दादी हम सब को प्यारी होती है. Hindi Poems On Grandmother अर्थात इस आर्टिकल में आप पढेंगे, दादी माँ के विषय पर हिन्दी कविताएँ. दादी का प्यार हम सब को प्रेरित करता है. चलिए पढ़ते हैं, अलग-अलग कवि दादी माँ के बारे में क्या कहते हैं.
Hindi Poems On Grandmother – दादी पर हिन्दी कविताएँ
Contents
- 1 Hindi Poems On Grandmother – दादी पर हिन्दी कविताएँ
- 1.1 दादी को समझाओ जरा / प्रभुदयाल श्रीवास्तव
- 1.2 दादी का चश्मा / नवीन जैन
- 1.3 दादी की खोज में / प्रेमचन्द गांधी
- 1.4 दादी की तरह दुनिया / नीरज दइया
- 1.5 दादी माँ फेरती है वक्त को / मदन गोपाल लढ़ा
- 1.6 दादा-दादी चुप क्यों रहते / नागेश पांडेय ‘संजय’
- 1.7 घर की थीं ताबानी दादी / दीपक शर्मा ‘दीप’
- 1.8 मेरी प्यारी दादी-माँ / श्याम सुन्दर अग्रवाल
- 1.9 दादी की रोड़ी / असंगघोष
- 1.10 दादी / प्रज्ञा रावत
- 1.11 दादी / ब्रजेश कृष्ण
- 1.12 दादा-दादी के लिए / प्रज्ञा रावत
- 1.13 दादी दूर नहीं है / असंगघोष
- 1.14 दादी, दादी दादी दे / मधुसूदन साहा
- 1.15 दादी के दाँत / श्रीकृष्णचंद्र तिवारी ‘राष्ट्रबंधु’
- 1.16 एक बूढ़ी दादी / अनुभूति गुप्ता
- 1.17 दादी माँ चिन्ता छोड़ो / नंद चतुर्वेदी
- 1.18 दादी / रवि प्रकाश
- 1.19 दादी माँ / बाबूराम शर्मा ‘विभाकर’
- 1.20 Related Posts:
दादी को समझाओ जरा / प्रभुदयाल श्रीवास्तव
मुझे कहानी अच्छी लगती
कविता मुझको बहुत सुहाती
पर मम्मी की बात छोड़िये
दादी भी कुछ नहीं सुनातीं
पापा को आफिस दिखता है
मम्मी किटी पार्टी जातीं
दादी राम राम जपती हैं
जब देखो जब भजन सुनातीं
मुझको क्या अच्छा लगता है
मम्मी कहां ध्यान देती हैं
सुबह शाम जब भी फुरसत हो
टी वी से चिपकी रहती हैं
कविता मुझको कौन सुनाये
सुना कहानी दिल बहलाये
मेरे घर के सब लोगों को
बात जरा सी समझ न आये
कोई मुझ पर तरस तो खाओ
सब के सब मेरे घर आओ
मम्मी पापा और दादी को
ठीक तरह से समझाओ
दादी का चश्मा / नवीन जैन
मेरी दादी, बूढ़ी दादी
आँखें रखती चार,
दो आँखों को बंदर ले गया
चढ़ जा बैठा डार!
दादी ने जब ऊपर देखा
घूम गया संसार,
रोटी ले ले, केला ले ले-
दादी की मनुहार!
