Hindi Poems on Guru या गुरु पर हिन्दी कविताएँ. इस आर्टिकल में बहुत सारी हिन्दी कविताओं का एक संग्रह दिया गया है जिनका विषय गुरु (Guru) पर आधारित है.
Hindi Poems On Guru (Teacher) – गुरु पर हिन्दी कविताएँ
Contents
- 1 Hindi Poems On Guru (Teacher) – गुरु पर हिन्दी कविताएँ
- 1.1 गुरु / शब्द प्रकाश / धरनीदास
- 1.2 एक गुरु के शिष्य / श्रीनाथ सिंह
- 1.3 अचल सुहाग कियो गुरु मेरो / संत जूड़ीराम
- 1.4 अब गुरु सरन लियो तक तेरो / संत जूड़ीराम
- 1.5 माँ तुम प्रथम बनी गुरु मेरी / मानोशी
- 1.6 गुरु के वचन अमियरस / सरहपा
- 1.7 गुरु की खोज / सरवन बख्तावर
- 1.8 गुरु प्रणाली. / शब्द प्रकाश / धरनीदास
- 1.9 प्रार्थना : गुरु कबीरदास के लिए / विजयदेव नारायण साही
- 1.10 खोलो कपाट किवार, चलो गुरु के बाजार / छोटेलाल दास
- 1.11 गुरु-महिमा / कबीर
- 1.12 गुरु चरणों में / शिवदीन राम जोशी
- 1.13 गुरु से बड़ा था गुरु का नाम / गणेश पाण्डेय
- 1.14 खोलिके किवाड़ गुरु, दरसन देहु गुरु / छोटेलाल दास
- 1.15 गुरु है सकल गुणों की खान / कोदूराम दलित
- 1.16 गुरु को प्रणाम है / सुरेश कुमार शुक्ल ‘संदेश’
- 1.17 Related Posts:
गुरु / शब्द प्रकाश / धरनीदास
निर्गुन है गुरु देवता, शिख सर्गुन सब कोय।
रहत सिखावत रैन दिन, धरनी देखु विलोय॥1॥
ब्रह्मा विष्णु महेश मुनि और चौबिस अवतार।
धरनी सो सब शिष्य है, गुरु सो अपरंपार॥2॥
गुरु तो ऐसा चाहिये, माग देय निबाहि।
धरनी निर्मल देह करि, कनक अग्नि जिमि डाहि॥3॥
धरनी सो गुरु धन्य है, जाते तपति बुझाय।
बिछुरा वालमु पाइये, लीजै हृदय लगाय॥4॥
धरनी सो गुरु गरु नहीं, माया को कर घाव।
भजन भेद जानै नहीं, फिरत पुजावै पाव॥5॥
धरनी गुरु के चरण पर, बार-बार बलि जाय।
अन्धाते डीठा कियो, शब्द औषधी लाय॥6॥
धरनी धरनी जो फिरै, बिनु गुरु नहीं लखाव।
बहुत नाम कहि 2 कहा, जो ततु नाम न पाव॥7॥
धरनी शिरपर राखिये, ताहि गुरु के पाव।
जो गुरु आतम रामसे, कर गहि करे मिलाव॥8॥
जीव दया जिसमें नहीं, जिह्वा बसैन न साँच।
काम कोक्ष साधो नहीं, धरनी सो गुरु काँच॥9॥
गुरु जो चाहत शिष्य कँह, खँचि लेत बिनु डोरि।
धरनी बीच परै नहीं, तरै अठासी कोरि॥10॥
धरनी सब जग आँधरो, जात नहीं मुख बोलि।
सोई डिठारो जानिये, पर्दा को दे खोल॥11॥
गुरु महिमा को कहि सकै, गुरु देवत को देव।
जो गुरु तत्व सनेहिया, धरनी सो गुरु सेव॥12॥
धरनी गुरु पूरा मिले, शिष्य सयाना होय।
पलमें पार उतारई, सरबर करै न कोय॥13॥
