Poems on Mahatma Gandhi in Hindi अर्थात इस article में आप पढेंगे, महात्मा गाँधी पर हिन्दी कविताएँ. हमने आपके लिए महात्मा गाँधी से सम्बंधित कविताएँ ढून्ढ कर संकलित की हैं.
Poems on Mahatma Gandhi in Hindi – महात्मा गाँधी पर हिन्दी कविताएँ
Contents
- 1 Poems on Mahatma Gandhi in Hindi – महात्मा गाँधी पर हिन्दी कविताएँ
- 1.1 अब भारत नया बनाएँगे, हम वंशज गाँधी के / ऋषभ देव शर्मा
- 1.2 आ रहा है गाँधी फिर से / तारा सिंह
- 1.3 आओ बापू के अंतिम दर्शन कर जाओ / हरिवंशराय बच्चन
- 1.4 उस दिन बोधि-वृक्ष के नीचे एक अबोध-हृदय आया,, / गुलाब खंडेलवाल
- 1.5 के मारल हमरा गांधी के गोली हो / रसूल
- 1.6 गलने लगा हिमालय लज्जा से सागर चिंघाड़ रहा / गुलाब खंडेलवाल
- 1.7 गाँधी / नये सुभाषित / रामधारी सिंह “दिनकर”
- 1.8 गाँधी / रामधारी सिंह “दिनकर”
- 1.9 गाँधी / हरिवंशराय बच्चन
- 1.10 गाँधी के प्रति / मुकुटधर पांडेय
- 1.11 Related Posts:
कविताएँ नीचे दी गयी है. हम समय-समय पर और कविताएँ add करते रहेंगे.
अब भारत नया बनाएँगे, हम वंशज गाँधी के / ऋषभ देव शर्मा
अब भारत नया बनाएँगे, हम वंशज गाँधी के
पुस्तक-अख़बार जलाएँगे, हम वंशज गाँधी के
जनता की पीर हुई बासी, क्या मिलना गाकर भी
बस वंशावलियां गाएँगे, हम वंशज गाँधी के
बापू की बेटी बिकी अगर, इसमें हम क्या कर लें
कुछ नारे नए सुझाएँगे, हम वंशज गाँधी के
खाली हाथों से शंका है, अपराध न हो जाए
इन हाथों को कटवाएँगे, हम वंशज गाँधी के
रथ यात्रा ऊँची कुर्सी की, जब-जब भी निकलेगी
पैरों में बिछते जाएँगे, हम वंशज गाँधी के
आ रहा है गाँधी फिर से / तारा सिंह
सुनकर चीख दुखांत विश्व की
तरुण गिरि पर चढकर शंख फूँकती
चिर तृषाकुल विश्व की पीर मिटाने
गुहों में, कन्दराओं में बीहड़ वनों से झेलती
सिंधु शैलेश को उल्लासित करती
हिमालय व्योम को चूमती, वो देखो!
पुरवाई आ रही है स्वर्गलोक से बहती
लहरा रही है चेतना, तृणों के मूल तक
महावाणी उत्तीर्ण हो रही है,स्वर्ग से भू पर
भारत माता चीख रही है, प्रसव की पीर से
लगता है गरीबों का मसीहा गाँधी
जनम ले रहा है, धरा पर फिर से
अब सबों को मिलेगा स्वर्णिम घट से
नव जीवन काजीवन-रस, एक समान
कयोंकि तेजमयी ज्योति बिछने वाली है
जलद जल बनाकर भारत की भूमि
जिसके चरण पवित्र से संगम होकर
धरती होगी हरी, नीलकमल खिलेंगे फिर से
अब नहीं होगा खारा कोई सिंधु, मानव वंश के अश्रु से
क्योंकि रजत तरी पर चढकर, आ रही है आशा
विश्व -मानव के हृदय गृह को, आलोकित करने नभ से
अब गूँजने लगा है उसका निर्घोष, लोक गर्जन में
वद्युत अब चमकने लगा है, जन-जन के मन में
आओ बापू के अंतिम दर्शन कर जाओ / हरिवंशराय बच्चन
आओ बापू के अंतिम दर्शन कर जाओ,
चरणों में श्रद्धांजलियाँ अर्पण कर जाओ,
यह रात आखिरी उनके भौतिक जीवन की,
कल उसे करेंगी
भस्म चिता की
ज्वालाएँ।
डांडी के यारत्रा करने वाले चरण यही,
नोआखाली के संतप्तों की शरण यही,
छू इनको ही क्षिति मुक्त हुई चंपारन की,
इनको चापों ने
पापों के दल
दहलाए।
यह उदर देश की भुख जानने वाला था,
जन-दुख-संकट ही इसका ही नित्य नेवाला था,
इसने पीड़ा बहु बार सही अनशन प्रण की
आघात गोलियाँ
के ओढ़े
बाएँ-दाएँ।
यह छाती परिचित थी भारत की धड़कन से,
