Hindi Poems On Father अर्थात इस article में हम पढेंगे, पिता पर कविताएँ. पिता किसी के भी जीवन में उसका सच्चा मार्गदर्शक और एक से अच्छे दोस्त की तरह होता है. हमने आपके लिए एक बहुत बढ़िया कविताओं का संग्रह दिया गया है.
Hindi Poems On Father – पिता पर कविताएँ
Contents
- 1 Hindi Poems On Father – पिता पर कविताएँ
- 1.1 पिता से गले मिलते / कुंवर नारायण
- 1.2 पिता और संसार (चार कविताएँ/ प्रफुल्ल कुमार परवेज़
- 1.3 पिता का घर / सुदर्शन वशिष्ठ
- 1.4 पिता के पास लोरियाँ नहीं होतीं / भगवान स्वरूप कटियार
- 1.5 माता-पिता / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
- 1.6 माँ की आँखों में पिता / मुसाफ़िर बैठा
- 1.7 पिता का महत्व / मनोज चारण ‘कुमार’
- 1.8 पिता की याद में / पूनम तुषामड़
- 1.9 पिता के जूते / नील कमल
- 1.10 पिता की याद / कुमार विश्वास
- 1.11 पिता / यश मालवीय
- 1.12 प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता / चन्द्रकान्त देवताले
- 1.13 पिता / नील कमल
- 1.14 पिता / कमलेश द्विवेदी
- 1.15 Related Posts:
पिता से गले मिलते / कुंवर नारायण
पिता से गले मिलते
आश्वस्त होता नचिकेता कि
उनका संसार अभी जीवित है।
उसे अच्छे लगते वे घर
जिनमें एक आंगन हो
वे दीवारें अच्छी लगतीं
जिन पर गुदे हों
किसी बच्चे की तुतलाते हस्ताक्षर,
यह अनुभूति अच्छी लगती
कि मां केवल एक शब्द नहीं,
एक सम्पूर्ण भाषा है,
अच्छा लगता
बार-बार कहीं दूर से लौटना
अपनों के पास,
उसकी इच्छा होती
कि यात्राओं के लिए
असंख्य जगहें और अनन्त समय हो
और लौटने के लिए
हर समय हर जगह अपना एक घर
पिता और संसार (चार कविताएँ/ प्रफुल्ल कुमार परवेज़
एक
पिता ही हो सकते थे क्रूर और कामकाजी
सिर्फ़ पिता ही जान सकते थे कि
यह है निर्ममता
संसार में पता नहीं
किस-किसने झेले होंगे उनके प्रहार
पर संसार के सारे प्रहार
अपनी पीठ पर झेलते
पिता लौटते हैं
बच्चों की दुनियाँ में
बच्चों की दुनिया में
संसार से आतंकित रहते हैं पिता
दो
पिता आते हैं फ़ुर्सत में
कि ऐन वक़्त चली जाती है माँ
धीरे-धीरे जान पाते हैं पिता
कि फुर्सत में आना
बच्चों की दुनिया में
फ़ालतू हो जाना है
फ़ैलता रहता है बच्चों का संसार
सिमटते रहते हैं पिता
बच्चों के संसार में
जब तब दुखता है पिता का मन
दुखता है पर ख़ुलता नहीं
जब-तब लगती है ठेस
याद आती है माँ
घर के एक कोने में
केवल माँ से बतियाते हैं पिता
अक्सर कहते
यही होता हैव्
यही होता है संसार
और ख़ुश्क आँखों से रोते हैं पिता
तीन
पिता माली थे
ध्यान में निरंतर रह्ती थी पौध
पेड़ की कल्पना
छाँव और फ़ल की कल्पना थी
पेड़ों की धमनियों में बहता था
पिता का रक्त
पेड़ों की जड़ों में
पिता का पसीना
पेड़ों की साँसों में थी
संसार की हवा
पेड़ों पर पड़ती थी
संसार की धूप
पिता जहाँ बैठते हैं
वहाँ से हटकर पड़ती है
पेड़ों की छाँव
पिता के हिस्से में नहीं आते
पेड़ों के फल
चार