लरि 2 मरै कि जरि जरी, बूडि मरै किन खाट।
धरनी सो घर ना गयो, जेहि गुरु दियो न बाट॥14॥
हममें बैठा जो रहा, तामें बैठा हम्म।
धरनी गुरु-गम गम किया, नहि तो रहा अगम्म॥15॥
एक गुरु के शिष्य / श्रीनाथ सिंह
शिष्य एक गुरु के हैं हम सब,
एक पाठ पढ़ने वाले।
एक फ़ौज के वीर सिपाही,
एक साथ बढ़ने वाले।
धनी निर्धनी ऊँच नीच का,
हममे कोई भेद नहीं।
एक साथ हम सदा रहे,
तो हो सकता कुछ खेद नहीं।
हर सहपाठी के दुःख को,
हम अपना ही दुःख जानेंगे।
हर सहपाठी को अपने से,
सदा अधिक प्रिय मानेंगे।
अगर एक पर पड़ी मुसीबत,
दे देंगे सब मिल कर जान।
सदा एक स्वर से सब भाई,
गायेंगे स्वदेश का गान।
अचल सुहाग कियो गुरु मेरो / संत जूड़ीराम
अचल सुहाग कियो गुरु मेरो।
मर्म किपाट खुले सब मनके दिल दीदार महल में हेरो।
दृष्ट अदृष्ट एक मत डोले सार शब्द को कियो नबेरो।
कर अनुराग भाग सब जागे कर्म-मर्म को मिटो अंधेरो।
जूड़ीराम सत्गुरु की महिमा कर अपने सो प्रीत घनेरो।
अब गुरु सरन लियो तक तेरो / संत जूड़ीराम
अब गुरु सरन लियो तक तेरो।
करो आनंद फंद नहि व्यापें दुरमत दुविदा दूर खदेरो।
बहो जात भौसागर मांही बांह पकर गुरु मोहु उबेरो।
जान अनाथ नाथ अपनो कर राम नाम को करो बसेरो।
ठाकुरदास मिले गुरु पूरे जूड़ीराम चरन को चेरो।
माँ तुम प्रथम बनी गुरु मेरी / मानोशी
मां तुम प्रथम बनी गुरु मेरी
तुम बिन जीवन ही क्या होता
सूखा मरुथल, रात घनेरी
प्रथम निवाला हाथ तुम्हारे
पहली निंदिया छाँव तुम्हारे
पहला पग भी उंगली थामे
चला भूमि पर उसी सहारे
बिन मां के है सब जग सूना
जैसे गुरु बिन राह अंधेरी
जिह्वा पर भी प्रथम मंत्र का
उच्चारण तो मां ही होता
शिशु हो, युवा, वृद्ध हो चाहे
दुख में मां की सिसकी रोता
द्वार बंद हो जाएँ सारे
माँ के द्वार न होती देरी
मां की पूजा विधि विधान क्या
फूल न चंदन, मंत्र सरल सा
प्रेम पुष्प अँजुरी में भर कर
गुरु के चरणों अर्पित कर जा
आशीषों की वर्षा ऐसी
बजे गगन में मंगल भेरी
मां तुम प्रथम बनी गुरु मेरी
गुरु के वचन अमियरस / सरहपा
गुरु के वचन अमियरस, धाइ न पीयेउ जेहि।
बहु-शास्त्रार्थ-मरुस्थले, तृषितै मरिबो तेहि।
चित्त अचित्तहु परिहरहु, तिमि रहहू जिमि बाल।
गुरुवचने दृढ़ भक्ति करु, होइ है सहज उलास।
गुरु की खोज / सरवन बख्तावर
नदिया के इस पार, बैठल रहली उदास,
कोई लाईके, हिया हमके छोर गैल,
बोले हिया तक हमार-तोहार साथ,
अब और आगे कैसे जाय, कैसे करी हम नदिया पार?
