Hindi Poems on Earth या धरती पर हिन्दी कविताएँ. इस आर्टिकल में बहुत सारी हिन्दी कविताओं का एक संग्रह दिया गया है जिनका विषय धरती (Earth) पर आधारित है.
Hindi Poems On Earth – धरती पर हिन्दी कविताएँ
Contents
- 1 Hindi Poems On Earth – धरती पर हिन्दी कविताएँ
- 1.1 धरती छोटी है / हरीसिंह पाल
- 1.2 धरती की पुकार / इस्मत ज़ैदी
- 1.3 धरती की आह / तेज राम शर्मा
- 1.4 धरती का दुख / दीप्ति गुप्ता
- 1.5 धोरां री धरती / शिवराज भारतीय
- 1.6 धरती के नाम एक शोकगीत / ओएनवी कुरुप
- 1.7 धरती से दूर हैं न क़रीब आसमाँ से हम / रऊफ़ खैर
- 1.8 धरती तुझसे बोल रही है / माखनलाल चतुर्वेदी
- 1.9 धरती का आँगन इठलाता / सुमित्रानंदन पंत
- 1.10 धरती धोरां री / कन्हैया लाल सेठिया
- 1.11 धरती कितनी बड़ी किताब / अनवारे इस्लाम
- 1.12 धरती का पहला प्रेमी / भवानीप्रसाद मिश्र
- 1.13 धरती पर तारे / भवानीप्रसाद मिश्र
- 1.14 धरती माँ कहलाती है / सुरेश यादव
- 1.15 धरती का जीवन / धीरेन्द्र अस्थाना
- 1.16 यह धरती कितना देती है / सुमित्रानंदन पंत
- 1.17 धरती के नाम / राजा खुगशाल
- 1.18 Related Posts:
धरती छोटी है / हरीसिंह पाल
न थककर बैठ,
यह धरती तुझसे छोटी है।
कोई ऐसा नहीं थका दे, तेरे थके बिना
सब कुछ है तेरे हाथों में,
खोना-पाना और मिट जाना।
कुछ भी तुझे अलभ्य नहीं है,
यह मंत्र जान ले
जो कुछ है तेरे कर में है,
किस्मत तुझसे छोटी है
न थककर बैठ, यह धरती तुझसे छोटी है।
सब कुछ है जीवन में तेरे
यह गांठ बांध ले
जो कुछ कर लेगा हाथों से,
अपना उसे ही मान ले।
मत मन को मार,
यह सब दुनिया खोटी है
न थककर बैठ, यह धरती तुझसे छोटी है।
जीवन इतना सरल नहीं है,
जितना मान लिया है
सभी तो इतने बुरे नहीं हैं,
जैसा जान लिया है।
कुछ खोकर कुछ पाना होगा,
यह जग की गोटी है।
न थककर बैठ, यह धरती तुझसे छोटी है।
धरती की पुकार / इस्मत ज़ैदी
मैं, पावन धरती का बेटा,
इसके आँचल में मैं खेला,
अन्नपूर्ण है ये मेरी,
नर्म बिछौना इस की गोदी ।
बापू को देखा करता था,
भोर में उठ कर खेत को जाना,
अम्माँ का खाना ले जाना ,
साथ बैठ कर भोजन खाना ।
गाँव की ऐसी स्वच्छ हवाएँ,
कुँए का पानी, घिरी घटाएँ,
चारों ओर बिछी हरियाली,
कभी हुआ न पनघट खाली ।
पर ये बातें हुईं पुरानी,
जैसे हो परियों की कहानी,
कहने को तो पात्र वही हैं,
दृश्य परन्तु बदल गए हैं ।
नगरों की इस चकाचौंध ने,
सोंधी मिटटी को रौंदा है,
ऊँची-ऊँची इमारतों से,
खेतों का अधिकार छीना है ।
युवकों की जिज्ञासु आँखें,
सपने शहरों के बुनती हैं,
गाँवों की पावन धरती से,
जुड़ने को बंधन कहती हैं
खेती को वे तुच्छ जानकर,
शहरों को भागे जाते हैं,
निश्छल मन और शुद्ध पवन को,
महत्वहीन दूषित पाते हें ।
भारत की बढ़ती आबादी,
कल को भूखी रह जायेगी ,
कृषि बिना क्या केवल मुद्रा,
पेट की आग बुझा पाएगी?
