Poems On Krishna in Hindi अर्थात इस article में आप पढेंगे, कृष्ण पर हिन्दी कविताएँ. हमने आपके लिए अलग-अलग कवियों द्वारा लिखी कृष्ण पर कविताओं की collection दी है.
Poems On Krishna in Hindi – कृष्ण पर हिन्दी कविताएँ
Contents
- 1 Poems On Krishna in Hindi – कृष्ण पर हिन्दी कविताएँ
- 1.1 कुंजबनमों गोपाल राधे / मीराबाई
- 1.2 कुंज भवन सएँ निकसलि / विद्यापति
- 1.3 काहू जोगीकी नजर लागी है / सूरदास
- 1.4 कायकूं बहार परी / सूरदास
- 1.5 कान्हा बरसाने में आय जैयो / ब्रजभाषा
- 1.6 कान्हा बनसरी बजाय गिरधारी / मीराबाई
- 1.7 कान्हा कानरीया पेहरीरे / मीराबाई
- 1.8 कान्ह भये बस बाँसुरी के / रसखान
- 1.9 कान्ह की बाँकी चितौनी चुभी / मुबारक
- 1.10 काना कुबजा संग रिझोरे / सूरदास
- 1.11 कहन लागे मोहन मैया मैया / सूरदास
- 1.12 कर कानन कुंडल मोरपखा / रसखान
- 1.13 कमलापती भगवान / सूरदास
- 1.14 कमल-दल नैननि की उनमानि / रहीम
- 1.15 कभी राम बनके कभी श्याम बनके / भजन
- 1.16 कन्हैया हालरू रे / सूरदास
- 1.17 कनक रति मनि पालनौ, गढ्यो काम सुतहार / सूरदास
- 1.18 कठण थयां रे माधव मथुरां जाई / मीराबाई
- 1.19 औरन सों खेले धमार / सूरदास
- 1.20 ऐसो पूत देवकी जायो / सूरदास
- 1.21 ऐसे संतनकी सेवा / सूरदास
- 1.22 ऐसे भक्ति मोहे भावे उद्धवजी / सूरदास
- 1.23 उधो मनकी मनमें रही / सूरदास
- 1.24 आजु मैं गाइ चरावन जैहौं / सूरदास
- 1.25 आजु दिन कान्ह आगमन के बधाए सुनि / पद्माकर
- 1.26 आगे गाय पाछें गाय इत गाय उत गाय / छीतस्वामी
- 1.27 आइ ब्रज-पथ रथ ऊधौ कौं चढ़ाइ कान्ह / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’
- 1.28 अरी तुम कोन हो री बन में फूलवा बीनन हारी / सूरदास
- 1.29 अभिनव कोमल सुन्दर पात / विद्यापति
- 1.30 अब हों नाच्यौ बहुत गोपाल / सूरदास
- 1.31 अब कै माधव, मोहिं उधारि / सूरदास
- 1.32 अद्भुत एक अनुपम बाग / सूरदास
- 1.33 अति सूख सुरत किये / सूरदास
- 1.34 Related Posts:
कविताएँ नीचे एक-एक करके, उनके कविओं के नाम के साथ दी गयीं हैं.
