अगर तुम वही हो जो तस्वीर में हो / पुरुषोत्तम अब्बी “आज़र”
Contents
- 1 अगर तुम वही हो जो तस्वीर में हो / पुरुषोत्तम अब्बी “आज़र”
- 2 अगर तुमने मुझे रस्ते से भटकाया नहीं होता / शेष धर तिवारी
- 3 अगर दौलत भी शामिल हो तो दौलत भी कमाती है / ओम प्रकाश नदीम
- 4 अगर दौलत से ही सब क़द का अंदाज़ा लगाते हैं / मुनव्वर राना
- 5 अगर न ज़ोहरा जबीनों के दरमियाँ गुज़रे / जिगर मुरादाबादी
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अगर तुम वही हो जो तस्वीर में हो
समझ लो लिखी मेरी तक्दीर में हो
सभी सांस लें हम यूं खुल के हवा में
मुक्द्दर किसी का न जंजीर में हो
लिखा मैंने खत हैं क्यूं उत्तर न आया
जरुरी नहीं उसकी तहरीर में हो
न पूछा किसी ने भी जिन्दे को पानी
बना मक्बरा उसकी तौकीर में हो
ये रौशन अगर थोड़ी दुनिया है”आज़र”
तुझे क्या पता तेरी तन्वीर में हो
अगर तुमने मुझे रस्ते से भटकाया नहीं होता / शेष धर तिवारी
अगर तुमने मुझे रस्ते से भटकाया नहीं होता
तो मैंने मंजिले मक़सूद को पाया नहीं होता
किसी की मुफलिसी पर रूह गर कोसे तो समझाना
हर इक इंसान की किस्मत में सरमाया नहीं होता
अगर मैं जानता डरते हो मुस्तकबिल से तुम मेरे
तो मीठे बोल से धोखा कभी खाया नहीं होता
तुम्हारा कल हमारे आज में पैबस्त ही रहता
तो मेरा आज मुझको इस तरह भाया नहीं होता
झुका था आसमां, बढ़ कर ज़मीं गर बांह फैलाती
धुंधलका दरमियां उनके कभी छाया नहीं होता
अगर दौलत भी शामिल हो तो दौलत भी कमाती है / ओम प्रकाश नदीम
अगर दौलत भी शामिल हो तो दौलत भी कमाती है ।
वगर्ना सिर्फ़ मेहनत सिर्फ़ मेहनत ही कराती है ।
सवेरे दस बजे से रात के बारह बजाते हो,
हमें भी भूख लगती है हमें भी नींद आती है ।
अक़ीदे के कुएँ से उसको बाहर खींचता हूँ जब,
न जाने क्यों मेरे हाथों से रस्सी छूट जाती है ।
अगरचे डर है लेकिन आज़माते हैं ये नुस्ख़ा भी,
ज़रा देखें हमारी बेरुख़ी क्या रंग लाती है ।
वो अज़्मत है कि चाहें तो क़दमबोसी करे दुनिया,
मगर इक भूख के आगे वो अज़्मत हार जाती है ।
अगर दौलत से ही सब क़द का अंदाज़ा लगाते हैं / मुनव्वर राना
अगर दौलत से ही सब क़द का अंदाज़ा लगाते हैं
तो फिर ऐ मुफ़लिसी हम दाँव पर कासा लगाते हैं
उन्हीं को सर बुलन्दी भी अता होती है दुनिया में
जो अपने सर के नीचे हाथ का तकिया लगाते हैं
हमारा सानहा है ये कि इस दौरे हुकूमत में
शिकारी के लिए जंगल में हम हाँका लगाते हैं
वो शायर हों कि आलिम हों कि ताजिर या लुटेरे हों
सियासत वो जुआ है जिसमें सब पैसा लगाते हैं
उगा रक्खे हैं जंगल नफ़रतों के सारी बस्ती में
मगर गमले में मीठी नीम नीम का पौदा लगाते हैं
ज़्यादा देर तक मुर्दे कभी रक्खे नहीं जाते
शराफ़त के जनाज़े को चलो काँधा लगाते हैं
ग़ज़ल की सल्तनत पर आजतक क़ब्ज़ा हमारा है
हम अपने नाम के आगे अभी राना लगाते हैं
अगर न ज़ोहरा जबीनों के दरमियाँ गुज़रे / जिगर मुरादाबादी
अगर न ज़ोहरा जबीनों के दरमियाँ गुज़रे
तो फिर ये कैसे कटे ज़िन्दगी कहाँ गुज़रे
जो तेरे आरिज़-ओ-गेसू के दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो वो लम्हे बला-ए-जाँ गुज़रे
मुझे ये वहम रहा मुद्दतों के जुर्रत-ए-शौक़
कहीं ना ख़ातिर-ए-मासूम पर गिराँ गुज़रे
हर इक मुक़ाम-ए-मोहब्बत बहुत ही दिल-कश था
मगर हम अहल-ए-मोहब्बत कशाँ-कशाँ गुज़रे
जुनूँ के सख़्त मराहिल भी तेरी याद के साथ
हसीं-हसीं नज़र आये जवाँ-जवाँ गुज़रे
मेरी नज़र से तेरी जुस्तजू के सदक़े में
ये इक जहाँ ही नहीं सैकड़ों जहाँ गुज़रे
हजूम-ए-जल्वा में परवाज़-ए-शौक़ क्या कहना
के जैसे रूह सितारों के दरमियाँ गुज़रे
ख़ता मु’आफ़ ज़माने से बदगुमाँ होकर
तेरी वफ़ा पे भी क्या क्या हमें गुमाँ गुज़रे
ख़ुलूस जिस में हो शामिल वो दौर-ए-इश्क़-ओ-हवस
नारैगाँ कभी गुज़रा न रैगाँ गुज़रे
इसी को कहते हैं जन्नत इसी को दोज़ख़ भी
वो ज़िन्दगी जो हसीनों के दरमियाँ गुज़रे
बहुत हसीन सही सुहबतें गुलों की मगर
वो ज़िन्दगी है जो काँटों के दरमियाँ गुज़रे
मुझे था शिक्वा-ए-हिज्राँ कि ये हुआ महसूस
मेरे क़रीब से होकर वो नागहाँ गुज़रे
बहुत हसीन मनाज़िर भी हुस्न-ए-फ़ितरत के
न जाने आज तबीयत पे क्यों गिराँ गुज़रे
मेरा तो फ़र्ज़ चमन बंदी-ए-जहाँ है फ़क़त
मेरी बला से बहार आये या ख़िज़ाँ गुज़रे
कहाँ का हुस्न कि ख़ुद इश्क़ को ख़बर न हुई
राह-ए-तलब में कुछ ऐसे भी इम्तहाँ गुज़रे
भरी बहार में ताराजी-ए-चमन मत पूछ
ख़ुदा करे न फिर आँखों से वो समाँ गुज़रे
कोई न देख सका जिनको दो दिलों के सिवा
मु’आमलात कुछ ऐसे भी दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो इसी एक मुश्त-ए-ख़ाक के गिर्द
तवाफ़ करते हुये हफ़्त आस्माँ गुज़रे
बहुत अज़ीज़ है मुझको उन्हीं की याद “जिगर”
वो हादसात-ए-मोहब्बत जो नागहाँ गुज़रे
All Ghazal Best & Superb
Thanks For Sharing