अब जबकि पक चुके हैं बाल
पक चुका है मोतिया
अब जबकि क़दम दो क़दम पर
फूलती है साँस
पिता दूर-दराज़ के मजबूर बंजारे हैं
दूर-दराज़ बसे हैं
बच्चों के संसार
अब जबकि अनवरत सिकुड़ रही है
पिता की काया
पिता के कानों में निरंतर गूँजती है
संसारों की चरमर
पिता के ख़्याल में कहीँ भी नहीं है
ऐसा संसार
जिसे लगे हल्का पिता का भार
पाँच
पिता पैंशन भर नहीं है
न जायदाद
न वसीयत
संसार में पिता सुनते हैं बार-बार
पिता चुप लगा जाते हैं
पिता नहीं कहते
मिथ्याचार मिथ्याचार
पिता का घर / सुदर्शन वशिष्ठ
कभी सोचा न था
पिता का घर,नहीं होगा मेरा घर।
दादा का घर पिता का घर था
उस घर की छत पड़ॆ थे पूरे के पूरे बाँस
अनघड़ बासों पर थे बिछे भोज पत्र
लाए हुए न जाने किन पहाड़ों से।
दीवरों पर टंगे थे सीताराम हनुमान
औष्ण बलिभद्र
जिनके पीछे हर साल बनाती थीं
चिड़ियां घोंसले अपने
दादा,पिता,चाचा,दादी,माँ,चाचियाँ
बुआ और भी न जाने कौन-कौन
गोबर लिए कमरे के
हर कोने में बनाते थे घोंसले अपने
हर घोंसले के तिनके
एक दूसरे से रहते थे सदा गुंथे हुए।
दिन भर दूर-दूर चोग चुग कर लौटते थे सभी घर
तब अणगिणत बच्चे भर उठते थे किलकारियाँ
खुल जाती थी चोंच चोंच
चूल्हे के आसपास पटड़ों पर बैठ खाना खाते हुए
सुनाते थे कई किस्से कहानियाँ
कच्चा होते हुए भी कितना पक्का था घर!
छोटा होते हुए कितना बड़ा था घर!
पिता ने बसाया एक घर अपना
जिसमें हम बच्चे रहे कुछ दिन
जिसकी छत्त थी सीमेंटी
नहीं थी कोई दहलीज़
नहीं टँग सकता था कोई चित्र ।
नहीं लगती थी कील
नहीं बना सकती थी घोंसला कोई बाहरी चिड़िया ।
दादा ने नहीं रखा रखा कभी पाँव
ठण्दे पर्श पर
नहीं आई दादी,कोई रिश्तेदार मेहमान।
मजबूत होते हुए भी कितना कमज़ोर था घर!
बड़ा होते हुए भी कितना छोटा था घर!
दादा के पिछवाड़े
जो उगते थे आम कचनार के पेड़
आँगन में खड़े थे नींबू लुकाठ
पिता के घर बोने हो गमलों मे समाए
एक बेल जो झाँकना चाहती थी
गमले से उचककर खोड़की में
सूख जाती ऊपर पहुँचने से पहले
माँ उगाना चाहती थी
कंकरीट की क्यारी में एक फूल
पिता बसाना चाहते थे
ठाकुरों को शोकेस में
दादा का घर सबका घर था
पिता का घर पिता का घर है
मेरा नहीं।
मुझे आज अलग घर
बनाना और बसाना होगा
जो पता नहीं होगा कैसा
और होगा किसका।
पिता के पास लोरियाँ नहीं होतीं / भगवान स्वरूप कटियार
पिता मोटे तने और गहरी जड़ों वाला
एक वृक्ष होता है
एक विशाल वृक्ष
और माँ होती है
उस वृक्ष की छाया
जिसके नीचे बच्चे
बनाते-बिगाड़ते है
अपने घरौंदे ।
पिता के पास
दो ऊँचे और मज़बूत कंधे भी होते हैं
जिन पर चढ़ कर बच्चे
आसमान छूने के सपने देखते हैं ।
पिता के पास एक चौड़ा और गहरा
सीना भी होता है
जिसमें जज़्ब रखता है
वह अपने सारे दुख
चेहरे पर जाड़े की धूप की तरह फैली
चिर मुस्कान के साथ ।
पिता के दो मज़बूत हांथ
छेनी और हथौड़ी की तरह
दिन-रात तराशते रहते हैं सपने
सिर्फ़ और सिर्फ़ बच्चों के लिए ।
इसके लिए वह अक्सर
