अगरचे इश्क़ में इक बे-ख़ुदी सी रहती है / ‘शमीम’ करहानी
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अगरचे इश्क़ में इक बे-ख़ुदी सी रहती है
मगर वो नींद भी जागी हुई सी रहती है
वही तो वजह-ए-तआरूफ़ है कोई क्या जाने
अदा अदा में जो इक बे-रूख़ी सी रहती है
बड़ी अजीब है शब-हा-ए-ग़म की ज़ुल्मत भी
दिए जलाओ मगर तीरगी सी रहती है
हज़ार दर्द-ए-फ़राएज़ हैं और दिल-ए-तन्हा
मिरे ख़ुलूस को शर्मिंदगी सी रहती है
‘शमीम’ ख़ून-ए-जिगर से उभारिए लेकिन
हर एक नक़्श में कोई कमी सी रहती है
अगरचे दिल को ले साथ अपने आया अश्क मिरा / बाक़र आग़ा वेलोरी
अगरचे दिल को ले साथ अपने आया अश्क मिरा
निगाह में तिरी हरगिज़ न भाया अश्क मिरा
मैं तेरे हिज्र में जीने से हो गया था उदास
पे गर्म-जोशी से क्या क्या मनाया अश्क मिरा
हज़र ज़रूरी है ऐ सर्व-ए-नाज़ इस से तुझे
कि आबशार-ए-मिज़ा का बहाया अश्क मिरा
हुआ है कौन सै ख़ुर्शीद-रू से गर्म इतना
कि मेरे दिल को जो ऐसा जलाया अश्क मिरा
ब-रंग-ए-ग़ुंचा-ए-अफ़्सुर्दा हो गया था ये दिल
सो वैसे मुर्दा को पल में जलाया अश्क मिरा
हुआ वो जब नज़र-अंदाज़ यार का ‘आगाह’
मुझे ये बे-असरी पर हँसाया अश्क मिरा
अगरचे मुझको समर्पित किसी का यौवन था / रमेश ‘कँवल’
अगरचे मुझको समर्पित किसी का यौवन था
मैं बेवफ़ा था, कहीं और मेरा तन मन था
न छत थी और न दीवारो-दर, न आंगन था
अभाव के घने जंगल में मेरा बचपन था
उभरते टूटते रिश्तों का खोखलापन था शजर1
शजर पे इन्हीं लज़्ज़तों2 का गुलशन था
झिझकती झेंपती गजगामिनी नदी थी उधर
इधर उमंडते समुन्दर का बावलापन था
वो ख़्वाबगाह3 की ग़ज़लें सुनार ही थी मुझे
अदा-ए-ख़ास4 से उसका खनकता कंगन था।
वरक़5 वरक़ पे मुनव्वर6 थीं लब7 की तहरीरें8
किताबे-जिस्म का हरबाब9 मुझ से रौशन था
नदी ने रेत बनाया था काटकर जिनको
उन्हींचटानोंकाफिरडेल्टापेबंधनथा
मैं ख़ुश लिबास मनाज़िर10 सजा के लाता रहा
मेरी ग़ज़ल का अलगल हजा था अलगफ़न11 था
न पूछ बेबसी उसके कुंवारेपन की‘कंवल’
हवस के नाग लपेटे बदन का चंदन था
1. वृक्ष 2. आनंद 3.शयनागार 4. विशेषहाव-भाव 5. पृष्ठ-पन्ना
6. प्रकाशमान 7. होंट8. लिखावट 9. अध्याय 10. दृश्य,
11. शिल्प-कला।
अगरचे मैं इक चट्टान सा आदमी रहा हूँ / मोहसिन नक़वी
अगरचे मैं इक चट्टान सा आदमी रहा हूँ
मगर तेरे बाद हौसला है के जी रहा हूँ
वो रेज़ा रेज़ा मेरे बदन में उतर रहा है
मैं क़तरा क़तरा उसी की आँखों को पी रहा हूँ
तेरी हथेली पे किस ने लिखा है क़त्ल मेरा
मुझे तो लगता है मैं तेरा दोस्त भी रहा हूँ
खुली हैं आँखें मगर बदन है तमाम पत्थर
कोई बताए मैं मर चुका हूँ के जी रहा हूँ
कहाँ मिलेगी मिसाल मेरी सितम-गरी की
के मैं गुलाबों के ज़ख़्म काँटों से सी रहा हूँ
न पूछ मुझ से के शहर वालों का हाल क्या था
के मैं तो ख़ुद अपने घर में भी दो घड़ी रहा हूँ
मिला तो बीते दिनों का सच उस की आँख में था
वो आश्ना जिस से मुद्दतों अजनबी रहा हूँ
भुला दे मुझ को के बे-वफ़ाई बजा है लेकिन
गँवा न मुझ को के मैं तेरी ज़िंदगी रहा हूँ
वो अजनबी बन के अब मिले भी तो क्या है ‘मोहसिन’
ये नाज़ कम है के मैं भी उस का कभी रहा हूँ
अगरचे लाई थी कल रात कुछ नजात हवा / अतीक़ इलाहाबादी
अगरचे लाई थी कल रात कुछ नजात हवा
उड़ा के ले गई बादल भी साथ साथ हवा
मैं कुछ कहूँ भी तो कैसे कि वो समझते हैं
हमारी ज़ात हवा है हमारी बात हवा
उन्हें ये ख़ब्त है वो क़ैद हम को कर लेंगे
तुम्हीं बताओ कि आई कि के हाथ हवा
किसी भी शख़्स में ठहराओ नाम का भी नहीं
हमें तो लगती है ये सारी काएनात हवा
उड़ा के फूलों के जिस्मों से ख़ुशबू सारी
करे है मेरे लिए पैदा मुश्किलात हवा
‘अतीक़’ बुझता भी कैसे चराग़-ए-दिल मेरा
लगी थी उस की हिफ़ाज़त में सारी रात हवा
All Ghazal Best & Superb
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