आधा अंधेरा है, आधा उजाला है / अनामिका
Contents
- 1 आधा अंधेरा है, आधा उजाला है / अनामिका
- 2 आधी रात बीत गई / प्रभुदयाल श्रीवास्तव
- 3 आफत में है जान / रमेश तैलंग
- 4 आफत मेरी घड़ी है / प्रकाश मनु
- 5 आफ़त में है जान! / रमेश तैलंग
- 6 आबादी की बाढ़ / ओमप्रकाश चतुर्वेदी ‘पराग’
- 7 आम / श्रीनाथ सिंह
- 8 आम आए / योगेन्द्र दत्त शर्मा
- 9 आम की चटनी / प्रभुदयाल श्रीवास्तव
- 10 आम दशहरी / महेश कटारे सुगम
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एक लोरी गीत: गर्भस्थ शिशु के लिए
आधा अंधेरा है, आधा उजाला है
इस प्रसन्न बेला में
रह-रहकर उठती है
एक हरी मितली-सी,
रक्त के समंदर से लाना है अमृतकलश!
मेरी इन सांसों से
कांप-कांप उठते हैं जंगल,
दो-दो दिल धड़क रहे हैं मुझमें
चार-चार होंठों से पी रही हूं मैं समंदर!
चूस रही हूं एक मीठी बसंती बयार
चार-चार होंठों से!
चार-चार आंखों से कर रही हूं आंखें चार मैं
महाकाल से!
थरथरा उठे हैं मेरे आवेग से सब परबत
ठेल दिया है अपने पैरों से
एक तरफ मैंने उन्हें!
यह प्रसव-बेला है, सोना मत,
इंद्रधनुष के सात रंगों से
है यह बिछौना सौना-मौना।
जनम रहा है जैसे मेरे पातालों से
एक नया आसमान!
अभी सोना मत!
बस, बेटी बस, थोड़ी देर सबर!
फिर मैं निंदिया के महाजल में
डुबकियां लगा दूंगी तुझको खुद,
दुधुवा पिलाके सुला दूंगी तुझको खुद!
जनमतुआ चानी पर छपकूंगी
अंजुरी-भर तेल!
गुजुर-गुजुर आंखों में आंजूंगी
दुनिया के सारे अंधेरे!
लोरी गाएंगी दिशाएं तब-
‘आरे आव, पारे आव
नदिया किनारे आव,
सोने के कटोरिया में
दूध-भात ले ले आव।
बबुआ के मुंहवा में घुटूक!’
आधी रात बीत गई / प्रभुदयाल श्रीवास्तव
आठ लोरियाँ सुना चुकी हूँ,
परियों वाली कथा सुनाई।
आधी रात बीत गई भैया,
अब तक तुमको नींद न आई।
थपकी दे दे हाथ थक गए,
दिया कंठ ने भी अब धोखा ।
अब तो सोजा राजा बेटा,
तू है मेरा लाल अनोखा।
चूर-चूर मैं थकी हुई हूँ,
सचमुच लल्ला राम दुहाई।
आधी रात बीत गई बीत भैया,
अब तक तुमको नींद न आई।
सोए पंख पखेरू सारे,
अलसाए हैं नभ के तारे।
करें अंधेरे पहरेदारी,
धरती सोई पैर पसारे।
बर्फ-बर्फ हो ठंड जम रही,
मार पैर मत फेंक रजाई।
आधी रात बीत गई बीत भैया,
अब तक तुमको नींद न आई।
झपकी नहीं लगी अब भी तो,
सुबह शीघ्र ना उठ पाओगे।
यदि देर तक सोए रहे तो,
फिर कैसे शाला जाओगे।
समझा-समझा हार गई मैं,
बात तुम्हें पर समझ न आई।
आधी रात बीत गई भैया
अब तक तुमको नींद न आई।
आफत में है जान / रमेश तैलंग
बड़के भैया रंग-रंगीले
खूब चबाएँ पान।
मँझले भैया गप्प-गपीले
दिनभर खाएँ कान।
हमारी आफत में है जान।
हम दोनों का हुकुम बजाएँ,
रूठें जब वे, हमीं मनाएँृ,
फिर भी तेवर हमें दिखाएँ
जैसे तीर-कमान।
हमारी आफत में है जान।
ठाठ-बाट तो रखते ऐसे,
मालिक हों दुनिया के जैसे,
देते न लेकिन दस पैसे,
हैं कंजूस महान।
हमारी आफत में है जान।
आफत मेरी घड़ी है / प्रकाश मनु
सुबह हो या शाम
हर वक्त हड़बड़ी है,
आफत मेरी घड़ी है!
दीवार पर टँगी है
या मेज पर खड़ी है,
हाथों में बँध गई तो
सचमुच यह हथकड़ी है!
आफत मेरी घड़ी है!
सुबह-सुबह सबका
लिहाफ खींच लेती,
शालू पे गुस्सा आता
गर आँख मीच लेती।
कहना जरा न माने,
ऐसी ये सिरचढ़ी है!
आफत मेरी घड़ी है!
तैयार होकर जल्दी
स्कूल दौड़ जाओ,
शाम को घर आकर
थोड़ा सा सुस्ताओ।
फिर पढ़ने को बिठाती,
ये वक्त की छड़ी है!
आफत मेरी घड़ी है!
आफ़त में है जान! / रमेश तैलंग
बड़के भैया रंग-रंगीले
ख़ूब चबाएँ पान,
मँझले भैया गप्प-गपीले
दिन-भर खाएँ कान ।
हमारी आफ़त में है जान!