खीं-खीं, खीं-खीं,-बंदर बोले
सुने एक न चार,
दादी मोटा डंडा लाई
तू डंडे का यार।
हँसता-हँसता बोला मुन्ना-
मत करना इनकार,
दादी का चश्मा तू दे दे
बस्ता ले जा यार।
इस बस्ते से नाक में दम है
आज पड़ी फिर मार,
पढ़ने से छुट्टी दिलवा दे
दूंगा लड्डू चार।
-साभार: नंदन, मार्च 1987, 32
दादी की खोज में / प्रेमचन्द गांधी
उस गुवाड़ी में यूँ अचानक बिना सूचना दिये मेरा चले जाना
घर-भर की अफ़रा-तफ़री का बायस बना
नंग-धड़ंग बच्चों को लिये दो स्त्रियाँ झोंपड़ों में चली गईं
एक बूढ़ी स्त्री जो दूर के रिश्ते में
मेरी दादी की बहन थी
मुझे ग़ौर से देखने लगी
अपने जीवन का सारा अनुभव लगा कर उसने
बिना बताए ही पहचान लिया मुझे
‘तू गंगा को पोतो आ बेटा आ’
मेरे चरण-स्पर्श से आल्हादित हो उसने
अपने पीढे़ पर मेरे लिए जगह बनायी
बहुओं को मेरी शिनाख़्त की घोषणा की
और पूछने लगी मुझसे घर-भर के समाचार
थोड़ी देर में आयी एक स्त्री
पीतल के बड़े-से गिलास में मेरे लिए पानी लिये
मैं पानी पीता हुआ देखता रहा
उसके दूसरे हाथ में गुळी के लोटे को
एक पुरानी सभ्यता की तरह
थोड़ी देर बाद दूसरी स्त्री
टूटी डण्डी के कपों में चाय लिए आयी
उसके साथ आये
चार-बच्चे चड्डियाँ पहने
उनके पीछे एक लड़की और लड़का
स्कूल-यूनिफार्म में
कदाचित यह उनकी सर्वश्रेष्ठ पोशाक थी
मैं अपनी दादी की दूर के रिश्ते की बहन से मिला
मैंने तो क्या मेरे पिताजी ने भी
ठीक से नहीं देखी मेरी दादी
कहते हैं पिताजी
‘माँ सिर्फ़ सपने में ही दिखायी देती हैं वह भी कभी-कभी’
उस गुवाड़ी से निकलकर मैं जब बाहर आया
तो उस बूढ़ी स्त्री के चेहरे में
अपनी दादी को खोजते-खोजते
अपनी बेटी तक चला आया
जिन्होंने नहीं देखी हैं दादियाँ
उनके घर चली आती हैं दादियाँ
बेटियों की शक्ल में
दादी की तरह दुनिया / नीरज दइया
निरन्तर
बीमारी में अधरझूल
झूल रही है दादी ।
यह झूलना
लगभग ख़त्म ही समझो अब
लेकिन
मन नहीं भरता, दादी का ।
दादी !
क्यों है तुम्हारा
जीये जाने से इतना मोह
अब क्या रह गया है शेष
जबकि तुम्हारे बच्चे तक
नाक-नाक आ गए हैं
अपनी नाक रखते
गली मुहल्ले के भय से
मित्रो !
दादी की तरह
दुनिया भी झूल रही है
अधरझूल !
अनुवाद : मोहन आलोक
दादी माँ फेरती है वक्त को / मदन गोपाल लढ़ा
देखते ही देखते
कितनी बुढ़ा गई है
दादीमाँ।
कल की तो बात है
दादीमाँ गायें दुहकर
दूध से भर देती थी
बाल्टियां
गायें नीरना
बछड़े बांधना
गोबर थापना तो
उनके लिए
कोई काम ही नहीं थे।
चूल्हे पर
तवा टेकने के बाद
जीमने वाले ही धापते थे
दादीमाँ नहीं।
ठाकुरजी के मंदिर जाना भी
कब भूलती थी दादीमाँ
प्रसाद के लालच में
अंगुली पकड़ कर
चल पड़ते थे हम भी।
देखते ही देखते
उनके घुटनों ने जवाब दे दिया
धुंधलाने लगी
अनुभवी आंखों की ज्योति
लाठी का सहारा
ज्यादा पावर का चश्मा
पहचान बनने लगे दादीमाँ की।
आजकल
खड़े होकर चलने की जगह
घिसट कर ही खिसक पाती है
दादीमाँ
गाय-बच्छी
चुल्हा-चौका
मंदिर-देवरे
समा गए हैं उनकी कथाओं में।
यूं लगता है
माला नहीं
वक्त को फेरती है
पल-पल बुढ़ाती दादीमाँ।
दादा-दादी चुप क्यों रहते / नागेश पांडेय ‘संजय’
दादा-दादी चुप क्यों रहते ?