अपनी ज़रूरतें
और यहाँ तक की अपने सपने भी
कर देता है मुल्तवी
और कई बार तो स्थगित भी ।
पिता भूत, वर्तमान, और भविष्य
तीनों को एक साथ जीता है
भूत की स्मृतियाँ
वर्तमान का संघर्ष और बच्चों में भविष्य ।
पिता की उँगली पकड़ कर
चलना सीखते बच्चे
एक दिन इतने बड़े हो जाते हैं
कि भूल जाते हैं रिश्तों की संवेदना
और सड़क, पुल और बीहड़ रास्तों में
उँगली पकड़ कर तय किया कठिन सफ़र ।
बाँहें डाल कर
बच्चे जब झूलते हैं
और भरते हैं किलकारियाँ
तब पूरी कायनात सिमट आती है उसकी बाँहों में
इसी सुख पर पिता कुरबान करता है
अपनी पूरी ज़िन्दगी ।
और इसी के लिए पिता
बहाता है पसीना ता ज़िन्दगी
ढोता है बोझा, खपता है फ़ैक्ट्री में
पिसता है दफ़्तर में
और बनता है बुनियाद का पत्थर
जिस पर तामीर होते हैं
बच्चों के सपने
पर फिर भी पिता के पास
बच्चों को बहलाने और सुलाने के लिए
लोरियाँ नहीं होतीं ।
माता-पिता / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
उसके ऐसा है नहीं अपनापन में आन।
पिता आपही अवनि में हैं अपना उपमान।1।
मिले न खोजे भी कहीं खोजा सकल जहान।
माता सी ममतामयी पाता पिता समान।2।
जो न पालता पिता क्यों पलना सकता पाल।
माता के लालन बिना लाल न बनते लाल।3।
कौन बरसता खेह पर निशि दिन मेंह-सनेह।
बिना पिता पालन किये पलती किस की देह।4।
छाती से कढ़ता न क्यों तब बन पय की धार।
जब माता उर में उमग नहीं समाता प्यार।5।
सुत पाता है पूत पद पाप पुंज को भूँज।
माता पद-पंकज परस पिता कमल पग पूज।6।
वे जन लोचन के लिए सके न बन शशि दूज।
पूजन जोग न जो बने माता के पग पूज।7।
जो होते भू में नहीं पिता प्यार के भौन।
ललक बिठाता पूत को नयन पलक पर कौन।8।
जो होवे ममतामयी प्रीति पिता की मौन।
प्यारा क्या सुत को कहे तो दृग तारा कौन।9।
ललक ललक होता न जो पिता लालसा लीन।
बनता सुत बरजोर तो कोर कलेजे की न।10।
माँ की आँखों में पिता / मुसाफ़िर बैठा
मेरी अभी की बत्तीसा वय में
पिता से टूट चुका था
मेरा दुनियावी नाता
जबकि अपने छहसाला पुत्रा की उम्र में
मैं रहा होऊंगा तब
अब तो पिता के चेहरे का
एक कोना तक याद नहीं मुझको
नहीं स्मरण आता मुझे
पिता का कहा बोला एक भी हर्फ
बरता हुआ कोई बात व्यवहार
जो मेरे प्रति उनके भाव स्वभाव
डांचपुचकार हंसीदिल्लगी रोषप्रीति के
इजहार का एक कतरा सबूत भी जुटा पाता
और मैं अपनी नन्हीं जान संतान की
कम से कम उस हठ प्रश्न की आमद से
अपना पिंड छुड़ाने की खातिर उन्हें परोस पाता
कि तुम्हारे दादा ऐसे थे वैसे थे
कि कैसे थे
पिता के बारे में
मेरी यादों के रिक्थ का
सर्वथा रिक्त रह जाने का
खूब पता है
मेरी उम्र जर्जर मां को
जिसके खुद के कितने ही मान अरमान
दुनियादारी के मोर्चे पर
विफल रह गए पिता के
असमय ही हतगति होने से
रह गए थे
कोरे अधपूरे अनपूरे
और अनकहे तक
कहती है मां
तुम्हारे पिता तो
नादान की हद तक थे भोले
उन्हें तो अपने बच्चों तक पर
प्यार लुटाना नहीं आता था
मेरे मन में झांक पाने की
