Hindi Poems on Family या परिवार पर हिन्दी कविताएँ. इस आर्टिकल में बहुत सारी हिन्दी कविताओं का एक संग्रह दिया गया है जिनका विषय परिवार (Family) पर आधारित है.
Hindi Poems on Family – परिवार पर हिन्दी कविताएँ
Contents
- 1 Hindi Poems on Family – परिवार पर हिन्दी कविताएँ
- 1.1 परिवार / रामधारी सिंह “दिनकर”
- 1.2 निम्मी का परिवार / कन्हैयालाल मत्त
- 1.3 छोड़लाँ हम्में घर-परिवार, सतगुरु अइलाँ तोहरे द्वार / ब्रजेश दास
- 1.4 हमाओ बीघन कौ परिवार / जगदीश सहाय खरे ‘जलज’
- 1.5 धन जन परिवार क्षण में सभे उजार / भवप्रीतानन्द ओझा
- 1.6 परिवार नियोजन / मथुरा प्रसाद ‘नवीन’
- 1.7 परिवार / देवानंद शिवराज
- 1.8 हमारा परिवार / नरेश अग्रवाल
- 1.9 संयुक्त परिवार / अनुभूति गुप्ता
- 1.10 घर-परिवार / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
- 1.11 एक परिवार / सुशीला सुक्खु
- 1.12 मेरे देश का परिवार / धनराज शम्भु
- 1.13 परिवार में सुख-दुःख / अनुभूति गुप्ता
- 1.14 मानव परिवार / बालकृष्ण काबरा ’एतेश’ / माया एंजलो
- 1.15 कुल परिवार का मोह / लोकगीता / लक्ष्मण सिंह चौहान
- 1.16 परिवार नियोजन / मथुरा नाथ सिंह ‘रानीपुरी’
- 1.17 एक परिवार की कहानी / अवतार एनगिल
- 1.18 आधुनिक परिवार / शम्भुनाथ मिश्र
- 1.19 परिवार परिचय / प्रेमघन
- 1.20 Related Posts:
परिवार / रामधारी सिंह “दिनकर”
हरि के करुणामय कर का जिस पर प्रसार है,
उसे जगत भर में निज गृह सबसे प्यारा लगता है।
निम्मी का परिवार / कन्हैयालाल मत्त
निम्मी का परिवार निराला,
कभी न होता गड़बड़झाला,
सबका अपना काम बँटा है,
कूड़ा-करकट अलग छँटा है।
झाडू देती गिल्लो-मिल्लो,
चूल्हा-चौका करती बिल्लो,
टीपू-टॉमी देते पहरा,
नहीं एक भी अंधा-बहरा!
चंचल चुहिया चाय बनाती,
चिड़िया नल से पानी लाती,
निम्मी जब रेडियो बजाती,
मैना मीठे बोल सुनाती!
छोड़लाँ हम्में घर-परिवार, सतगुरु अइलाँ तोहरे द्वार / ब्रजेश दास
छोड़लाँ हम्में घर-परिवार, सतगुरु अइलाँ तोहरे द्वार।
राखो शरण लगाय, यहि दुखिया के॥टेक॥
जुल्मी बहै माया-धार, कैसें पैबै एकरो पार।
राखो माया सें बचाय, यहि दुखिया के॥1॥
करभौं सेवा दिन-रात काटभौं तोहरो नैं कोय बात।
राखो सेवक बनाय, यहि दुखिया के॥2॥
हम्में मूरख गँवार, हमरो जीवन छै बेकार।
देहो जीवन बनाय, यहि दुखिया के॥3॥
करलाँ कहियो नैं सत्संग, रहिलाँ दुर्जन के नित संग।
आबे देहो भगती-ज्ञान, यहि दुखिया के॥4॥
बिनती करै छै ‘ब्रजेश’, सुनो सतगुरु तों सर्वेश।
देहो आतम रूप लखाय, यहि दुखिया के॥5॥
हमाओ बीघन कौ परिवार / जगदीश सहाय खरे ‘जलज’
हमाओ बीघन कौ परिवार
चलाबैं कैसें हम करतार!
