इस article में आप पढेंगे, Hindi Poems on Life अर्थात जीवन पर आधारित हिन्दी कविताएँ. जीवन है तो हम किसी भी अन्य चीज़ के बारे में विचार कर सकते हैं.
List of Life Poems in Hindi – हिन्दी में जीवन पर कविताएँ
Contents
- 1 List of Life Poems in Hindi – हिन्दी में जीवन पर कविताएँ
- 1.1 जल ही जीवन है / शास्त्री नित्यगोपाल कटारे
- 1.2 क्षणभंगुर जीवन / महावीर प्रसाद ‘मधुप’
- 1.3 जग-जीवन में जो चिर महान / सुमित्रानंदन पंत
- 1.4 जीवन और शतरंज / मनोज चौहान
- 1.5 जीवन है एक डगर सुहानी / अभिषेक कुमार अम्बर
- 1.6 जीवन की तलाश में / नीरजा हेमेन्द्र
- 1.7 जीवन की सार्थकता / सलिल तोपासी
- 1.8 जीवन-फूल / सुभद्राकुमारी चौहान
- 1.9 जीवन की पहेली को सुलझाना आसान नहीं होता। / पल्लवी मिश्रा
- 1.10 जीवन – 2 / संगीता गुप्ता
- 1.11 प्याला / हरिवंशराय बच्चन
- 1.12 जीवन – संध्या / नरेन्द्र देव वर्मा
- 1.13 जीवन में अरमानों का आदान-प्रदान नहीं होता / बलबीर सिंह ‘रंग’
- 1.14 राहें बड़ी कठिन जीवन की / गिरधारी सिंह गहलोत
- 1.15 जीवन की ही जय हो / मैथिलीशरण गुप्त
- 1.16 जीवन / अरुण देव
- 1.17 जीवन / महादेवी वर्मा
- 1.18 जीवन की बगिया महकेगी / गोपालदास “नीरज”
- 1.19 जीवन की ढलने लगी साँझ / अटल बिहारी वाजपेयी
- 1.20 मैं जीवन में कुछ कर न सका / हरिवंशराय बच्चन
- 1.21 जीवन का झरना / आरसी प्रसाद सिंह
- 1.22 जीवन की चंचल सरिता में / सुमित्रानंदन पंत
- 1.23 जीवन दीप / महादेवी वर्मा
- 1.24 जीवन का यथार्थ / सुधेश
- 1.25 जीवन-संगीत / रामधारी सिंह “दिनकर”
- 1.26 सब जीवन बीता जाता है / जयशंकर प्रसाद
- 1.27 जीवन की सच्चाई है / कमलेश द्विवेदी
- 1.28 जीवन की एक कहानी है / रामकुमार वर्मा
- 1.29 मेरा जीवन / सुभद्राकुमारी चौहान
- 1.30 विरह का जलजात जीवन / महादेवी वर्मा
- 1.31 जीवन की आपाधापी में / हरिवंशराय बच्चन
- 1.32 संघर्ष हो जीवन / श्याम तमोट
- 1.33 जीवन की महिमा / कबीर
- 1.34 जीवन का अर्थ / त्रिपुरारि कुमार शर्मा
- 1.35 जीवन : एक संग्राम / सुदर्शन वशिष्ठ
- 1.36 Related Posts:
जल ही जीवन है / शास्त्री नित्यगोपाल कटारे
जल ही जीवन है
जल से हुआ सृष्टि का उद्भव जल ही प्रलय घन है
जल पीकर जीते सब प्राणी जल ही जीवन है।।
शीत स्पर्शी शुचि सुख सर्वस
गन्ध रहित युत शब्द रूप रस
निराकार जल ठोस गैस द्रव
त्रिगुणात्मक है सत्व रज तमस
सुखद स्पर्श सुस्वाद मधुर ध्वनि दिव्य सुदर्शन है ।
जल पीकर जीते सब प्राणी जल ही जीवन है ।।
भूतल में जल सागर गहरा
पर्वत पर हिम बनकर ठहरा
बन कर मेघ वायु मण्डल में
घूम घूम कर देता पहरा
पानी बिन सब सून जगत में ,यह अनुपम धन है ।
जल पीकर जीते सब प्राणी जल ही जीवन है ।।
नदी नहर नल झील सरोवर
वापी कूप कुण्ड नद निर्झर
सर्वोत्तम सौन्दर्य प्रकृति का
कल-कल ध्वनि संगीत मनोहर
जल से अन्न पत्र फल पुष्पित सुन्दर उपवन है ।
जल पीकर जीते सब प्राणी जल ही जीवन है ।।
बादल अमृत-सा जल लाता
अपने घर आँगन बरसाता
करते नहीं संग्रहण उसका
तब बह॰बहकर प्रलय मचाता
त्राहि-त्राहि करता फिरता, कितना मूरख मन है ।
जल पीकर जीते सब प्राणी जल ही जीवन है ।।
क्षणभंगुर जीवन / महावीर प्रसाद ‘मधुप’
अलकावलि मंजु सुगंध सनी, बनी नागिन-सी लहराती रही,
अरविन्द से आनन पे मधुपावलि मुग्ध हुई मँडराती रही।
जलदीप शिखा-सी सुदेह सदा, मन प्रेमी पंतग जलाती रही,
अति रूपवती रति-सी रमणी नित मान भरी इठलाती रही।
मृदु बैन से मोहित कोई हुआ, शर-नैन का कोई था निशाना बना,
मुस्कान का मौन पुजारी कोई, कोई रूप का था परवाना बना।
दिल चीर अदाएँ किसी का गईं, मजनू-सा कोई था दिवाना बना,
किसकी-किसकी कहें बात की था जब चाहक सारा ज़मान बना।
ढुलकी नव-यौवन की मदिरा तन जर्जर रोग शिकार हुआ,
उड़ प्राण पखेरू गए पल में जब काल का वज्र प्रहार हुआ।
वह कंचन जैसा कलेवर भी कुछ ही क्षण में जल क्षार हुआ,
कुछ अस्थियाँ शेष बची बिखरीं सपना सब साज-सिंगार हुआ।
क्षणभंगुर जीवन है, न सदा रहती है बहरो-जवानी यहाँ,
यह रूप की चांदनी दो दिन है, हर चीज़ है नश्वर-फ़ानी यहाँ।
जनमे जितने भी गए जग से, बच पाया न एक भी प्रानी यहाँ,
कहने के लिए कुछ रोज़ को ही रह जाती किसी की कहानी यहाँ।
जग-जीवन में जो चिर महान / सुमित्रानंदन पंत
जग-जीवन में जो चिर महान,
सौंदर्य-पूर्ण औ सत्य-प्राण,
मैं उसका प्रेमी बनूँ, नाथ!
जिसमें मानव-हित हो समान!
जिससे जीवन में मिले शक्ति,
छूटे भय, संशय, अंध-भक्ति;
मैं वह प्रकाश बन सकूँ, नाथ!
मिट जावें जिसमें अखिल व्यक्ति!
दिशि-दिशि में प्रेम-प्रभा प्रसार,
हर भेद-भाव का अंधकार,
मैं खोल सकूँ चिर मुँदे, नाथ!
