नमस्कार, जैसा कि आप जानते हैं कि Independence Day अर्थात स्वतंत्रता दिवस पूरे भारत में गर्व और शान के साथ 15 August (१५ अगस्त) को मनाया जाता है. इस आर्टिकल में आप पढेंगे, Independence Day Poems in Hindi अर्थात स्वतंत्रता दिवस की कविताएँ जोकि आपके मन को बहुत भाएँगी. इसके इलावा हमारे पास भारत और स्वतंत्रता के साथ जुड़े कुछ और articles भी है जिनके links नीचे दिए गए हैं. उन्हें भी ज़रूर पढ़िए:
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Contents
- 1
- 2 Independence Day Poems in Hindi (स्वतंत्रता दिवस की कविताएँ)
- 2.1 नारी चेतना (अज्ञात रचनाकार)
- 2.2 अयि! भुवन मन मोहनी (रवीन्द्रनाथ ठाकुर)
- 2.3 नाला-ए-बुलबुल (अज्ञात रचनाकार)
- 2.4 अरुण यह मधुमय देश हमारा (जयशंकर प्रसाद)
- 2.5 अल्लाह नाम वालो (प्रीतम)
- 2.6 अहद (साग़र निज़ामी)
- 2.7 आगे बढ़ेंगे (अली सरदार जाफ़री)
- 2.8 आज़ादी (राम प्रसाद बिस्मिल)
- 2.9 आज़ादी या मौत (स्वामी नारायणानंद ‘अख़्तर’)
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Independence Day Poems in Hindi (स्वतंत्रता दिवस की कविताएँ)
नारी चेतना (अज्ञात रचनाकार)
जो कुछ पड़ेगी मुझ पे मुसीबत उठाऊंगी,
खि़दमत करूंगी मुल्क की और जेल जाऊंगी।
घर-भर को अपने खादी के कपड़े पिन्हाऊंगी,
और इन विदेशी लत्तों को लूका लगाऊंगी।
चरख़ा चला के छीनूंगी उनकी मशीनगन,
आदा-ए-मुल्को-क़ौम को नीचा दिखाऊंगी।
अपनी स्वदेशी बहनों को ले-ले के साथ में,
भट्टी पे हर कलाल के धरना बिठाऊंगी।
जाकर किसी भी जेल में कूटूंगी रामबांस,
और कै़दियों के साथ में चक्की चलाऊंगी।
अयि! भुवन मन मोहनी (रवीन्द्रनाथ ठाकुर)
अयि! भुवन मन मोहनी
निर्मल सूर्य करोज्ज्वल धरणी
जनक-जननी-जननी।। अयि…
अयि! नली सिंधु जल धौत चरण तल
अनिल विकंपित श्यामल अंचल
अंबर चुंबित भाल हिमाचल
अयि! शुभ्र तुषार किरीटिनी।। अयि…
प्रथम प्रभात उदय तव गगने
प्रथम साम रव तव तपोवने
प्रथम प्रचारित तव नव भुवने
कत वेद काव्य काहिनी।। अयि…
चिर कल्याणमयी तुमि मां धन्य
देश-विदेश वितरिछ अन्न
जाह्नवी, यमुना विगलित करुणा
पुन्य पीयूष स्तन्य पायिनी।। अयि…
अयि! भुवन मन मोहिनी।
नाला-ए-बुलबुल (अज्ञात रचनाकार)
दे दे मुझे तू ज़ालिम, मेरा ये आशियाना,
आरामगाह मेरी, मेरा बहिश्तख़ाना।
देकर मुझे भुलावा, घर-बार छीनकर तू,
उसको बना रहा है, मेरा ही कै़दख़ाना।
उसके ही खा के टुकड़े, बदख़्वाह बन गया तू,
मुफ़लिस समझ के जिसने, दिलवाया आबो-दाना।
मेहमां बना तू जिसका, जिससे पनाह पाई,
अब कर दिया उसी को, तूने यों बेठिकाना।
उसके ही बाग़ में तू, उसके कटा के बच्चे,
मुंसिफ़ भी बन के ख़ुद ही तू कर चुका बहाना।
दर्दे-जिगर से लेकिन चीखूंगी जब मैं हरदम,
गुलचीं सुनेगा मेरा पुर-दर्द यह फ़साना।
सोजे़-निहां की बिजली सर पर गिरेगी तेरे,
ज़ालिम! तू मर मिटेगा, बदलेगा यह ज़माना।
मुझको न इस तरह का, अब कुछ मलाल होगा,
गुलज़ार फिर बनेगा मोहन का कारख़ाना।
अरुण यह मधुमय देश हमारा (जयशंकर प्रसाद)
अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।।
सरल तामरस गर्भ विभा पर, नाच रही तरुशिखा मनोहर।
छिटका जीवन हरियाली पर, मंगल कुंकुम सारा।।
लघु सुरधनु से पंख पसारे, शीतल मलय समीर सहारे।
उड़ते खग जिस ओर मुँह किए, समझ नीड़ निज प्यारा।।
बरसाती आँखों के बादल, बनते जहाँ भरे करुणा जल।
लहरें टकरातीं अनन्त की, पाकर जहाँ किनारा।।
हेम कुम्भ ले उषा सवेरे, भरती ढुलकाती सुख मेरे।
मंदिर ऊँघते रहते जब, जगकर रजनी भर तारा।।
अल्लाह नाम वालो (प्रीतम)
अल्लाह नाम वालो, सुन लो कथा हमारी,
मस्जिद के तुम हो बंदे, मंदिर के हम पुजारी।
हैं नाम उसके कितने, पर एक ही ख़ुदा है,
हज़रत हुसैन वो ही, वंशी थी जिसकी प्यारी।
वह करबला में आया, गोकुल में भी वही था,
गीता बनाई उसने, जिसकी अज़ां है जारी।
कुरआन है जो उसका, तो वेद भी उसी का,
‘प्रीतम’ न फ़र्क़ समझो, दुनिया उसी की सारी।
अहद (साग़र निज़ामी)
जब तिलाई रंग सिक्कों को
जब मेरी गै़रत को दौलत से लड़ाया जाएगा,
जब रंगे इफ़लास को मेरी दबाया जाएगा,
ऐ वतन! उस वक़्त भी मैं तेरे नग़्मे गाऊंगा।
और अपने पांव से अंबारे-ज़र ठुकराऊंगा!
