आम रसीले / मन्नन द्विवेदी गजपुरी
Contents
- 1 आम रसीले / मन्नन द्विवेदी गजपुरी
- 2 आम रसीले भोले-भाले! / रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’
- 3 आमक गाछि / रामदेव झा
- 4 आया अन्धड़ / सूर्यकुमार पांडेय
- 5 आया सवेरा / योगेन्द्र दत्त शर्मा
- 6 आलपीन के सिर होता / रमापति शुक्ल
- 7 आलस छोड़ो / दीनदयाल शर्मा
- 8 आलू / रमेश तैलंग
- 9 आलू का पराँठा / देवेंद्र कुमार ‘देव’
- 10 आलू-गोभी! / विश्वप्रकाश ‘कुसुम’
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पके-पके क्या आम रसीले,
हरे-लाल हैं नीले-पीले!
आँधी अगर कभी आ जाती,
आम हजारों पीट गिराती!
इनको लेकर चलो ताल पर,
वहाँ खूब पानी से धोकर!
सौ-पचास तक खाएँगे हम,
आज न भोजन पाएँगे हम!
’सरस्वती’ पत्रिका के हीरक जयंती विशेषांक में प्रकाशित
आम रसीले भोले-भाले! / रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’
पकने को तैयार खड़े हैं!
शाखाओं पर लदे पड़े हैं!!
झूमर बनकर लटक रहे हैं!
झूम-झूम कर मटक रहे हैं!!
कोई दशहरी कोई लँगड़ा!
फजरी कितना मोटा तगड़ा!!
बम्बइया की शान निराली!
तोतापरी बहुत मतवाली!!
कुछ गुलाब की खुशबू वाले!
आम रसीले भोले-भाले!!
आमक गाछि / रामदेव झा
नहुँ नहुँ सिहकल जखन बसात
डोल’ लागल आमक पात
मजरल गाछी टिकुला भेल
धिया-पुता सब गाछी गेल
टिकुलासँ पथिया भरि गेल
अपना- अपनी घरमे देल
देथि पुदीना ओ मिरचाई
चटनी पीसथि बड़की दाइ
आमिल बनलै चीरि सुखाय
बनल कसौँझी तेल मिलाय
आम डम्हायल लीबल डारि
ओगरबाह खोपड़ी देल गाड़ि
ऊठल जोरगर जखन बिहाड़ि
डारि-पातकेँ देलक झाड़ि
लागल आमक पैघ पथार
फाँड़ासँ बनि गेल अँचार।
आया अन्धड़ / सूर्यकुमार पांडेय
आया अंधड़, आया अंधड़,
हड़बड़-हड़बड़, आया अंधड़।
गिरी डालियाँ, उड़ते पत्ते,
उड़ती टोपी, कपड़े-लत्ते।
उड़ते बरतन तड़बड़-तड़बड़,
आया अंधड़, आया अंधड़।
गिरी केतली, ढक्कन भागा,
उल्टा इक्का, लुढ़का ताँगा।
धम्म-धड़म-धड़, खड़बड़-खड़बड़,
आया अंधड़, आया अंधड़।
छप्पर-झुग्गी, महल-दुमहले,
आँधी से सबके दिल दहले।
धूल भरी, सब गड़बड़-गड़बड़,
आया अंधड़, आया अंधड़।
आया सवेरा / योगेन्द्र दत्त शर्मा
उगा है रोशनी का गोल घेरा,
गगन में फिर उतर आया सवेरा!
उषा की लाल आभा छा रही है
दुबककर रात काली जा रही है,
नया संदेश लेकर सूर्य आया
दिवस की जगमगाहट भा रही है।
किसी भी बात का खतरा नहीं अब,
किरण की मार से भागा अँधेरा!
अँधेरी रात नभ से छँट गई है
हठीली धुंध सारी हट गई है,
उड़े पंछी मगन-मन चहचहाकर
गगन में अब नई पौ फट गई है।
कुहासे ने समेटे पंख अपने,
उजाला डालता हर ओर डेरा!