कारण मैंने जान लिया है।
पापा जी दफ्तर जाते हैं
और लौटते शाम को।
थक जाते हैं इतना
झट से पड़ जाते आराम को।
मम्मी को विद्यालय से ही
समय कहाँ मिल पाता है ?
बहुत पढ़ाना पड़ता उनको,
सर उनका चकराता है।
दादा-दादी से बातें हों
ढेरों कैसे ? तुम्हीं बताओ ।
वक्त ने उन पर बुरी तरह जब
अपना पंजा तान लिया है।
हम बच्चे पढ़-लिख कर आते,
होमवर्क में डट जाते।
फिर अपने साथी बच्चों संग
खेला करते, सुख पाते।
और समय हो, तो कविता की,
चित्रकथा की पुस्तक पढ़ते।
मौज-मजे में, खेल-तमाशे में
ही तो उलझे हैं रहते।
दादा-दादी का कब हमको,
ख्याल जरा भी है आता ?
हम सबने तो जमकर उनकी
ममता का अपमान किया है।
लेकिन जो भी हुआ, सो हुआ
अब ऐसा न हो सोचें।
उनके मन के सूने उपवन
में हम खुशियों को बो दें।
दादा-दादी से हम जी भर,
बतियाएँ, हँस लें, खेलें।
दादा-दादी रहें न चुप-चुप
नहीं अकेलापन झेलें।
मैंने यह सब जब गाया तो
मेरे सारे साथी बोले –
‘हाँ, हम ऐसा करेंगे, हमने
अपने मन में ठान लिया है।
घर की थीं ताबानी दादी / दीपक शर्मा ‘दीप’
घर की थीं ताबानी दादी
आन्ही-दादा, पानी-दादी
ख़ूँटा,खुर्पी,पुअरा,लेजुर
कोअर,कांटा,सानी दादी
फुकनी,चूल्हा,खूँटी,सुर्ती
सरसो,डिबरी,घानी दादी
सबका सानी है दुनिया में
लेकिन थीं ला-सानी दादी
खर को सोना करने वाली
‘जस्ता-पीतल-चानी’ दादी
सीधी लाठी थीं तब पहले,
अब तो हुई कमानी दादी
हँसी-ख़ुशी दो देवरानी थीं
दोनों की जेठानी “दादी”
नात नतेरुहा बचवा बेटवा
सब की एक ज़ुबानी दादी
इसकी उसकी काना फूसी
इन सब से अनजानी दादी
दादा जी की पगड़ी,आंखें
‘नाक-कान’ ‘पेशानी’ दादी
फटही-लुगरी में भी साहब
क्या लगती थीं ‘रानी’ दादी
मेरी प्यारी दादी-माँ / श्याम सुन्दर अग्रवाल
मेरी प्यारी दादी-माँ,
सब से न्यारी दादी-माँ।
बड़े प्यार से सुबह उठाए,
मुझको मेरी दादी-माँ।
नहला कर कपड़े पहनाए,
खूब सजाए दादी-माँ।
लेकर मेरा बैग स्कूल का,
संग-संग जाए दादी-माँ।
आप न खाए मुझे खिलाए,
ऐसी प्यारी दादी-माँ ।
ताज़ा जूस, गिलास दूध का,
हर रोज़ पिलाए दादी-माँ।
सुंदर कपड़े और खिलौने,
मुझे दिलाए दादी-माँ।
बात सुनाए, गीत सुनाए,
रूठूँ तो मनाए दादी-माँ।
यह करना है, वह नहीं करना,
मुझको समझाए दादी-माँ।
लोरी देकर पास सुलाए,
ये मेरी प्यारी दादी-माँ।
दादी की रोड़ी / असंगघोष
रोज अलस्सुबह
बुआर कर कचरा
घर के एक कोने में
एकत्र करती माँ
ढालिया साफ कर
दादी डाल देती
बकरी की मिंगणियाँ
उसी ढेर में
किसीदिन टोकनी में भर
यह कचरा
सिर पर उठा
गाँव बाहर
रोड़ी में डाली आती माँ
उसी रोड़ी में जो
दादी के नाम से
जानी जाती थी
पूरे गाँव में
अपने खेतों में डालने
दरवाजे के किसान
मोल भाव कर
खरीदते रोड़ी
बैलगाड़ियों में भर ले जाते
इस तरह आड़े वख्त
रोड़ी कमाती
साल में दो-एक बार रुपये
हमारे लिए
हर शादी में सबसे पहले
उसे ही पूजते हम
वही थी हमारी रिद्धि-सिद्धि
एक दिन अनायास
सब कुछ लुट गया
नहीं रही रोड़ी
साफ हो गया मैदान
अब वहाँ पर
खड़ी है
तेरी समिति की इमारत!