कुंजबनमों गोपाल राधे / मीराबाई
कुंजबनमों गोपाल राधे॥ध्रु०॥
मोर मुकुट पीतांबर शोभे। नीरखत शाम तमाल॥१॥
ग्वालबाल रुचित चारु मंडला। वाजत बनसी रसाळ॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। चरनपर मन चिरकाल॥३॥
कुंज भवन सएँ निकसलि / विद्यापति
कुंज भवन सएँ निकसलि रे रोकल गिरिधारी।
एकहि नगर बसु माधव हे जनि करु बटमारी।।
छोड कान्ह मोर आंचर रे फाटत नब सारी।
अपजस होएत जगत भरि हे जानि करिअ उधारी।।
संगक सखि अगुआइलि रे हम एकसरि नारी।
दामिनि आय तुलायति हे एक राति अन्हारी।।
भनहि विद्यापति गाओल रे सुनु गुनमति नारी।
हरिक संग कछु डर नहि हे तोंहे परम गमारी।।
[नागार्जुन का अनुवाद : कुंज भवन से निकली ही थी कि गिरधारी ने रोक लिया। माधव, बटमारी मत करो, हम एक ही नगर के रहने वाले हैं। कान्हा, आंचल छोड़ दो। मेरी साड़ी अभी नयी नयी है, फट जाएगी। छोड़ दो। दुनिया में बदनामी फैलेगी। मुझे नंगी मत करो। साथ की सहेलियां आगे बढ़ गयी हैं। मैं अकेली हूं। एक तो रात ही अंधेरी है, उस पर बिजली भी कौंधने लगी – हाय, अब मैं क्या करूं? विद्यापति ने कहा, तुम तो बड़ी गुणवती हो। हरि से भला क्या डरना। तुम गंवार हो। गंवार न होती तो हरि से भला क्यों डरती…]
काहू जोगीकी नजर लागी है / सूरदास
काहू जोगीकी नजर लागी है मेरो कुंवर । कन्हिया रोवे ॥ध्रु०॥
घर घर हात दिखावे जशोदा दूध पीवे नहि सोवे ।
चारो डांडी सरल सुंदर । पलनेमें जु झुलावे ॥मे०॥१॥
मेरी गली तुम छिन मति आवो । अलख अलख मुख बोले ।
राई लवण उतारे यशोदा सुरप्रभूको सुवावे ॥मे०॥२॥
कायकूं बहार परी / सूरदास
कायकूं बहार परी । मुरलीया ॥ कायकू ब०॥ध्रु०॥
जेलो तेरी ज्यानी पग पछानी । आई बनकी लकरी मुरलिया ॥ कायकु ब०॥१॥
घडी एक करपर घडी एक मुखपर । एक अधर धरी मुरलिया ॥ कायकु ब०॥२॥
कनक बासकी मंगावूं लकरियां । छिलके गोल करी मुरलिया ॥ कायकु ब०॥३॥
सूरदासकी बाकी मुरलिये । संतन से सुधरी । मुरलिया काय०॥४॥
कान्हा बरसाने में आय जैयो / ब्रजभाषा
कान्हा बरसाने में आए जैयो, बुलाय गई राधा प्यारी
कान्हा बरसाने में आए जैयो, बुलाय गई राधा प्यारी
बुलाय गई राधा प्यारी, बुलाय गई राधा प्यारी …….
कान्हा बरसाने में आए जैयो, बुलाय गई राधा प्यारी
कान्हा माखन मिश्री खाय जैयो, बुलाय गई राधा प्यारी
कान्हा बरसाने में आए जैयो, बुलाय गई राधा प्यारी
बुलाय गई राधा प्यारी, बुलाय गई राधा प्यारी …….
कान्हा बनसरी बजाय गिरधारी / मीराबाई
कान्हा बनसरी बजाय गिरधारी। तोरि बनसरी लागी मोकों प्यारीं॥ध्रु०॥
दहीं दुध बेचने जाती जमुना। कानानें घागरी फोरी॥ काना०॥१॥
सिरपर घट घटपर झारी। उसकूं उतार मुरारी॥ काना०॥२॥
सास बुरीरे ननंद हटेली। देवर देवे मोको गारी॥ काना०॥३॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। चरनकमल बलहारी॥ काना०॥४॥
कान्हा कानरीया पेहरीरे / मीराबाई
