इक्कीस का क़ानून / सुकुमार राय
Contents
- 1 इक्कीस का क़ानून / सुकुमार राय
- 2 इतनी बात / कृष्ण शलभ
- 3 इतने अच्छे बनो / प्रकाश मनु
- 4 इतिहासों में लिख जाती है / प्रभुदयाल श्रीवास्तव
- 5 इधर-उधर / दीनदयाल शर्मा
- 6 इन्द्रधनुष / रमेश तैलंग
- 7 इन्द्रधनुष / श्रीनाथ सिंह
- 8 इम्तहान की बिल्ली / नागेश पांडेय ‘संजय’
- 9 इम्तहान में होली / उषा यादव
- 10 इम्तिहान से छुट्टी पाई / कन्हैयालाल मत्त
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भोलेनाथ इस देश के राजा,
भाजी टका, टके सेर खाजा।
कोई यहाँ फिसलकर गिरा,
समझो गया फटाफट धरा।
क़ाज़ी के याँ केस चलेगा,
इक्कीस रुपया फ़ाइन लगेगा।
शाम सात के पहले भइये,
छींकोगे तो परमिट चहिए।
छींक दिया जो परमिट बिना,
बजे पीठ पर ता धिन धिना।
कोतवाल ख़ुद दे नसवार,
छींक दिलाए इक्कीस बार।
दाँत हिले तो लगती भारी
चार टके की मालगुज़ारी।
मूँछ अगर लम्बी करनी है,
सौ आने की फ़ी भरनी है –
मुश्कें कस और गरदनियाय,
इक्कीस बार सलाम कराएँ।
चलती राह किसी की नज़र
फिरी अगर कुछ इधर-उधर,
ख़बर गई राजा को यानी
मिनटों में पलटन आ जानी।
धूप में खड़ा करके लाला,
पानी प्यायें इक्कीस प्याला।
कविता लिखने वालों को धर,
रखवाते पिंजरे के अन्दर।
और सटाकर मुँह से कान,
पढ़ें पहाड़ा सौ शैतान[1]।
बनिये का खाता पकड़ाते,
इक्कीस पेज हिसाब कराते।
और वहाँ का ऐसा न्याय,
रात आधी जो नाक बजाए,
गोबर, बेल की गोंद मिलाकर,
उसके सिर में ख़ूब लगाकर,
इक्कीस बार दिलाकर चक्कर,
इक्कीस घण्टे रखें टाँगकर।
सुकुमार राय की कविता : एकुशे आईन (একুশে আইন) का अनुवाद
शिव किशोर तिवारी द्वारा मूल बांग्ला से अनूदित
इतनी बात / कृष्ण शलभ
मुन्ना बोला-ओ री अम्माँ,
मेरी गुल्लक में कुछ पैसे,
जिनको मैंने जोड़-जोड़ कर
रख छोड़े हैं, जैसे-तैसे।
इन पैसों से पहले सोचा
जाकर खेल-खिलौने लाऊँ,
फिर यह सोचा, इन पैसों से
डट कर चाट-पकौड़ी खाऊँ।
लेकिन फिर यह मन में आया
अम्माँ अपना रामलुभाया,
लगता है वह दुखी बड़ा है
कल कक्षा में खाली आया।
उसके पास किताब नहीं है,
तब यह सोचा, यही सही है,
उसको चलूँ, किताबें ले दूँ
इतनी बात आपसे कह दूँ!
इतने अच्छे बनो / प्रकाश मनु
इतने ऊँचे उठो कि जैसे
पेड़ हवा में लहराए,
इतने ऊँचे उड़ो कि नभ में
कीर्ति-पताका फहराए।
ऐसी हो गति, जैसे आँधी
से सारा जग थर्राता,
ऐसे सजल बनो, बादल ज्यों
नन्ही बूँदें बरसाता।
इतने हो मजबूत कि जैसे
हिमगिरि की हैं चट्टानें,
लेकिन मन कोमल हो जैसे
झरनों के मीठे गाने।
इतना मीठा बोलो, जैसे
कोयल का है पंचम स्वर,
मन इतना फैला-फैला हो
जैसे यह नीला अंबर!
इतने गाने गाओ जिससे
हवा सुरीली हो जाए,
ऐसे तुम मुसकाओ, वन में
कली-कली हँस, खिल जाए।
इतने अच्छे बनो कि जैसे
धरती सबको देती है,
नहीं माँगती कुछ भी हमसे-
सबको अपना लेती है!