इधर तकली, उधर तकली, कोय देखैते न रहा
बस बैठ गैली मान कर के हार
आँख बन्द होयगे, सूत गैली, ओही नदिया के किनारे
सपना रहा, या सच्चे के, पर ओतने में देखान एगो छबि महान,
रोमांच पुलकित हो जात है देहिया, करत उ दास्तान बयानकृ
वोही सुन्दर सावर रूप, होठ पर दिव्य मुस्कान,
मोर मुकुट, गल बनमाला, दिव्य आभूषण, हाथ में बंसी का प्याला,
पीत वस्त्र रूप अद्भुत निराला,
हिरदय से लगायके बोलिस, हम कराबे तोहके नदिया पार,
मुँह से कछु बानी ना निकरल, आँखन बन गैल हिरदय के द्वार,
तब भैल हमके अहसास-
‘‘गुरु गुरु धुनधत फिरा, गुरु था हमरे पास,
जो कृष्ण को गुरु कहा, उ तो न रहा कभी उदास।’’
गुरु प्रणाली. / शब्द प्रकाश / धरनीदास
निरंकार प्रभु अपरंपार। पूरन प्रगट भये ऊँ कार॥
आदि गुरु नारायण कहये। लक्ष्मी शिष्य वरत निरवहिये॥
वि-ष्वक् सेन सुरसेन कहाये। श्री शठकोय नाथ मुनि गाये॥
पद् विलोचन राम सुजान। यामुन मुनि को महापुरान॥
श्रुतिपर आज सुकीरत कीन्हा। रामानुज कुल तारक चीन्हा॥
पद्म नयन पुनि देवाचार्य। हरि-आनन्द कियो हरि-कार्य॥
राघवनन्द के रामानन्द। जिनके उगे सुरसुरानन्द॥
वेइलियानन्द सिडारिया स्वामी। चेतन वडे विहारी हामी॥
रुरो रामदास मसनंद। जिनके विमल विनोदानन्द॥
तिनको सेवक धरनीदास। गुरु प्रणाली कियो प्रकाश॥
प्रार्थना : गुरु कबीरदास के लिए / विजयदेव नारायण साही
परम गुरु
दो तो ऐसी विनम्रता दो
कि अंतहीन सहानुभूति की वाणी बोल सकूँ
और यह अंतहीन सहानुभूति
पाखंड न लगे।
दो तो ऐसा कलेजा दो
कि अपमान, महत्वाकांक्षा और भूख
की गाँठों में मरोड़े हुए
उन लोगों का माथा सहला सकूँ
और इसका डर न लगे
कि कोई हाथ ही काट खाएगा।
दो तो ऐसी निरीहता दो
कि इसे दहाड़ते आतंक क बीच
फटकार कर सच बोल सकूँ
और इसकी चिन्ता न हो
कि इसे बहुमुखी युद्ध में
मेरे सच का इस्तेमाल
कौन अपने पक्ष में करेगा।
यह भी न दो
तो इतना ही दो
कि बिना मरे चुप रह सकूँ।
खोलो कपाट किवार, चलो गुरु के बाजार / छोटेलाल दास
खोलो कपाट किवार, चलो गुरु के बाजार।
करो ज्ञान के बेपार, मोरि सखिया हे॥टेक॥
करो गुरु के सनमान, छोड़ो मद मोह मान।
गुरुँ देथौं भगती दान, मोरि सखिया हे॥1॥
करो घरो के सब काम, जपो गुरु आठो याम।
छोड़ो फिकर तमाम, मोरि सखिया हे॥2॥
करो याद उपकार, ध्याबो गुरु सरकार।
जोड़ो दोनों दृष्टि-धार, मोरि सखिया हे॥3॥
बाजा बाजै छै अपार, धरो सतशब्द धार।
ऐसैं जैभे भव-पार धरो सतशब्द धार।
ऐसैं जैभे भव-पार, मोरि सखिया हे॥4॥
जैभे पिया-दरबार, पैभे ‘लाल दास’ प्यार।
फेरु ऐभै नैं संसार, मोरि सखिया हे॥5॥
गुरु-महिमा / कबीर
गुरु सो ज्ञान जु लीजिये, सीस दीजये दान।
बहुतक भोंदू बहि गये, सखि जीव अभिमान॥१॥