कान्हा कानरीया पेहरीरे॥ध्रु०॥
जमुनाके नीर तीर धेनु चरावे। खेल खेलकी गत न्यारीरे॥१॥
खेल खेलते अकेले रहता। भक्तनकी भीड भारीरे॥२॥
बीखको प्यालो पीयो हमने। तुह्मारो बीख लहरीरे॥३॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। चरण कमल बलिहारीरे॥४॥
कान्ह भये बस बाँसुरी के / रसखान
कान्ह भये बस बाँसुरी के, अब कौन सखी हमको चहिहै।
निसि द्यौस रहे यह आस लगी, यह सौतिन सांसत को सहिहै।
जिन मोहि लियो मनमोहन को, ‘रसखानि’ सु क्यों न हमैं दहिहै।
मिलि आवो सबै कहुं भाग चलैं, अब तो ब्रज में बाँसुरी रहिहै।
कान्ह की बाँकी चितौनी चुभी / मुबारक
कान्ह की बाँकी चितौनी चुभी, झुकि काल्हि ही झाँकी है ग्वालि गवाछिन।
देखी है नोखी सी चोखी सी कोरनि, आछै फिरै उभरै चित जा छनि॥
मरयो संभार हिये में ‘मुबारक, ये सहजै कजरारे मृगाछनि॥
सींक लै काजर दै गँवारिन, ऑंगुरी तैरी कटैगी कटाछनि॥
वह साँकरी कुंज की खोरि अचानक , राधिका माधव भेंट भई।
मुसक्यानि भली, ऍंचरा की अली! त्रिबली की बलि पर डीठि दई॥
झहराइ, झुकाइ, रिसाइ, ‘ममारख, बाँसुरिया, हँसि छीनि लई॥
भृकुटी लटकाय, गुपाल के गाल मैं ऍंगुरी, ग्वालि गडाई गई॥
कान्ह की बाँकी चितौनि चुभी झुकि / अज्ञात कवि (रीतिकाल)
कान्ह की बाँकी चितौनि चुभी झुकि ,
काल्हि झाँकी है ग्वालि गवाछनि ।
देखी है नोखी सी चोखी सी कोरिन ,
ओछे फिरै उभरे चित जाछनि।
मारेइ जाति निहारै मुबारक यै ,
सहजै कजरारे मृगाछनि ।
सीँक लै काजर दे री गँवारिनि ,
आँगुरी तेरी कटैगी कटाछनि ।
रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।
काना कुबजा संग रिझोरे / सूरदास
काना कुबजा संग रिझोरे । काना मोरे करि कामारिया ॥ध्रु०॥
मैं जमुना जल भरन जात रामा । मेरे सिरपर घागरियां ॥ का०॥१॥
मैं जी पेहरी चटक चुनरिया । नाक नथनियां बसरिया ॥ का०॥२॥
ब्रिंदाबनमें जो कुंज गलिनमो । घेरलियो सब ग्वालनिया ॥ का०॥३॥
जमुनाके निरातीर धेनु चरावे । नाव नथनीके बेसरियां ॥ का०॥४॥
सूरदास प्रभु तुमरे दरसनकु । चरन कमल चित्त धरिया ॥ का०॥५॥
कहन लागे मोहन मैया मैया / सूरदास
कहन लागे मोहन मैया मैया।
नंद महर सों बाबा बाबा अरु हलधर सों भैया॥
ऊंच चढि़ चढि़ कहति जशोदा लै लै नाम कन्हैया।
दूरि खेलन जनि जाहु लाला रे! मारैगी काहू की गैया॥
गोपी ग्वाल करत कौतूहल घर घर बजति बधैया।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कों चरननि की बलि जैया॥