मानव के उर के स्वर्ग-द्वार!
पाकर, प्रभु! तुमसे अमर दान
करने मानव का परित्राण,
ला सकूँ विश्व में एक बार
फिर से नव जीवन का विहान!
जीवन और शतरंज / मनोज चौहान
जीवन और शतरंज में
आता नहीं है ठहराव कहीं भी
हारे हुए सिपाही के
न रहते हुए भी
चलते रहते हैं ये
अनवरत ही।
कौन किसे कब मात देगा
ये कहना मुश्किल है
मगर ये सच है कि
बैठे हैं घातिये हर ओर
घात लगाकर।
हर कदम पर
सतर्क रहते लड़ना होगा
यह नियम है
भावनाओं के आवेश में
मुश्किल हो जाता है
खेल और भी
एक हल्की सी चूक पर
समर्थ होते हुए भी
बजीर पिट जाता है
मात्र प्यादे से ही।
होता है आकंलन
सही और गलत का
खेल की समाप्ति पर
हार – जीत
यश-अपयश
और चलते है दौर
मंथन के भी।
चौकोर शतरंज की विसात पर
मरे हुए प्यादे
हाथी, घोड़े
पुनः खड़े हो जाते हैं
बाजी ख़त्म होने पर
नए खेल के लिए।
किन्तु
जीवन-शतरंज की विसात पर
नहीं लौटता है कोई भी
एक बार चले जाने के बाद
रह जाती है शेष
मात्र स्मृतियाँ ही
जीवन और शतरंज में
अंतर है मात्र
इतना सा ही।
जीवन है एक डगर सुहानी / अभिषेक कुमार अम्बर
जीवन है एक डगर सुहानी
सुख दुःख इसके साथी हैं,
कर संघर्ष हमें जीवन में
मंजिल अपनी पानी हैं ।
बड़ी दूर है मंज़िल अपनी
लंबा बड़ा है इसका रास्ता,
चलता रह बस तू चलता रह
पाकर मंजिल लेना सस्ता।
चल दिखला दे सबको तू
बाकी तुझमें जो जवानी है,
कर संघर्ष हमें जीवन में
मंजिल अपनी पानी है।
मानो मेरी बात सखे तुम
जीवन को न व्यर्थ गँवाना,
याद रखे तुझको ये दुनिया
कर्म कुछ ऐसे करके जाना।
इतिहास के पन्नों पर
लिखनी एक नयी कहानी है।
कर संघर्ष हमें जीवन में
मंजिल अपनी पानी है।
चलते रहना सदा ओ राही
मंजिल तुझको मिल जायेगी,
बस तू थोडा धैर्य रखना
मेहनत तेरी रंग लाएगी।
करके रहना उसको पूरा
मन में जो तूने ठानी है।
कर संघर्ष हमें जीवन में
मंजिल अपनी पानी है।
जीवन की तलाश में / नीरजा हेमेन्द्र
बड़े शहर के फ्लैट की
एक छोटी-सी बालकनी में
गिर रही हैं पानी की बूँदें
छम… छम… छम…
गमले में उग आयी चमेली के
नन्हें श्वेत पुश्प लहरा-लहार कर
कर रहे हैं अभिनन्दन सावन का
भीनी-भीनी सुगन्ध से महक उठी है
छोटी-सी बालकनी मेरी
शहर में सावन आ गया है
हाँ! सावन ही तो है
दिख रहे आसमान के एक टुकड़े में
उड़ रहे हैं जामुनी बादल
मकड़जाल से गुँथे फ्लैटों की दीवारों से
आ रहा गंदला-सा, कूड़े कचरे से भरा पानी
सड़कों पर भरने लगा है
शहर के इस सावन से भीगी
मेरी आँखें धुँधली हो उठी हैं
मन उड़ चला है गाँव की ओर…
जहाँ घर… दालान… आँगन…
खुली छत… खुली दिशायें… निर्बाध पगडंडियाँ…
पूरा आसमान भर उठता था
सावन के श्यामल बादलों से
बारिश का प्रथम फुहार से धुल जाते थे
पत्ते… खेत… वृक्ष… सृश्टि…
बारिश में मेरे साथ भीगती गौरैया
मुंडेर पर गीले पंखों को सुखाती
मेरी हथेलियों से चुगती चावल के दाने
उड़ जाती इन्द्रधनुशी आसमान में सैर करने
बागों में पके फालसे, जामुन, आम
मन में बसी है गाँव की मिठास
गाँवों में जीवन है…
गाँवों की हवाओं में जीवन है…
गाँवों के दालानों में जीवन है…
शहर के जनसमुद्र में अकेले घूमता व्यक्ति
जीवन की तलाश में जब शहर में आया था
वह नही जान पाया
अपना जीवन गाँव में छोड़ आया था।
जीवन की सार्थकता / सलिल तोपासी
अच्छे पलों को तस्वीरों में बन्द कर के
आदमी सदियों पुरानी यादों को जीता है,
कभी उन बीती हुई बुरी यादों की ओर
उस का ध्यान क्यों नहीं जाता है?
आदमी के जीवन में कहीं न कहीं
उन बेदर्द पलों का कोई मोल तो होगा
जिसके बाद हर हसीन पल, याद की बारी आती है,
उसी को आदमी भूल जाता है।
आखिर क्यों?
वे गलतियाँ, तमाम बेरुखीपन और नाराज़गी
सब कुछ अनुभव ही तो था
एक नए खुशहाल पल के इंतज़ार में ।
बीते हुए कल को भूल जाने में ही भलाई है
लेकिन उसे भुलाने के लिए याद तो करना चाहिए?