नई रौनक उषा के साथ आई
नए विश्वास की सौगत आई,
नया उत्साह है ठंडी हवा में
नई आशा अचानक हाथ आई।
गगन के फिर सुनहले शिखर छूने,
चले खग छोड़कर अपना बसेरा!
आलपीन के सिर होता / रमापति शुक्ल
आलपीन के सिर होता, पर
बाल न उस पर होता एक,
कुर्सी के दो बाँहें हैं, पर
गेंद नहीं सकती है फेंक!
कंधी के हैं दाँत मगर वह
चबा नहीं सकती खाना,
गला सुराही का है पतला,
किंतु न गा सकती गाना!
होता है मुँह बड़ा घड़े का
पर वह बोल नहीं सकता,
चार पाँव टेबुल के होते
पर वह डोल नहीं सकता!
जूते के है जीभ मगर वह
स्वाद नहीं चख सकता है,
आँखें होते हुए नारियल
कभी न कुछ लख सकता है!
बकरे के लंबी दाढ़ी है
लेकिन बुद्धि न उसके पास,
झींगुर के मूँछे हैं फिर भी
दिखा नहीं सकता वह त्रास!
है मनुष्य के पास सभी कुछ
ले सकता है सबसे काम,
इसीलिए दुनिया में सबसे
बढ़कर है उसका ही नाम।
आलस छोड़ो / दीनदयाल शर्मा
मुर्गा बोला- जागो भैया,
बिस्तर में क्यों पड़े हो तुम ।
आलस को अब दूर भगाओ,
सोच रहे हो तुम गुमसुम ।
आलस है हम सबका दुश्मन
नहीं काम करने देता ।
जो भी होता पास हमारे,
उसको भी यह हर लेता ।
बाड़े में भी बोली गैया
बिस्तर में क्यों पड़े हो तुम ।
आलस को अब दूर भगाओ,
सोच रहे हो तुम गुमसुम।
चीं-चीं करती कहे चिरैया,
बिस्तर में क्यों पड़े हो तुम ।
आलस को अब दूर भगाओ,
सोच रहे हो तुम गुमसुम ।
गाड़ी का कहता है पहिया,
बिस्तर में क्यों पड़े हो तुम ।
आलस को अब दूर भगाओ,
सोच रहे हो तुम गुमसुम ।
आलस छोड़ो सबकी मानो
अरे! अब तो उठ जाओ तुम ।
आलस को अब दूर भगाओ,
सोच रहे हो तुम गुमसुम ।
आलू / रमेश तैलंग
बारह महीने मेरी पूछ रहती।
ये दुनिया मुझे प्यार से आलू कहती।
पराँठे बनाओ, समोसे बनाओ।
टिक्की बनाओ या डोसे बनाओ।
जरूरत मेरी इन सभी में है रहती।
ये दुनिया मुझे प्यार से आलू कहती।
पहाड़ों पे मैं हूँ, मैं मैदान में हूँ।
मैं नमकीन, और मीठे पकवान में हूँ।
मैं धरती का बेटा, मेरा माँ है धरती।
ये दुनिया मुझे प्यार से आलू कहती।
आलू का पराँठा / देवेंद्र कुमार ‘देव’
देख पराँठा आलू का,
मन ललचाया भालू का।
बोला, हम भी खाएँगे,
कुछ घर पर ले जाएँगे।
कहे लोमड़ी, ना-ना-ना,
ये घर पर ले जाना ना।
इतने सेंक ना पाऊँगी,
खुद भूखी रह जाऊँगी।
आलू-गोभी! / विश्वप्रकाश ‘कुसुम’
दावत ने है मन ललचाया!
क्या लोगे तुम आलू-गोभी?
क्या खाओगे आलू-गोभी?
गोभी का है स्वाद बढ़ाया!
सबकी यही पुकार-आलू-गोभी
सब करते तकरार-आलू-गोभी!
जैसी गोभी वैसे आलू,
आलू का बन गया कचालू!
‘गोभी-गोभी’ हैं चिल्लाते,
गोभी की हैं धूम मचाते!
गोभी जैसे हो रसगुल्ला,
नरम-नरम खाते अबदुल्ला!
नहीं चाहिए हमें मिठाई,
आलू-गोभी दे दो भाई।
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