दयानिध कर दो बेड़ा पार।
तनक-सौ घर भारी किल्लूर
डरन के मारैं रत हम दूर
एक जौ चटा चाट रओ चाट
एक जौ पड़ा पटक रओ खाट।
एक जौ खड़ौ खुजा रऔ खाज
एक जो मुरा, मुरा रऔ प्याज
एक जौ सिड़ी सुड़क रऔ नाक
एक जौ चड़ौ टोर रओ छाज
एक जे लला बुआ रए लार
मताई कानों करै समार
हारकैं रोउन अँसुबा ढार
काए खौं पबरौ जौ परिवार।
एक जौ खड़ी खाट पै खड़ौ
एक जौ फिरत स्थाई में भिड़ौ
कढ़ोरा अलमारी सें कड़ौ
लल्तुआ लालटेन पै चड़ौ।
चतुरिया चूले ऊपर चड़ी
चाट रइ हँड़िया में की कड़ी
रमकुरा जात खुजाउत मुड़ी
सिमइयँन की वीनत है सुड़ी।
एक जे लला लगा रए लेट
एक जे नंग-धुरंगे सेट
कड़त आ रओ मटका-सौ पेट
पेट पै रोटी धरें चपेट।
एक कौ जौनों हम मौं धोउत
दूसरौ मौड़ा तीनों रोउत
रात भर इनखौं ढाँकत फिरत
बता दो फिर हम काँसें सोउत?
घुरत रत तन ज्यों घुरतइ राँग
बढ़त जा रइ डाड़ी की डाँग
तौउ जे मौड़ी-मौड़ा करत
गरम कपड़न की रोजइ माँग।
रखा लए लम्बे-लम्बे बार
निकरतइ घर सें पटियाँ पार
बुआ दो प्रभू तेल की धार
खुपड़ियाँ कर लेबें सिंगार।
कुटुम में कैसें किऐ पढ़ायँ
फीस खौ पइसा काँसै ल्यायँ?
जेब की खौंप न भरबा पाई
नओ कुरता काँसैं सिलवाये?
कभउँ नइँ नोंन, कभउँ नइँ मिर्च
चलै कैसें जा घर कौ खर्च?
लिड़इ के काल लिबउवा आए
और सँग में दो धुंगा ल्याए,
न घर में नैकऊ बचो अचार,
डरी डबला में सेरक बार,
आजकल की दएँ दैत उधार?
काए सें राम करें सत्कार?
बढ़त गइ हर सालै सन्तान
न आओ दोउ जनन खौं ग्यान
आज देरी पै पटकत मूँड़
चटत जा घरी-घरी पै जान
करा जनसंख्या कौ बिस्तार
बने हम हाय देस के भार।
दयानिध कर दो बेड़ा पार।
धन जन परिवार क्षण में सभे उजार / भवप्रीतानन्द ओझा
झूमर (भदवारी निर्गुण)
धन जन परिवार क्षण में सभे उजार
दारुण संसार
छीरे दारुण संसार
तारा सें उचटै जी हमार रे, दारुण संसार
माटी लागी काटा-काटी नारी लागी लाठा-लाठी
दारुण संसार
पेट लागी कत्तै पापाचार रे, दारुण संसार
रोग शोक अपमानि नारी सुत धन हानि
दारुण संसार
वरसे बरछी जे हजार रे, दारुण संसार
काहुँ हाँसी काहुँ हाहाकार रे, दारुण संसार
भवप्रीता कहे सार, एकहि चैतन्याधार
दारुण संसार
आरो सभे स्वपन आकार रे, दारुण संसार
तोर माया ‘बेड़ी कारागार’ रे, दारुण संसार
परिवार नियोजन / मथुरा प्रसाद ‘नवीन’
जहाँ फसल के कमाय जमा हो
ऊ महल केतना चमचमा हो
महल में रहै बाला
कहऽ हो कि कुल हमरे है
खलिहान में हलै
तब किसान के,
महल में आबऽ हइ
तब सब
महल के पेट में समाबऽ हइ
ला करो ने लापरबाही,
तब तो आ गेलो ई तबाही
नै तोरा अफसर
नै तोरा सिपाही
तब की करबा
हँसोतो ने ओकरे तरवा
जे तर से बकोटऽ हो
उहे तोरा
ऊपर से पोटऽ हो
कहऽ हो थम,
आदमी जादे
उपजा कम
नै मिलतो भर पेट भोजन
इहे से
धुन के सगरे परिवार नियोजन
करनी जब ढुंढ़बा
तब अपरेशन करा लेलको
बुतरू अर बुढ़
परिवार / देवानंद शिवराज
हे मानव द्वेष आदि छोड़ो
विद्या धन की इच्छा रखो
सत्य धर्म से मन जोड़ो
स्वर्ग की राह प्रकाश करो