व्याख्या: अपने सिर की भेंट देकर गुरु से ज्ञान प्राप्त करो | परन्तु यह सीख न मानकर और तन, धनादि का अभिमान धारण कर कितने ही मूर्ख संसार से बह गये, गुरुपद – पोत में न लगे।
गुरु की आज्ञा आवै, गुरु की आज्ञा जाय।
कहैं कबीर सो संत हैं, आवागमन नशाय॥२॥
व्याख्या: व्यवहार में भी साधु को गुरु की आज्ञानुसार ही आना – जाना चाहिए | सद् गुरु कहते हैं कि संत वही है जो जन्म – मरण से पार होने के लिए साधना करता है |
गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब सन्त।
वह लोहा कंचन करे, ये करि लये महन्त॥३॥
व्याख्या: गुरु में और पारस – पत्थर में अन्तर है, यह सब सन्त जानते हैं। पारस तो लोहे को सोना ही बनाता है, परन्तु गुरु शिष्य को अपने समान महान बना लेता है।
कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय।
जनम – जनम का मोरचा, पल में डारे धोया॥४॥
व्याख्या: कुबुद्धि रूपी कीचड़ से शिष्य भरा है, उसे धोने के लिए गुरु का ज्ञान जल है। जन्म – जन्मान्तरो की बुराई गुरुदेव क्षण ही में नष्ट कर देते हैं।
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि – गढ़ि काढ़ै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट॥५॥
व्याख्या: गुरु कुम्हार है और शिष्य घड़ा है, भीतर से हाथ का सहार देकर, बाहर से चोट मार – मारकर और गढ़ – गढ़ कर शिष्य की बुराई को निकलते हैं।
गुरु समान दाता नहीं, याचक शीष समान।
तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दीन्ही दान॥६॥
व्याख्या: गुरु के समान कोई दाता नहीं, और शिष्य के सदृश याचक नहीं। त्रिलोक की सम्पत्ति से भी बढकर ज्ञान – दान गुरु ने दे दिया।
जो गुरु बसै बनारसी, शीष समुन्दर तीर।
एक पलक बिखरे नहीं, जो गुण होय शारीर॥७॥
व्याख्या: यदि गुरु वाराणसी में निवास करे और शिष्य समुद्र के निकट हो, परन्तु शिष्ये के शारीर में गुरु का गुण होगा, जो गुरु लो एक क्षड भी नहीं भूलेगा।
गुरु को सिर राखिये, चलिये आज्ञा माहिं।
कहैं कबीर ता दास को, तीन लोकों भय नाहिं॥८॥
व्याख्या: गुरु को अपना सिर मुकुट मानकर, उसकी आज्ञा मैं चलो | कबीर साहिब कहते हैं, ऐसे शिष्य – सेवक को तनों लोकों से भय नहीं है |
गुरु सो प्रीतिनिवाहिये, जेहि तत निबहै संत।
प्रेम बिना ढिग दूर है, प्रेम निकट गुरु कंत॥९॥
व्याख्या: जैसे बने वैसे गुरु – सन्तो को प्रेम का निर्वाह करो। निकट होते हुआ भी प्रेम बिना वो दूर हैं, और यदि प्रेम है, तो गुरु – स्वामी पास ही हैं।
गुरु मूरति गति चन्द्रमा, सेवक नैन चकोर।
आठ पहर निरखत रहे, गुरु मूरति की ओर॥१०॥
व्याख्या: गुरु की मूरति चन्द्रमा के समान है और सेवक के नेत्र चकोर के तुल्य हैं। अतः आठो पहर गुरु – मूरति की ओर ही देखते रहो।
गुरु मूरति आगे खड़ी, दुतिया भेद कुछ नाहिं।
