अगर मुझ कन तू ऐ रश्क-ए-चमन होवे / वली दक्कनी
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अगर मुझ कन तू ऐ रश्क-ए-चमन होवे तो क्या होवे
निगह मेरी का तेरा मुख वतन होवे तो क्या होवे
सियह रोज़ाँ के मातम की सियाही दफ़्अ करने कूँ
अगर यक निस तू शम्मे-अंजुमन होवे तो क्या होवे
तेरी बाताँ के सुनने का हमेशा शौक़ है दिल में
अगर यकदम तूँ मुझ सूँ हमसुख़न होवे तो क्या होवे
हुआ जो शौक़ में तुझ देखने के ऐ हलाल अबरू
उì#2360;े अँखियाँ के पर्दे का कफ़न होवे तो क्या होवे
अगर ग़ुंचा नमन इक रात इस हस्ती के गुलशन में
‘वली’ मुझ बर में वो गुल पैरहन होवे तो क्या होवे
अगर में सच कहूँ तो सब्र ही की आज़माइश है / कामी शाह
अगर में सच कहूँ तो सब्र ही की आज़माइश है
ये मिट्टी इम्तिहाँ प्यारे ये पानी आज़माइश है
निकल कर ख़ुद से बाहर भागने से ख़ुद में आने तक
फ़रार आख़िर है ये कैसा ये कैस आज़माइश है
तलाश-ए-ज़ात में हम किसी बाज़ार-ए-हस्ती में
तिरा मिलना तिरा खोना अलग ही आज़माइश है
नबूद ओ बूद के फैले हुए इस कार-ख़ाने में
उछलती कूदती दुनिया हमारी आज़माइश है
मिरे दिल के दरीचे से उचक कर झाँकती बाहर
गुलाबी एड़ियों वाली अनोखी आज़माइश है
ये तू जो ख़ुद पे नाफ़िज़ हो गया है शाम की सूरत
तो जानी शाम की कब है ये तेरी आज़माइश है
दिए के और हवाओं के मरासिम घुल नहीं पाते
नहीं खुलता कि इन में से किस की आज़माइश है
अगर मैं उन की निगाहों से गिर गया होता / ‘दानिश’
अगर मैं उन की निगाहों से गिर गया होता
तो आज अपनी नज़र से उतर गया होता
तेरे फ़िराक़ ने की ज़िंदगी अता मुझ को
तेरा विसाल जो मिलता तो मर गया होता
जो तुम ने प्यार से आवाज़ मुझ को दी होती
रह-ए-हयात से हँस कर गुज़र गया होता
जो झूट-मूट ही तुम मुझ को अपना कह देते
तो मेरे प्यार का हर क़र्ज़ उतर गया होता
जो इक निगाह-ए-करम उन की पड़ती ऐ ‘दानिश’
तो मेरा बिगड़ा मुक़द्दर सँवर गया होता.
अगर मैं जानता है इश्क़ में धड़का जुदाई का / मीर ‘सोज़’
अगर मैं जानता है इश्क़ में धड़का जुदाई का
तो जीते जी न लेता नाम हरगिज़ आशनाई का
जो आशिक़ साफ़ हैं दिल से उन्हीं को क़त्ल करते हैं
बड़ा चर्चा है माशूक़ों में आशिक़-आज़माई का
करूँ इक पल में बरहत कार-ख़ाने को मोहब्बत के
अगर आलम में शोहरा दूँ तुम्हारी बेवफ़ाई का
जफ़ा या मेहर जो चाहे सो कर ले अपने बंदों पर
मुझे ख़तरा नहीं हरग़िज बुराई या भलाई का
न पहुँचा आह ओ नाला गोश तक उस के कभू अपना
बयाँ हम क्या करें ताले की अपने ना-रसाई का
ख़ुदाया किस के हम बंदे कहावें सख़्त मुश्किल है
रखे है हर सनम इस दहर में दावा ख़ुदाई का
ख़ुदा की बंदगी का ‘सोज’ है दावा तो ख़िलक़त को
वले देखा जिसे बंदा है अपनी ख़ुदनुमाई का
अगर मैं धूप के सौदागरों से डर जाता / ज्ञान प्रकाश विवेक
अगर मैं धूप के सौदागरों से डर जाता
तो अपनी बर्फ़ उठाकर बता किधर जाता
पकड़ के छोड़ दिया मैंने एक जुगनू को
मैं उससे खेलता रहता तो वो बिखर जाता
मुझे यक़ीन था कि चोर लौट आएगा
फटी क़मीज़ मेरी ले वो किधर जाता
अगर मैं उसको बता कि मैं हूँ शीशे का
मेरा रक़ीब मुझे चूर-चूर कर जाता
तमाम रात भिखारी भटकता फिरता रहा
जो होता उसका कोई घर तो वो भी घर जाता
तमाम उम्र बनाई हैं तूने बन्दूकें
अगर खिलौने बनाता तो कुछ सँवर जाता.
All Ghazal Best & Superb
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