बात तो कुछ और है
मेरी मूंछों से
अपनी मां की स्नेहिल मौजूदगी में
खेलते चुहल शरारत करते
अपने पोते को देखकर
मेरे पिता के चेहरे को
मुझमें ढूंढ़ती शायद
कहीं और खो जाती है बरबस मां
बाप बन अब मैं समझ सकता हूं खूब
कि मुझ बाप बेटे का
राग रंग हंसी दिल्लगी निरखना
मां को बहुत प्यारा अपना ही रूपक सा
क्यूंकर लगता है ।
2005
पिता का महत्व / मनोज चारण ‘कुमार’
पिता की छाया क्या होती है,
पूछो किसी बिन बाप के बेटे से,
जब स्कूल में मास्टरजी डांटे,
गली के लङके पीटने की
दे धमकी
जब फीस भरने के वक्त माँ
असहाय दिखती है
तो पिता की कमी खलती है।
कहने को तो पिता कभी
दुलार नहीं करते,
पर इसका मतलब ये नहीं
कि वो प्यार नहीं करते।
पर पिता प्यार जता नहीं सकते,
कितना करते है बता नहीं सकते,
कुछ होती है मजबूरीयां
तभी तो पिता रखते हैं बनाये
कुछ निश्चित सी दूरीयां।
पिता हंसते नहीं बच्चों संग,
तो मतलब ये नहीं कि,
है उनका दिल तंग।
पर सच ये है दोस्तों,
छुपी सी तिरछी नजर से,
झांक लेते है वो आपकी,
नादानीयां,
बदमासियां,
आपकी हास्य भरी कारगुजारियां।
पिता
अनुशासन होते हैं घर का,
पिता राशन होते हैं घर का,
पिता प्यास का पानी है,
पिता नहींतो फिर दोस्त
क्या जिंदगानी है।
पिता की याद में / पूनम तुषामड़
यूँ तो रोज़ ही छलक जाती है
चंद बूँदें इन आँखों से
जब भी आपकी याद आती है
परन्तु कई बार मन घुटता है
अंतर में आँखों से आँसू नहीं बहते
परन्तु मन में उमड़ आती हैं
कई यादों की धाराएँ एक साथ
बचपन से जवानी तक के
सफ़र की हर बात
तब ख़ुद को समझाने पर भी
नहीं होता है विश्वास
आज आप नहीं हैं हमारे बीच
अपने बच्चों के पास
पापा न जाने क्यूँ एक ही बात सताती है
जब भी आपकी याद आती है
क्यूँ चले गए आप अचानक
इतनी दूर
हम अभागी संतान न रह सके
अंतिम समय में भी आपके पास
आपके साथ ही जैसे चली गई है
हमारी हर ख़ुशी, हमारे चेहरों कीं रौनक
हमारा उत्साह, हमारा विश्वास
पिता के जूते / नील कमल
कठिन वह एक डगर
और नमक पड़ा जले पर
इस तरह तय किया सफ़र
हमने पिता के जूतों में
इतिहास की धूल और
चुभते कई शूल, समय के,
चलते हुए साथ-साथ इस यात्रा में
आसान नहीं होतीं यात्राएँ
ऐसे जूतों में कि जिनके तलवों से
चिपके होते हैं अगणित अदृश्य पथ
और कील-कंकड़ कितने ही
आसान नहीं होता
पिता के जूतों में
अपनी राह बना लेना
पहुँचना किसी नई मंज़िल
उलटी राह चलते हैं पाँव
इन जूतों में और खो जाते हैं,
इतिहास के किसी खोह में
बच के आएगा,
इतिहास के इस खोह से, वही बच्चा,
जो उतार फेंकेगा पाँवों से, पिता के जूते
अपने लिए ढूँढ़ेगा, अपनी माप के जूते
चलेगा वह आगे की ओर
बनायेगा खुद अपनी राह
और तय करेगा मंज़िल
अपने जूतों में
बड़े काम की होती है
पिता की वह चिट्ठी
आगाह करती हुई कि बेटा,
मत डालना पाँव मेरे जूतों में
ढूँढ़ना अपने नम्बर वाला जूता
बनाना अपनी राह ख़ुद ही,
बहुत बड़ी है पृथ्वी
दस दिशाएँ पृथ्वी पर
और दस नम्बर जूतों के !