ईश्वर की प्रार्थना में
पग न पीछे धरो
पूर्वजों के मार्ग चल
है यह जीवन सार
हिन्दी पढ़ो-पढ़ाओ
बने विश्व सारा परिवार।
हमारा परिवार / नरेश अग्रवाल
जानते थे हम यह सबक
रखे जायेंगे जब टोकरी में आम
कोई नीचे होगा, कोई ऊपर
सभी का अपना- अपना भाग्य
इसलिए ईष्या॔ से दूर थे हम
और किसी दिन उत्सव पर
मिलते थे हम एक साथ
बैठते थे एक जगह खाते और गप्पें लड़ाते
लगता था एक ही खून, एक ही आत्मा
डोल रही है चारों ओर
और अगर कभी किसी ने ठुकराया भी दूसरे को,
फिर प्यार किया पहले की तरह
कभी-कभी अलग भी हो जाते थे हम
अलग-अलग द्वार की तरह
फिर वापस एक जैसे,
जैसे एक ही घर के
अलग-अलग द्वार ।
संयुक्त परिवार / अनुभूति गुप्ता
ये जंग
अपनों के बीच
ले आयी
सम्बन्धों में अहं खीच।
रोप गयी
आँगन में जहरीली दूब
एकाकीपन से
घिरा घर है
जो चहचहाहट से
भरा था पहले खूब।
बेटे-बहू के
आपसी मन मुटाव में
बुजुर्ग दपंति टूटे
अपने-अपने से ही रहे रूठे।
जिस घर को
बरसों तक
स्नेह से सींचा
अब कहा-सुनी में
बच्चों तक को खींचा।
कब…
एक मामूली-सा झगड़ा
संयुक्त परिवार को तोड़ गया
जहाँ
खुशहाली हुआ करती थी
वहाँ कई रिश्ते
रोने बिलखने को पीछे छोड़ गया।
घर-परिवार / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
पत्नी – सखी सहचरी सचिव शुचि रति रुचि, गृह परिबंध
भुक्ति मुक्ति एकांत विहित अर्धांगिनि अनुबध।।45।।
माय – मायहि सँ ममता उपज बहय सिनेह क सोत
सर्ग स्वर्ग अपवर्ग सुख जनिकहि कोर इजोत।।46।।
बहिनि – सामा सतभामा पुरी भद्रा भाइक ब्योंत
नीतथि यम यमुना परब बहिनि सिनेह क सोत।।47।।
कन्या – घर – परिसर चुह-चुह करय चंचल सहज सुभाव
पिता धन्य! कन्या कुलक दीप – शिखा जे पाव।।48।।
कुलवधू – मंद हँसब बाजव चलब अँगनहु अँग पट झाँपि
लजवंती छविमति धनि दृगहृ पड़य तन काँपि।।49।।
पितामही (बाबी) – मुख अंकित रेखा गणित बीज गणित उर नेह
कंपन अंकन अंग कत बाबाी गणित सिनेह।।50।।
मातामही (नानी) – माय क् ममता दीप मे जकरे देल सिनेह
बाती प्राण क बाँटि जे नानी नेह सदेह।।51।।
पीसी (दीदी) – एक पिठिया बाबुक बहिनि नैहर नेह हकारि
जे सनेस पठबथि सदति जायब दीदि क द्वारि।।52।।
मौसी – लाड – दुलारो माय केर फटकारो कत जोर
मौसी बौंसथि झगड़ि हुनि पुनि बैसा’ निज कोर।।53।।
एक परिवार / सुशीला सुक्खु
हमारी संस्कृति
भाषा, भेष और भूषा
संस्कृति की ऊषा
भाषा से ही है संस्कृति
भाषा नहीं तो बड़ी दुर्गति
अगर बन्द हो जाए बोलना
भाषा हिन्दी बोली
कैसे मनाएँगे हम होली
कैसे सजेगी डोली
भाषा बिना
संस्कृति हो जाएगी खाली
कैसे मनाएँगे हम दिवाली
समाप्त हो जाएगा राखी
बन्धन निराली
अगर अपनी संस्कृति को
है जिन्दा रखना
तब सब को होगा
हिन्दी पढ़ना सिखाना
यहीं से है संस्कार
यहीं से है सुधार
यहीं से हम सब एक परिवार।
मेरे देश का परिवार / धनराज शम्भु
मेरे स्वर्ग जैसे देश में
ऐसे भी पिता हैं
जो चार दीवारी के पीछे
दिन-रात का समय काटते
नशा खोरी या चोरी
