अपना घर / प्रभाकिरण जैन
Contents
- 1 अपना घर / प्रभाकिरण जैन
- 2 अपना घर / श्रीप्रसाद
- 3 अपना देश / सूर्यकुमार पांडेय
- 4 अपनी दुनिया सबसे न्यारी / दीनदयाल शर्मा
- 5 अपने रहे न घने नीम के साए / रमेश तैलंग
- 6 अपलम जी, चपलम जी / प्रकाश मनु
- 7 अपाहिज भोर होती है / रमेश तैलंग
- 8 अप्रैल का गीत / रमेश रंजक
- 9 अब आई बरसात / महेश कटारे सुगम
- 10 अब तो खाओ / देवेंद्रकुमार
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माँ, क्या हो सकता है ऐसा
जादू वाला घर हो अपना,
जहाँ धूप हो उसी दिशा में
घर का दरवाजा हो अपना?
हो न अँधेरा, रहे उजाला
जहाँ बना हो अपना घर,
माँ, बतलाऊँ सच्ची-सच्ची
मुझे रात को लगता डर।
अपना घर / श्रीप्रसाद
अपने घर की बात अलग है
लगता है घर प्यारा
कच्चा-पक्का ऊँचा-नीचा
सायबान ओसारा
छत लगती है इंद्रलोक-सी
आँगन बागों जैसा
दरवाजे, घर का चबूतरा
मीठे रागों जैसा
चिड़ियाँ साथिन होतीं, जिनसे
घर गूँता हमारा
दिल्ली है, बंबई शहर है
भवन बीस तल वाले
आसमान को छूते हैं ये
लगते बड़े निराले
मगर खुशी की तो बहती है
अपने ही घर धारा
घर का हर कमरा-बरामदा
हर खिड़की-दरवाजा
जैसे हर क्षण हमें बुलाते
कहते आ जा, आ जा
घर में माँ है, थपकी देती
सो जा राजदुलारा
बाहर अगर कहीं जाते हैं
घर की यादें आतीं
बहुत दूर हों, तब तो अक्सर
आँखें भर-भर जातीं
घर खिल-खिल हँसने लगता है
ज्यों संसार हमारा
अपने घर की बात अलग है
लगता है घर प्यारा।
अपना देश / सूर्यकुमार पांडेय
गर्मी का मौसम जब आए,
सूरज रंग-गुलाल लुटाए।
वर्षा में बादल पिचकारी-
बनकर हमें भिगोता जाए।
जाड़ों में कुहरे के उजले-
कपड़े लाता अपना देश।
हर मौसम में होली का
त्योहार मनाता अपना देश।
गंगा की लहरों-सा चंचल,
दृढ़ विन्ध्याचल-सा ठहरा।
तन हिमगिरि से भी ऊँचा है,
मन सागर से भी गहरा।
केसर की क्यारी-सा हर पल-
गन्ध लुटाता अपना देश।
कहीं डांडिया, गरबा, गिद्दा,
कत्थक और भरत-नाट्यम।
बिरहा कहीं, कहीं पर चैता,
कहीं मृदंग, ढोल ढम-ढम।
फागुन आते ही मस्ती में-
तान लगाता अपना देश।
खेत और खलिहानों में,
हर पल इठलाता अपना देश।
कितना प्यारा देश हमारा,
हँसता-गाता अपना देश।
अपनी दुनिया सबसे न्यारी / दीनदयाल शर्मा
पलभर में लड़तें हैं हम सब
पलभर में मिलतें हैं हम सब
अपनी दुनिया सबसे न्यारी
लगती हमको सबसे प्यारी।
अपने रहे न घने नीम के साए / रमेश तैलंग
धान पराया हुआ, हल्दी परायी,
चढ़ गयी नीलामी पर अमराई
ऐसी विदेसिया ने करी चतुराई.
अपने रहे न घने नीम के साए
गमलों में कांटे ही कांटे उगाये,
पछुवा के रंग में रंगी पुरवाई.
ऐसी विदेसिया ने करी चतुराई.
पानी तो बिक गया बीच बाजारी,
धूप-हवा की कल आएगी बारी,
सौदागरों ने है मंडी लगाईं.
ऐसी विदेसिया ने करी चतुराई.
रोज दिखाके नए सपने सलोने,
हाथों में दे दिए मुर्दा खिलोने,
राम दुहाई मेरे राम दुहाई.
ऐसी विदेसिया ने करी चतुराई.
अपलम जी, चपलम जी / प्रकाश मनु
अपलम जी, चपलम जी दिल्ली आए हैं,
अपलम जी, चपलम जी क्यों घबराए हैं?