मीठे पलों के सहारे आदमी जीवन बिता लेता है
किंतु
खट्टे और कड़वे पलों से आदमी सीखता है,
समझता है और जीवन को जीता है।
जीवन-फूल / सुभद्राकुमारी चौहान
मेरे भोले मूर्ख हृदय ने
कभी न इस पर किया विचार।
विधि ने लिखी भाल पर मेरे
सुख की घड़ियाँ दो ही चार॥
छलती रही सदा ही
मृगतृष्णा सी आशा मतवाली।
सदा लुभाया जीवन साकी ने
दिखला रीती प्याली॥
मेरी कलित कामनाओं की
ललित लालसाओं की धूल।
आँखों के आगे उड़-उड़ करती है
व्यथित हृदय में शूल॥
उन चरणों की भक्ति-भावना
मेरे लिए हुई अपराध।
कभी न पूरी हुई अभागे
जीवन की भोली सी साध॥
मेरी एक-एक अभिलाषा
का कैसा ह्रास हुआ।
मेरे प्रखर पवित्र प्रेम का
किस प्रकार उपहास हुआ॥
मुझे न दुख है
जो कुछ होता हो उसको हो जाने दो।
निठुर निराशा के झोंकों को
मनमानी कर जाने दो॥
हे विधि इतनी दया दिखाना
मेरी इच्छा के अनुकूल।
उनके ही चरणों पर
बिखरा देना मेरा जीवन-फूल॥
जीवन की पहेली को सुलझाना आसान नहीं होता। / पल्लवी मिश्रा
जीवन की पहेली को सुलझाना आसान नहीं होता।
प्रारब्ध की हकीकत को झुठलाना आसान नहीं होता।
ख़्वाबों का शीशमहल यूँ तो हर कोई बना सकता है।
उसको तूफां, बारिश, ओले से बचाना आसान नहीं होता।
ईंट, गारे, पत्थर से दीवारें, छत बन सकती हैं शायद,
पर हर एक मकां को घर बनाना आसान नहीं होता।
वह सत्युग की बात थी, जब राम ने कठिन वचन निभाया,
कलयुग में कसमों को निभाना आसान नहीं होता।
प्रेम, आस्था, भक्ति हो तो पत्थर भी बन जाए खुदा,
पर किसी पत्थर को इंसान बनाना आसान नहीं होता।
धूप, कपूर, चंदन की आहुति हर पूजा में दी जाती है,
आहुति में अहं जलाना आसान नहीं होता।
जिस्म पर लगी हर चोट यूँ तो काबिल-ए-बर्दाश्त है,
दिल पर मगर जो चोट लगे, सह पाना आसान नहीं होता।
मिट्टी हो अनुकूल अगर, उपवन जाता फूलों से भर,
पर सहराओं में फूल खिलाना आसान नहीं होता।
जीवन – 2 / संगीता गुप्ता
जहाँ
सब खत्म हो गया, अचानक
वहीं – उसी छोर पर
पल भर में
नयी दुनिया: एक नन्हीं – सी कोंपल
हिलाने लगी हाथ
उस कोंपल की हरियाली में
डूब जाती है
यह डूबना उसे भर देता है
उबरने के
एहसास से
आपाद
नमी से…
प्याला / हरिवंशराय बच्चन
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
१.
कल काल-रात्रि के अंधकार
में थी मेरी सत्ता विलीन,
इस मूर्तिमान जग में महान
था मैं विलुप्त कल रूप-हीं,
कल मादकता थी भरी नींद
थी जड़ता से ले रही होड़,
किन सरस करों का परस आज
करता जाग्रत जीवन नवीन ?
मिट्टी से मधु का पात्र बनूँ–
किस कुम्भकार का यह निश्चय ?
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
२.
भ्रम भूमि रही थी जन्म-काल,
था भ्रमित हो रहा आसमान,
उस कलावान का कुछ रहस्य
होता फिर कैसे भासमान.
जब खुली आँख तब हुआ ज्ञात,
थिर है सब मेरे आसपास;
समझा था सबको भ्रमित किन्तु
भ्रम स्वयं रहा था मैं अजान.
भ्रम से ही जो उत्पन्न हुआ,
क्या ज्ञान करेगा वह संचय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
३.
जो रस लेकर आया भू पर
जीवन-आतप ले गया छिन,
खो गया पूर्व गुण,रंग,रूप
हो जग की ज्वाला के अधीन;
मैं चिल्लाया ‘क्यों ले मेरी
मृदुला करती मुझको कठोर ?’
लपटें बोलीं,’चुप, बजा-ठोंक
लेगी तुझको जगती प्रवीण.’
यह,लो, मीणा बाज़ार जगा,
होता है मेरा क्रय-विक्रय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
४.
मुझको न ले सके धन-कुबेर
दिखलाकर अपना ठाट-बाट,
मुझको न ले सके नृपति मोल
दे माल-खज़ाना, राज-पाट,
अमरों ने अमृत दिखलाया,
दिखलाया अपना अमर लोक,
ठुकराया मैंने दोनों को
रखकर अपना उन्नत ललाट,
बिक,मगर,गया मैं मोल बिना
जब आया मानव सरस ह्रदय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
५.
बस एक बार पूछा जाता,
यदि अमृत से पड़ता पाला;
यदि पात्र हलाहल का बनता,
बस एक बार जाता ढाला;
चिर जीवन औ’ चिर मृत्यु जहाँ,
लघु जीवन की चिर प्यास कहाँ;
जो फिर-फिर होहों तक जाता
वह तो बस मदिरा का प्याला;
मेरा घर है अरमानो से
परिपूर्ण जगत् का मदिरालय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
६.
मैं सखी सुराही का साथी,
सहचर मधुबाला का ललाम;
अपने मानस की मस्ती से
उफनाया करता आठयाम;
कल क्रूर काल के गलों में
जाना होगा–इस कारण ही
कुछ और बढा दी है मैंने
अपने जीवन की धूमधाम;
इन मेरी उलटी चालों पर
संसार खड़ा करता विस्मय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
७.
मेरे पथ में आ-आ करके
तू पूछ रहा है बार-बार,
‘क्यों तू दुनिया के लोगों में
करता है मदिरा का प्रचार ?’
मैं वाद-विवाद करूँ तुझसे
अवकाश कहाँ इतना मुझको,
‘आनंद करो’–यह व्यंग्य भरी
है किसी दग्ध-उर की पुकार;
कुछ आग बुझाने को पीते
ये भी,कर मत इन पर संशय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
८.
मैं देख चुका जा मसजिद में
झुक-झुक मोमिन पढ़ते नमाज़,
पर अपनी इस मधुशाला में
पीता दीवानों का समाज;
यह पुण्य कृत्य,यह पाप क्रम,
कह भी दूँ,तो क्या सबूत;
कब कंचन मस्जिद पर बरसा,
कब मदिरालय पर गाज़ गिरी ?
यह चिर अनादि से प्रश्न उठा
मैं आज करूँगा क्या निर्णय ?
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
९.
सुनकर आया हूँ मंदिर में
रटते हरिजन थे राम-राम,
पर अपनी इस मधुशाला में
जपते मतवाले जाम-जाम;
पंडित मदिरालय से रूठा,
मैं कैसे मंदिर से रूठूँ ,
मैं फर्क बाहरी क्या देखूं;
मुझको मस्ती से महज काम.
भय-भ्रान्ति भरे जग में दोनों
मन को बहलाने के अभिनय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
१०.
संसृति की नाटकशाला में
है पड़ा तुझे बनना ज्ञानी,
है पड़ा तुझे बनना प्याला,
होना मदिरा का अभिमानी;
संघर्ष यहाँ किसका किससे,
यह तो सब खेल-तमाशा है,
यह देख,यवनिका गिरती है,
समझा कुछ अपनी नादानी !
छिप जाएँगे हम दोनों ही
लेकर अपना-अपना आशय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
११.
पल में मृत पीने वाले के
कल से गिर भू पर आऊँगा,
जिस मिट्टी से था मैं निर्मित
उस मिट्टी में मिल जाऊँगा;
अधिकार नहीं जिन बातों पर,
उन बातों की चिंता करके
अब तक जग ने क्या पाया है,
मैं कर चर्चा क्या पाऊँगा ?