बलात्कारी या निर्दोष रूप में
दीवारों के पीछे उम्र बिता रहे हैं
मेरे और आपके समान
पिता मेरे देश के
चुप-दीवारों के पीछे समय काट रहे ।
मेरे स्वर्णीम देश में
बहुत माताएँ हैं
जो रात के सुनसान में
सभी के सो जाने के बाद
रास्तों की पटरी पर
डेरा-डाल कर राह जोहती
ताकि उन अविश्वासी पिताओं की
हवस की पूर्ति कर सकें
और बनावटी प्यार से मोह सकें
भंड़वों की सहायता से
ये माताएँ अपनी
वेश्यावृत्ति के लिए खड़ी हैं
जो कभी बलात का शिकार हुईं
या गर्भपात न कर पायी
क्योंकि उनको अपने प्यार पर विश्वास था
या उन को पैसे पाने की जल्दी थी
देखो खड़ी है मेरे देश की माताएँ
इन पटरियों पर ।
यहां वे कुआंरी माएँ भी हैं
जिन्होंने अपने बच्चों को
अनाथालयों में छोड़ा
कुछ ऐसे अभागे भी हैं
जिन को पीटा गया है
जिन को बेघर किया गया है
जिन के साथ बलात्कार किया गया है
जिन को कैदखाने से बाहर किया गया है
ऐसे असहाय लोग भी हैं
मेरे स्वर्ग जैसे देश के रास्तों की पटरियों पर
मेरे देश के रास्तों पर
ऐसे प्राणियों के कूड़े करकट हैं
जिन पर कोई सम्मेलन नहीं होता
कोई रंग इन को बचाता नहीं
हालांकि मेरा देश इंद्रधनुषी है
दूर किसी कोने में, गली के किनारे
पटरी पर पड़े हुओं से
मैं और तुम यही कहते
यह परिवार वर्ष है
आओ साथ मनाएँ ।
परिवार में सुख-दुःख / अनुभूति गुप्ता
आशाओं के दीप की रक्ताभ लौ
जिस देहलीज़ से उन्मुख होती है,
उद्विग्न मनःस्थिति
में भी
उस परिवार के
हर एक सदस्य के
मुखमण्डल पर
उजली मुस्कान
हरदम खिलती है
हँसते-गाते तय कर लेते हैं वे
विचित्र उथल-पुथल से भरे
टेढ़े-मेढ़े रास्तों को,
सुलझा लेते हैं वे
विक्षिप्त उलझनों को,
पहाड़ों की चढ़ाई/झरनों की नपाई
बहुत सरल लगने लगती है
जब…
घर की दीवारें
प्यार-पगी ईंटों से निर्मित हों
तो सम्बन्धों में आँगन की
तुलसी महकती है
परिवार में साथ मिलकर
सुख-दुःख बाँटना जरूरी है
बिन अपनों के साथ के
प्राप्त उपलब्धियाँ भी अधूरी है।
मानव परिवार / बालकृष्ण काबरा ’एतेश’ / माया एंजलो
मुझे स्पष्ट दिखती हैं विषमताएँ
मानव परिवार में,
हम में से कुछ हैं गम्भीर
तो कुछ का जीवन हँसने-बोलने में।
कुछ कहते कि जिया उन्होंने अपना जीवन
पूर्ण गहनता के साथ
दूसरे करते दावा कि वे वास्तव में जीते हैं
सच्चे यथार्थ के साथ।
हमारी त्वचा के रंगों की भिन्नता
कर सकती है स्तब्ध, प्रसन्न और भ्रमित,
भूरा और गुलाबी और मटमैला और कत्थई
नीला और श्वेत और नील-लोहित।
यात्रा की मैंने सात समुद्र की
और घूमी हर देश में,
देखे मैंने दुनिया के सभी आश्चर्य
देखा नहीं साधारण आदमी जग में।
जानती मैं हज़ारों महिलाओं को
जेन और मैरी जेन जैसी,
लेकिन नहीं मिली दो वैसी
जो सचमुच हों एक जैसी।
दर्पण छवि-सी जुड़वाँ भी होती भिन्न
हालाँकि उनके चेहरे मेल खाते,
किन्तु प्रेमियों के होते बिलकुल अलग विचार
साथ-साथ जब लेटे होते।
हम प्रेम करते और खो देते चीन में,
रोते हम इंग्लैंड की बंजर ज़मीन पर,