अपलम जी, चपलम जी दिल्ली देखेंगे,
दिल्ली की ढिल्ली सी किल्ली देखेंगे।
बोले-है ऊँची-ऊँची सी कुतुबमीनार,
दिल्ली में सुनते हैं, है एक चोर बाजार।
देखेंगे इंडिया गेट पर खेल-तमाशा,
ढम-ढम बजता ढोल, बजा कैसा ताशा!
लाल किले की झलर-मलर, रौनक सारी,
भीड़-भाड़ जनपथ पर होगी क्या भारी?
चिड़ियाघर में जानवरों का एक रेला,
गुड़िया घर में रंग-बिरंगा सा मेला।
कनाट प्लेस में खाएँगे मिलकर भल्ले,
अपलम बोले-चपलम, अपने हैं हल्ले!
अपलम जी तो ऊँची टोपी हैं पहने,
चपलम जी की नीली टाई, क्या कहने!
दौड़-दौड़कर घूम रहे हैं वे दोनों,
बीच सड़क पर झूम रहे हैं वे दोनों।
घूम-घामकर फिर आए जंतर-मंतर,
उछल-उछलकर बोले-है कितना सुंदर!
जंतर-मंतर में देखा ऐसा तंतर,
दोनों बोले-भैया यह है जादू-मंतर!
देख-देखकर अपलम जी मुसकाए हैं,
थोड़े खुश हैं, थोड़ा सा झल्लाए हैं।
अपलम जी, चपलम जी दिल्ली आए हैं,
समझ न आया, क्यों इतना बौराए हैं!
अपाहिज भोर होती है / रमेश तैलंग
ईंट पत्थर पर टिकी आराधना कमजोर होती है.
जो दिखावे के लिए हो प्रार्थना वो शोर होती है.
भीड़ का चेहरा नहीं होता कोई भी
भीड़ के केवल हज़ारों हाथ होते हैं,
और उन्मादी किसम के लोग ही बस
भीड़ की परछाइयों के साथ होते हैं,
लोग – जिनकी देह तो क्या आत्मा भी चोर होती है.
वाकज़ालों में उलझ जाएँ अगर तो
पुण्यतम संकल्प भी न अर्थ पाते हैं,
हो नहीं सम्मान जो सम्पूर्ण रचना का
धर्म हो या कर्म सारे व्यर्थ जाते हैं,
संधि करले कालिमा से तो अपाहिज भोर होती है.
जो दिखावे के लिए हो प्रार्थना वो शोर होती है.
अप्रैल का गीत / रमेश रंजक
पकी फ़सल के साथ पके दिन
क़लम और दवात के ।
धीरे-धीरे छूट गए दिन —
बातों की बरसात के ।।
मरे हुए ज़िन्दा हो बैठे
छोटे से इतिहास में
नदी पहाड़ों वाली दुनिया
आकर बैठी पास में
छोड़ शरारत रटो पहाड़े
चार पाँच छह सात के ।
धीरे-धीरे छूट गए दिन —
बातों की बरसात के ।।
जब लूडो की साँप-नसैनी
अँग्रेज़ी ने तोड़ दी
तब हिन्दी की बिन्दी ने
कैरम की क़िस्मत फोड़ दी
चहल-पहल के रंग उड़ गए
बिना बात की बात के
धीरे-धीरे छूट गए दिन —
बातों की बरसात के ।।
होली के पकवान पचाकर
बस्ता मोटा हो गया
हमको लगा कि जैसे अपना
आँगन छोटा हो गया
दुपहर के स्कूल हो गए
फिर से ठण्डी प्रात के ।
पकी क़लम के साथ पके दिन
क़लम और दवात के ।
धीरे-धीरे छूट गए दिन —
बातों की बरसात के ।।
अब आई बरसात / महेश कटारे सुगम
बन्दर बोला, सुनो बन्दरिया
अब आई बरसात।
पानी बरसे, बिजली चमके
क्या होंगे हालात।
तभी बन्दरिया बोली हँसकर
क्यों मन में घबराओ।
जाकर तुम बाज़ार बड़ा-सा
एक छाता ले आओ।
उसके नीचे हम मस्ती में
उछलेंगे – कूदेंगे।
ख़ूब बरसते पानी में भी
निर्भय हो घूमेंगे।
अब तो खाओ / देवेंद्रकुमार
ताक धिना-धिन
ताल मिलाओ
हँसते जाओ,
गोरे – गोरे
थाल कटोरे
लो चमकाओ!
चकला – बेलन
मिलकर बेलें,
फूल – फुलकिया
अम्माँ मेरी
सेंक – सेंककर
खूब फुलाओ!
भैया आओ
अम्माँ को भी
यहाँ बुलाओ,
प्यारी अम्माँ
सबने खाया
अब तो खाओ!
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