धरती आज जो सोना उगले,
कल को ईंट और गारा देगी,
महलों की ऊँची दीवारें,
भूख तो देंगी अन्न न देंगी ।
क्या महत्व खेती का समझो,
वरना हम अपने बच्चों को,
भूखा प्यासा भारत देंगे,
तब वे हम से प्रश्न करेंगे ।
आपने पाया था जो भारत,
धन-धान्य से परिपूर्ण था,
आपने कैसा फ़र्ज़ निभाया ?
हम ने भूखा भारत पाया ।
धरती की आह / तेज राम शर्मा
अंजुरी से छलक न जाए जल
रेगिस्तानन में
प्यासी होगी धरती
राख में दबाकर रखता हूँ अंगारा
शीत में ठिठुर रही होगी धरती
पहाड़ से चुराता हूँ
एक शीतल साँस
छटपटा रही होगी धरती
छुपाता फिरता हूँ
सोंधी मिट्टी का एक टुकड़ा
चट्टान-सी कठोर
हो रही होगी धरती
बुहार कर रखता हूँ
तारों भरे आकाश का एक कोना
चाँदनी रात में पल भर
सुस्ताती होगी धरती
बचाता फिरता हूँ
बीज का एक दाना
शिशु सपने देखती होगी धरती।
धरती का दुख / दीप्ति गुप्ता
झुक कर नीलगगन ने पूछा – क्यों वसुधे!
हरियाली सम्पन्न सुन्दरी फूलों में तू हँसती-खिलती
त्यौहारों में – गाती
अब तू क्यों इतनी उदास है? न ही तू मुस्काती!
धीरे से बोली धरती तब –
हरियाली सम्पन्न कहाँ मैं? न मैं फूलों वाली;
त्योहारों में भीड़ – भाड़ है, नहीं भावना प्यारी!
ऋतुओं का वह रूप नहीं मौसम का कोई समय नहीं
जीवन का कोई ढंग नहीं इंसां का कोई धरम नहीं
मेरे मानस पुत्रों को नजर लग गई किसकी
उजड़ रहा सब ओर सभी कुछ बुद्धि फिर गई सबकी!
रिश्तो की गरिमा गिर गई मूल्यों की महिमा मिट गई
भटक रही दुनिया सारी,
अपने ही अपनों के दुश्मन और खून के प्यासे
समझ रहे बलबीर स्वयं को एक दूजे को देकर झाँसे,
हरियाली में सूखा है, फूलों में रंग फीका है
त्यौहार हो गया रीता है!
कहाँ खो गई नेक भावना
खरी उज्ज्वल उदात्त कामना!
जनजीवन का बिगड़ा हाल
देख सभी की टेढ़ी चाल
रहती मैं दिन-रात उदास!
धोरां री धरती / शिवराज भारतीय
धोरां री धरती
आ मनड़ो मोवणी, सुरंगी सोवणी
मीठा लागै इणरा बोल
कैर सांगरी फोफळियां री
बात अठै री न्यारी
काचर बोर मतीरा अर
राबड़ली सैंनै प्यारी
मोठ बाजरै री खीचड़ली
इमलाणै सूं सिणगारी
आथण बणावणी, हरख सूं खावणी
लागै टाबरियां नै कोड
धोरां री धरती ……..
आगूणां डूंगर में मोरिया
मधरा-मधरा बोलै
आथूणां धोरां में कुरजां
मिसरी सी घौळे
काळा-पीळा बादळिया
मरूधर रो घूंघट खोलै
पायल छमकांवती, आ बिरखा आंवती
रिमझीम बाजैं ई रो पौड़
धोरां री धरती ……..
ताती ताती लु चालै अर
काळी-पीळी आंधी
आग-उगळती गरमी आवै
काया पड़ज्यै मांदी
हार नी मानी कदैई मानखो
कड़क उन्याळै सामी
जेठ रो तावड़ो, लागै अणखावणो
जीवै दमां रै जोर
धोरां री धरती ……..
राम रूसज्या कदैई अठै जद
बादळिया तरसावै
रीत्योड़ा कसवाड़
धरां रै ऊपर सूं लंघ ज्यावै
फेर काळ रा बाजै भचीड़ा
कांई समझ नीं आवै
सिसकता जीवड़ा, डांगर अर ढोरड़ा
फिरै भटकता ठौड़
धोरां री धरती ……..
टप-टप टप-टप चोवै टापली
बिरखा जद आ ज्यावै
पो‘फाट्यां ई लोग लुगाई
खेत बीर हो ज्यावै
रूण-झुण, रूण-झुण टाली बजांता
बळदां नै ले ज्यावै
हरख अर चाव सूं, हळां री नोक सूं
लिखै धरा पर गीत
धोरां री धरती ……..