हँसते और विलाप करते गिनी में,
और फलते-फूलते स्पेनी तटों पर।
हम फिनलैंड में सफलता की तलाश करते,
मेन में जन्मते और मरते,
लघु दृष्टि से हम होते भिन्न-भिन्न
विशाल दृष्टि से हम समान होते।
मुझे स्पष्ट दिखती हैं विषमताएँ
जो हर वर्ग, हर समूह के बीच हैं,
लेकिन मेरे मित्रो, हम विषम होने की अपेक्षा
एक समान ही अधिक हैं।
मेरे मित्रो, हम विषम होने की अपेक्षा
एक समान ही अधिक हैं।
मेरे मित्रो, हम विषम होने की अपेक्षा
एक समान ही अधिक हैं।
मूल अँग्रेज़ी से अनुवाद : बालकृष्ण काबरा ’एतेश’
कुल परिवार का मोह / लोकगीता / लक्ष्मण सिंह चौहान
कौरव पाण्डव कृष्ण! एके जड़ के गछिया हो।
कुल मिली सौ, पांच डाल हो सांवलिया॥
पांच के नाम सें कि आंच आवे पारे रामा।
सौ नास करे सरबनासे हो सांवलिया॥
नहीं हम चाहों कृष्ण राज सुख भोगवा हो।
तनिको न विजय हुलास हो सांवलिया॥
जिनहुं के लेलु यार! राज-पाट जीतबैय हो।
से हो सब छैय मरैले तैयार हो सांवलिया॥
अगिया बुझैवैय साथी नैना जल सींचबैय हो।
कुल केर बगिया बचैबैय हो सांवलिया॥
ऐहन जीवन, भोग, राज सें कि पैबैय रामा।
लेहुआ से लेपल महल हो सांवलिया॥
दारुण विपद झेली पावैय छैय जरिकबा हो।
केना कुलवोरना कहैबैय हो सांवलिया॥
नीक नीक लोगबा ते खाड़ रन भूमिया हो।
मारी के जुलुसिबां उठैबैय हो सांवलिया॥
धिक!धिक! हमरो जनम लेबा जगवा में।
एत थर काण्ड हाय! देखैले हो सांवलिया॥
प्राण धन के आस छारि ये हो सब खाड़ रामा।
गुरु, चाचा, बेटा दादा मामा हो सांवलिया॥
पोता, ससुर, सार सब परिवरबा हो।
हमरहु के मारैब तऊ न मारु हो सांवलिया॥
सरग, पताल, मरतलोक फेर राजपाट।
मान लां कि मिलैय तऊ ना मारु हो सांवलिया॥
ये हो सब राज जेना धूल के समान रामा।
त धरती के राज केना काज हो सांवलिया॥
दुरयोधन आदि सब भैइया के मारी रामा।
किय बड़ मोद मन होतैय हो सांवलिया॥
नियम बताबैय रामा मारु उतपातिया के।
एकरा मारनें नहीं दोष हो सांवलिया॥
नियम धरमुवां में बर बर भेदवा हो।
कि पाप के पिटरिया उठैबैय हो सांवलिया॥
अपने त भाई रामा चाचा के लरिकवा हो।
मारी मारी केना पाप लेबैय हो सांवलिया॥
माधव! माधव! भला अपनो कुटुमुबां के।
मारी जारी केना सुख पैयबैय हो सांवलिया॥
परिवार नियोजन / मथुरा नाथ सिंह ‘रानीपुरी’
टुन्ना-मुन्ना छोटका-बड़का
गिनती में छै बीस
बरस पैतीसा के चढ़त्हें
मन्नऽ में उठलै टीस।
केकरो फटलै धोती-कुरता
केकरो फटलै पैंट
कोइये खोजै तेल हेमानी
कोइये मांगै सैंट
कोय घुड़कै, कोइये दौड़े छै
कोइये मांगै छै आशीष।
कोय लपकै रे हड़िया देखी
कोइये दिखावै छै शेखी
गाला-गाली, मार-पीट के
घर्है देखै छी साजीश।
सोचऽ में हमरऽ कोख सुखै छै
छोटकां अभियो दूध पीयै छै
गुड्डा मारै छै धृड़कुनियाँ
लौकै हमरा चारो दीस।
ई नै जानलौं ई आफत
दुखो मिलतै बच्च्है मारफत
नै जानौं की ई फुसफुसिया
ई रंग हमरा देतै लीस॥
एक परिवार की कहानी / अवतार एनगिल
पिता :
क्या कहा,
आप मुझे नहीं जानते?