मुझको अपना ही जन्म-निधन
‘है सृष्टि प्रथम,है अंतिम ली.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
जीवन – संध्या / नरेन्द्र देव वर्मा
जीवन की संध्या समीप है
मृत्यु खड़ी है द्वारे
प्राण-विहग ने नीड़ छोड़ने
को अब पंख पसारे।
दिवस ढला इस आशा में
सांझ भये घर आओगे,
रात गई इस प्रत्याशा में
भोर भये घर आओगे,
दिवस दे गया एक विकलता
रात ले गई आशा।
खड़ा रह गया यहां अकेले
गिनते-गिनते तारे।
बादल आये, गरजे – घुमड़े
बिन बरसे घन लौट गये,
प्रिय तुम आये, बिना कहे
कुछ सूने द्वार से लौट गये,
धरती की सौंधी उसांस
है विकल प्यास की माया।
अनागता सी सुधियां आई
बादल पंख पसारे।
विहग विहंसते प्राण तरसते
प्यास विकल है इस मन की
ह्रदय रिक्त है अश्रुसिक्त है
रीति अनोखी है तन की
माटी में मिल गई हमारी
सोने जैसी काया।
और पपीहा पागल रह-रह
पीड़ा सकल उभारे।
गीत अधूरे ह्रदय-बीन के
आशा-तारे न कसे कभी,
स्वर मुमूर्छ है, ग्राम भुलाया
टीस कंठ में बसी अभी,
कोने जनम का बैर भुनाया
जीवन भर भरमाया।
चले जा रहे इस जग से
जपते नाम तुम्हारे।
जीवन में अरमानों का आदान-प्रदान नहीं होता / बलबीर सिंह ‘रंग’
जीवन में अरमानों का आदान-प्रदान नहीं होता।
मैंने ऐसा मनुज न देखा
अन्तर में अरमान न जिसके,
शाप बने वरदान न जिसके।
पंथी को क्या ज्ञात कि
पथ की जड़ता में चेतनता है?
पंथी के श्रम स्वेद-कणों से
पथ गतिमान नहीं होता है।
जीवन में अरमानों का आदान-प्रदान नहीं होता।
यदि मेरे अरमान किसी के
उर पाहन तक पहुँच न पाये,
अचरज की कुछ बात नहीं
जो जग ने मेरे गीत न गाये।
यह कह कर संतोष कर लिया-
करता हूँ मैं अपने उर में,
अरुण शिखा के बिना कहीं
क्या स्वर्ण-बिहान नहीं होता है?
जीवन में अरमानों का आदान-प्रदान नहीं होता।
मैं ही नहीं अकेला आकुल
मेरी भाँति दुखी जन अनगिन,
एक बार सब के जीवन में
आते गायन रोदन के क्षण,
फिर भी सब के मन का सुख-दुख
एक समान नहीं होता है।
जीवन में अरमानों का आदान-प्रदान नहीं होता।
राहें बड़ी कठिन जीवन की / गिरधारी सिंह गहलोत
राहें बड़ी कठिन जीवन की,
छोड़ मुझे मत जाना साथी
कुसुमों के लालन पालन में
यौवन के दिन बीत गए हैं
धीरे धीरे अनजाने कब
आयु के घट रीत गए हैं
कैसा भी मौसम आया पर
हर पल हर क्षण लड़ना सीखा
हालातों से हार न मानी
बाधाओं से जीत गए हैं
प्रीत बनी आधार हमेशा
जुड़ा रहा ये अनुपम बंधन
दिन गुजरे हैं सदा प्रीत का
बुनकर तानाबाना साथी
राहें बड़ी कठिन….
जीवन की संध्या बेला है,
घड़ी परीक्षा की अब आई
जैसा भी माहौल मिले आ
करें समय से हाथापाई
पुत्र गए परदेश कमाने
और सुता है पी के घर अब
बन कर ही अवलम्ब परस्पर
दूर कर सकें ये तन्हाई
चाहे दुख की छाई बदली
उमड़ा सुख का कभी समंदर
अब तक साथ निभाते आये ,
थोड़ा और निभाना साथी
राहें बड़ी कठिन ……
की शुरुआत जहाँ से हमने
लो वैसे ही दिन फिर आये
फिर से उन एकांत पलों की
सुधियों के बादल घिर आये
प्रीत मानती कहाँ प्रिये ! कब
बढ़ती आयु का ये बंधन
रहे अधूरे अब तक हैं जो
नयनों में सपने तिर आये
संबल लेकर विश्वासों का
भर कर नया रंग आशा का
पुनः करें आरम्भ प्यार का
भूला वह अफसाना साथी
राहें बड़ी कठिन जीवन की,
छोड़ मुझे मत जाना साथी
जीवन की ही जय हो / मैथिलीशरण गुप्त
मृषा मृत्यु का भय है
जीवन की ही जय है ।
जीव की जड़ जमा रहा है
नित नव वैभव कमा रहा है
यह आत्मा अक्षय है
जीवन की ही जय है।
नया जन्म ही जग पाता है
मरण मूढ़-सा रह जाता है
एक बीज सौ उपजाता है
सृष्टा बड़ा सदय है
जीवन की ही जय है।
जीवन पर सौ बार मरूँ मैं
क्या इस धन को गाड़ धरूँ मैं
यदि न उचित उपयोग करूँ मैं
तो फिर महाप्रलय है
जीवन की ही जय है।
जीवन / अरुण देव
क़लम उठाकर उसने पहला शब्द लिखा
जीवन
तपते पठार थे झाड़ियाँ थीं
था कुम्हलाया हरा-सा रंग
चीड़ के पत्तों पर पहाड़ों की उदासी
बर्फ़ की तरह रुकी थी
उसमें डोल रहे थे चमकीली सुबह के उदग्र छौने
नदियों के जल में बसी हवा पीने चला आया था सूरज
मछलियों के गलफ़ड़े में बचा था फिर भी जीवन
असफलताओं के बीच यह अन्तिम विश्वास की तरह था ।
जीवन / महादेवी वर्मा
तुहिन के पुलिनों पर छबिमान,
किसी मधुदिन की लहर समान;
स्वप्न की प्रतिमा पर अनजान,
वेदना का ज्यों छाया-दान;
विश्व में यह भोला जीवन—
स्वप्न जागृति का मूक मिलन,
बांध अंचल में विस्मृतिधन,
कर रहा किसका अन्वेषण?
धूलि के कण में नभ सी चाह,
बिन्दु में दुख का जलधि अथाह,
एक स्पन्दन में स्वप्न अपार,
एक पल असफलता का भार;
सांस में अनुतापों का दाह,
कल्पना का अविराम प्रवाह;
यही तो है इसके लघु प्राण,
शाप वरदानों के सन्धान!
भरे उर में छबि का मधुमास,
दृगों में अश्रु अधर में हास,
ले रहा किसका पावसप्यार,
विपुल लघु प्राणों में अवतार?
नील नभ का असीम विस्तार,
अनल के धूमिल कण दो चार,
सलिल से निर्भर वीचि-विलास
मन्द मलयानिल से उच्छ्वास,
धरा से ले परमाणु उधार,
किया किसने मानव साकार?