उन्हीं कूं परनाम करि, सकल तिमिर मिटि जाहिं॥११॥
व्याख्या: गुरु की मूर्ति आगे खड़ी है, उसमें दूसरा भेद कुछ मत मानो। उन्हीं की सेवा बंदगी करो, फिर सब अंधकार मिट जायेगा।
ज्ञान समागम प्रेम सुख, दया भक्ति विश्वास।
गुरु सेवा ते पाइए, सद् गुरु चरण निवास॥१२॥
व्याख्या: ज्ञान, सन्त – समागम, सबके प्रति प्रेम, निर्वासनिक सुख, दया, भक्ति सत्य – स्वरुप और सद् गुरु की शरण में निवास – ये सब गुरु की सेवा से निलते हैं।
सब धरती कागज करूँ, लिखनी सब बनराय।
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय॥१३॥
व्याख्या: सब पृथ्वी को कागज, सब जंगल को कलम, सातों समुद्रों को स्याही बनाकर लिखने पर भी गुरु के गुण नहीं लिखे जा सकते।
पंडित यदि पढि गुनि मुये, गुरु बिना मिलै न ज्ञान।
ज्ञान बिना नहिं मुक्ति है, सत्त शब्द परमान॥१४॥
व्याख्या: बड़े – बड़े विद्व।न शास्त्रों को पढ – गुनकर ज्ञानी होने का दम भरते हैं, परन्तु गुरु के बिना उन्हें ज्ञान नही मिलता। ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं मिलती।
कहै कबीर तजि भरत को, नन्हा है कर पीव।
तजि अहं गुरु चरण गहु, जमसों बाचै जीव॥१५॥
व्याख्या: कबीर साहेब कहते हैं कि भ्रम को छोडो, छोटा बच्चा बनकर गुरु – वचनरूपी दूध को पियो। इस प्रकार अहंकार त्याग कर गुरु के चरणों की शरण ग्रहण करो, तभी जीव से बचेगा।
सोई सोई नाच नचाइये, जेहि निबहे गुरु प्रेम।
कहै कबीर गुरु प्रेम बिन, कितहुं कुशल नहिं क्षेम॥१६॥
व्याख्या: अपने मन – इन्द्रियों को उसी चाल में चलाओ, जिससे गुरु के प्रति प्रेम बढता जये। कबीर साहिब कहते हैं कि गुरु के प्रेम बिन, कहीं कुशलक्षेम नहीं है।
तबही गुरु प्रिय बैन कहि, शीष बढ़ी चित प्रीत।
ते कहिये गुरु सनमुखां, कबहूँ न दीजै पीठ॥१७॥
व्याख्या: शिष्य के मन में बढ़ी हुई प्रीति देखकर ही गुरु मोक्षोपदेश करते हैं। अतः गुरु के समुख रहो, कभी विमुख मत बनो।
अबुध सुबुध सुत मातु पितु, सबहिं करै प्रतिपाल।
अपनी ओर निबाहिये, सिख सुत गहि निज चाल॥१८॥
व्याख्या: मात – पिता निर्बुधि – बुद्धिमान सभी पुत्रों का प्रतिपाल करते हैं। पुत्र कि भांति ही शिष्य को गुरुदेव अपनी मर्यादा की चाल से मिभाते हैं।
करै दूरी अज्ञानता, अंजन ज्ञान सुदये।
बलिहारी वे गुरु की हँस उबारि जु लेय॥१९॥
व्याख्या: ज्ञान का अंजन लगाकर शिष्य के अज्ञान दोष को दूर कर देते हैं। उन गुरुजनों की प्रशंसा है, जो जीवो को भव से बचा लेते हैं।
साबुन बिचारा क्या करे, गाँठे वाखे मोय।
जल सो अरक्षा परस नहिं, क्यों कर ऊजल होय॥२०॥
व्याख्या: साबुन बेचारा क्या करे,जब उसे गांठ में बांध रखा है। जल से स्पर्श करता ही नहीं फिर कपडा कैसे उज्जवल हो। भाव – ज्ञान की वाणी तो कंठ कर ली, परन्तु विचार नहीं करता, तो मन कैसे शुद्ध हो।