अरे,मैं पिता हूं !
वर्षों पहले लगाये थे मैंने
इस पनीरी में
तीन नन्हें पौधे
ये तीनों पौधे मेरे तीन बेटे हैं
पहले हर पेड़ एक बेटा था
अब हर बेटा एक पेड़ है
बड़-सा, जड़ ।
मुझ-सा सुखी कौन है
तीनों मेरे नाम का दम भरते हैं
मेरी बहुओं की देख-भाल करते हैं।
बहुएं प्रायः कहती हैं :
‘बाबू जी तो नदी किनारे के पेड़ हैं
कौन जाने कब………..’
और इधर
बूढ़े माली की आँखों में मोतिया उतर आया है
दिन भर खोजता है____किधर छाया है
कानों पर हाथ रख
प्रायः प्रतीक्षा करता है
शायद अभी काल-बैल होगी
कोई तो आएगा
कैसी विडम्बना है
एक पिता ने तीन पुत्र पाले थे
तीन पुत्र एक पिता को नहीं पाल सकते ?
मां :
अरे कपूतों
इस कोख-जलीको दकियानूसी कहते हो
जोरुओ के ग़ुलामों !
बाप दादा का घर छोड़
किराए के क्वार्टरों में रहते हो ।
तुम तीनों मेरे तीन दुःख थे
मेरी कंचन काया पर पड़े तीन कोड़े थे
या घिनौने फोड़े थे
तुम्हारे घावों ने
मेरी संतुलित देह को
झुर्रियों ने भर दिया
मेरे सावन के झूलों को
पतझर-सा कर दिया।
तिस पर
इन लिपी-पुती चुड़ेलों ने
बहका दिए
मेरे भोले बेटे !
पुराने घर के द्वारों में जड़ी
मैं अकेली
‘इनके’ दमे, गंठिये, और अंधेपन से लड़ी ।
आधी सदी बीती
एक बार घर आकर
मैंने नृत्य मुद्रा में दर्पण देखा था
अब तो जीवन ही दर्पण है
‘ये’ है
मैं हूँ
और दर्पण में दूर कहीं तुम तीनों हो।
बड़ा बेटा श्रवण कुमार :
बाबू जी अम्मां ने
केवल काम जिया
शरीर की आग में
सब सवाहा किया
ये दोनों पत्नि और पति थे
या काम और रति थे
मां के स्वभाव की कड़वाहट को
रेखा ने दस साल सहा
कभी एक शब्द नहीं कहा
कर्ता के कंधों झूलते
छोटे भाई कर्म को भूलते
कोल्हू का बैल
यदि आंख मूंद चलता
सभी उस पर निर्भर करते
बेल बन कर जीते
तो कभी पेड़ न बन पाते ।
पुराने घर की परछत्तियों पर
चमगादड़ों से उल्टे लटके
और दिन को रात महसूस करवाते
उस त्रिशंकु-युग को जीने की निसबत
टूटना कहीं बेहतर था ।
पुरखों का घर छोड़ते समय सोचा
‘मेरा नाम श्रवण कुमार है
पर मुझे श्रवण कुमार नहीं बनना’
मंझला:
नाम में क्या रखा है
आप भी मुझे मंझला पुकार सकते हैं
तीन भाइयों में एक
अनजाना
अनचाहा मंझला
आदर के लिए बड़ा
स्नेह के लिए छोटा
मंझला बेटा पैसा खोटा ।
बिना फीस और बिना बस्ते के
घर से स्कूल
स्कूल से घर
स्कूल से पिटता
घर में घिसटता
अभाव के पाटों पिसता
गालियां सुनता
उधेड़ता-बुनता
सर धुनता
आखिरकार—शहर के बड़े व्यापारी का
छोटा सेल्ज़मैन बन गया
शादी हुई,थोड़ी देर लगा
सर पर आसमान तन गया,
पर पलक झपकते ही
डेढ़ कमरे का घर
और पुराने दरवाज़े
पत्नी और दो बच्चों से भर गये
चालीस तक पहुंचते
सर के बल झर गये
बीस वर्ष बीते
जब मैं बीस का था
शायद वह एक युग पहले की बात है
अब तो रात है