दादी / प्रज्ञा रावत
जब भी याद आती हैं अम्मा
तो याद आते हैं दो गोरे हाथ
कोयले में सने हुए
दिखते हैं पैर जो फटकर
पत्थर हो चुके हैं
जिनमें उग चुके हैं
छोटे-छोटे पेड़
देखती हूँ सुन्दर चेहरा
जो नींद में ही हूँका
देता जाता है दादा की पूरे
दिन की कहानी पर
और मैं याद करते-करते
धीरे से लेट जाती हूँ
अम्मा की गोद में।
दादी / ब्रजेश कृष्ण
वे मेरे पिता की काकी थीं, इसलिए मेरी दादी
ग्यारह बरस की उम्र में हुआ था उनका विवाह
और पन्द्रह की उम्र में पति के पीछे चलते हुए
एक मेले के संग
वे हँसते-खेलते गईं थीं बद्रीनाथ
मगर मेला जब आया वापस
तो वे अकेली हो चुकी थीं
शापित नदी थीं वे इस धरा की
और निर्जल था उनका जीवन
एकान्त में कभी-कभार जब हथेली फैलाकर
वे धीरे से कहती थीं मुझसे कि पढ़ना मेरी रेखाएँ
और बताना कि कितने दिन बचे हैं मेरे जाने में
तो मैं हँसते हुए रोता था मौन
बहत्तर बरस का निर्मम पहाड़ खुरचतीं रहीं वे अपने नाख़ूनों से
और छिपाती रहीं हमेशा दुखों की गठरी
किसी अदृश्य काल-कोठरी में
एक दिन चुपचाप वे चली गई अपनी चारपाई पर लेटे हुए
मैंने देखा कि चींटियों का एक झुण्ड तेज़ी से घूम रहा है उनके हाथ पर
और वे करवट लिए लेटी हैं शान्त
आज रात माथे पर चन्दन का टीका लगाये
अचानक वे आईं मेरे पास
यह बताने कि कुछ नहीं हुआ था उन्हें चारपाई पर
बद्रीनाथ से लौटते हुए
जिस दिन हैजे से मरे थे दादा
उसी दिन हिमालय के उस अनजाने गाँव में
उन्हें तो पहले ही खा गया था एक बाघ।
दादा-दादी के लिए / प्रज्ञा रावत
वो भी थे ही
किसी के माता-पिता
उनका घर सबका
घर था
आत्मा सबके लिए थी
उनके पास था ही नहीं
कुछ छिपाने के लिए
उन्होंने कभी बन्द
कमरे में नहीं
की कोई मन्त्रणा
उनकी मृत्यु भी थी
किसी शान्त उत्सव-सी
ठहरो! बुज़ुर्ग कहते हैं
कि ऐसे ही बोलों से
नज़र लगा करती है।
दादी दूर नहीं है / असंगघोष
मेरे दादा के समय
खेत के कुएँ से पानी उलीचने
मरी गाय के चमड़े से बनी
चड़स चला करती थी
कहीं-कहीं
रहट भी चलता था
जिनमें जुतते थे
आँखों पर पट्टी बाँधे
बैल और ऊँट
इन्हें हाँकते
मेरे दादा
व उनके भाई
बिना मजूरी
दादी माँ
घर में चलाती थीं रेटिया
रोज ऊन काततीं
कुकड़ियाँ तैयार कर
कंबल केन्द्र जा
जमा करातीं
कताई की मजूरी में से
एक-दो पैसा
कभी-कभार मुझे देतीं
खर्चने
जिससे खरीदता
पिपरमिंट की गोलियाँ
खट्टी-मीठी
भादोड़ा री बीज पर
मेला भरता
बाबा रामदेव का
खटीक मोहल्ले के मन्दिर में
लाऊड स्पीकर बजता
सुबह से रातभर
भजन संगीत होता