दृगों में सोते हैं अज्ञात
निदाघों के दिन पावस-रात;
सुधा का मधु हाला का राग,
व्यथा के घन अतृप्ति की आग।
छिपे मानस में पवि नवनीत,
निमिष की गति निर्झर के गीत,
अश्रु की उर्म्मि हास का वात,
कुहू का तम माधव का प्रात।
हो गये क्या उर में वपुमान,
क्षुद्रता रज की नभ का मान,
स्वर्ग की छबि रौरव की छाँह,
शीत हिम की बाड़व का दाह?
और—यह विस्मय का संसार,
अखिल वैभव का राजकुमार,
धूलि में क्यों खिलकर नादान,
उसी में होता अन्तर्धान?
काल के प्याले में अभिनव,
ढाल जीवन का मधु आसव,
नाश के हिम अधरों से, मौन,
लगा देता है आकर कौन?
बिखर कर कन कन के लघुप्राण,
गुनगुनाते रहते यह तान,
“अमरता है जीवन का ह्रास,
मृत्यु जीवन का परम विकास”।
दूर है अपना लक्ष्य महान,
एक जीवन पग एक समान;
अलक्षित परिवर्तन की डोर,
खींचती हमें इष्ट की ओर।
छिपा कर उर में निकट प्रभात,
गहनतम होती पिछली रात;
सघन वारिद अम्बर से छूट,
सफल होते जल-कण में फूट।
स्निग्ध अपना जीवन कर क्षार,
दीप करता आलोक-प्रसार;
गला कर मृतपिण्डों में प्राण,
बीज करता असंख्य निर्माण।
सृष्टि का है यह अमिट विधान,
एक मिटने में सौ वरदान,
नष्ट कब अणु का हुआ प्रयास,
विफलता में है पूर्ति-विकास।
जीवन की बगिया महकेगी / गोपालदास “नीरज”
जीवन की बगिया महकेगी, लहकेगी, चहकेगी
खुशियों की कलियाँ झूमेंगी, झूलेंगी, फूलेंगी
जीवन की बगिया…
वो मेरा होगा, वो सपना तेरा होगा
मिलजुल के माँगा, वो तेरा मेरा होगा
जब जब वो मुस्कुराएगा, अपना सवेरा होगा…
थोड़ा हमारा थोड़ा तुम्हारा,
आयेगा फिर से बचपन हमारा
जीवन की बगिया…
हम और बंधेंगे, हम तुम कुछ और बंधेंगे
होगा कोई बीच, तो हम तुम और बंधेंगे
बांधेगा धागा कच्चा, हम तुम तब और बंधेंगे…
थोड़ा हमारा थोड़ा तुम्हारा
आयेगा फिर से बचपन हमारा
जीवन की बगिया…
मेरा राजदुलारा, वो जीवन प्राण हमारा
फूलेगा एक फूल, खिलेगा प्यार हमारा
दिन का वो सूरज होगा, रातों का चांद सितारा…
थोड़ा हमारा थोड़ा तुम्हारा
आयेगा फिर से बचपन हमारा
जीवन की बगिया…
जीवन की ढलने लगी साँझ / अटल बिहारी वाजपेयी
जीवन की ढलने लगी सांझ
उमर घट गई
डगर कट गई
जीवन की ढलने लगी सांझ।
बदले हैं अर्थ
शब्द हुए व्यर्थ
शान्ति बिना खुशियाँ हैं बांझ।
सपनों में मीत
बिखरा संगीत
ठिठक रहे पांव और झिझक रही झांझ।
जीवन की ढलने लगी सांझ।
मैं जीवन में कुछ कर न सका / हरिवंशराय बच्चन
मैं जीवन में कुछ न कर सका!
जग में अँधियारा छाया था,
मैं ज्वाला लेकर आया था
मैंने जलकर दी आयु बिता, पर जगती का तम हर न सका!
मैं जीवन में कुछ न कर सका!
अपनी ही आग बुझा लेता,
तो जी को धैर्य बँधा देता,
मधु का सागर लहराता था, लघु प्याला भी मैं भर न सका!
मैं जीवन में कुछ न कर सका!
बीता अवसर क्या आएगा,
मन जीवन भर पछताएगा,
मरना तो होगा ही मुझको, जब मरना था तब मर न सका!
मैं जीवन में कुछ न कर सका!
जीवन का झरना / आरसी प्रसाद सिंह
यह जीवन क्या है? निर्झर है, मस्ती ही इसका पानी है।
सुख-दुख के दोनों तीरों से चल रहा राह मनमानी है।
कब फूटा गिरि के अंतर से? किस अंचल से उतरा नीचे?
किस घाटी से बह कर आया समतल में अपने को खींचे?
निर्झर में गति है, जीवन है, वह आगे बढ़ता जाता है!
धुन एक सिर्फ़ है चलने की, अपनी मस्ती में गाता है।
बाधा के रोड़ों से लड़ता, वन के पेड़ों से टकराता,
बढ़ता चट्टानों पर चढ़ता, चलता यौवन से मदमाता।
लहरें उठती हैं, गिरती हैं; नाविक तट पर पछताता है।
तब यौवन बढ़ता है आगे, निर्झर बढ़ता ही जाता है।
निर्झर कहता है, बढ़े चलो! देखो मत पीछे मुड़ कर!
यौवन कहता है, बढ़े चलो! सोचो मत होगा क्या चल कर?
चलना है, केवल चलना है ! जीवन चलता ही रहता है !
रुक जाना है मर जाना ही, निर्झर यह झड़ कर कहता है !
जीवन की चंचल सरिता में / सुमित्रानंदन पंत
जीवन की चंचल सरिता में
फेंकी मैंने मन की जाली,
फँस गईं मनोहर भावों की
मछलियाँ सुघर, भोली-भाली।
मोहित हो, कुसुमित-पुलिनों से
मैंने ललचा चितवन डाली,
बहु रूप, रंग, रेखाओं की
अभिलाषाएँ देखी-भालीं।
मैंने कुछ सुखमय इच्छाएँ
चुन लीं सुन्दर, शोभाशाली,
औ’ उनके सोने-चाँदी से
भर ली प्रिय प्राणों की डाली।
सुनता हूँ, इस निस्तल-जल में
रहती मछली मोतीवाली,
पर मुझे डूबने का भय है
भाती तट की चल-जल-माली।
आएगी मेरे पुलिनों पर
वह मोती की मछली सुन्दर,
मैं लहरों के तट पर बैठा
देखूँगा उसकी छबि जी भर।
रचनाकाल: फ़रवरी’ १९३२
जीवन दीप / महादेवी वर्मा
किन उपकरणों का दीपक,
किसका जलता है तेल?
किसकि वर्त्ति, कौन करता
इसका ज्वाला से मेल?
शून्य काल के पुलिनों पर-
जाकर चुपके से मौन,
इसे बहा जाता लहरों में
वह रहस्यमय कौन?
कुहरे सा धुँधला भविष्य है,
है अतीत तम घोर ;
कौन बता देगा जाता यह
किस असीम की ओर?
पावस की निशि में जुगनू का-
ज्यों आलोक-प्रसार।
इस आभा में लगता तम का
और गहन विस्तार।
इन उत्ताल तरंगों पर सह-
झंझा के आघात,
जलना ही रहस्य है बुझना –
है नैसर्गिक बात !