सुबह है
और फिर रात है।
छोटा विनोद :
देखिए,
मेरी जीकरनुमा शक्ल देखकर
हंसियेगा नहीं
मैं विनोद हूं : बप्पा का नालायक छोटा बेटा।
किसी तरह घिसटकर कालेज पहुंचा
तो एक दिन
एक सहपाठिन को
चिट्ठी लिख बैठा
लड़की मुस्कुराई
पर अगले दिन आया
हाकी उठाए उसका भाई
हुई धुनाई
पहुंचा घर
तो श्रवण भैया के सामने पेश किया गया
एक थी धुनाई
एक थी पिटाई
रात जब आई
मैं भाग खड़ा हुआ
छोड़ा ऊना
पहुँचा पूना
छोटा-मोटा व्यापार किया
कुछ कमाया
कुछ खाया
कुछ बचाया
एक पारसी लड़की से की शादी
हुआ एक नन्हा बच्चा।
धीरे-धीरे
कपड़ों, कर्ज़ों, फीसों का चक्रव्यूह तोड़ा
थोड़ा बहुत पैसा जोड़ा
और आज
पंद्रह दिन के लिए
बिना चिट्ठी दिए
घर जा रहा हूँ
आप मित्र हैं इसलिए बता रहा हूँ
ऊना पहुँचकर
मां को सरप्राईज़ दूंगा
अचानक कॉल बैल बजाऊँगा
और मां के सामने
उसकी छोटी बहु को पेश कर कहूंगा,
‘जी भर कर गालियां दे लो मां।
परिवार :
मां कहती है :
‘आधी सदी बीती
जब एक बार घर आकर
मैंने नृत्य-मुद्रा में दर्पण देखा था
अब तो जीवन का दर्पण है
‘ये है,मैं हूं,
और दर्पण में दूर कहीं तुम तीनों हो’।
बड़ा बेटा कहता है :
‘मेरा नाम श्रवण कुमार है
पर मुझे श्रवण नहीं बनना।
अनाम मंझला कहता है :
‘आदर के लिए बड़ा
स्नेह के लिए छोटा
मंझला बेटा पैसा खोटा ।
पिता बोलते हैं :
‘सूने घर की दीवारों से
शायद अभी कॉल बैल टकराएगी।
छोटा विनोद चहकता है :
‘ऊना पहुँचकर मां को सरप्राईज़ दूंगा
अचानक कॉल बैल बजाऊँगा
और मां के सामने
उसकी छोटी बहू को पेश कर कहूंगा :
‘जी भर कर गालियां दे लो माँ ।
आधुनिक परिवार / शम्भुनाथ मिश्र
परिवारक माने बस पत्नी, शेष निखत्तर गेल
आबि गेल पूरा कलियुग बस सोची अपनहि लेल
वसुधे छली कुटुम्ब, आब से भेल पुरनका बात
पहिने बेटा-बेटी पत्नी बाँकी छल सब कात
परिवारक सीमासँ बेटो-बेटी बाहर भेल।
जीवनकेर परिभाषा बदलल, बदलल सकल समाज
भोगवाद सागरमे पूरा डूबल जाय जहाज
वर्तमान जीबाक दौड़मे अछि भविष्य बुड़ि गेल।
सबटा हुकुम चलय पत्नीकेर आर कथूक न ध्यान
फूटल कौड़ी देब न जानथि तकर पूर्ण छनि ज्ञान
परिवारक छल पैघ पताका सब गुड़ गोबर भेल।
पत्नीकेँ अन्हरोखे तुकपर उठिते चाही चाह
जेना रहथि सरकारी हाकिम सब क्यौ रहय तबाह
माथक टेन्सन भोरेसँ छनि चाही मालिस तेल।
पहिलुक बनल सकल परिभाषा सबटा थिक पाखण्ड
पति पत्नीकेँ संगहि भोजन सै टा भेल निखण्ड
कर्मयोगपर भोगक पलड़ा भरी अछि पड़ि गेल।
परिवार परिचय / प्रेमघन
ईस कृपा सों यदपि निवास स्थान अनेकन।
भिन्न भिन्न ठौरन पर हैं सब सहित सुपासन॥२३॥
बड़ी बड़ी अट्टालिका सहित बाग तड़ागन।
नगर बीच, वन, शैल, निकट अरु नदी किनारन॥२४॥
इष्ट मित्र अरु सुजन सुहृद सज्जन संग निसि दिन।
जिन मैं बीतत समय अधिक तर कलह क्लेश बिन॥२५॥