राजा की चोरी करे, रहै रंक की ओट।
कहै कबीर क्यों उबरै, काल कठिन की चोट॥२१॥
व्याख्या: कोई राजा के घर से चोरी करके दरिद्र की शरण लेकर बचना चाहे तो कैसे बचेगा| इसी प्रकार सद् गुरु से मुख छिपाकर, और कल्पित देवी – देवतओं की शरण लेकर कल्पना की कठिन चोट से जीव कैसे बचेगा|
सतगुरु सम कोई नहीं, सात दीप नौ खण्ड।
तीन लोक न पाइये, अरु इकइस ब्रह्मणड॥२२॥
व्याख्या: सात द्वीप, नौ खण्ड, तीन लोक, इक्कीस ब्रह्मणडो में सद् गुरु के समान हितकारी आप किसी को नहीं पायेंगे |
सतगुरु तो सतभाव है, जो अस भेद बताय।
धन्य शिष धन भाग तिहि, जो ऐसी सुधि पाय॥२३॥
व्याख्या: सद् गुरु सत्ये – भाव का भेद बताने वाला है| वह शिष्य धन्य है तथा उसका भाग्य भी धन्य है जो गुरु के द्वारा अपने स्वरुप की सुधि पा गया है|
सतगुरु मिला जु जानिये, ज्ञान उजाला होय।
भ्रम का भाँडा तोड़ी करि, रहै निराला होय॥२४॥
व्याख्या: सद् गुरु मिल गये – यह बात तब जाने जानो, जब तुम्हारे हिर्दे में ज्ञान का प्रकाश हो जाये, भ्रम का भंडा फोडकर निराले स्वरूपज्ञान को प्राप्त हो जाये|
मनहिं दिया निज सब दिया, मन से संग शरीर।
अब देवे को क्या रहा, यो कथि कहहिं कबीर॥२५॥
व्याख्या: यदि अपना मन तूने गुरु को दे दिया तो जानो सब दे दिया, क्योंकि मन के साथ ही शरीर है, वह अपने आप समर्पित हो गया| अब देने को रहा ही क्या है|
जेही खोजत ब्रह्मा थके, सुर नर मुनि अरु देव।
कहैं कबीर सुन साधवा, करू सतगुरु की सेवा॥२६॥
व्याख्या: जिस मुक्ति को खोजते ब्रह्मा, सुर – नर मुनि और देवता सब थक गये| ऐ सन्तो, उसकी प्राप्ति के लिए सद् गुरु की सेवा करो|
जग में युक्ति अनूप है, साधु संग गुरु ज्ञान।
तामें निपट अनूप है, सतगुरु लगा कान॥२७॥
व्याख्या: दुखों से छूटने के लिए संसार में उपमारहित युक्ति संतों की संगत और गुरु का ज्ञान है| उसमे अत्यंत उत्तम बात यह है कि सतगुरु के वचनों पार कान दो|
डूबा औधर न तरै, मोहिं अंदेशा होय।
लोभ नदी की धार में, कहा पड़ा नर सोय॥२८॥
व्याख्या: कुधर में डूबा हुआ मनुष्य बचता नहीं| मुझे तो यह अंदेशा है कि लोभ की नदी – धारा में ऐ मनुष्यों – तुम कहां पड़े सोते हो|
केते पढी गुनि पचि मुए, योग यज्ञ तप लाय।
बिन सतगुरु पावै नहीं, कोटिन करे उपाय॥२९॥
व्याख्या: कितने लोग शास्त्रों को पढ – गुन और योग व्रत करके ज्ञानी बनने का ढोंग करते हैं, परन्तु बिना सतगुरु के ज्ञान एवं शांति नहीं मिलती, चाहे कोई करोडों उपाय करे|
सतगुरु खोजे संत, जीव काज को चाहहु।
मेटो भव के अंक, आवा गवन निवारहु॥३०॥
व्याख्या: ऐ संतों – यदि अपने जीवन का कल्याण चाहो, तो सतगुरु की खोज करो और भव के अंक अर्थात छाप, दाग या पाप मिटाकर, जन्म – मरण से रहित हो जाओ|