मौज-मनाती अठै गोरियां
तीज-त्युंहार मनावै
होळी अर गणगौर फागणियै
गीत प्रीत रा गावै
सावणियो मन भावणियो
हिवड़ै हिचकोळ उठावै
प्रीत रै पालणै, सायब रै कारणै
जागै काळजियै री कोर
धोरां री धरती ……..
मीठी अर हरखाऊ भासा
हियै नेह उपजावै
अणगिणती रा ग्रंथ लिखारा
ओ इतिहास बतावै
राज-मानता अजै मिली ना
कुण बांनै समझावै
लाखां-किरोड़ां री, भासा मन-भावणी
जोवै मानता री बाट
धोरां री धरती ……..
गढ़ लूंठो चित्तौड़ जठै
घूम्यो राणा रो घोटो
मुगलां री अठै पगी ना लागी
नांव पड़ग्यो छोटो
रणबंका राठौड़ां रो
जोधाणै में नीं टोटो
बै दुरगादास सा, जलमियां सूरमा
बैरयां रो चाल्यो ना जोर
धोरां री धरती ……..
मेवाड़ी तलवार अणूंती बार
धरा पर घूमी
राणा सांगा कुम्भा गौरा-बादळ इणनै चूमी
जुध में पाछै नहीं नारियां
आग धधकती लीनी
आण निभावण नै
लाज बचावण नै
पदमण कीन्यो जौ‘र
धोरां री धरती ……..
नई नवेली बीनणी नै
ब्याय चूंडावत ल्यायो
मिल्या नैण सूं नैण
निरख हाड़ी राणी हरसायो
रात-रंग री बेळा में
बैरयां रणनाद बजायो
रणां में जाज्यो सा, जीत नै आज्यो सा
लेवो सेनाणी सीस
धोरां री धरती ……..
नगरां री पटराणी जैपर
सैरै मन भावै
देसी-परदेसी सैलाणी
मौज मनावण आवै
जंतर-मंतर देख आंगळी
दांत तळै दबावै
गुलाबी रंगा रो,
बाग बगीचां रो
जैपर रो नीं तोड़
धोरां री धरती ……..
गंग नै‘र नै ल्याय गंगासिंह
इणरो रूप संवारयो
राज कैनाळ रै पाणी सूं
धोरां पर सुरग उतारयो
चम्बळ-लूणी इण माटी नै
सदियां सूं सिणगारयो
बांध अर डैम सूं, पाणी रै जोर सूं
बिजळी चसै च्यारूं कूंट
धोरां री धरती ……..
मिनख-मानवी सगळा टाबर
इण पर वारी जावां
बलिहारी धोरां री धरती
इणरो भाग जगावां
धोरां री धरती ……..
रगत-पसीनो सींच-सींच
इण माटी नै महकावां
हियै रै हेत सूं, प्रेम री जोत सूं
दीपै आखी भौम,
धोरां री धरती ……..
धरती के नाम एक शोकगीत / ओएनवी कुरुप
हे धरती ! तेरी मृत्यु अभी नहीं हुई
तेरी आसन्न मृत्यु पर
तूझे आत्मशांति मिले !
तेरी और मेरी भी होनेवाली मृत्यु के लिए
मै यह गीत अभी से लिख रहा हूँ
मृत्यु के काले फूल खिले हैं
उसके साए में तू कल मर जाए
तेरी चिता जलाकर रोने के लिए
यहाँ कोई नहीं बचेगा
मैं भी !
यह गीत मैं तेरे लिए लिख रहा हूँ
हे धरती ! तेरी मृत्यु अभी नही हुई है
तेरी आसन्न मृत्यु पर
तेरी आत्मा को शांति मिले
प्रसव की पीड़ा सह
तूने बच्चों को जन्म दिया
अब ये आपस में लड़ते-झगड़ते हैं
वे एक दूसरे को मारते-खाते हैं
दूसरों से छिपकर तू रोती है
फिर थोड़ा-थोड़ा करके
वे तुझे भी खाते हैं
वे उछल-कूद मचाते हैं
वे शोर मचाते हैं
तब भी उन्हें रोके बगैर
तू सब कुछ सहती है
उनके साथ खड़ी रहती है !