भावार्थ: सूरदास जी का यह पद राग देव गंधार में आबद्ध है। भगवान् बालकृष्ण मैया, बाबा और भैया कहने लगे हैं। सूरदास कहते हैं कि अब श्रीकृष्ण मुख से यशोदा को मैया-मैया नंदबाबा को बाबा-बाबा व बलराम को भैया कहकर पुकारने लगे हैं। इना ही नहीं अब वह नटखट भी हो गए हैं, तभी तो यशोदा ऊंची होकर अर्थात् कन्हैया जब दूर चले जाते हैं तब उचक-उचककर कन्हैया को नाम लेकर पुकारती हैं और कहती हैं कि लल्ला गाय तुझे मारेगी। सूरदास कहते हैं कि गोपियों व ग्वालों को श्रीकृष्ण की लीलाएं देखकर अचरज होता है। श्रीकृष्ण अभी छोटे ही हैं और लीलाएं भी उनकी अनोखी हैं। इन लीलाओं को देखकर ही सब लोग बधाइयां दे रहे हैं। सूरदास कहते हैं कि हे प्रभु! आपके इस रूप के चरणों की मैं बलिहारी जाता हूँ।
कर कानन कुंडल मोरपखा / रसखान
कर कानन कुंडल मोरपखा उर पै बनमाल बिराजती है
मुरली कर में अधरा मुस्कानी तरंग महाछबि छाजती है
रसखानी लखै तन पीतपटा सत दामिनी कि दुति लाजती है
वह बाँसुरी की धुनी कानि परे कुलकानी हियो तजि भाजती है
कमलापती भगवान / सूरदास
कमलापती भगवान । मारो साईं कम०॥ध्रु०॥
राम लछमन भरत शत्रुघन । चवरी डुलावे हनुमान ॥१॥
मोर मुगुट पितांबर सोभे । कुंडल झलकत कान ॥२॥
सूरदास प्रभु तुमारे मिलनकुं । दासाकुं वांको ध्यान॥३॥
मारू सांई कमलापती० ॥
कमल-दल नैननि की उनमानि / रहीम
कमल-दल नैननि की उनमानि।
बिसरत नाहिं सखी मो मन ते मंद मंद मुसकानि॥
यह दसननि दुति चपला हू ते महा चपल चमकानि।
बसुधा की बस करी मधुरता सुधा-पगी बतरानि॥
चढ़ी रहे चित उर बिसाल को मुकुतमाल थहरानि।
नृत्य समय पीताम्बर हू की फहरि फहरि फहरानि॥
अनुदिन श्री बृन्दावन ब्रज ते आवन आवन आनि।
अब ’रहीम’ चित ते न टरति है सकल स्याम की बानि॥
कभी राम बनके कभी श्याम बनके / भजन
कभी राम बनके कभी श्याम बनके चले आना प्रभुजी चले आना….
तुम राम रूप में आना, तुम राम रूप में आना
सीता साथ लेके, धनुष हाथ लेके,
चले आना प्रभुजी चले आना…
तुम श्याम रूप में आना, तुम श्याम रूप में आना,
राधा साथ लेके, मुरली हाथ लेके,
चले आना प्रभुजी चले आना…
तुम शिव के रूप में आना, तुम शिव के रूप में आना..
गौरा साथ लेके , डमरू हाथ लेके,
चले आना प्रभुजी चले आना…
तुम विष्णु रूप में आना, तुम विष्णु रूप में आना,
लक्ष्मी साथ लेके, चक्र हाथ लेके,
चले आना प्रभुजी चले आना…
तुम गणपति रूप में आना, तुम गणपति रूप में आना
रीधी साथ लेके, सीधी साथ लेके ,
चले आना प्रभुजी चले आना….
कभी राम बनके कभी श्याम बनके चले आना प्रभुजी चले आना…
कन्हैया हालरू रे / सूरदास
कन्हैया हालरू रे ।
गुढि गुढि ल्यायो बढई धरनी पर डोलाई बलि हालरू रे ॥१॥
इक लख मांगे बढै दुई नंद जु देहिं बलि हालरू रे ।
रत पटित बर पालनौ रेसम लागी डोर बलि हालरू रे ॥२॥
कबहुँक झूलै पालना कबहुँ नन्द की गोद बलि हालरू रे ।
झूलै सखी झुलावहीं सूरदास, बलि जाइ बलि हालरू रे ॥३॥
कनक रति मनि पालनौ, गढ्यो काम सुतहार / सूरदास
कनक रति मनि पालनौ, गढ्यो काम सुतहार ।
बिबिध खिलौना भाँति के, गजमुक्ता चहुँधार ॥
जननी उबटि न्हवाइ के, क्रम सों लीन्हे गोद ।
पौढाए पट पालने, निरखि जननि मन मोद ॥
अति कोमल दिन सात के, अधर चरन कर लाल ।
सूर श्याम छबि अरुनता, निरखि हरष ब्रज बाल ॥