यह छाती विचलित थी भारत की तड़पन से,
यह तानी जहाँ, बैठी हिम्मत गोले-गन की
अचरज ही है
पिस्तौल इसे जो
बिठलाए।
इन आँखों को था बुरा देखना नहीं सहन,
जो नहीं बुरा कुछ सुनते थे ये वही श्रवण,
मुख यही कि जिससे कभी न निकला बुरा वचन,
यह बंद-मूक
जग छलछुद्रों से
उकताए।
यह देखो बापू की आजानु भुजाएँ हैं,
उखड़े इनसे गोराशाही के पाए हैं,
लाखों इनकी रक्षा-छाया-में आए हैं,
ये हाथ सबल
निज रक्षा में
क्यों सकुचाए।
यह बापू की गर्वीली, ऊँची पेशानी,
बस एक हिमालय की चोटी इनकी सनी,
इससे ही भारत ने अपनी भावी जानी,
जिसने इनको वध करने की मन में ठानी
उसने भारत की किस्मत में फेरा पानी;
इस देश-जाती के हुए विधाता
ही बाएँ।
उस दिन बोधि-वृक्ष के नीचे एक अबोध-हृदय आया,, / गुलाब खंडेलवाल
उस दिन बोधि-वृक्ष के नीचे एक अबोध-हृदय आया,
जीवन के दुःखों से विस्मित, कातर, थकित, अधीर, उदास,
‘शान्ति कहाँ!’ बोला वह तरु के पत्र-पत्र ने दुहराया,
‘शान्ति कहाँ!’ बोली धरती, सागर, समीर, बोला आकाश.
देवों ने आपस में पूछा, लगे ढूँढने विकल सभी,
मद से भरे प्रिया-नयनों में, मनुज देव-गृह में जाकर
विकल पुकार उठे शिशुओं-से, महाकाल हँस पडा तभी
‘मुझमें शान्ति भरी है, वसुधा के प्राणी! देखो आकर.’
बोला वह अविचल स्वर में, ‘है शान्ति नहीं अमरत्व-रहित
मधुर उर्वशी के अधरों में, नहीं मृत्यु में शान्ति कभी,
वह प्रत्यावर्तन, परिवर्तन, नहीं मनुज का होगा हित
मृग-तृष्णा की भाग-दौड़ से; नश्वर हैं ये आप सभी.
शान्ति धर्म में ही है, धर्म अहिंसा में, भव-कारागार
सत्य-अहिंसा ही है मानव तेरी महामुक्ति के द्वार’
के मारल हमरा गांधी के गोली हो / रसूल
के मारल हमरा गांधी के गोली हो, धमाधम तीन गो ।
कल्हीये आजादी मिलल, आज चलल गोली ,
गांधी बाबा मारल गइले देहली के गली हो, धमाधम तीन गो ।
पूजा में जात रहले बिरला भवन में,
दुशमनवा बैइठल रहल पाप लिये मन में,
गोलिया चला के बनल बली हो, धमाधम तीन गो ।
कहत रसूल, सूल सबका के दे के,
कहां गइले मोर अनार के कली हो, धमाधम तीन गो ।
के मारल हमरा गांधी के गोली हो, धमाधम तीन गो ।
गलने लगा हिमालय लज्जा से सागर चिंघाड़ रहा / गुलाब खंडेलवाल
गलने लगा हिमालय लज्जा से सागर चिंघाड़ रहा
चाबुक से आहत मृगेंद्र-सा, पराधीनता का अभिशाप
ढोया था जिस सहनशील धरती ने, अंतर फाड़ रहा
उसका यह विश्वासघात का विष से अधिक भयंकर पाप
आह! तुम्हींको अंतिम आहुति बनना था इस ज्वाला में
जो खा गयी सहस्रों शिशुओं, कन्याओं, माताओं को,
पुत्र-पुत्रवधुओं को, तरुणों को, तरुणी या बाला में
बिना भेद के, अबलाओं को, बहनों को भ्राताओं को
कहीं जान पाते, स्वतंत्रता! ओ आर्यों की कुलदेवी,
तू इतनी कठोर है, इतनी कष्टमयी है तेरी प्रीति
एक हाथ में अमृत, एक में विष, तेरे प्रिय पद-सेवी
दोनों को चखते हैं, तेरी रही सदा से ही यह रीति —
हम न मचलते राष्ट्रपिता से तुझे बुलाकर लाने को
घर के ही दो टूक कर दिए, मिले पुत्र ही खाने को!
गाँधी / नये सुभाषित / रामधारी सिंह “दिनकर”
(१)
छिपा दिया है राजनीति ने बापू! तुमको,
लोग समझते यही कि तुम चरखा-तकली हो।
नहीं जानते वे, विकास की पीड़ाओं से
वसुधा ने हो विकल तुम्हें उत्पन्न किया था।
(२)
कौन कहता है कि बापू शत्रु थे विज्ञान के?