यह सतगुरु उपदेश है, जो माने परतीत।
करम भरम सब त्यागि के, चलै सो भव जलजीत॥३१॥
व्याख्या: यही सतगुरु का यथार्थ उपदेश है, यदि मन विश्वास करे, सतगुरु उपदेशानुसार चलने वाला करम भ्रम त्याग कर, संसार सागर से तर जाता है|
जाका गुरु है आँधरा, चेला खरा निरंध।
अन्धे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फन्द॥३२॥
व्याख्या: जिसका गुरु ही अविवेकी है उसका शिष्य स्वय महा अविवेकी होगा| अविवेकी शिष्य को अविवेकी गुरु मिल गया, फलतः दोनों कल्पना के हाथ में पड़ गये|
जनीता बुझा नहीं बुझि, लिया नहीं गौन।
अंधे को अंधा मिला, राह बतावे कौन॥३३॥
व्याख्या: विवेकी गुरु से जान – बुझ – समझकर परमार्थ – पथ पर नहीं चला| अंधे को अंधा मिल गया तो मार्ग बताये कौन|
गुरु चरणों में / शिवदीन राम जोशी
चरन धूर निज सिर धरो, सरन गुरु की लेय,
तीन लोक की सम्पदा, सहज ही में गुरु देय |
सहज ही में गुरु देय चित्त में हर्ष घनेरा ,
शिवदीन मिले फल मोक्ष, हटे अज्ञान अँधेरा |
ज्ञान भक्ति गुरु से मिले, मिले न दूजी ठौर,
याते गुरु गोविन्द भज, होकर प्रेम विभोर |
राम गुण गायरे ||
और न कोई दे सके, ज्ञान भक्ति गुरु देय,
शिवदीन धन्य दाता गुरु, बदले ना कछु लेय |
बदले ना कछु लेय कीजिये गुरु की सेवा,
जन्मा जन्म बहार, गुरु देवन के देवा |
गुरु समान तिहूँ लोक में,ना कोई दानी जान,
गुरु शरण शरणागति, राखिहैं गुरु भगवान |
राम गुण गायरे ||
समरथ गुरु गोविन्दजी, और ना समरथ कोय,
इक पल में, पल पलक में, ज्ञान दीप दें जोय |
ज्ञान दीप दें जोय भक्ति वर दायक गुरुवर,
गुरु समुद्र भगवन, सत्य गुरु मानसरोवर |
शिवदीन रटे गुरु नाम है,गुरुवर गुण की खानि,
गुरु चन्दा सम सीतल, तेज भानु सम जानि |
राम गुण गायरे ||
गुरु से बड़ा था गुरु का नाम / गणेश पाण्डेय
गुरु से बड़ा था गुरु का नाम
सोचा मैं भी रख लूँ गुरु से बड़ा नाम
कबीर तो बहुत छोटा रहेगा
कैसा रहेगा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
अच्छा हो कि गुरु से पूछूँ
गजानन माधव मुक्तिबोध के बारे में ।
पागल हो, कहते हुए हँसे गुरु
एक टुकड़ा मोदक थमाया
और बोले-
फिसड्डी हैं ये सारे नाम
तुम्हारा तो गणेश पाण्डेय ही ठीक है ।
खोलिके किवाड़ गुरु, दरसन देहु गुरु / छोटेलाल दास
खोलिके किवाड़ गुरु, दरसन देहु गुरु।
ऐलाँ हम तोहरे दुआर, हो सतगुरु स्वामी॥1॥
प्रेम-भक्ति देहु गुरु, साधु-संग देहु गुरु।
विनती करैं छीं कर जोड़ि, हो सतगुरु स्वामी॥2॥
ज्ञान-ध्यान गुरु देहु, सुन्दर विचार देहु।
तजि दीयै पाँचो हम पाप, हो सतगुरु स्वामी॥3॥
भवजल बहै छीयै, त्रय ताप सहै छीयै।
होइ गेलाँ अब ते बेहाल, हो सतगुरु स्वामी॥4॥
बाँह के सहारा देहु, भवजल खींचि लेहु।