कठण थयां रे माधव मथुरां जाई / मीराबाई
कठण थयां रे माधव मथुरां जाई। कागळ न लख्यो कटकोरे॥ध्रु०॥
अहियाथकी हरी हवडां पधार्या। औद्धव साचे अटक्यारे॥१॥
अंगें सोबरणीया बावा पेर्या। शीर पितांबर पटकोरे॥२॥
गोकुळमां एक रास रच्यो छे। कहां न कुबड्या संग अतक्योरे॥३॥
कालीसी कुबजा ने आंगें छे कुबडी। ये शूं करी जाणे लटकोरे॥४॥
ये छे काळी ने ते छे। कुबडी रंगे रंग बाच्यो चटकोरे॥५॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। खोळामां घुंघट खटकोरे॥६॥
औरन सों खेले धमार / सूरदास
औरन सों खेले धमार श्याम मोंसों मुख हू न बोले।
नंदमहर को लाडिलो मोसो ऐंठ्यो ही डोले॥१॥
राधा जू पनिया निकसी वाको घूंघट खोले।
’सूरदास’ प्रभु सांवरो हियरा बिच डोले॥२॥
ऐसो पूत देवकी जायो / सूरदास
ऐसो पूत देवकी जायो।
चारों भुजा चार आयुध धरि, कंस निकंदन आयो ॥१॥
भरि भादों अधरात अष्टमी, देवकी कंत जगायो।
देख्यो मुख वसुदेव कुंवर को, फूल्यो अंग न समायो॥२॥
अब ले जाहु बेगि याहि गोकुलबहोत भाँति समझायो।
हृदय लगाय चूमि मुख हरि को पलना में पोढायो॥३॥
तब वसुदेव लियो कर पलना अपने सीस चढायो।
तारे खुले पहरुवा सोये जाग्यो कोऊ न जगायो॥४॥
आगे सिंह सेस ता पाछे नीर नासिका आयों।
हूँक देत बलि मारग दीनो, नन्द भवन में आयो॥५॥
नन्द यसोदा सुनो बिनती सुत जिनि करो परायो।
जसुमति कह्यो जाउ घर अपने कन्या ले घर आयो॥६॥
प्रात भयो भगिनी के मंदिर प्रोहित कंस पठायो।
कन्या भई कूखि देवकी के सखियन सब्द सुनायो॥७॥
कन्या नाम सुनो जब राजा, पापी मन पछतायो।
करो उपाय कंस मन कोप्यो राज बहोत सिरायो॥८॥
कन्या मगाय लई राजा ने धोबी पटकन आयो।
भुजा उखारि ले गई उर ते राजा मन बिलखायो॥९॥
वेदहु कह्यो स्मृति हू भाख्यो सो डर मन में आयो।
’सूर’ के प्रभु गोकुल प्रगटे भयो भक्तन मन भायो॥१०॥
ऐसे संतनकी सेवा / सूरदास
ऐसे संतनकी सेवा । कर मन ऐसे संतनकी सेवा ॥ध्रु०॥
शील संतोख सदा उर जिनके । नाम रामको लेवा ॥ क०॥१॥
आन भरोसो हृदय नहि जिनके । भजन निरंजन देवा ॥ क०॥२॥
जीन मुक्त फिरे जगमाही । ज्यु नारद मुनी देवा ॥ क०॥३॥
जिनके चरन कमलकूं इच्छत । प्रयाग जमुना रेवा ॥ क०॥४॥
सूरदास कर उनकी संग । मिले निरंजन देवा ॥ क०॥५॥
ऐसे भक्ति मोहे भावे उद्धवजी / सूरदास
ऐसे भक्ति मोहे भावे उद्धवजी ऐसी भक्ति ।
सरवस त्याग मगन होय नाचे जनम करम गुन गावे ॥ उ०॥ध्रु०॥
कथनी कथे निरंतर मेरी चरन कमल चित लावे ॥
मुख मुरली नयन जलधारा करसे ताल बजावे ॥उ०॥१॥
जहां जहां चरन देत जन मेरो सकल तिरथ चली आवे ।
उनके पदरज अंग लगावे कोटी जनम सुख पावे ॥उ०॥२॥
उन मुरति मेरे हृदय बसत है मोरी सूरत लगावे ।
बलि बलि जाऊं श्रीमुख बानी सूरदास बलि जावे ॥उ०॥३॥
उधो मनकी मनमें रही / सूरदास
उधो मनकी मनमें रही ॥ध्रु०॥
गोकुलते जब मथुरा पधारे । कुंजन आग देही ॥१॥