अपनी हरी मृदुल कमीज़ पहनकर
तूने उन्हें स्तन-पान कराया
पर तेरा दूध पीकर बड़े हुए जो
वे तेरा पवित्र रक्त पीना चाहते हैं
बहुत प्यास लगी है उनको
तू वधू-सी प्यारी है
सूरज ने तुझे जो कपड़े पहनाए
उन्हें चीर-फाड़कर
तेरे नग्न शरीर को अपने नाखूनों से काट कर
उन घावों से निकले ख़ून को पीकर
उन्माद-नृत्य करनेवालों की हुंकारों से
मुखरित हो उठती है
मृत्यु की ताल !
अनजाने में युवक की
अपनी ही माँ से
शादी करने की कहानी[1]
पुरानी हो गई
आज धरती की ये संतानें
नई कहानियाँ रच रही हैं
धरती के वस्त्र उतारकर,
उन्हें हाट में बेचकर
वे मदिरा पान कर रही हैं
कुठारों का खेल जारी हैं !
सूरज की आँखों में
भभक उठता है गुस्सा
मेघों का झुंड पानी ढूँढ़ रहा हैं
श्रावण नन्हें फूल खोज रहा है
नदियाँ अपना प्रवाह तलाश रही हैं
सारा संतुलन बिगड़ गया है
जीवन का रथ-चक्र नाले में धॅंस गया है
जब तक मेरी चेतना में
थोड़ी-सी ज्योत्स्ना रह जाए
तब तक तुझ में जन्म ले
तेरा ही हिस्सा बनने की
स्मृतियाँ मुझमें जीवित रहेंगी !
तू मेरी जीभ पर मधु और वचा
लेकर आती पहली अनुभूति है
तू मेरे प्राणों के बुझते पल में
तीर्थ कण बन विलीन होती
अंतिम अनुभूति है
तुझमें उगती दूबों की कोरों में
ढुलकते तुहिन-कणों में भी
प्रकट होते नन्हें सूरज को देखकर
मेरे दिल में विस्मयित सवेरा
उदित हुआ है !
तेरे पेड़ों की छाँव में
हमेशा मेरी कामना गाएँ चरती हैं
तेरे समुंदर से होकर
प्रवाचक के आगमन-सी
हवा चल रही हैं
सब कुछ मुझे मालूम है
हज़ारों नन्हे बच्चों के लिए
पालना और लोरी संजोकर
तेरा जागना
हज़ारों ग्रामीण आराधनालयों में
झूला डालना
पीपल के पत्तों के छोर पर नाचना
पंचदल फूल बन इशारा देना
मंदिर का कबूतर बन
कुर-कुर रव करना
हज़ारों नदियों की लहर बनकर
आत्महर्ष के सुरों में सुर मिलाना
शिरीष, कनेर और बकुल बन
नए रंग-बिरंगे छातों को फहराना
घुग्घु का घुघुआना बन
सबको डराना
कोयल की आवाज़ बनकर
सबका डर दूर करना
अंतरंगों की रंगोलियों में
रंग भरने सौ वर्णों की मंजुषाएँ
संजोकर रखना
शाम को साँझ से
सुनहला बनाना
संध्या को लेकर वन की ओर
ओझल हो जाना
फिर उषा को कंधों पर लादना
मुझे जगाने
मुझे पीयूष पिलाने के लिए
वन के दिल के घर में
अंडे सेकर कविता को प्रस्फुटित करना
जलबिंदु-सा तरल
मेरे जीवन को
कमलदल बन आश्रय देना
तेरे इन कामों से मैं परिचित हूँ
तू मुझमें समा जाती है
तेरी स्मृतियाँ ही
मेरे लिए पीयूष धारा है !
हे हंस
तुम पंखों से
संगीत भरते हो
तेरे नन्हें पंखों की नोक पर
क्षण-भर के लिए
क्षण-भर के लिए ही सही
मेरे जीवन का मधुर सत्य
प्रज्जवलित हो उठता है !
यह बुझ जाए!
तू अमृत है
जिसे मृत्यु के बलि के कौए ने चुगा
मुंडित सिर से, भ्रष्ट बन
तू जब सौरमंडल के राजपथ
से होकर
बच्चों के पाप के मैले वस्त्रों की
गठरी ढोकर
अधसूने दिल में दहकनेवाली
पीड़ाओं की ज्वाला बन
चली जाती है
ऐसे में
तेरे शिराओं से
कहीं छन-छनकर तो नहीं आ रही
कराल-मृत्यु
हे धरती तेरी मृत्यु अभी नहीं
हुई है
लेकिन यह तेरी मृत्यु का
शोकगीत है !