जीवन का यथार्थ / सुधेश
जीवन के काले यथार्थ ने उज्ज्वल सपनों में भटकाया ।
जीवन अमृतघट से वंचित
उस की झलक मिली सपनों में
उसे छीन भागे दुश्मन जो
शामिल थे मेरे अपनों में ।
सपनों में ही ख़ुश हो लो बस ऊपर वाले ने समझाया ।
सपनों पर मेरा क्या क़ाबू
वे तो हैं बस मन की छलना
जीवन में ज्यों भटक रहा हूँ
वैसे ही सपनों में चलना ।
मंज़िल तो बस मृगतृष्णा है जीवन सन्ध्या ने बतलाया ।
नहीं नियति में मेरी श्रद्धा
भाग्यविधाता होगा कोई
सपने तो शीशे के घर हैं
उन्हें तोड़ मुस्काता कोई ।
मैं यथार्थ का पूजक चाहे जग ने मुझ को हिरण बनाया ।
ठोस जगत है जीवन माया
लेकिन मन का शीशा कोमल
पाषाणों की वर्षा होती
जीवन शीशमहल का जंगल ।
मरुथल में मृग भटक रहा है लेकिन जल का स़़ोत न पाया ।
जीवन-संगीत / रामधारी सिंह “दिनकर”
जीवन संगीत
कंचन थाल सजा सौरभ से
ओ फूलों की रानी!
अलसाई-सी चली कहो,
करने किसकी अगवानी?
वैभव का उन्माद, रूप की
यह कैसी नादानी!
उषे! भूल जाना न ओस की
कारुणामयी कहानी।
ज़रा देखना गगन-गर्भ में
तारों का छिप जाना;
कल जो खिले आज उन फूलों
का चुपके मुरझाना।
रूप-राशि पर गर्व न करना,
जीवन ही नश्वर है;
छवि के इसी शुभ्र उपवन में
सर्वनाश का घर है।
सपनों का यह देश सजनि!
किसका क्या यहाँ ठिकाना?
पाप-पुण्य का व्यर्थ यहाँ
बुनते हम ताना-बाना।
प्रलय-वृन्त पर डोल रहा है
यह जीवन दीवाना,
अरी, मौत का निःश्वासों से
होगा मोल चुकाना।
सर्वनाश के अट्टहास से
गूँज रहा नभ सारा;
यहाँ तरी किसकी छू सकती
वह अमरत्व-किनारा?
एक-एक कर डुबो रहा
नावों को प्रलय अकेला,
और इधर तट पर जुटता है
वैभव-मद का मेला।
सृष्टि चाट जाने को बैठी
निर्भय मौत अकेली;
जीवन की नाटिका सजनि! है
जग में एक पहेली।
यहाँ देखता कौन कि यह
नत-मस्तक, वह अभिमानी?
उठता एक हिलोर, डूबते
पंडित औ अज्ञानी।
यह संग्रह किस लिए? हाय,
इस जग में क्या अक्षय है?
अपने क्रूर करों से छूता
सब को यहाँ प्रलय है।
लो, वह देखो, वीर सिकन्दर
सारी दुनिया छोड़,
दो गज़ ज़मीं ढूँढ़ने को
चल पड़ा कब्र की ओर।
सोमनाथ-मंदिर का सोना
ताक रहा है राह,
ओ महमूद! कब्र से उठकर
पहनो जरा सनाह।
सुनते नहीं रूस से लन्दन
तक की यह ललकार?
बोनापार्ट! हिलेना में
सोये क्यों पाँव पसार?
और, गाल के फूलों पर क्यों
तू भूली अलबेली?
बिना बुलाये ही आती
होगी वह मौत सहेली।
सुंदरता पर गर्व न करना
ओ स्वरूप की रानी!
समय-रेत पर उतर गया
कितने मोती का पानी।
रंथी-रथ से उतर चिता
का देखोगी संसार,
जरा खोजना उन लपटों में
इस यौवन का सार।
प्रिय-चुम्बित यह अधर और
उन्नत उरोज सुकुमार सखी!
आज न तो कल श्वान-शृगालों
के होंगे आहार सखी!
दो दिन प्रिय की मधुर सेज पर
कर लो प्रणय-विहार सखी?
चखना होगा तुम्हें एक दिन
महाप्रलय का प्यार सखी!
जीवन में है छिपा हुआ
पीड़ाओं का संसार सखी!
मिथ्या राग अलाप रहे हैं
इस तंत्री के तार सखी!
जिस दिन माँझी आयेगा
ले चलने को उस पार सखी!
यह मोहक जीवन देना
होगा उसको उपहार सखी!
जीवन के छोटे समुद्र में
बसी प्रलय की ज्वाला,
अमिय यहीं है और यहीं
वह प्राण-घातिनी हाला।
इस चाँदनी बाद आयेगा
यहाँ विकट अँधियाला,
यही बहुत है, छलक न पाया
जो अब तक यह प्याला।
हरा-भरा रह सका यहाँ पर
नहीं किसी का बाग सखी!
यहाँ सदा जलती रहती है
सर्वनाश की आग सखी!
१९३३
सब जीवन बीता जाता है / जयशंकर प्रसाद
सब जीवन बीता जाता है
धूप छाँह के खेल सदॄश
सब जीवन बीता जाता है
समय भागता है प्रतिक्षण में,
नव-अतीत के तुषार-कण में,
हमें लगा कर भविष्य-रण में,
आप कहाँ छिप जाता है
सब जीवन बीता जाता है
बुल्ले, नहर, हवा के झोंके,
मेघ और बिजली के टोंके,
किसका साहस है कुछ रोके,
जीवन का वह नाता है
सब जीवन बीता जाता है
वंशी को बस बज जाने दो,
मीठी मीड़ों को आने दो,
आँख बंद करके गाने दो
जो कुछ हमको आता है
सब जीवन बीता जाता है.
जीवन की सच्चाई है / कमलेश द्विवेदी
माँ गीता के श्लोक सरीखी मानस की चौपाई है.
माँ की ममता की समता में पर्वत लगता राई है.
घर की कितनी जिम्मेदारी थी बेटी के कंधों पर,
आज विदा की बेटी तब यह बात समझ में आई है.
लक्ष्मण जैसा दिखने वाला भाई विभीषण हो जाये,
फिर दिल को कैसे समझायें-भाई आखिर भाई है.
क्या होती है बहना कोई ऐसे भाई से पूछे,
त्यौहारों पर सूना जिसका माथा और कलाई है.
तन्हाई थी शादी की फिर इक प्यारा परिवार बना,
फिर बच्चों की शादी कर दी फिर से वो तन्हाई है.
आज मिली है पेन्शन मे बस यादों की मोटी अलबम,
यों तो पिता ने जीवन भर की लाखों-लाख कमाई है.
मैंने सोचा था-तुम मेरे दिल की हालत समझोगे,
तुमने भी मेरे अश्कों की कीमत आज लगाई है.
रिश्ते देते हैं मुस्कानें रिश्ते आँसू भी देते,
है तो ग़ज़ल ये रिश्तों की पर जीवन की सच्चाई है.