पतित अक्रूर कहासे आये । दुखमें दाग देही ॥२॥
तन तालाभरना रही उधो । जल बल भस्म भई ॥३॥
हमरी आख्या भर भर आवे । उलटी गंगा बही ॥४॥
सूरदास प्रभु तुमारे मिलन । जो कछु भई सो भई ॥५॥
आजु मैं गाइ चरावन जैहौं / सूरदास
आजु मैं गाइ चरावन जैहौं।
बृन्दावन के भांति भांति फल अपने कर मैं खेहौं॥
ऐसी बात कहौ जनि बारे देखौ अपनी भांति।
तनक तनक पग चलिहौ कैसें आवत ह्वै है राति॥
प्रात जात गैया लै चारन घर आवत हैं सांझ।
तुम्हारे कमल बदन कुम्हिलैहे रेंगत घामहि मांझ॥
तेरी सौं मोहि घाम न लागत भूख नहीं कछु नेक।
सूरदास प्रभु कह्यो न मानत पर्यो अपनी टेक॥
भावार्थ: यह पद राग रामकली में बद्ध है। एक बार बालकृष्ण ने हठ पकड़ लिया कि मैया आज तो मैं गौएं चराने जाऊंगा। साथ ही वृन्दावन के वन में उगने वाले नाना भांति के फलों को भी अपने हाथों से खाऊंगा। इस पर यशोदा ने कृष्ण को समझाया कि अभी तो तू बहुत छोटा है। इन छोटे-छोटे पैरों से तू कैसे चल पाएगा.. और फिर लौटते समय रात्रि भी हो जाती है। तुझसे अधिक आयु के लोग गायों को चराने के लिए प्रात: घर से निकलते हैं और संध्या होने पर लौटते हैं। सारे दिन धूप में वन-वन भटकना पड़ता है। फिर तेरा वदन पुष्प के समान कोमल है, यह धूप को कैसे सहन कर पाएगा। यशोदा के समझाने का कृष्ण पर कोई प्रभाव नहीं हुआ, बल्कि उलटकर बोले, मैया! मैं तेरी सौगंध खाकर कहता हूं कि मुझे धूप नहीं लगती और न ही भूख सताती है। सूरदास कहते हैं कि परब्रह्म स्वरूप श्रीकृष्ण ने यशोदा की एक नहीं मानी और अपनी ही बात पर अटल रहे।
आजु दिन कान्ह आगमन के बधाए सुनि / पद्माकर
आजु दिन कान्ह आगमन के बधाए सुनि ,
छाए मग फूलन सुहाए थल थल के ।
कहैँ पदमाकर त्योँ आरती उतारिबे को ,
थारन मे दीप हीरा हारन के छलके ।
कंचन के कलस भराए भूरि पन्नन के ,
ताने तुँग तोरन तहाँई झलाझल के ।
पौर के दुवारे तैँ लगाय केलि मँदिर लौ,
पदमिनि पांवडे पसारे मखमल के ।
पद्माकर का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।
आगे गाय पाछें गाय इत गाय उत गाय / छीतस्वामी
आगे गाय पाछें गाय इत गाय उत गाय,
गोविंद को गायन में बसबोइ भावे।
गायन के संग धावें, गायन में सचु पावें,
गायन की खुर रज अंग लपटावे॥
गायन सो ब्रज छायो, बैकुंठ बिसरायो,
गायन के हेत गिरि कर ले उठावे।
‘छीतस्वामी’ गिरिधारी, विट्ठलेश वपुधारी,
ग्वारिया को भेष धरें गायन में आवे॥
आइ ब्रज-पथ रथ ऊधौ कौं चढ़ाइ कान्ह / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’
आइ ब्रज-पथ रथ ऊधौ कौं चढ़ाइ कान्ह,
अकथ कथानि की व्यथा सौं अकुलात हैं ।
कहै रतनाकर बुझाइ कछु रोकै पाय,
पुनि कछु ध्यान उर धाइ उरझात हैं ॥
उसीस उसांसनि सौं बहि बहि आंसनि सौं,
भूरि भरे हिय के हुलास न उरात हैं ।
सीरे तपे विविध संदेसनि सो बातनि की,
घातनि की झोंक मैं लगेई चले जात हैं ॥21॥