करि लेहु भवजल पार, हो सतगुरु स्वामी॥5॥
तोहरे ते आशा गुरु, तोहरे भरोसा गुरु।
करि लेहु ‘लाल’ के उबार, हो सतगुरु स्वामी॥6॥
गुरु है सकल गुणों की खान / कोदूराम दलित
गुरु, पितु, मातु, सुजन, भगवान,
ये पाँचों हैं पूज्य महान।
गुरु का है सर्वोच्च स्थान,
गुरु है सकल गुणों की खान।
कर अज्ञान तिमिर का नाश,
दिखलाता यह ज्ञान-प्रकाश।
रखता गुरु को सदा प्रसन्न,
बनता वही देश सम्पन्न।
कबिरा, तुलसी, संत-गुसाईं,
सबने गुरु की महिमा गाई।
बड़ा चतुर है यह कारीगर,
गढ़ता गाँधी और जवाहर।
आया पावन पाँच-सितम्बर,
श्रद्धापूर्वक हम सब मिलकर।
गुरु की महिमा गावें आज,
शिक्षक-दिवस मनावें आज।
एकलव्य-आरुणि की नाईं,
गुरु के शिष्य बने हम भाई।
देता है गुरु विद्या-दान,
करें सदा इसका सम्मान।
अन्न-वस्त्र-धन दें भरपूर,
गुरु के कष्ट करें हम दूर।
मिल-जुलकर हम शिष्य-सुजान,
करें राष्ट्र का नवनिर्माण।
गुरु को प्रणाम है / सुरेश कुमार शुक्ल ‘संदेश’
कण-कण में समान चेतन स्वरूप बसा,
एकमात्र सत्य रूप दिव्य अभिराम है।
जीवन का पथ जो दिखाता तम-तोम मध्य,
लक्ष्य की कराता पहचान शिवधाम है।
धर्म समझाता कर्म-प्रेरणा जगाता और
प्रेम का पढ़ाता पाठ नित्य अविराम है।
जग से वियोग योग ईश्वर से करवाता
ऐसे शिवरूप सन्त गुरु को प्रणाम है।
जड़ता मिटाता चित्त चेतन बनाता और
शान्ति की सुधा को बरसाता चला जाता है।
तमकूप से निकाल मन को सम्हाल गुरु
ज्ञान रश्मियों से नहलाता चला जाता है।
पग-पग पर करता है सावधान नित्य
पन्थ सत्य का ही दिखलाता चला जाता है।
आता है अचानक ही जीवन में घटना-सा
दिव्य ज्योति उर की जगाता चला जाता है।
भंग करता है अन्धकार का अनन्त रूप
ज्ञान गंग धार से सुपावन बनाता है।
स्वार्थ सिद्धियों से दूर परमार्थ का स्वरूप
लोकहित जीवन को अपने तपाता है।
दूर करता है ढूँढ़-ढूँढ के विकार सभी
पावन प्रदीप गुरु मन में जगाता है।
तत्व का महत्व समझाता अपनत्व सत्व
दिव्य आत्मतत्व से एकत्व करवाता है।
जिनके पदाम्बुजों के कृपा मकरन्द बिना
मंभ्रिंग मत्त हो न भव भूल पाता है।
काम क्रोध लोभ मोह छल छद्म द्वेष दम्भ
जगत प्रपंच नहीं रंच विसराता है।
पाता नहीं नेक सुख जग देख मन्दिर में,
दुःख पर दुःख स्वयं जाता उपजाता है।
गुरु बिना ज्ञान कहाँ, ज्ञान बिना राम कहाँ,
राम बिना जीवन सकाम रह जाता है।
अभिमान सैकताद्रि होता नहीं ध्वस्त और
मान अपमान सुख, दुख को मिटाता कौन?
युग-युग से भरा हुआ था द्वेष भाव पुष्ट
तन-मन से निकाल उसको भगाता कौन?
कागदेश में फँसा था मन हंस पन्थ भूल,
दिव्य मानसर तक उसे पहुँचाता कौन?
गुरुबिन कौन पुण्य पाप समझाता यहाँ
जीवन के बुझते प्रदीप को जगाता कौन?
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