अति बिशाल परिवार बीच मैं प्रेम परस्पर।
यथा उचित सन्मान समादर सहित निरन्तर॥२६॥
रहत मित्रता को सो बर बरताव सदाहीं।
इक जनहूँ को रुचत काज सों सबहिं सुहाहीं॥२७॥
रहत तहाँ तब लगि सों, जाको जहाँ रमत मन।
निज निज काज बिभाग करत चुप चाप सबै जान॥२८॥
एक काज को तजत, पहुँचि तिहि और सँभालत।
होन देत नहिं हानि भली विधि देखत भालत॥२९॥
सबै सयाने, सबै अनेकन गुन गन मंडित।
कोऊ एक, अनेक विपय के कोऊ पंडित॥३०॥
कोऊ परमारथिक, कोऊ संसारिक काजहि।
कोऊ दुहुँ सों दूर सदा सुख साजहि साजहिं॥३१॥
पै मिलि बैठत जबै सबै रंगि जात एक रंग।
भिन्न भिन्न वादित्र यथा मिलि बजत एक संग॥३२॥
कारन सब मैं सब की रुचि कछु कछु समान सी।
सबहि लहन निष्पाप सुखन की परी बानि सी॥३३॥
नित प्रति विद्या विविध व्यसन, साहित्य समादर।
सुख सामग्री सेवन, कौतूहल विनोद कर॥३४॥
राग रंग संग जबै हाट सुन्दरता लागति।
बहुधा ऐसे समय प्रीति की रीतहु जागति॥३५॥
भरत आह नाले कोउ मोहत वाह वाह करि।
कोऊ तन्मय होत ईस के रंग हियो भरि॥३६॥
यह विचित्रता इतहिं दया करि ईस दिखावत।
विकट विरुद्ध विधान बीच गुल अजब खिलावत॥३७॥
रहत सदा सद्धर्म्म परायण लोग न्याय रत।
काम क्रोध अरु मोह, लोभ सों बचत बचावत॥३८॥
यथा लाभ संतुष्ट, अधिक उद्योग न भावत।
बहु धन मान, बड़ाई के हित, चित न चलावत॥३९॥
सदा ज्ञान वैराग्य योग की होत वारता।
ईस भक्ति मै निरत, सबन के हिय उदारता॥४०॥
“अहै दोष बिन ईश एक” यह सत्य कहावत।
तासों जो कछु दोष इतै लखिबे मैं आवत॥४१॥
सो सम्प्रति प्रचलित जग की गति ओर निहारे।
सौ सौ कुशल इतै लखियत मन माहिं विचारे॥४२॥
मर्यादा प्राचीन अजहुँ जहँ विशद बिराजति।
मिलि सभ्यता नवीन सहित सीमा छबि छाजति॥४३॥
जित सामाजिक संस्कार नहिं अधिक प्रबल बनि।
सत्य सनातन धर्म्म मूल आचार सकत हनि॥४४॥
जित अंगरेजी सिच्छा नहिं संस्कृत दवावति।
वाकी महिमा मेटि कुमति निज नहिं उपजावति॥४५॥
पर उपकार वित्त सों बाहर होत जहाँ पर।
जहँ सज्जन सत्कार यथोचित लहत निरन्तर॥४६॥
जहाँ आर्यता अजहुं सहित अभिमान दिखाती।
जहाँ धर्म रुचि मोहत मन अजहूँ मुसकाती॥४७॥
जहँ विनम्रता, सत्य, शीलता, क्षमा दया संग।
कुल परम्परागत बहुधा लखि परत सोई ढंग॥४८॥
स्वाध्याय, तप निरत जहाँ जन अजहुँ लखाहीं।
बहु सद्धर्म परायन जस कहुँ बिरल सुनाहीं॥४९॥
नहिं कोऊ मूरख नहिं नृशंस नर नीच पापरत।
सुनि जिनकी करतूति होय स्वजनन को सिर नत॥५०॥
जो कोउ मैं कछु दोष तऊ गुन की अधिकाई।
मिलि मयंक मैं ज्यों कलंक नहिं परत दिखाई॥५१॥
जगपति जनु निज दया भूरि भाजन दिखरायो।
जगहित यह आदर्श विप्र कुल विरचि बनायो॥५२॥
सब सुख सामग्री संपन्न गृहस्थ गुनागर।
धन जन सम्पति सुगति मान मर्याद धुरन्धर॥५३॥
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