दादा गाते
बाबा रामदेव के गीत
देर रात में
माच का खेल मंचित होता
अगले दिन की भोर तक
जुटी रहती भारी भीड़
भादोड़ा री बीज पर
घर-घर चुरमा बाटी बनती
पूरे गाँव के लोग
आते
मन्दिर में भोग लगाते
परसाद चढ़ाते
मत्था टेक मानता मानते
दादी भी मुझे साथ ले
मन्दिर जातीं
मजूरी के पैसों से
परसाद, नारियल, अगरबत्ती
चढ़ातीं
देवरे पर
खुद धोक दे
मुझसे भी धोक दिलातीं
मन्नतें मानतीं मेरे लिए
सबके लिए
बाबा का भक्त पुजारी
नारियल फोड़
लौटाता
आधा परसाद
नारियल की बारीक-बारीक चटकें काट
दादी पूरे मोहल्ले में बाँटतीं
दूसरे बच्चों जैसा
मैं भी पीछे-पीछे लग जाता
पाता दुबारा एक और टुकड़ा
उदरस्थ कर उसे आदतन
मैं फिर हाथ फैला देता
प्यार से डाँट दादी
एक टुकड़ा चटक
और नन्हें हाथ पर
धर देतीं
एक दिन अनायास
भादवी बीज से पहले ही
दादी बीमार हो गईं
तो धर्म अस्पताल में भर्ती कराया
पिता व ताऊ ने
कुछ दिन बाद लौटीं वह
चारपाई पर
लेटी मरणासन्न
सबकी तरह
मेरी आँखों में भी आँसू छलछला आए
मैंने भी पाँव छुए
ताई ने कहा उनसे
पोता पाँव छू रहा है
दादी के होंठ हिले
मैंने समझा
हमेशा की तरह
आशीर्वाद मिला
कुछ दिन बाद
दादी नहीं रहीं
मोहल्ले के लोग व रिश्तेदार
अपने कंधों पर उठाए
घर से बाहर कहीं
ले गए उन्हें
मैं भी रोया खूब
आँखों से आँसू बहे
रोते-रोते
माँ से पूछा
कहाँ ले गए ये लोग
दादी को
माँ ने भर्राये गले से कहा
दादी भगवान के घर चली गईं
मैं भी जाऊँगा भगवान के घर
दादी के पास
उससे दो पैसा लेकर
पिपरमिंट की गोलियाँ लाऊँगा
माँ ने कहा
नहीं बेटा
तू नहीं जा सकता
भगवान के घर अकेला
हम सभी जाएँगे
कभी न कभी, पर
अभी दादी हमेशा के लिए
हमें छोड़ चली गईं
अब नहीं आएँगी कभी
सच हुआ
माँ का कहा
दादी फिर कभी लौटकर
नहीं आईं
दादी बसी हैं
मेरी यादों में आज तक
छोटे भाई बहिनों ने
दादी को नहीं देखा
न ही जाना दादी का प्यार
जिससे वे वंचित रहे
अब मेरे बेटे
अपनी दादी से बतियाते हैं
तो
मेरी आँखों के सामने
चलचित्र की भाँति मेरी दादी
आ गुजरती हैं
मेरे मुँह में घुल जाता है
पिपरमिंट का
चटक का
स्वाद
मुझे अहसास होता है
सिर पर दादी का हाथ
वे आशीर्वाद दे रही हैं
बार-बार
दुआ कर रही हैं
सबकी कामना के लिए
दादी हमसे
दूर नहीं हैं।
दादी, दादी दादी दे / मधुसूदन साहा
दादी, दादी, दादी दे
पीठी पर तों लादी दे।
बस्ता रोजे बढ़ले जाय
ऊपरे-ऊपर चढ़ले जाय
नैका-नैका पोथी सब
बच्चा सिनी पढ़ले जाय
देभैं पैंट पुरनका तेॅ
कुर्त्ता उज्जर खादी दे।
फुर्ती जरा देखैलोॅ कर