पिता की याद / कुमार विश्वास
फिर पुराने नीम के नीचे खडा हूँ
फिर पिता की याद आई है मुझे
नीम सी यादें ह्रदय में चुप समेटे
चारपाई डाल आँगन बीच लेटे
सोचते हैं हित सदा उनके घरों का
दूर है जो एक बेटी चार बेटे
फिर कोई रख हाथ काँधे पर
कहीं यह पूछता है-
“क्यूँ अकेला हूँ भरी इस भीड मे”
मै रो पडा हूँ
फिर पिता की याद आई है मुझे
फिर पुराने नीम के नीचे खडा हूँ
पिता / यश मालवीय
तुम छत से छाये
जमीन से बिछे
खड़े दीवारों से
तुम घर के आंगन
बादल से घिरे
रहे बौछारों से
तुम ‘अलबम ‘से दबे पांव
जब बाहर आते हो
कमरे -कमरे अब भी अपने
गीत गुंजाते हो
तुम बसंत होकर
प्राणों में बसे
लड़े पतझारों से
तुम ही चित्रों से
फ्रेमों में जड़े
लदे हो हारों से
तुम किताब से धरे मेज़ पर
पिछले सालों से
आँसू बनकर तुम्हीं ढुलकते
दोनों गालों से
तुम ही नयनों में
सपनों से तिरे
लिखे त्योहारों से
तुम ही उड़ते हो
बच्चों के हाथ
बंधे गुब्बारों से
यदा -कदा वह डॉट तुम्हारी
मीठी -मीठी सी
घोर शीत में जग जाती है
याद अँगीठी सी
तुम्ही हवाओं में
खिड़की से हिले
बहे रस धारों से
तुम ही फूले हो
होंठों पर सजे
खिले कचनारों से
प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता / चन्द्रकान्त देवताले
तुम्हारी निश्चल आँखें
तारों-सी चमकती हैं मेरे अकेलेपन की रात के आकाश में
प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता
ईथर की तरह होता है
ज़रूर दिखाई देती होंगी नसीहतें
नुकीले पत्थरों-सी
दुनिया-भर के पिताओं की लम्बी कतार में
पता नहीं कौन-सा कितना करोड़वाँ नम्बर है मेरा
पर बच्चों के फूलोंवाले बग़ीचे की दुनिया में
तुम अव्वल हो पहली कतार में मेरे लिए
मुझे माफ़ करना मैं अपनी मूर्खता और प्रेम में समझा था
मेरी छाया के तले ही सुरक्षित रंग-बिरंगी दुनिया होगी तुम्हारी
अब जब तुम सचमुच की दुनिया में निकल गई हो
मैं ख़ुश हूँ सोचकर
कि मेरी भाषा के अहाते से परे है तुम्हारी परछाई
पिता / नील कमल
तेज कँपकँपाते बुख़ार में
नर्म रेशमी चादर की
गरमाहट का नाम, पिता है
भूख के दिनों में
खाली कनस्तर के भीतर
थोड़े से बचे, चावल की
महक का नाम, पिता है
पिता, नाम है, इस पृथ्वी पर
दो पैरों पर चलते ईश्वर का,
पराजय के ठीक पहले
पीठ को, दीवार की
मज़बूत टेक का नाम, पिता है
पिता के पास मैं जब-जब गया
संशय बदल गए विश्वास में
असम्भव की बर्फ़ पिघल गई
पानी बन कर, सम्भव होती हुई
पिता के सीने-सा मज़बूत
नहीं था कोई दूसरा पत्थर
बताओ, फ़िर, वह कौनसा
पत्थर था , जिसे सीने पर रख कर
दिया पिता ने निर्वासन मुझे
चौदह वर्षों के लिए ।
पिता / कमलेश द्विवेदी
माँ के हैं श्रृंगार पिता.
बच्चों के संसार पिता.
माँ आँगन की तुलसी है,
घर के वंदनवार पिता.
घर की नीव सरीखी माँ,
घर की छत-दीवार पिता.
माँ कर्तव्य बताती है,
देते है अधिकार पिता.
बच्चों की पालक है माँ,
घर के पालनहार पिता.
माँ सपने बुनती रहती,
करते है साकार पिता.
आज विदा करके बेटी,
रोये पहली बार पिता.
बच्चों की हर बाधा से,
लड़ने को तैयार पिता.
बच्चे खुशियां पायें तो,
कर दें जान निसार पिता.
घर को जोड़े रखने में,
टूटे कितनी बार पिता.
घर का भार उठाते थे,
अब हैं घर के भार पिता.
बंटवारे ने बाँट दिए
बूढ़ी माँ-लाचार पिता.
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