वे मनुज से मात्र इतनी बात कहते थे,
रेल, मोटर या कि पुष्पक-यान, चाहे जो रचो, पर,
सोच लो, आखिर तुम्हें जाना कहाँ है।
(३)
सत्य की संपूर्णता देती न दिखलाई किसी को,
हम जिसे हैं देखते, वह सत्य का, बस, एक पहलू है।
सत्य का प्रेमी भला तब किस भरोसे पर कहे यह
मैं सही हूँ और सब जन झूठ हैं?
(४)
चलने दो मन में अपार शंकाओं को तुम,
निज मत का कर पक्षपात उनको मत काटो।
क्योंकि कौन हैं सत्य, कौन झूठे विचार हैं,
अब तक इसका भेद न कोई जान सका है।
(५)
सत्य है सापेक्ष्य, कोई भी नहीं यह जानता है,
सत्य का निर्णीत अन्तिम रूप क्या है? इसलिए,
आदमी जब सत्य के पथ पर कदम धरता,
वह उसी दिन से दुराग्रह छोड़ देता है।
(६)
हम नहीं मारें, न दें गाली किसी को,
मत कभी समझो कि इतना ही अलम है।
बुद्धि की हिंसा, कलुष है, क्रूरता है कृत्य वह भी
जब कभी हो क्रुद्ध चिंतन के धरातल पर
हम विपक्षी के मतों पर वार करते हैं।
(७)
शान्ति-सिद्धि का तेज तुम्हारे तन में है,
खड्ग न बाँहों को न जीभ को व्याल करो।
इससे भी ऊपर रहस्य कुछ मन में है,
चिंतन करते समय न दृग को लाल करो।
(८)
तुम बहस में लाल कर लेते दृगों को,
शान्ति की यह साधना निश्छल नहीं है।
शान्ति को वे खाक देंगे जन्म जिनकी
जीभ संकोची, हृदय शीतल नहीं है।
(९)
काम हैं जितने जरूरी, सब प्रमुख हैं,
तुच्छ इसको औ’ उसे क्यों श्रेष्ठ कहते हो?
मैं समझता हूँ कि रण स्वाधीनता का
और आलू छीलना, दोनों बराबर हैं।
(१०)
लो शोणित, कुछ नहीं अगर यह आँसू और पसीना,
सपने ही जब धधक उठें तब क्या धरती पर जीना?
सुखी रहो, दे सका नहीं मैं जो कुछ रो-समझा कर,
मिले तुम्हें वह कभी भाइयों-बहनों! मुझे गँवा कर।
(११)
जो कुछ था देय, दिया तुमने, सब लेकर भी
हम हाथ पसारे हुए खड़े हैं आशा में;
लेकिन, छींटों के आगे जीभ नहीं खुलती,
बेबसी बोलती है आँसू की भाषा में।
वसुधा को सागर से निकाल बाहर लाये,
किरणों का बन्धन काट उन्हें उन्मुक्त किया,
आँसुओं-पसीनों से न आग जब बुझ पायी,
बापू! तुमने आखिर को अपना रक्त दिया।
(१२)
बापू! तुमने होम दिया जिसके निमित्त अपने को,
अर्पित सारी भक्ति हमारी उस पवित्र सपने को।
क्षमा, शान्ति, निर्भीक प्रेम को शतशः प्यार हमारा,
उगा गये तुम बीज, सींचने का अधिकार हमारा।
निखिल विश्व के शान्ति-यज्ञ में निर्भय हमीं लगेंगे,
आयेगा आकाश हाथ में, सारी रात जगेंगे।
(१३)
बड़े-बड़े जो वृक्ष तुम्हारे उपवन में थे,
बापू! अब वे उतने बड़े नहीं लगते हैं;
सभी ठूँठ हो गये और कुछ ऐसे भी हैं
जो अपनी स्थितियों में खड़े नहीं लगते हैं।
(१४)
कुर्ता-टोपी फेंक कमर में भले बाँध लो
पाँच हाथ की धोती घुटनों से ऊपर तक,
अथवा गाँधी बनने के आकुल प्रयास में
आगे के दो दाँत डाक्टर से तुड़वा लो।
पर, इतने से मूर्तिमान गाँधीत्व न होता,
यह तो गाँधी का विरूपतम व्यंग्य-चित्र है।
गाँधी तब तक नहीं, प्राण में बहनेवाली
वायु न जबतक गंधमुक्त, सबसे अलिप्त है।
गाँधी तब तक नहीं, तुम्हारा शोणित जब तक
नहीं शुद्ध गैरेय, सभी के सदृश लाल है।
(१५)
स्थान में संघर्ष हो तो क्षुद्रता भी जीतती है,
पर, समय के युद्ध में वह हार जाती है।
जीत ले दिक में “जिना”, पर, अन्त में बापू! तुम्हारी
जीत होगी काल के चौड़े अखाड़े में।
(१६)
एक देश में बाँध संकुचित करो न इसको,
गाँधी का कर्तव्य-क्षेत्र दिक नहीं, काल है।
गाँधी हैं कल्पना जगत के अगले युग की,
गाँधी मानवता का अगला उद्विकास हैं।
गाँधी / रामधारी सिंह “दिनकर”
देश में जिधर भी जाता हूँ,
उधर ही एक आह्वान सुनता हूँ
“जड़ता को तोड़ने के लिए
भूकम्प लाओ ।
घुप्प अँधेरे में फिर
अपनी मशाल जलाओ ।
पूरे पहाड़ हथेली पर उठाकर
पवनकुमार के समान तरजो ।
कोई तूफ़ान उठाने को
कवि, गरजो, गरजो, गरजो !”