हम दोनों का हुकुम बजाएँ,
रूठें जब वे हमीं मनाएँ,
फिर भी तेवर हमें दिखाएँ
जैसे तीर-कमान।
हमारी आफ़त में है जान!
ठाठ-बाट तो रखते ऐसे,
मालिक हों दुनिया के जैसे,
देते न लेकिन दस पैसे,
हैं कंजूस महान।
हमारी आफ़त में है जान!
आबादी की बाढ़ / ओमप्रकाश चतुर्वेदी ‘पराग’
लालू पंडित गाँव छोडकर,
पहली बार शहर में आए,
भारी भीड़ हर तरफ देखी
कुछ चकराए, कुछ घबराए,
जिसको देखो कुछ भूला-सा,
भागमभाग चला जाता है
चलने में मानुस मानुस से,
टकराता है, भिड़ जाता है।
है सैकड़ों दुकाने जिनमें,
ठूँस-ठूँस सामान भरा है
दोनों ओर सड़क से सटकर,
पटरी पर भी माल धरा है।
साइकिल, रिक्शा, ताँगा, आटो
दौड़ रहीं कारें, बस, ठेले
इतना शोर, रोशनी ऐसी
जैसे लगे हुए सौ मेले।
भरने लगा धुआँ साँसों में,
चलना हुआ दो कदम भारी
कहाँ गाँव की खुली हवाएँ,
कहाँ शहर की मारामारी।
पंडित जी मन ही मन बोले
क्यों इस तरह अशांति छा रही
कुदरत कितनी दूर हो रही,
आबादी की बाढ़ आ रही।
आम / श्रीनाथ सिंह
घर में मेरे आये आम,
मजे बड़े ले आये आम।
मुन्नू, चुन्नू, चंपा, चंदो,
सबने मिल कर खाये आम।
बिन दातों की मुन्नी से हैं,
उठते नहीं उठाये आम।
गली गली में छाये आम,
मजे बड़े ले आये आम।
आंधी आई टूटे आम,
लड़कों ने मिल लूटे आम।
देखो जरा संभल कर चूसो,
कहीं न दब कर फूटे आम।
ओ हो! कपड़े रंगे तमाम,
मजे बड़े ले आये आम।
आम आए / योगेन्द्र दत्त शर्मा
लौटकर बनवास से
जैसे अवध में राम आए,
साल भर के बाद ऐसे ही
अचानक आम आए!
छुट्टियों के दिन
उमस, लू से भरे होने लगे थे,
हम घनी अमराइयों की
छाँह में सोने लगे थे।
मन मनौती-सी मनाता था
कि जल्दी घाम आए!
गरम लूओं के थपेड़ों से भरा
मौसम बिता कर,
ककड़ियाँ, तरबूज, खरबूजे
चले बिस्तर उठाकर।
सोचते थे हम कि कब
वह बादलों की शाम आए!
बारिशों के साथ फिर आया
हवा का एक झोंका,
देर तक चलता रहा फिर
सिलसिला-सा खुशबुओं का!
लाल पीले हरे-
खुशियों से भरे पैगाम आए
चूस लें या काटकर खा लें
रसीले हैं अजब ये
आम है बरसात के बादाम
ढाते हैं गज़ब ये
दशहरी, तोता परी, लँगड़ा
सफेदा नाम आए!
आम की चटनी / प्रभुदयाल श्रीवास्तव
आवाज़ आ रही खटर पटर,
पिस रहे आम सिलबट्टे पर|
अमियों के टुकड़े टुकड़े कर ,
मां ने सिल के ऊपर डाले|
धनियां मिरची भी कूद पड़े,
इस घोर युद्ध में, मतवाले|
फिर हरे पुदेने के पत्ते,
भी मां ने रण में झोंक दिये|
फिर बट्टे से सबको कुचला,
सीने में खंजर भोंक दिये|
मस्ती में चटनी पीस रही,
बैठी मां सन के फट्टे पर|
पिस रहे आम सिलबट्टे पर|
आमों की चटनी वैसे ही ,
तो लोक लुभावन होती है|
दादा दादी बाबूजी को,
गंगा सी पावन दिखती है|
भाभी को यदि कहीं थोड़ी,
अमियों की चटनी मिल जाती|
तो चार रोटियों के बदले,
वह आठ रोटियां खा जाती|
भैया तो लगा लगा चटनी,
खाते रहते हैं भुट्टे पर|
पिस रहे आम सिलबट्टे पर|
चटनी की चाहत में एक दिन,,
सब छीना झपटी कर बैठे|
भैया भाभी दादा दादी,
चटनी पाने को लड़ बैठे|
छोटी दीदी ने छीन लिया,
भैया से चटनी का डोंगा,
इस खींचातानी में डोंगा,
धरती पर गिरा हुआ ओंधा|
चटनी दीदी पर उछल गई,
दिख रहे निशान दुपट्टे पर|
पिस रहे आम सिलबट्टे पर|
आम दशहरी / महेश कटारे सुगम
स्वाद भरा है आम दशहरी
सब आमों में आम दशहरी
ख़ून बढ़ाने वाला है ये
खाओ सुबह-शाम दशहरी
कच्चा-पक्का कोई न देखे
बिकता है बस, नाम दशहरी
गरमी बरखा में दिखता फिर
हो जाता ग़ुम नाम दशहरी
फेरी वाले चिल्लाते हैं
ले लो भैया, आम दशहरी
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