका बीजारोपण सामयिक शासकों के नमूने पर किया चाहते है। कदाचित् कभी को यह बीच उगै फबकै और उसमें देशानुराग का अमृत फल फलै और कोई ऐसे सुकृती भाग्यवान् पुरुष देश में पैदा हो जो सुधास्यन्दी उसके पीयूष रस का स्वाद चखने का सौभाग्य प्राप्त करें पर हम तो अपने हतक जीवन में उसके स्वाद से वंचित ही रहेंगे।
जीवन एक नृत्य है / ओशो
प्रवचनमाला
जीवन एक नृत्य है
ध्यान से शुरु करो और चीजें तुम्हारे भीतर विकसित होने लगेंगी। मौन, शांति,आनंद, संवेदनशीलता। और ध्यान से जो भी आता है उसे जीवन में लाने का प्रयास करो। उसे बांटो, क्योंकि जिसे भी बांटा जाता है वह तेजी से विकसित होता है। और जब तुम मृत्यु के बिंदु पर आते हो, तुम जान जाओगे कि कोई मृत्यु नहीं होती। तुम विदा ले सकते हो, उदासी के आंसू गिराने की जरूरत नहीं है; हां, खुशी के आंसू अवश्य हो सकते हैं लेकिन दुख के नहीं। लेकिन तुम्हें शुरुआत निर्दोषिता से करनी होगी।
तो पहले तो पूरा कचरा बाहर फेंक दो जिसे तुम ढो रहे हो। हर व्यक्ति इतना कूड़ा कर्कट ढो रहा है, और हैरानी होती है, किसलिए? सिर्फ इसलिए कि लोग तुम्हें बता रहे हैं कि ये महान अवधारणाएं हैं, सिद्धान्त हैं? तुम अपने साथ बुद्धिमानी से पेश नहीं आते हो। अपने साथ बुद्धिमानी रखो।
जीवन बहुत सरल है, वह एक आनंदपूर्ण नृत्य है। पूरी पृथ्वी खुशी और नृत्य से सराबोर हो सकती है, लेकिन ऐसे लोग हैं जिनका स्वार्थ इसमें निहित है कि कोई भी जीवन का आनंद न लें। कोई मुस्कुराए न, कोई हंसे न और कि जिंदगी एक पाप है, एक सजा है। जब ऐसा माहौल हो कि तुमसे निरंतर यही कहा गया है कि यह एक सजा है, तो तुम आनंद कैसे ले सकते हो? कहा जाता है कि तुम इसलिए पीड़ा भोग रहे हो क्योंकि तुमने गलत काम किए हैं और यह एक तरह की कैद है जिसमें तुम्हें कष्ट उठाने के लिए डाला गया है।
मैं तुमसे कहता हूं कि जिंदगी एक कैद नहीं है, एक सजा नहीं है। वह एक पुरस्कार है और वह उन्हीं को दिया जाता है जो उसके लायक हैं। इसे भोगना तुम्हारा हक है; यदि तुम नहीं भोगते हो तो वह पाप होगा।
यदि तुम उसे सुंदर नहीं बनाते, उसे वैसा ही छोड़ते हो जैसा तुम्हें मिला था तो यह अस्तित्व के खिलाफ होगा। नहीं, उसे थोड़ा और प्रसन्न, थोड़ा और सुंदर, थोड़ा और सुगंधित बनाकर छोड़ो।
सौजन्य से- आोशो इंटरनेशनल न्यूज लेटर
जीवन-अस्तित्व असीम है!!! / ओशो
प्रवचनमाला
सूरज निकलता है। सर्दियों की सुबह। रात हवाएं ठंडी थीं। और सुबह दूब पर ओस कण भी फैले थे। अब तो किरणें उन्हें पी गयी हैं और धूप भी गरमा गयी है।
एक सुखद सुबह, दिन का प्रारंभ कर रही है। पक्षियों की अर्थहीन गीत भी कितनी अर्थपूर्ण मालूम होते हैं- पर शायद जीवन में कोई अर्थ नहीं है। और अर्थ की कल्पना मनुष्य की अपनी है। अर्थ नहीं- शायद इससे ही जीवन में अनंत गहराई और विस्तार है। अर्थ तो सीमा है। जीवन-अस्तित्व है असीम, इससे अर्थ वहां कोई भी नहीं है।
और जो अपने को इस असीम में असीम कर लेता है, वह विराट अर्थ-शून्यता में अर्थ-शून्य हो जाता है, वह उसे पा लेता है ‘जो है’- वह उस अस्तित्व को पा लेता है। सब अर्थ क्षुद्र है और क्षुद्र का है। सब अर्थ अहं के बिंदु से देखे गये हैं। अहं ही अर्थ का केंद्र है। उससे जो जगत देखा जाता है, वह वास्तविक जगत नहीं है। जो भी ‘मैं’ से संबंधित है, वह वास्तविक नहीं है।
सत्य अखंड इकाई है, वह ‘मैं’ और ‘न-मैं’ में विभाजित है। सब अर्थ ‘मैं’ का है। इससे जो अखंड है, ‘मैं’ और ‘न-मैं’ के अतीत है, वह अर्थ शून्य है। उसमें न अर्थ है न ‘अर्थ-नहीं’ है। उसे कोई भी नाम देना गलत है। उसे ईश्वर कहना भी गलत है। ईश्वर भी ‘मैं’ के ही प्रसंग में है। वह भी ‘मैं’ की ही धारणा है। कहें कि जो भी सार्थक है, वह व्यर्थ है। सार्थकता की सीमा के बाहर जाना- आध्यात्मिक हो जाना है।
बोधिधर्म से किसी ने पूछा था, ‘पवित्र निर्वाण के संबंध में कुछ कहें’। वे बोले, ‘पवित्रता कुछ भी नहीं, बस, शून्यता और केवल शून्यता’
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)
जीवन को तो जानो! / ओशो
प्रवचनमाला
जीवन क्या है? जीवन के रहस्य में प्रवेश करो। मात्र जी लेने से जीवन चूक जाता है, लेकिन ज्ञात नहीं होता। अपनी शक्तियों को उसे जी लेने में नहीं, ज्ञात करने में भी लगाओ। और, जो उसे ज्ञात कर लेता है, वही वस्तुत: उसे ठीक से जी भी पाता है।
रात्रि कुछ अपरिचित व्यक्ति आए थे। उनकी कुछ समस्याएं थीं। मैंने उनकी उलझन पूछी। उनमें से एक व्यक्ति बोला, मृत्यु क्या है?