जब मुझे पेड़ों से उरियां करके बांधा जाएगा,
गर्म आहन से मेरे होठों को दाग़ा जाएगा,
जब दहकती आग पर मुझको लिटाया जाएगा,
ऐ वतन! उस वक़्त भी मैं तेरे नग़्मे गाऊंगा।
तेरे नग़्मे गाऊंगा और आग पर सो जाऊंगा!
ऐ वतन! जब तुझ पे दुश्मन गोलियां बरसाएंगे,
सुखऱ् बादल जब फ़ज़ाओं पे तेरी छा जाएंगे,
जब समंदर आग के बुर्जों से टक्कर खाएंगे,
ऐ वतन! उस वक़्त भी मैं तेरे नग़्मे गाऊंगा।
तेग़ की झंकार बनकर मिस्ले तूफ़ां आऊंगा!
गोलियां चारों तरफ़ से घेर लेंगी जब मुझे,
और तनहा छोड़ देगा जब मेरा मरकब मुझे,
और संगीनों पे चाहेंगे उठाना सब मुझे,
ऐ वतन! उस वक़्त भी मैं तेरे नग़्मे गाऊंगा।
मरते-मरते इक तमाशा-ए-वफ़ा बन जाऊंगा!
खून से रंगीन हो जाएगी जब तेरी बहार,
सामने होंगी मेरे जब सर्द लाशें बेशुमार,
जब मेरे बाजू पे सर आकर गिरेंगे बार-बार,
ऐ वतन! उस वक़्त भी मैं तेरे नग़्मे गाऊंगा।
और दुश्मन की सफ़ों पर बिजलियां बरसाऊंगा!
जब दरे-जिंदां खुलेगा बरमला मेरे लिए,
इंतक़ामी जब सज़ा होगी रवा मेरे लिए,
हर नफ़स जब होगा पैग़ामे क़ज़ा मेरे लिए,
ऐ वतन! उस वक़्त भी मैं तेरे नग़्मे गाऊंगा।
बादाकश हूं, ज़हर की तल्ख़ी से क्या घबराऊंगा!
हुक्म आखि़र क़त्लगह में जब सुनाया जाएगा,
जब मुझे फांसी के तख़्ते पर चढ़ाया जाएगा,
जब यकायक तख़्ता-ए-ख़ूनी हटाया जाएगा।
ऐ वतन! उस वक़्त भी मैं तेरे नग़्मे गाऊंगा।
अहद करता हूं कि मैं तुझ पर फ़िदा हो जाऊंगा!
आगे बढ़ेंगे (अली सरदार जाफ़री)
वो बिजली-सी चमकी, वो टूटा सितारा,
वो शोला-सा लपका, वो तड़पा शरारा,
जुनूने-बग़ावत ने दिल को उभारा,
बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!
गरजती हैं तोपें, गरजने दो इनको
दुहुल बज रहे हैं, तो बजने दो इनको,
जो हथियार सजते हैं, सजने दो इनको
बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!
कुदालों के फल, दोस्तों, तेज़ कर लो,
मुहब्बत के साग़र को लबरेज़ कर लो,
ज़रा और हिम्मत को महमेज़ कर लो,
बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!
विज़ारत की मंज़िल हमारी नहीं है,
ये आंधी है, बादे-बहारी नहीं है,
जिरह हमने तन से उतारी नहीं है,
बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!
हुकूमत के पिंदार को तोड़ना है,
असीरो-गिरफ़्तार को छोड़ना है,
जमाने की रफ्तार को मोड़ना है,
बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!