पहिनें जरा नहैलोॅ कर
मम्मी-डैडी बीजी छै
तोंही जरा पढ़ैलोॅ कर
सर्दी-खोंखी रोकै लेॅ
घी में भुनलोॅ आदी के।
दादी, दादी, दादी दे
पीठी पर तों लादी दे।
दादी के दाँत / श्रीकृष्णचंद्र तिवारी ‘राष्ट्रबंधु’
असली दाँत गिर गए कब के
नकली हैं मजबूत,
इनके बल पर मुस्काती है
क्या अच्छी करतूत।
बड़े बड़ों को आड़े लेती
सब छूते हैं पैर,
नाकों चने चबाने पड़ते
जो कि चाहते खैर।
उनका मुँह अब नहीं पोपला
सही सलामत आँत,
कभी नहीं खट्टे हो सकते
दादी जी के दाँत।
एक बूढ़ी दादी / अनुभूति गुप्ता
दरख़्त की
शुष्क शाखाओं से
बेसुध-बेबस
लटकी रहती हैं
बूढ़ी दादी,
इस उम्मीद में
कि
कोई तो एक प्रहर
वहाँ से गुजरेगा,
उनको देखकर
पसीजेगा।
हाथ बढ़ाकर
तन्हाई की कील से
नीचे उतारेगा।
आँगन के
बासी अँधेरे कोने में
गुमसुम तन्हा
अटकी रहती हैं
बूढ़ी दादी,
इस उम्मीद में
कि
कोई तो एक प्रहर
उन्हें अपने हाथों से
स्नेह की रोटी परोसेगा
आदर से पुकारेगा।
बड़े चाव से
खाना वह खायंेगी
और, सुकून भरी
मीठी नींद ले पायेंगी।
बूढ़ी दादी का मन
व्यथित था-
देखकर अपनों का दोगलापन
अपने बच्चों का सौतेलापन,
बच्चों ने
सारी संपत्ति छीनकर
सड़कों पर भटकने को
छोड़ दिया,
अपनों ने उनसे
मुँह मोड़ लिया।
हजार अटकलें आयीं
मगर…
ऐसा दिन कभी नहीं आया
वह तूफानों से जूझती रहीं
बस न खोया, न कुछ पाया।
दिन-प्रतिदिन,
नैराश्य के कुहासे से घिरती गयी।
सूख चुका था,
उनकी आँखों का पानी।
फिर उस दिन…
बगीचे में,
एक अनाथ लड़की ने
बूढ़ी दादी को
’दादी जी’ कहकर पुकारा,
बूढ़ी दादी ने भी
लड़की को प्यार से दुलारा।
एक वही सुबह…
जीवन में
उजियारा लेकर आयी थी,
बूढ़ी दादी का मन हर्षाया
चलो-
किसी ने तो ’दादी जी’ बुलाया।
कम से कम जीते जी
’दादी जी’ तो कहलायी।
बिना एक क्षण गँवाये
बूढ़ी दादी ने लड़की का हाथ
ममता से थाम लिया
पति के
स्वर्ग सिधारने के बाद
अपने बच्चों के
दुत्कारने के बाद
आखिर मंे-
बूढ़ी दादी को भी,
एक रिश्ता
अपनेपन का मिला,
जिसने सूनेपन की
उधड़ी चादर को
अधिकारों से सिला।
दादी माँ चिन्ता छोड़ो / नंद चतुर्वेदी
दादी माँ तुम हमेशा चिन्ता करती हो
अपने बेटे, बहुओं, पोते-नातियों की
चिट्ठियों की चिन्ता
बाहर जब कभी होता है
अँधेरा या हवा का शोर
या वह ऋतु आती है
जब अमरूद पकते हैं
और शब्द होता है
बीते हुए खामोश दिनों का
अपनी झुकी हुई झुर्रियों वाली
गरदन पर चादर लपेटे
तब तुम धीमी आग, गर्म रोशनी होती हो
दादी माँ, युधिष्ठिर के लिए दुःखी होना