मैं थोड़ा हैरान हुआ। क्योंकि समस्या जीवन की होती है। मृत्यु की कैसी समस्या? फिर मैंने उन्हें कन्फ्यूशियस से ची-ली की हुई बातचीत बताई। ची-ली ने कन्फ्यूशियस से मृत्यु के पूर्व पूछा था कि मृतात्माओं का आदर और सेवा कैसे करनी चाहिए?
कन्फ्यूशियस ने कहा, जब तुम जीवित मनुष्यों की ही सेवा नहीं कर सकते, तो मृतात्माओं की क्या कर सकोगे?
तब ची-ली ने पूछा, क्या मैं मृत्यु के स्वरूप के संबंध में कुछ पूछ सकता हूं?
मृत्यु के द्वार पर खड़ा वृद्ध कन्फ्यूशियस बोला, जब जीवन को ही अभी तुम नहीं जानते, तब मृत्यु को कैसे जान सकते हो?
यह उत्तर बहुत अर्थपूर्ण है। जीवन को जो जान लेता है, वे ही केवल मृत्यु को जान पाते हैं। जीवन का रहस्य जिन्हें ज्ञात हो जाता है, उन्हें मृत्यु भी रहस्य नहीं रह जाती है, क्योंकि वह तो उसी सिक्के का दूसरा पहलू है।
मृत्यु से भयभीत केवल वे ही होते हैं, जो कि जीवन को नहीं जानते। मृत्यु का भय जिसका चला गया हो, जानना कि वह जीवन से परिचित हुआ है। मृत्यु के समय ही ज्ञात होता है कि व्यक्ति जीवन को जानता था कि नहीं? स्वयं में देखना : वहां यदि मृत्यु-भय हो, तो समझना कि अभी जीवन को जानना शेष है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)
जीवन एक कहानी है!! / ओशो
प्रवचनमाला
जीवन- जिसे हम जीवन समझते हैं, वह क्या है? रात्रि कोई पूछता था। मैंने एक कहानी कही :-
एक विश्रामालय में दो व्यक्ति आराम-कुर्सियों पर बैठे हुए थे। एक युवा था, एक वृद्ध था। जो वृद्ध था वह आंखें बंद किये बैठा था, पर बीच-बीच में मुस्करा उठता था। और कभी-कभी हाथ से और चेहरे से ऐसे इशारे करता था, जैसे कुछ दूर हटा रहा हो। युवक से बिना पूछे न रहा गया। वृद्ध ने एक बार आंखें खोली, तो उसने पूछ ही लिया,
‘इस अत्यंत कुरूप विश्रामगृह में ऐसा क्या है, जो आप में मुस्कराहट ला देता है?’
वृद्ध बोला, ‘मैं अपने से कुछ कहानियां कह रहा हूं, उनमें ही हंसी आ जाती है।’
उस युवक ने पूछा, ‘और बार-बार हाथ से हटाते क्या हैं?’