सोचता हूँ, मैं कब गरजा था ?
जिसे लोग मेरा गर्जन समझते हैं,
वह असल में गाँधी का था,
उस गाँधी का था, जिस ने हमें जन्म दिया था ।
तब भी हम ने गाँधी के
तूफ़ान को ही देखा,
गाँधी को नहीं ।
वे तूफ़ान और गर्जन के
पीछे बसते थे ।
सच तो यह है
कि अपनी लीला में
तूफ़ान और गर्जन को
शामिल होते देख
वे हँसते थे ।
तूफ़ान मोटी नहीं,
महीन आवाज़ से उठता है ।
वह आवाज़
जो मोम के दीप के समान
एकान्त में जलती है,
और बाज नहीं,
कबूतर के चाल से चलती है ।
गाँधी तूफ़ान के पिता
और बाजों के भी बाज थे ।
क्योंकि वे नीरवताकी आवाज थे।
गाँधी / हरिवंशराय बच्चन
एक दिन इतिहास पूछेगा
कि तुमने जन्म गाँधी को दिया था,
जिस समय हिंसा,
कुटिल विज्ञान बल से हो समंवित,
धर्म, संस्कृति, सभ्यता पर डाल पर्दा,
विश्व के संहार का षड्यंत्र रचने में लगी थी,
तुम कहाँ थे? और तुमने क्या किया था!
एक दिन इतिहास पूछेगा
कि तुमने जन्म गाँधी को दिया था,
जिस समय अन्याय ने पशु-बल सुरा पी-
उग्र, उद्धत, दंभ-उन्मद-
एक निर्बल, निरपराध, निरीह को
था कुचल डाला
तुम कहाँ थे? और तुमने क्या किया था?
एक दिन इतिहास पूछेगा
कि तुमने जन्म गाँधी को दिया था,
जिस समय अधिकार, शोषण, स्वार्थ
हो निर्लज्ज, हो नि:शंक, हो निर्द्वन्द्व
सद्य: जगे, संभले राष्ट्र में घुन-से लगे
जर्जर उसे करते रहे थे,
तुम कहाँ थे? और तुमने क्या किया था?
क्यों कि गाँधी व्यर्थ
यदि मिलती न हिंसा को चुनौती,
क्यों कि गाँधी व्यर्थ
यदि अन्याय की ही जीत होती,
क्यों कि गाँधी व्यर्थ
जाति स्वतंत्र होकर
यदि न अपने पाप धोती!
गाँधी के प्रति / मुकुटधर पांडेय
तुम शुद्ध बुद्ध की परम्परा में आये
मानव थे ऐसे, देख कि देव लजाये
भारत के ही क्यों, अखिल लोक के भ्राता
तुम आये बन दलितों के भाग्य विधाता!
तुम समता का संदेश सुनाने आये
भूले-भटकों को मार्ग दिखाने आये
पशु-बल की बर्बरता की दुर्दम आंधी
पथ से न तुम्हें निज डिगा सकी हे गाँधी!
जीवन का किसने गीत अनूठा गाया
इस मर्त्यलोक में किसने अमृत बहाया
गूँजती आज भी किसकी प्रोज्वल वाणी
कविता-सी सुन्दर सरल और कल्याणी!
हे स्थितप्रज्ञ, हे व्रती, तपस्वी त्यागी
हे अनासक्त, हे भक्त, विरक्त विरागी
हे सत्य-अहिंसा-साधक, हे सन्यासी
हे राम-नाम आराधक दृढ़ विश्वासी!
हे धीर-वीर-गंभीर, महामानव हे
हे प्रियदर्शन, जीवन दर्शन, अभिनव है
घन अंधकार में बन प्रकाश तुम आये
कवि कौन, तुम्हारे जो समग्र गुण गाये?
-पूर्णा
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