इतिहासों में लिख जाती है / प्रभुदयाल श्रीवास्तव
यदि डरे पानी से तो फिर,
कैसे नदी पार जाओगे|
खड़े रहे नदिया के तट पर,
सब कुछ यहीं हार जाओगे|
पार यदि करना है सरिता,
पानी में पग रखना होगा|
किसी तरह के संशय भय से,
मुक्त हर तरह रहना होगा|
डरने वाले पार नदी के,
कभी आज तक जा न पाये|
वहीं निडर दृढ़ इच्छा वाले,
अंबर से तारे ले आये|
दृढ़ इच्छा श्रद्धा तनमयता,
अक्सर मंजिल तक पहुंचाती|
मंजिल तक जाना पड़ता है,
मंजिल चलकर कभी न आती|
दृढ़ इच्छा, विश्वास अटल, से,
वीर शिवाजी कभी न हारे,
दुश्मन को चुन चुन कर मारा,
दिखा दिये दिन में ही तारे|
वीर धीर राणा प्रताप से,
त्यागी इसी देश में आये|
पराधीन ना हुये कभी भी,
मुगलों से हरदम टकराये|
रानी लक्ष्मी बाई लड़ी तो,
उम्र तेईस में स्वर्ग सिधारी|
तन मन धन सब कुछ दे डाला,
अंतरमन से कभी ना हारी|
वीर बहादुर बनकर रहना,
वीरों की दुनियाँ दीवानी|
इतिहासों में लिख जाती है,
बलिदानों की अमर कहानी|
इधर-उधर / दीनदयाल शर्मा
इधर-उधर क्या देख रहो हो।
आओ मिलकर काम करें हम।।
बात-बात पर झगड़ रहे हो।
आओ मिलकर काम करें हम।।
झगड़ा बढिय़ा बात नहीं है।
आओ मिलकर काम करें हम।।
काम से कभी न कतराएँ हम।
आओ मिलकर काम करें हम।।
काम होगा, नाम भी होगा।
आओ मिलकर काम करें हम।।
इन्द्रधनुष / रमेश तैलंग
सात रंग की चुन्नियाँ।
लेकर आईं बदलियाँ।
उन्हें धूप में लहराया।
इन्द्रधनुष एक दिखलाया।
देख उसे मन हर्षाया।
बच्चा-बच्चा चिल्लाया।
देखो, इन्द्रधनुष आया।
देखो, इन्द्रधनुष आया।
इन्द्रधनुष / श्रीनाथ सिंह
इन्द्रधनुष निकला है कैसा।
कभी न देखा होगा ऐसा।
रंग बिरंगा नया निराला,
पीला लाल बैंगनी काला।
हरा और नारंगी नीला,
चोखा चमकदार चटकीला।
इस दुनिया से आसमान पर,
पुल सा चढ़ा हुआ है सुंदर।
है कतार मोरों की आला,
या बहुरंन्गी मोहन माला।
अटक गया है बादल में या,
सूर्यदेव के रथ का पहिया।
पृथ्वी पर छाई हरियाली,
बहती ठंडी हवा निराली
जरा जरा बूंदें झड़ती हैं,
नदियाँ क्या उमड़ी पड़ती हैं।
इन सबसे बढ़ कर इकला,
वह जो इन्द्रधनुष है निकला।
खड़ा स्वर्ग सा दरवाजा,
तू भी लख रे अम्मा, आ जा।
इम्तहान की बिल्ली / नागेश पांडेय ‘संजय’
इम्तहान की बिल्ली आई,
बड़े जोर से वह गुर्राई।
सारे चूहे काँपे थर-थर,
झट भागे सिर पर पग रखकर।
पहुँचे जिसके तिसके बिल में,
धुकुर-पुकुर थी सबके दिल में।
छूट रही थी तेज रुलाई
इम्तहान की बिल्ली आई।
चहकी इम्तहान की बिल्ली,
लगी उड़ाने सबकी खिल्ली-
है कोई जो बाहर आए,
आकर मुझसे आँख मिलाए,
याद दिला दूँगी रघुराई,
इम्तहान की बिल्ली आई।
सुन बिल्ली की बातें तीखी,
नेहा बाहर आकर चीखी-
‘भाग! अरी, ओ बिल्ली कानी,
वरना याद दिला दूँ नानी।
बिल्ली की मति थी चकराई,
इम्तहान की बिल्ली आई।
काँपी इम्तहान की बिल्ली,
गई आगरा होकर दिल्ली।
नेहा का था मान बढ़ा अब,
था उसका सम्मान बढ़ा अब।
वह सौ में सौ नम्बर लाई
हुई हर जगह खूब बड़ाई।
इम्तहान में होली / उषा यादव
होली, तुमसे यही शिकायत
करते बच्चे हम।
इम्तहान के दिनों दौड़कर
आती क्यों छम-छम?
माँ कहतीं बस बहुत हो गया,
अब रख दो पिचकारी।
यदि बुखार आ गया कहीं
तो होगी मुश्किल भारी।
पर अपना मन रमे रंग में
क्या ज्यादा, क्या कम!
इम्तहान के दिनों दौड़कर
आती क्यों छम-छम?
गुब्बारे पानी वाले भी
हमको बहुत लुभाएँ।
सबके ऊपर उन्हें फेंककर
हम बच्चे हर्षाएँ।
लेकिन नल के पास पहुँचते
पड़े दाँत क्या कम!
इम्तहान के दिनों दौड़कर
आती क्यों छम-छम?
इम्तहान का भूत, पर्व का
मजा बिगाड़े आधा।
और उधर ढोलक की थापें
दें पढ़ने में बाधा।
खी-खी करके तुम हँसती हो
कुछ तो करो शरम!
इम्तहान के दिनों दौड़कर
आती क्यों छम-छम?
किसने सीख तुम्हें दी गंदी
इन्हीं दिनों आने की।
हम बच्चों के मौज-मजे को
फीका कर जाने की।
हल्ला-गुल्ला, धूम-धड़ाका
करें खूब फिर हम।
इम्तहान के बाद अगर
तुम आओ छम-छम-छम।
इम्तिहान से छुट्टी पाई / कन्हैयालाल मत्त
बौड़मजी ने इम्तिहान में,
खूब अक्ल का जोर लगाया।
अगली-बगली रहे झाँकते,
फिर भी एक सवाल न आया।।
गिनते रहे हॉल की कड़ियाँ,
यों ही घंटे तीन बिताए।
कोरी कापी वहीं छोड़कर,
हँसी-खुशी वापस घर आए।।
आकर खूब कबड्डी खेले,
फिर यारों में गप्प लड़ाई।
मौज-मजे से दिन गुजारकर,
इम्तिहान से छुट्टी पाई।।
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