वृद्ध हंसने लगा और बोला, ‘उन कहानियों को जिन्हें बहुत बार सुन चुका हूं।’
युवक ने कहा, ‘आप भी क्या कहानियों से मन समझा रहे हैं।’
उत्तर में वृद्ध ने कहा था, ‘बेटे, एक दिन समझोगे कि पूरा ही जीवन कहानियों से अपने को समझा लेने का नाम है।’
निश्चित ही जीवन जैसा मिलता है, वह कहानी ही है। और कहानियों से अपने को समझा लेने का ही नाम जीवन है।
जिसे हम जीवन समझते हैं, वह जीवन नहीं, केवल एक सपना है। नींद टूटने पर ज्ञात होता है कि हाथ में कुछ भी नहीं है- जो था, वह था नहीं, बस, केवल दिखता था।
पर, इस स्वप्न-जीवन से सत्य-जीवन में जागा जा सकता है। निद्रा छोड़ी जा सकती है। जो सो रहा है, वह जाग भी सकता है। उसके सो सकने की संभावना ही, उसके जागने की भी संभावना है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)
जीवन की मृत्यु नहीं और मृत का जीवन नहीं / ओशो
प्रवचनमाला
एक बार ऐसा हुआ कि किसी साधु का शिष्य मर गया था। वह साधु उस शिष्य के घर गया। उसके शिष्य की लाश रखी थी और लोग रोते थे। उस साधु ने जाकर जोर से पूछा,
‘यह मनुष्य मृत है या जीवित?’
इस प्रश्न से लोग बहुत चौंके और हैरान हुए। यह कैसा प्रश्न था! लाश सामने थी और इसमें पूछने की बात ही क्या थी?थोड़ी देर सन्नाटा रहा और फिर किसी ने साधु से प्रश्न किया,
‘आप ही बतावें?’ जानते हैं कि साधु ने क्या कहा? साधु ने कहा,
‘जो मृत था, वह मृत है; जो जीवित था, वह अभी भी जीवित है। केवल दोनों का संबंध टूटा है।’
जीवन की कोई मृत्यु नहीं होती है और मृत का कोई जीवन नहीं होता है।
जीवन को जो नहीं जानते हैं, वे मृत्यु को जीवन का अंत कहते हैं। जन्म जीवन का प्रारंभ नहीं है और मृत्यु उसका अंत नहीं है। जीवन, जन्म और मृत्यु के भीतर भी है और बाहर भी है। वह जन्म के पूर्व भी है और मृत्यु के पश्चात भी है। उसमें ही जन्म है, उसमें ही मृत्यु है; पर न उसका कोई जन्म है, न उसकी कोई मृत्यु है।
एक शवयात्रा से लौटा हूं। वहां चिता से लपटें उठीं, तो लोग बोले,
‘सब समाप्त हो गया।’
मैंने कहा,
‘आंखें नहीं हैं, ऐसा इसलिए लगता है।’
( सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)
जीवन और मृत्यु / ओशो
प्रवचनमाला
मैं देखता हूं कि अधिक लोग वस्त्र ही वस्त्र हैं! उनमें वस्त्रों के अतिरिक्त जैसा कुछ भी नहीं है। क्योंकि, जिसको स्वयं का ही बोध न हो, उसका होना न-होने के ही बराबर है। और, जो मात्र वस्त्र ही वस्त्र हैं, उन्हें क्या मैं जीवित कहूं! नहीं मित्र, वे मृत हैं और उनके वस्त्र उनकी कब्रें हैं।
एक अत्यंत सीधे और सरल व्यक्ति ने किसी साधु से पूछा, मृत्यु क्या है? और मैं कैसे जानूंगा कि मैं मर गया हूं? उस साधु ने कहा, मित्र जब तेरे वस्त्र जीर्ण-शीर्ण हो जावें, तो समझना कि मृत्यु आ गई है।
उस दिन से वह व्यक्ति जो वस्त्र पहनता था, उनकी देखभाल में ही लगा रहने लगा। उसने नहाना धोना भी बंद कर दिया, क्योंकि बार-बार उन वस्त्रों को निकालने और धोना उन्हें अपने ही हाथों क्षण करना था। उसकी चिंता ठीक ही थी, क्योंकि वस्त्र ही उसका जीवन जो थे!
लेकिन, वस्त्र तो वस्त्र हैं और एक दिन वे जीर्ण-शीर्ण हो ही गये। उन्हें नष्ट हुआ देख वह व्यक्ति असहाय रोने लगा, क्योंकि उसने जाना कि उसकी मृत्यु हो गयी है!
उसे रोते देख लोगों ने पूछा कि क्या हुआ है! तो वह बोला, मैं मर गया हूं, क्योंकि मेरे वस्त्र फट गये हैं।
यह घटना कितनी असंभव और काल्पनिक मालूम होती है! लेकिन, मैं पूछता हूं कि क्या सभी मनुष्य ऐसे ही नहीं हैं? और क्या वे वस्त्रों के नष्ट होने को ही स्वयं का नष्ट होना नहीं समझ लेते हैं?
शरीर वस्त्रों के अतिरिक्त और क्या हैं! और, जो स्वयं को शरीर ही समझ लेते हैं, वह वस्त्रों को ही जीवन समझ लेते हैं। फिर, इन वस्त्रों का फट जाना ही जीवन का अंत मालूम होता है। जबकि, जो जीवन है- उसका न आदि है न अंत है। शरीर का जन्म है और शरीर की ही मृत्यु है। वह जो भीतर है, शरीर नहीं है। वह जीवन है। उसे जो नहीं जानता, वह जीवन में भी मृत्यु में है। और, जो उसे जान लेता है, वह मृत्यु में भी जीवन को पाता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)
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