तेरी और मेरी भी होनेवाली मृत्यु
का यह गीत
मैं अभी से लिख रहा हूँ
तेरी चिता जलाकर रोने के लिए
मैं यहाँ बचा नहीं रहूँगा
इसलिए बस इतना ही
उल्लेख कर रहा हूँ
हे धरती तेरी मृत्यु अभी
नहीं हुई है !
तेरी आसन्न मृत्यु पर
तेरी आत्मा को शांति मिले
तुझे आत्मशांति मिले !
मूल मलयालम से अनुवाद : संतोष अलेक्स
धरती से दूर हैं न क़रीब आसमाँ से हम / रऊफ़ खैर
धरती से दूर हैं न क़रीब आसमाँ से हम
कूफ़े का हाल देख रहे हैं जहाँ से हम
हिन्दोस्तान हम से है ये भी दुरूस्त है
ये भी ग़लत नहीं कि हैं हिन्दोस्ताँ से हम
रक्खा है बे-नियाज़ उसी बे-नियाज़ ने
वाबस्ता ही नहीं हैं किसी आस्ताँ से हम
रखता नहीं है कोई शहादत का हौसला
उस के ख़िलाफ लाएँ गवाही कहाँ से हम
महफ़िल में उस ने हाथ पकड़ कर बिठा लिया
उठने लगे थे एक ज़रा दरमियाँ से हम
हद जिस जगह हो ख़त्म हरीफ़ान-ए-‘ख़ैर’ की
वल्लाह शुरू होते हैं अक्सर वहाँ से हम
धरती तुझसे बोल रही है / माखनलाल चतुर्वेदी
धरती बोल रही है–धीरे धीरे धीरे मेरे राजा,
मेरा छेद कलेजा हल से फिर दाना बन स्वयं समा जा।
माटी में मिल जा ओ मालिक,
माँद बना ले गिरि गह्वर में,
एक दहाड़, करोड़ गुनी हो,
गूँजे नभ की लहर लहर में।
हरी हरी दुनियाँ के स्वामी, लाल अँगारों के कमलापति,
मुट्ठी भर हड्डियाँ? नहीं, यह जग की हल-चल तेरी सम्पति।
रे इतिहास, फेंक सत्तावन वाली वह तलवार पुरानी,
आज गरीबी की ज्वालामय साँसों पर चढ़ने दे पानी।
उत्सव क्या? सूली पर चढ़ना; क्या त्योहार? मौत की बेला!
खेला कौन? अरे प्रलयंकर, तू अपने परिजन से खेला।
नेता-अनुयायी का रौरव,
वक्ता-श्रोता का यह रोना।
ओ युग! तेरे हाथों देने,
आये मूरख चन्द्र-खिलौना।
तेरे घिसते दाँतों की मचमची, गठानें खोल रही है,
धीरे-धीरे मेरे राजा, तुझसे धरती बोल रही है।
रचनाकाल: खण्डवा-१९४०
धरती का आँगन इठलाता / सुमित्रानंदन पंत
धरती का आँगन इठलाता!
शस्य श्यामला भू का यौवन
अंतरिक्ष का हृदय लुभाता!
जौ गेहूँ की स्वर्णिम बाली
भू का अंचल वैभवशाली
इस अंचल से चिर अनादि से
अंतरंग मानव का नाता!
आओ नए बीज हम बोएं
विगत युगों के बंधन खोएं
भारत की आत्मा का गौरव
स्वर्ग लोग में भी न समाता!
भारत जन रे धरती की निधि,
न्यौछावर उन पर सहृदय विधि,
दाता वे, सर्वस्व दान कर
उनका अंतर नहीं अघाता!
किया उन्होंने त्याग तप वरण,
जन स्वभाव का स्नेह संचरण
आस्था ईश्वर के प्रति अक्षय
श्रम ही उनका भाग्य विधाता!
सृजन स्वभाव से हो उर प्रेरित
नव श्री शोभा से उन्मेषित
हम वसुधैव कुटुम्ब ध्येय रख
बनें नये युग के निर्माता!
धरती धोरां री / कन्हैया लाल सेठिया
धरती धोरां री,
आ तो सुरगां नै सरमावै,
ईं पर देव रमण नै आवै,
ईं रो जस नर नारी गावै,
धरती धोरां री!
सूरज कण कण नै चमकावै,
चन्दो इमरत रस बरसावै,
तारा निछरावळ कर ज्यावै,
धरती धोरां री !
काळा बादळिया घहरावै,
बिरखा घूघरिया घमकावै,
बिजळी डरती ओला खावै,
धरती धोरां री!
लुळ लुळ बाजरियो लैरावै,
मकी झालो दे’र बुलावै,
कुदरत दोन्यूं हाथ लुटावै,
धरती धोरां री!