चट्टानों में राहें बनानी पड़ंेगी,
अभी कितनी कड़ियां उठानी पड़ेंगी,
हज़ारों कमानें झुकानी पड़ेंगी,
बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!
हदें हो चुकीं ख़त्म बीमो-रजा की,
मुसाफ़त से अब अज़्मे-सब्रआज़मां की,
ज़माने के माथे पे है ताबनाकी,
बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!
उफ़क़ के किनारे हुए हैं गुलाबी,
सहर की निगाहों में हैं बर्क़ताबी,
क़दम चूमने आई है कामयाबी,
बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!
मसाइब की दुनिया को पामाल करके,
जवानी के शोलों में तप के, निखर के,
ज़रा नज़्मे-गीती से ऊंचे उभर के,
बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!
महकते हुए मर्ग़ज़ारों से आगे,
लचकते हुए आबशारों से आगे,
बहिश्ते-बरीं की बहारों से आगे,
बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!
आज़ादी (राम प्रसाद बिस्मिल)
इलाही ख़ैर! वो हरदम नई बेदाद करते हैं,
हमें तोहमत लगाते हैं, जो हम फ़रियाद करते हैं।
कभी आज़ाद करते हैं, कभी बेदाद करते हैं।
मगर इस पर भी हम सौ जी से उनको याद करते हैं।
असीराने-क़फ़स से काश, यह सैयाद कह देता,
रहो आज़ाद होकर, हम तुम्हें आज़ाद करते हैं।
रहा करता है अहले-ग़म को क्या-क्या इंतज़ार इसका,
कि देखें वो दिले-नाशाद को कब शाद करते हैं।
यह कह-कहकर बसर की, उम्र हमने कै़दे-उल्फ़त मंे,
वो अब आज़ाद करते हैं, वो अब आज़ाद करते हैं।
सितम ऐसा नहीं देखा, जफ़ा ऐसी नहीं देखी,
वो चुप रहने को कहते हैं, जो हम फ़रियाद करते हैं।
यह बात अच्छी नहीं होती, यह बात अच्छी नहीं करते,
हमें बेकस समझकर आप क्यों बरबाद करते हैं?
कोई बिस्मिल बनाता है, जो मक़तल में हमें ‘बिस्मिल’,
तो हम डरकर दबी आवाज़ से फ़रियाद करते हैं।
आज़ादी या मौत (स्वामी नारायणानंद ‘अख़्तर’)
अबस ज़िंदगी का गुमां है, भरत है,
गुलामी में जीना न मरने से कम है।
सितमगर ने हमको जो ग़फ़लत में पाया,
तुरत दामे-फ़ितरत में अपने फंसाया,
कहा और कुछ, और कुछ कर दिखाया,
दिखाकर के अमृत, ज़हर को पिलाया,
न उठने की ताक़त, न चलने का दम है!
वो कहते हैं हमसे कि ख़ामोश रहना,
सहो चोटें दिल पर, जुबां से न कहना,
रहे पेट ख़ाली, रहे तन बरहना,
वफादार हो तुम, जफ़ाओं को सहना,
खुली गर जुबां, तो वहीं सर क़लम है!
दिए ज़ख्म पर ज़ख्म सैयाद तूने,
सुनी बेकसों की न फ़रियाद तूने,
न रहने दिया हमको आज़ाद तूने,
किया हर तरह हमको बरबाद तूने,
ये है जुलम कैसा, ये कैसा सितम है?
तुझे भी क़सम है, जो रहने क़सर दे,
ये है ज़ख्म ताज़ा, नमक इनमें भर दे,
उठा अपना ख़ंजर, अभी क़त्ल कर दे,
है वाजिब तुझे यह, उड़ा धड़ से सर दे,
किया चाहता तू जो हम पर करम है!
सितमगर है गर ताबो-ताक़त पे नाज़ां,
तो हैं हम भी अपनी सदाक़त पे कुरबां,
यही दिल की हसरत, यही दिल में अरमां,
कि आज़ाद हों या फ़ना होवें, दे जां,
हटेगा न पीछे, बढ़ा जो क़दम है!
जिएंगे तो आज़ाद होकर रहेंगे,
जहां में कि बरबाद होकर रहेंगे,
सितमगर ही या शाद होकर रहेंगे,
कि हम शाद, आबाद होकर रहेंगे,
खुली अब हैं आँखें, खुला सब भरम है!
हमें गो कि दिक़्क़त उठानी पड़ेगी,
उन्हें खु़द-ब-ख़ुद मुंह की खानी पड़ेगी,
ये आदत पुरानी मिटानी पड़ेगी,
सरे-बज़्म गरदन झुकानी पड़ेगी,
हमें नाज़ बेजा उठाने से रम है!
चमन में न फिर गै़र का कुछ ख़तर हो,
वतन अपना आज़ाद हो, औज पर हो,
बुजुर्गों का तुम में अगर कुछ असर हो,
दिखा दो, ज़माने में फिर ऊंचा सर हो,
ग़ज़ब का ये ‘अख़्तर’ का तजेऱ्-रक़म है!
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