अरी तुम कोन हो री बन में फूलवा बीनन हारी / सूरदास
अरी तुम कोन हो री बन में फूलवा बीनन हारी।
रतन जटित हो बन्यो बगीचा फूल रही फुलवारी॥१॥
कृष्णचंद बनवारी आये मुख क्यों न बोलत सुकुमारी।
तुम तो नंद महर के ढोटा हम वृषभान दुलारी॥२॥
या बन में हम सदा बसत हैं हमही करत रखवारी।
बीन बूझे बीनत फूलवा जोबन मद मतवारी॥३॥
तब ललिता एक मतो उपाय सेन बताई प्यारी।
सूरदास प्रभु रसबस कीने विरह वेदना टारी॥४।
अभिनव कोमल सुन्दर पात / विद्यापति
अभिनव कोमल सुन्दर पात।
सगर कानन पहिरल पट रात।
मलय-पवन डोलय बहु भांति
अपन कुसुम रसे अपनहि माति॥
देखि-देखि माधव मन हुलसंत।
बिरिन्दावन भेल बेकत बसंत॥
कोकिल बोलाम साहर भार।
मदन पाओल जग नव अधिकार॥
पाइक मधुकर कर मधु पान।
भमि-भमि जोहय मानिनि-मान॥
दिसि-दिसि से भमि विपिन निहारि।
रास बुझावय मुदित मुरारि।
भनइ विद्यापति ई रस गाव।
राधा-माधव अभिनव भाव॥
अब हों नाच्यौ बहुत गोपाल / सूरदास
अब हों नाच्यौ बहुत गोपाल।
काम क्रोध कौ पहिरि चोलना, कंठ विषय की माल॥
महामोह के नूपुर बाजत, निन्दा सब्द रसाल।
भरम भर्यौ मन भयौ पखावज, चलत कुसंगति चाल॥
तृसना नाद करति घट अन्तर, नानाविध दै ताल।
माया कौ कटि फैंटा बांध्यो, लोभ तिलक दियो भाल॥
कोटिक कला काछि दिखराई, जल थल सुधि नहिं काल।
सूरदास की सबै अविद्या, दूरि करौ नंदलाल॥
अब कै माधव, मोहिं उधारि / सूरदास
अब कै माधव, मोहिं उधारि।
मगन हौं भव अम्बुनिधि में, कृपासिन्धु मुरारि॥
नीर अति गंभीर माया, लोभ लहरि तरंग।
लियें जात अगाध जल में गहे ग्राह अनंग॥
मीन इन्द्रिय अतिहि काटति, मोट अघ सिर भार।
पग न इत उत धरन पावत, उरझि मोह सिबार॥
काम क्रोध समेत तृष्ना, पवन अति झकझोर।
नाहिं चितवत देत तियसुत नाम-नौका ओर॥
थक्यौ बीच बेहाल बिह्वल, सुनहु करुनामूल।
स्याम, भुज गहि काढ़ि डारहु, सूर ब्रज के कूल॥
अद्भुत एक अनुपम बाग / सूरदास
अद्भुत एक अनुपम बाग ॥ध्रु०॥
जुगल कमलपर गजवर क्रीडत तापर सिंह करत अनुराग ॥१॥
हरिपर सरवर गिरीवर गिरपर फुले कुंज पराग ॥२॥
रुचित कपोर बसत ताउपर अमृत फल ढाल ॥३॥
फलवर पुहूप पुहुपपर पलव तापर सुक पिक मृगमद काग ॥४॥
खंजन धनुक चंद्रमा राजत ताउपर एक मनीधर नाग ॥५॥
अंग अंग प्रती वोरे वोरे छबि उपमा ताको करत न त्याग ॥६॥
सूरदास प्रभु पिवहूं सुधारस मानो अधरनिके बड भाग ॥७॥
अति सूख सुरत किये / सूरदास
अति सूख सुरत किये ललना संग जात समद मन्मथ सर जोरे ।
राती उनीदे अलसात मरालगती गोकुल चपल रहतकछु थोरे ।
मनहू कमलके को सते प्रीतम ढुंडन रहत छपी रीपु दल दोरे ।
सजल कोप प्रीतमै सुशोभियत संगम छबि तोरपर ढोरे ।
मनु भारते भवरमीन शिशु जात तरल चितवन चित चोरे ।
वरनीत जाय कहालो वरनी प्रेम जलद बेलावल ओरे ।
सूरदास सो कोन प्रिया जिनी हरीके सकल अंग बल तोरे ॥
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