पंछी मंधरा मधरा बोलै,
मिसरी मीठै सुर स्यूं घोळै,
झीणूं बायरियो पंपोळै,
धरती धोरां री !
नारा नागौरी हिद ताता,
मदुआ ऊंट अणूंता खाथा !
ईं रै घोड़ा री के बातां ?
धरती धोरां री !
ई रा फळ फुलड़ा मन भावण,
ईं रै धीणो आंगण आंगण,
बाजै सगळां स्यूं बड़ भागण,
धरती धोरां री !
ईं री चितौड़ो गढ़ लूंठो,
ओ तो रण वीरां रा खूंटो,
ईं रो जोधाणूं नौ कूंटो,
धरती धोरां री !
आबू आभै रै परवाणैं,
लूणी गंगाजी ही जाणै,
ऊभो जयसलमेर सिंवाणै,
धरती धोरां री !
ईं रो बीकाणूं गरबीलो,
ईं रो अलवर जबर हठीलो,
ईं रो अजयमेर भड़कीलो,
धरती धोरा री !
जैपर नगरयां में पटराणी,
कोटा बूंदी कद अणजणी ?
चम्बल कैवै आं री का’णी,
धरती धोरां री !
कोनी नांव भरतपुर छोटो,
घूम्यो सूरजमल रो घोटो,
खाई मात फिरंगी मोटो,
धरती धोरां री !
ईं स्यूं नहीं माळयो न्यारो,
मोबी हरियाणो है प्यारो,
मिलतो तीन्यां रो उणियारो,
धरती धोरां री !
ईंडर पालनपूर है ई रा,
सागी जामण जाया बीरा,
अै तो टुकड़ा मरू रै जी रा,
धरती धोरां री !
सोरठ बंध्यो सारेठां लारै,
भेळप ंिसध आप हंकारै
मूमल बिसर्यो हेत चितारै,
धरती धोरां री !
ईं पर तनड़ो मनड़ो वारां,
ईं पर जीवण प्राण उंवारां,
ईं री धजा उड़ै गिगनारां,
मायड़ कोड़ां री !
ईं नै मोत्यां थाळ बधावां,
ईं री धूळ लिलाड़ लगावां,
ई रो मोटो भाग सरावां,
धरती धोरां री !
ईं रै सत रीे आण निभावां,
ईं रै पत नै नही लजावां,
ईं नै माथो भेंट चढ़ावां,
मायड़ कोड़ां री,
धरती धोरां री !
धरती कितनी बड़ी किताब / अनवारे इस्लाम
जीवन के आने जाने का,
इस दुनिया के बन जाने का,
इसमें लिक्खा सभी हिसाब-
धरती कितनी बड़ी किताब!
खोल-खोल कर बाँचा इसको,
देखा-परखा, जाँचा इसको,
निकला है अनमोल ख़जाना,
मानव का इतिहास पुराना।
सब अच्छा, कुछ नहीं खराब,
धरती कितनी बड़ी किताब!
खोद-खोद कर गहराई से,
बहुत मिला धरती माई से,
इन चीजों से जाना हमने,
धरती को पहचाना हमने।
थोड़ा तुम भी पढ़ो जनाब,
धरती कितनी बड़ी किताब!
चाँदी-सोना इसके अंदर,
हीरे-पन्ना इसके अंदर,
इसमें बीती हुई कहानी,
इसमें छिपा हुआ है पानी।
इसे पढ़ो बन जाओ नवाब,
धरती कितनी बड़ी किताब!
धरती का पहला प्रेमी / भवानीप्रसाद मिश्र
एडिथ सिटवेल ने
सूरज को धरती का
पहला प्रेमी कहा है
धरती को सूरज के बाद
और शायद पहले भी
तमाम चीज़ों ने चाहा
जाने कितनी चीज़ों ने
उसके प्रति अपनी चाहत को
अलग-अलग तरह से निबाहा
कुछ तो उस पर
वातावरण बनकर छा गए
कुछ उसके भीतर समा गए
कुछ आ गए उसके अंक में
मगर एडिथ ने
उनका नाम नहींलिया
ठीक किया मेरी भी समझ में
प्रेम दिया उसे तमाम चीज़ों ने
मगर प्रेम किया सबसे पहले
उसे सूरज ने
प्रेमी के मन में
प्रेमिका से अलग एक लगन होती है
एक बेचैनी होती है
एक अगन होती है
सूरज जैसी लगन और अगन
धरती के प्रति
और किसी में नहीं है
चाहते हैं सब धरती को
अलग-अलग भाव से
उसकी मर्ज़ी को निबाहते हैं
खासे घने चाव से
मगरप्रेमी में
एक ख़ुदगर्ज़ी भी तो होती है
देखता हूँ वह सूरज में है
रोज़ चला आता है
पहाड़ पार कर के
उसके द्वारे
और रुका रहता है
दस-दस बारह-बारह घंटों
मगर वह लौटा देती है उसे
शाम तक शायद लाज के मारे
और चला जाता है सूरज
चुपचाप
टाँक कर उसकी चूनरी में
अनगिनत तारे
इतनी सारी उपेक्षा के
बावजूद।
धरती पर तारे / भवानीप्रसाद मिश्र
गुस्से के मारे
सारे के सारे
आसमान के तारे
टूट पड़े धरती के ऊपर
झर-झर-झर-झर अगर
तो बतलाओ क्या होगा?