जीवन की एक कहानी है / रामकुमार वर्मा
जीवन की एक कहानी है।
प्रकृति आज माता बन कर
कहती यह कठिन कहानी है॥
एक मनोहर इन्द्रधनुष फैला है नील गगन में,
क्या यौवन की लहर बही है वर्षा के जीवन में?
बादल हैं किस रमणी के संकुचित बाहु-बंधन में?
एक स्वप्न की रेखा है किरणों के नव जीवन में?
नश्वरता भू पर भिक्षुक है,
पर नभ में वह रानी है॥
जीवन की एक कहानी है।
अविरत साँसों के पथ पर, प्रिय निद्रा के नर्तन में,
निशा विभाजित हो जाती है तारों के कन-कन में;
किन्तु उषा के उल्का से इस नीरव स्वर्ग-सदन में,
दिन की आग आह, लग जाती यह छल परिवर्तन में!
इस रहस्य को समझ, सुमन सूखा–
वह मुझसे ज्ञानी है॥
जीवन की एक कहानी है।
मेरा जीवन / सुभद्राकुमारी चौहान
मैंने हँसना सीखा है
मैं नहीं जानती रोना;
बरसा करता पल-पल पर
मेरे जीवन में सोना।
मैं अब तक जान न पाई
कैसी होती है पीडा;
हँस-हँस जीवन में
कैसे करती है चिंता क्रिडा।
जग है असार सुनती हूँ,
मुझको सुख-सार दिखाता;
मेरी आँखों के आगे
सुख का सागर लहराता।
उत्साह, उमंग निरंतर
रहते मेरे जीवन में,
उल्लास विजय का हँसता
मेरे मतवाले मन में।
आशा आलोकित करती
मेरे जीवन को प्रतिक्षण
हैं स्वर्ण-सूत्र से वलयित
मेरी असफलता के घन।
सुख-भरे सुनले बादल
रहते हैं मुझको घेरे;
विश्वास, प्रेम, साहस हैं
जीवन के साथी मेरे।
विरह का जलजात जीवन / महादेवी वर्मा
विरह का जलजात जीवन, विरह का जलजात!
वेदना में जन्म करुणा में मिला आवास;
अश्रु चुनता दिवस इसका, अश्रु गिनती रात!
जीवन विरह का जलजात!
आँसुओं का कोष उर, दृगु अश्रु की टकसाल;
तरल जल-कण से बने घन सा क्षणिक् मृदु गात!
जीवन विरह का जलजात!
अश्रु से मधुकण लुटाता आ यहाँ मधुमास!
अश्रु ही की हाट बन आती करुण बरसात!
जीवन विरह का जलजात!
काल इसको दे गया पल-आँसुओं का हार;
पूछता इसकी कथा निश्वास ही में वात!
जीवन विरह का जलजात!
जो तुम्हारा हो सके लीलाकमल यह आज,
खिल उठे निरुपम तुम्हारी देख स्मित का प्रात!
जीवन विरह का जलजात!
जीवन की आपाधापी में / हरिवंशराय बच्चन
जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं,
जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या।
जिस दिन मेरी चेतना जगी मैनें देखा,
मैं खड़ा हुआ हूँ दुनिया के इस मेले में,
हर एक यहां पर एक भुलावे में भूला,
हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में,
कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौंचक्का सा,
आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जगह?
फ़िर एक तरफ़ से आया ही तो धक्का सा,
मैनें भी बहना शुरु किया उस रेले में,
क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,
जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा,
जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,
जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,
जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ,
जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या।
मेला जितना भडकीला रंग-रंगीला था,
मानस के अंदर उतनी ही कमज़ोरी थी,
जितना ज़्यादा संचित करने की ख्वाहिश थी,
उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी,
जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा,
उतना ही रेले तेज़ ढकेले जाते थे,
क्रय-विक्रय तो ठंडे दिल से हो सकता है,
यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी;
अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊं,
क्या मान अकिंचन पथ पर बिखरता आया,
वह कौन रतन अनमोल मिला मुझको
जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया,
यह थी तकदीरी बात, मुझे गुण-दोष ना दो
जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली,
जिसको समझा था आंसू, वह मोती निकला
जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं,
जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या।
मैं कितना ही भूलूं, भटकूं या भरमाऊं,
है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,
कितने ही मेरे पांव पड़ें, ऊंचे-नीचे,
प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,
मुझ पर विधि का आभार बहुत सी बातों का,
पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा –
नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले,
अनवरत समय की चक्की चलती जाती है,
मैं जहां खडा था कल, उस थल पर आज नही,
कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,
ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं,
वे छू कर ही काल-देश की सीमाएं,
जग दे मुझ पर फ़ैसला जैसा उसे भाए,
लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के,
इस एक और पहलू से होकर निकल चला,
जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं,
जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या।
संघर्ष हो जीवन / श्याम तमोट
संघर्ष हो जीवन
जीवन संघर्ष हो
जीवनदेखि थाकेर बस्छु नभन
जीवनदेखि हारेर मर्छु नभन ।
जिन्दगी हो हार-जीत भइरहन्छ
बाधा पन्छाउँदै नदी बगिरहन्छ
हार भयो भनेर दुख नमान
रातपछि दिन हुन्छ हेर बिहान ।
न्याय निम्ति जिन्दगी यो लम्किरहन्छ
उज्यालो हो जिन्दगी यो चम्किरहन्छ
चेतनाको प्रवाहलाई रोक्न सकिन्न
जति छोप्न खोजे पनि सत्य छोपिन्न
जीवन की महिमा / कबीर
जीवन में मरना भला, जो मरि जानै कोय |
मरना पहिले जो मरै, अजय अमर सो होय ||
जीते जी ही मरना अच्छा है, यदि कोई मरना जाने तो| मरने के पहले ही जो मर लेता है, वह अजर – अमर हो जाता है| शरीर रहते रहते जिसके समस्त अहंकार समाप्त हो गए, वे वासना – विजयी ही जीवनमुक्त होते हैं|