तुम्हारे महाभारत का हिस्सा है
अब दुर्योधन की पीठ पर
प्रतिष्ठा का कम्पयुटर कारखाना है
गँधारी आँख पर बँधी पट्टी नहीं खोलती
आँख और हाथ के बीच दहशत भरा जंगल है
तुम्हारी आँख के पास दतर होता
तब यमराज तुम से हँस-हँस कर बातें करता
अश्वत्थामा दूध के लिए रो-रो कर मरता रहा
दूध का दुःख उन दिनों भी था
बाबुओं की जंघाएँ तगड़ी, गरदनें पुष्ट थीं
द्रौपदी की पीठ पर
सांसदों की हँसी, धर्म व्यापार था
दादी माँ, अब आग तपने
और भूभल में लाल हुए
शकरकंद खाने की चिन्ता छोड़ो
तुम्हारे नाती-पोते
बबलगम चिगलते
अँगरेजी मदरसों में पढ़ते
बड़े हो रहे हैं।
दादी / रवि प्रकाश
मेरी दादी की आँखों पर होता है
मोटा धुंधले शीशों वाला चश्मा
जिसकी कमानी में एक डोर बंधी है
जाती है जो पीछे की ओर
दूसरी कमानी की तरफ
और बाध देती है दादी के पुरे सर को
उसके अन्दर से पुरे घर को देखती हैं दादी की आँखे
कितनी बार कहा इस लड़के से
सूरज नारायण को उगते ही जल दे दिया कर,
अन्न छु लिया कर,
दातून कर लिया कर,
रोज़ एक ही प्लास्टिक मुह में डाल लेता है
फिर थककर कहती कि `जुग जमाना बदल गयल ह`
दादी का चश्मा
मेरी दादी के पास होती है एक छड़ी
ब्रज के बांसों वाली, खोखली नहीं
जिसके सहारे लगा आती हैं
पुरे घर का चक्कर !
देख आती है गैया को
दे आती हैं अपने हिस्से का कुछ भोजन
इसी डंडे के सहारे
जैसे हांक आती हैं आधुनिकता को
दादी कि छड़ी
मेरी दादी के पास होता है एक हुक्का
जिसपे चढ़ती है कुम्हार कि चीलम,
चूल्हे की आग,
बनिए का तम्बाकू,
और हाँ बढई का शिल्प,
घुडघुडा कर जब दादी इसे पीती थी
कितनी उर्जा मिलती थी उनको
दादी का हुक्का
दादी की मृत्तयु पर टिखटी के सिरहाने
हमने लाकर रख दिया था
दादी का चश्मा ,
दादी की छड़ी,
और दादी का हुक्का
और लेजाकर वो सब विसर्जित कर दिया
सरयू में
जिसके सहारे दादी लड़ती थी
बाज़ार और बाजारुपन से !
दादी माँ / बाबूराम शर्मा ‘विभाकर’
मम्मी की फटकारों से
हमें बचाती दादी माँ।
कितने प्यारे वादे करती-
और निभाती दादी माँ।
पापा ने क्या कहा-सुना,
सब समझाती दादी-माँ!
चुन्नू-मुन्नू कहाँ गए,
हाँक लगाती दादी माँ।
ऐनक माथे पर फिर भी
शोर मचाती दादी माँ।
‘हाय राम! मैं भूल गई’-
हमें हँसाती दादी माँ।
गरमा-गरम जलेबी ला,
हमें खिलाती दादी माँ।
कभी शाम को अच्छी सी
कथा सुनाती दादी माँ,
खूब डाँट दे पापा को,
भौहें चढ़ाती दादी माँ।
हम भी गुमसुम हो जाएँ,
रोब जमाती दादी माँ!
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