अच्छे बच्चे सब खाते हैं / ‘सज्जन’ धर्मेन्द्र
Contents
अच्छे बच्चे सब खाते हैं।
कहकर जूठन पकड़ाते हैं।
कर्मों से दिल छलनी कर वो,
बातों से मन बहलाते हैं।
ख़त्म बुराई कैसे होगी,
अच्छे जल्दी मर जाते हैं।
जीवन मेले में सच रोता,
चल उसको गोदी लाते हैं।
कैसे समझाऊँ आँखों को,
आँसू इतना क्यूँ आते हैं।
कह तो देते हैं कुछ पागल,
पर कितने सच सह पाते हैं।
अच्छे मौसम में तग ओ ताज़ भी कर लेता हूँ / अंजुम सलीमी
अच्छे मौसम में तग ओ ताज़ भी कर लेता हूँ
पर निकल आते हैं परवाज़ भी कर लेता हूँ
तुझ से ये कैसा तअल्लुक़ है जिसे जब चाहूँ
ख़त्म कर देता हूँ आग़ाज़ भी कर लेता हूँ
गुम्बद-ए-ज़ात में जब गूँजने लगता हूँ बहुत
ख़ामोशी तोड़ के आवाज़ भी कर लेता हूँ
यूँ तो इस हब्स से मानूस हैं साँसें मेरी
वैसे दीवार में दर बाज़ भी कर लेता हूँ
सब के सब ख़्वाब में तक़्सीम नहीं कर देता
एक दो ख़्वाब पस-अंदाज़ भी कर लेता हूँ
अच्छे हैं हम सुन के तुम बीमार हो गए / मोहम्मद इरशाद
अच्छे हैं हम सुन के तुम बीमार हो गए
इक पल में क्या से क्या ऐ मेरे यार हो गए
जिन लोगों पे था ख़ुद से ज़्यादा मुझे यकीन
मेरे ख़िलाफ वो ही कई बार हो गए
जब से वो अपने आपको करने लगा पसन्द
उसकी नज़र में तब से हम बेकार हो गए
अच्छा किया जो आपने आवाज़ दी उन्हें
बरसों से सो रहे थे वो बेदार हो गए
‘इरशाद’ का ना ज़िक्र कर तु मेरे सामने
लोगों की तरह वो भी अब बेकार हो गए
अजनबियत थी मगर ख़ामोश इस्तिफ़्सार पर / अशहर हाशमी
अजनबियत थी मगर ख़ामोश इस्तिफ़्सार पर
नाम उस के इक अलामत में लिखा दीवार पर
राएगाँ जाती हुई उम्र-ए-रवाँ की इक झलक
ताज़ियाना है क़नाअत-आश्ना किरदार पर
दुश्मनों के दरमियाँ मेरा मुहाफ़िज़ है क़लम
मैं ने हर तल्वार रोकी है इसी तल्वार पर
दिन हो जैसा भी गुज़र जाता है अपने तौर से
रात होती है मगर भारी तिरे बीमार पर
सुस्त-गामी ले के मंज़िल तक चली आई मुझे
तेज़-रौ अहबाब हैराँ हैं मिरी रफ़्तार पर
शब के सन्नाटे ही में करता है सच्ची गुफ़्तुगू
शहर अपना दुख सुनाता है दर ओ दीवार पर
ज़िंदगी करना वो मुश्किल फ़न है ‘अशहर’ हाशमी
जैसे कि चलना पड़े बिजली के नंगे तार पर
अजनबी की आवाज़ / आरसी प्रसाद सिंह
आपके इस शहर में गुज़ारा नहीं
अजनबी को कहीं पर सहारा नहीं
बह गया मैं अगर, तो बुरा क्या हुआ ?
खींच लेती किसे तेज़ धारा नहीं
आरज़ू में जनम भर खड़ा मैं रहा
आपने ही कभी तो पुकारा नहीं
हाथ मैंने बढ़ाया किया बारहा
आपको साथ मेरा गवारा नहीं
मौन भाषा हृदय की उन्हें क्यों छुए ?
जो समझते नयन का इशारा नहीं
मैं भटकता रहा रौशनी के लिए
गगन में कहीं एक तारा नहीं
लौटने का नहीं अब कभी नाम लो
सामने है शिखर और चारा नहीं
बस, लहर ही लहर एक पर एक है
सिंधु ही है, कहीं भी किनारा नहीं
ग़ज़ल की फसल यह इसी खेत की
किसी और का घर सँवारा नहीं
All Ghazal Best & Superb
Thanks For Sharing