धरती पर आकाश बिछेगा
किरणों से हर कदम सिंचेगा
चंदा तक चढ़ने का
मतलब नहीं बचेगा
रूस बढ़ा या अमरीका
बढ़ने का मतलब नहीं बचेगा|
मगर एक मुश्किल आऐगी
कब जाएगी रात और
दिन कब आएगा?
कब मुर्गा बोलेगा
कब सूरज आएगा
कब बाज़ार भरेगा
कब हम जाएँगे सोने
कब जाएँगे लोग,
बढ़ेंगे कब किसान बोने
कब मां हमें उठाएगी
मूंह हाथ धुलेगा
जल्दी जल्दी भागेंगे हम यों कि
अभी स्कूल खुलेगा?
नाहक हैं सारे सवाल ये
हम सब चौबीसों घंटों
जागेंगे कूदेंगे खेलेंगे
हर तारे से बात करेंगे!
मगर दूसरे लोग-
बात उनकी क्या सोचें
उनसे कुछ भी नहीं बना
तो पापड़ बेलेंगे!
धरती माँ कहलाती है / सुरेश यादव
हरी -हरी वह घास उगाती है
फसलों को लहलहाती है
फूलों में भरती रंग
पेड़ों को पाल पोस कर ऊंचा करती
पत्ते पत्ते में रहे जिन्दा हरापन
अपनी देह को खाद बनाती है
धरती इसी लिए माँ कहलाती है |
पानी से तर हैं सब
नदियाँ, पोखर, झरने और समंदर
ज्वालामुखी हजारों फिर भी
सोते धरती के अन्दर
जैसा सूरज तपता आसमान में
धरती के भीतर भी दहकता है
गोद में लेकिन सबको साथ सुलाती है
धरती इसी लिए माँ कहलाती है .
आग पानी को सिखाती साथ रहना
हर बीज सीखता इस तरह उगना
एक हाथ फसलें उगा कर
सबको खिलाती है
दुसरे हाथ सृजन का ,
सह -अस्तित्व का ,
एकता का – पाठ पढ़ाती है
धरती…इसी लिए माँ कहलाती है।
धरती का जीवन / धीरेन्द्र अस्थाना
नदी के कूल में,
करती अठखेलियाँ;
जाने कहाँ लीन हो गईं
वो अल्हड़ उर्मियाँ!
पूनम के चाँद की
वो शीतल चांदनी
रात रानी की
मादक महक;
पपीहा का चिर
‘पी कहाँ ‘ का स्वर,
न जाने कहाँ
विलीन हो गया!
सिक्के ढालने वाले
कल कारखानों का
कर्ण विदारक शोर;
और इनसे विसर्जित
विषैला रसायन;
जीवन को कर
अशांत और विषाक्त!
कर दिया रिक्त और
सिक्त निस्त्रा को;
धूमिल हो गयी धुएं से
वो चांदनी रातें और
उजड़ गये धरती का
श्रृंगार करने वाले;
उपवन और नभचर!
कितना हो गया परिवर्तित
इस धरती का जीवन!
यह धरती कितना देती है / सुमित्रानंदन पंत
मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे,
सोचा था, पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे,
रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी
और फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूँगा!
पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा,
बन्ध्या मिट्टी नें न एक भी पैसा उगला!-
सपने जाने कहाँ मिटे, कब धूल हो गये!
मैं हताश हो बाट जोहता रहा दिनों तक
बाल-कल्पना के अपलर पाँवडडे बिछाकर
मैं अबोध था, मैंने गलत बीज बोये थे,
ममता को रोपा था, तृष्णा को सींचा था!
