अगर फूल-काँटे में फरक हम समझते / तारा सिंह
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अगर फूल-काँटे में फर्क हम समझते
बेवफा तुमसे मुहब्बत न हम करते
जो मालूम होता अन्जामे-उल्फत
यूँ उल्फत से गले न हम लगते
बहुत दे चुके हैं इन्तहाएं मुहब्बत
न होती मजबूरियाँ, शिकायत न हम करते
अगर होता मुमकिन तुम्हें भूल जाना
खुदा की कसम मुहब्बते-खत न हम लिखते
जो मालूम होता, मुहब्बते बरबादी में तुम भी हो
शामिल, तो एहदे मुहब्बत न हम करते
अगर बदल न दिया / फ़िराक़ गोरखपुरी
अगर बदल न दिया आदमी ने दुनियाँ को,
तो जान लो कि यहाँ आदमी कि खैर नहीं.
हर इन्किलाब के बाद आदमी समझता है,
कि इसके बाद न फिर लेगी करवटें ये ज़मीं.
बहुत न बेकसी-ए-इश्क़ पर कोई रोये,
कि हुस्न का भी ज़माने में कोई दोस्त नहीं.
अगर तलाश करें,क्या नहीं है दुनियाँ में,
जुज़ एक ज़िन्दगी कि तरह ज़िन्दगी कि नहीं.
अगर बाँटने निकलो जग का ग़म / डी. एम. मिश्र
अगर बाँटने निकलो जग का ग़म
तो अपना दुख भी हो जाये कम।
दुनिया से उम्मीद रखो उतनी
जितने से सम्बन्ध रहे कायम।
इस आँसू से जग का दुख सींचो
तपते मौसम को कर दो कुछ नम।
मुक्त आप हर चिंता से हो जांय
सिर्फ़ त्याग दें अपना आप अहम।
खिड़की खेालो तो प्रकाश आये
भीतर का छँट जाये सारा तम।
अगर मस्जिद में ऐ ज़ाहिद वो मस्त-ए-नीम-ख़्वाब आवे / ‘सिराज’ औरंगाबादी
अगर मस्जिद में ऐ ज़ाहिद वो मस्त-ए-नीम-ख़्वाब आवे
तिरे हर दान-ए-तस्बीह में बू-ए-शराब आवे
फ़जर हुई मुंतज़िर हूँ क़ासिद-ए-बाद-ए-सबा का मैं
किताबत आह की भेजा हूँ अब शायद जवाब आवे
ग़ज़ल-ख़्वाँ गर ख़ुश-आवाज़ी सीं आवे मुझ तरफ़ मोहन
रग-ए-जाँ सीं सदा-ए-नग़म-ए-तार-ए-रूबाब आवे
बजा है गर तुम्हारे नक्श-ए-पा की धूल उड़ने सीं
हर इक ज़र्रे का इस्तिक़बाल लेने आफ़्ताब आवे
अजब क्या नेमत-ए-दीदार साक़ी देख आँसू सीं
हमारे दीद-ए-नादीदा के मुँह में लुआब आवे
गुल अपने रंग पर मग़रूर बेजा है तिरे होते
पसीना लावे शबनम का अगर उस कूँ हिजाब आवे
‘सिराज’ उस कद्द-ए-मौजूँ के तसव्वुर में तअज्जुअ नहीं
कि फ़िक्र-ए-सरसरी सेती हर एक फ़र्द इंतिख़ाब आवे
अगर मुजरों में बिकनी शायरी है / प्रेम भारद्वाज
अगर मुजरों में बिकनी शायरी है
सही कहने की किसको क्या पड़ी है
हैं बाहर गर अँधेरे ही अँधेरे
ये क्या अन्दर है जिसकी रौशनी है
यूँ ही चर्चे यहाँ फ़िरदौस के हैं
बनेगा देवता जो आदमी है
हुई ख़ुश्बू फ़िदा है जिस अदा पर
बला की सादगी है ताज़गी है
करे तारीफ़ अब दुश्मन भी अपना
हुई जो आप से ये दोस्ती है
समुन्दर के लिए नदिया की चल—चल
है उसकी बन्दगी या तिश्नगी है
ज़माना प्रेम के पीछे पड़ेगा
महब्ब्त से पुरानी दुश्मनी है.
All Ghazal Best & Superb
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