मैं जानूँ मन मरि गया, मरि के हुआ भूत |
मूये पीछे उठि लगा, ऐसा मेरा पूत ||
भूलवश मैंने जाना था कि मेरा मन भर गया, परन्तु वह तो मरकर प्रेत हुआ| मरने के पश्यात भी उठकर मेरे पीछे लग पड़ा, ऐसा यह मेरा मन बालक की तरह है|
भक्त मरे क्या रोइये, जो अपने घर जाय |
रोइये साकट बपुरे, हाटों हाट बिकाय ||
जिसने अपने कल्याणरुपी अविनाशी घर को प्राप्त कर लिया, ऐसे सन्त भक्त के शरीर छोड़ने पर क्यों रोते हैं? बेचारे अभक्त – अज्ञानियों के मरने पर रोओ, जो मरकर चौरासी के बाज़ार मैं बिकने जा रहे हैं|
मैं मेरा घर जालिया, लिया पलीता हाथ |
जो घर जारो आपना, चलो हमारे साथ ||
संसार – शरीर में जो मैं – मेरापन की अहंता – ममता हो रही है – ज्ञान की आग बत्ती हाथ में लेकर इस घर को जला डालो| अपने अहंकार – घर को जला डालता है|
शब्द विचारी जो चले, गुरुमुख होय निहाल |
काम क्रोध व्यापै नहीं, कबूँ न ग्रासै काल ||
गुरुमुख शब्दों का विचार कर जो आचरण करता है, वह कृतार्थ हो जाता है| उसको काम क्रोध नहीं सताते और वह कभी मन कल्पनाओं के मुख में नहीं पड़ता|
जब लग आश शरीर की, मिरतक हुआ न जाय |
काया माया मन तजै, चौड़े रहा बजाय ||
जब तक शरीर की आशा और आसक्ति है, तब तक कोई मन को मिटा नहीं सकता| अतएव शरीर का मोह और मन की वासना को मिटाकर, सत्संग रुपी मैदान में विराजना चहिये|
मन को मिरतक देखि के, मति माने विश्वाश |
साधु तहाँ लौं भय करे, जौ लौं पिंजर साँस ||
मन को मृतक (शांत) देखकर यह विश्वास न करो कि वह अब दोखा नहीं देगा| असावधान होने पर वह पुनः चंचल हों सकता है इसलिए विवेकी सन्त मन में तब तक भय रखते हैं, जब तक शरीर में श्वास चलता है|
कबीर मिरतक देखकर, मति धरो विश्वास |
कबहुँ जागै भूत है करे पिड़का नाश ||
ऐ साधक! मन को शांत देखकर निडर मत हो| अन्यथा वह तुम्हारे परमार्थ में मिलकर जाग्रत होगा और तुम्हें प्रपंच में डालकर पतित करेगा|
अजहुँ तेरा सब मिटै, जो जग मानै हार |
घर में झजरा होत है, सो घर डारो जार ||
आज भी तेरा संकट मिट सकता है यदि संसार से हार मानकर निरभिमानी हो जाये| तुम्हारे अंधकाररुपी घर में को काम, क्रोधादि का झगड़ा हो रहा है, उसे ज्ञानाग्नि से जला डालो|
सत्संगति है सूप ज्यों, त्यागै फटकि असार |
कहैं कबीर गुरु नाम ले, परसै नहीँ विकार ||
सत्संग सूप के ही तुल्ये है, वह फटक कर असार का त्याग कर देता है| तुम भी गुरु ज्ञान लो, बुराइयों छुओ तक नहीं|
जीवन का अर्थ / त्रिपुरारि कुमार शर्मा
‘जीवन’
जिसका अर्थ
मैं जानता नहीं
मुझे जीना चाहता है।
‘मृत्यु’
जिसका अर्थ
मैंने बाबूजी से पूछा था
जाने कहाँ चले गये
बिना उत्तर दिये
शायद खेतों की ओर
नहीं, स्कूल गये होंगे
आज सात साल, तीन महीना
और बीसवाँ दिन भी बीत गया
लौट कर नहीं आये
क्या मृत्यु इसी को कहते हैं ?
हाँ, उत्तर अगर हाँ है
तो मैं जीना चाहूँगा इसे।
क्योंकि –
माँ ने आकाश से रस्सी बाँध दी है
आ गया बसंत
बसंत आ गया
सामने हवाओं का झूला है
गाँव में सज रहा मेला है
पीली बर्फ जम गई खेतों पर
हरी आग लग गई जंगल में
दृश्यों में सिमट गई दृष्टि
समय थक गया
नब्ज़ें रूक गई रफ़्तार की
लेकिन मैं बढ़ता रहा
आँधियाँ विश्राम करने लगीं
किनारे पर पहुचने से पहले
नाव ऊंघने लगी
धरती ने ठीक से पाँव छुए भी नहीं
और चलने लगी धरती।
परिवर्तन,
कुछ तो परिवर्तन हुआ
माँ ने भीगी हथेलियों से
स्पर्श किया गालों को, जगा दिया
फिर दिखाया मुझे मेरा ‘लक्ष्य’
कल रात स्वप्न में
तोड़ कर मुट्ठी भर आकाश
और कुछ अधखिले सितारे
जेब में रख गये बाबूजी
वो आकाश वो सितारे
अब भी हैं मेरी जेब में
अब भी है याद ‘लक्ष्य’
झरना चढ़ने लगा पहाड़ पर।
परिवर्तन,
कुछ तो परिवर्तन हुआ
जीवन सोचता है जिसे
क्या वही मैं हूँ
जीवन चाहता है जिसे
क्या वही मैं हूँ
जीवन माँगता है जिसे
क्या वही मैं हूँ
मैं भी सोचने लगा हूँ जीवन को
मैं भी चाहने लगा हूँ जीवन को
मैं भी माँगने लगा हूँ जीवन को।
‘जीवन’
जिसका अर्थ
मैं जानता नहीं
मुझे जीना चाहता है।
जीवन : एक संग्राम / सुदर्शन वशिष्ठ
बुजुर्गों ने कहा था
जीवन एक संग्राम है।
तब सोचते थे
कहां है जीवन एक संग्राम
कहां है धनुष और बाण
तीर तलवार
कहां हैं योद्धा
कहां युद्ध का मैदान!
यहां तो घर गांव है
रिश्ते नाते हैं
आराम से खाते पीते हैं
आंगन में खेलते हैं।
दादू सोये रहते हैं बिस्तर पर
हुक्का गुड़गुड़ाते
सोये हुये भी संग्राम लड़ा है कभी!
बड़े हुये
गिरते पड़ते खड़ा होना सीखा
खाकर ठोकरें, सोचना सीखा
तब जाना
दादू के दिमाग में भिड़ते थे योद्धा
पिता के माथे पर रेंगते थे शत्रु
भीष्म पितामह थे दादू
और पिता युधिष्ठिर या कर्ण
उन्होंने अपने संग्राम लड़े आमने सामने
नहीं उठाया शस्त्र निहत्थे परहारे हओं को क्षमा किया, गले भी लगाया।
संसार को देखा भाला
आजमाया
हमने समय खाया
तब जाना
आज भी जीवन एक संग्राम है
अब लड़ाई हथियारों से नहीं लड़ी जाती
आज लड़ाई हुई है कागज़ी
कागज़ के धनुष बाण
तीर तलवार
हथियार बना है कागज़
जन्म पत्र, प्रमाण पत्र, प्रार्थना पत्र
ग्रीटिंग कार्ड, विजिटिंग कार्ड, राशन कार्ड
सब कागज हैं
पोस्टर, ज्ञापन, विज्ञापन
नोट, प्रनोट, वोट सब कागज़ हैं
लड़ना पड़ता है लिजलिजे प्रतिद्वंद्वियों से
जिनमें न बाहुबल है न पौरुष
बराबरी का युद्ध नहीं है आज
बराबरी का योद्धा नहीं है आज
सब पाखण्डी हैं, शिखंडी हैं
सभी छिपे बैठे हैं अपनी खंदकों में
नहीं होती लड़ाई आमने सामने
किया जाता है पीठ पीछे वार
योद्धा चाहे हो, या न हो तैयार।
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