अर्द्धशती हहराती निकल गयी है तबसे!
कितने ही मधु पतझर बीत गये अनजाने,
ग्रीष्म तपे, वर्षा झूली, शरदें मुसकाई;
सी-सी कर हेमन्त कँपे, तरु झरे, खिले वन!
औ’ जब फिर से गाढ़ी, ऊदी लालसा लिये
गहरे, कजरारे बादल बरसे धरती पर,
मैंने कौतूहल-वश आँगन के कोने की
गीली तह यों ही उँगली से सहलाकर
बीज सेम के दबा दिये मिट्टी के नीचे-
भू के अंचल में मणि-माणिक बाँध दिये हो!
मैं फिर भूल गया इस छोटी-सी घटना को,
और बात भी क्या थी याद जिसे रखता मन!
किन्तु, एक दिन जब मैं सन्ध्या को आँगन में
टहल रहा था,- तब सहसा, मैने देखा
उसे हर्ष-विमूढ़ हो उठा मैं विस्मय से!
देखा-आँगन के कोने में कई नवागत
छोटे-छोटे छाता ताने खड़े हुए हैं!
छांता कहूँ कि विजय पताकाएँ जीवन की,
या हथेलियाँ खोले थे वे नन्हीं प्यारी-
जो भी हो, वे हरे-हरे उल्लास से भरे
पंख मारकर उड़ने को उत्सुक लगते थे-
डिम्ब तोड़कर निकले चिडियों के बच्चों से!
निर्निमेष, क्षण भर, मैं उनको रहा देखता-
सहसा मुझे स्मरण हो आया,-कुछ दिन पहिले
बीज सेम के मैने रोपे थे आँगन में,
और उन्हीं से बौने पौधो की यह पलटन
मेरी आँखों के सम्मुख अब खड़ी गर्व से,
नन्हें नाटे पैर पटक, बढती जाती है!
तब से उनको रहा देखता धीरे-धीरे
अनगिनती पत्तों से लद, भर गयी झाड़ियाँ,
हरे-भरे टंग गये कई मखमली चँदोवे!
बेलें फैल गयी बल खा, आँगन में लहरा,
और सहारा लेकर बाड़े की टट्टी का
हरे-हरे सौ झरने फूट पड़े ऊपर को,-
मैं अवाक् रह गया-वंश कैसे बढ़ता है!
छोटे तारों-से छितरे, फूलों के छीटे
झागों-से लिपटे लहरों श्यामल लतरों पर
सुन्दर लगते थे, मावस के हँसमुख नभ-से,
चोटी के मोती-से, आँचल के बूटों-से!
ओह, समय पर उनमें कितनी फलियाँ फूटी!
कितनी सारी फलियाँ, कितनी प्यारी फलियाँ,-
पतली चौड़ी फलियाँ! उफ उनकी क्या गिनती!
लम्बी-लम्बी अँगुलियों – सी नन्हीं-नन्हीं
तलवारों-सी पन्ने के प्यारे हारों-सी,
झूठ न समझे चन्द्र कलाओं-सी नित बढ़ती,
सच्चे मोती की लड़ियों-सी, ढेर-ढेर खिल
झुण्ड-झुण्ड झिलमिलकर कचपचिया तारों-सी!
आः इतनी फलियाँ टूटी, जाड़ो भर खाई,
सुबह शाम वे घर-घर पकीं, पड़ोस पास के
जाने-अनजाने सब लोगों में बँटबाई
बंधु-बांधवों, मित्रों, अभ्यागत, मँगतों ने
जी भर-भर दिन-रात महुल्ले भर ने खाई !-
कितनी सारी फलियाँ, कितनी प्यारी फलियाँ!
यह धरती कितना देती है! धरती माता
कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को!
नही समझ पाया था मैं उसके महत्व को,-
बचपन में छिः स्वार्थ लोभ वश पैसे बोकर!
रत्न प्रसविनी है वसुधा, अब समझ सका हूँ।
इसमें सच्ची समता के दाने बोने है;
इसमें जन की क्षमता का दाने बोने है,
इसमें मानव-ममता के दाने बोने है,-
जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसलें
मानवता की, – जीवन श्रम से हँसे दिशाएँ-
हम जैसा बोयेंगे वैसा ही पायेंगे।
धरती के नाम / राजा खुगशाल
धरती के दर्जनों नाम
फ़ालतू पड़े हैं शब्दकोशों में
आओ, धरती के कुछ नाम
उन सितारों को दे दें
जिनके कोई नाम नहीं हैं।
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