Dr. Sarvepalli Radhakrishnan Essay in Hindi अर्थात इस article में आप पढेंगे, डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन पर एक निबंध हिंदी भाषा में.
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन आधुनिक भारत के एक ऐसे दार्शनिक विद्वान् थे जिन्होंने दर्शन के क्षेत्र में विश्व-व्यापी प्रसिद्धि प्राप्त की । इस महान् अनुभवी व्यक्ति का जन्म तिरुतणी नामक गांव में 5 सितम्बर, 1888 ई0 में हुआ । यह गांव मद्रास से 65 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है । वे जन्म से ही साधारण परिवार से संबंध-रखते थे । इन्होंने प्रारंभिक शिक्षा अपने इलाके के ईसाई मिशनरी द्वारा चलाए स्कूल में प्राप्त की ।
वैसे तो घर-परिवार से ही इन्हें धार्मिक शिक्षा मिलती रही । परन्तु ईसाई मिशनरी स्कूल की पढ़ाई का नतीजा यह हुआ कि धर्म की प्रवृति ने इनके मन पर गहरी छाप छोड़ी । इस तरह जीवन के अगले विकास में वे धर्म-चिंतक के रूप में विकास करते-करते दार्शनिक व्याख्या तथा समीक्षा के राह पर चल पड़े । किसे पता था कि मिशनरी स्कूल में पढ़ने वाला यह बच्चा एक दिन विश्व का महान दार्शनिक तथा वेदांत का सिद्ध पुरुष बन जाएगा ।
उनके बारे में आज यह बड़ी सच्चाई है कि वे अपनी दार्शनिक प्रतिभा के कारण विश्व में भारतीय दर्शन का संचार कर सकने के योग्य हुए । अपनी तीक्ष्ण बुद्धि तथा परपक्व विद्या के कारण 21 साल की आयु में उन्हें प्रेसीडेंसी कॉलेज मद्रास के दर्शन विभाग में प्रोफेसर बनने का मौका मिला । उस समय से लेकर भारत के उपराष्ट्रपति बनने तक, डॉ. राधाकृष्णन लगातार दर्शन अध्यापन के काम में व्यस्त रहे तथा भारतीय दृष्टिकोण की महत्ता को उजागर करते रहे । उनकी इसी विद्वता को ध्यान में रखते हुए ही उनका जन्मदिवस 5 सितम्बर भाव अध्यापक दिवस के रूप में मनाया जाता है । 1918 ई. में राधाकृष्णन मैसूर यूनिवर्सिटी में दर्शन के प्रोफेसर नियुक्त किए गए । इन्हीं दिनों मैं ही इन्होंने अंग्रेजी में एक पुस्तक लिखी- ‘ द रैन ऑफ रिलीजन इन कन्टेमप्रेरी फिलॉसफी. । ‘ इस पुस्तक के माध्यम से वे विश्वभर में प्रसिद्ध हो गए ।
विश्व भर में उन्हें एक प्रमाणित विद्वान के रूप में जाना जाने लगा । इसके बाद इन्हें कलकत्ता यूनिवर्सिटी के आचार-विज्ञान विभाग का मुखिया नियुक्त किया गया । यह विभाग बादशाह जार्ज पंचम के नाम से एक पीठिका के रूप मैं जाना जाता है । यह पीठिका आज भी दर्शन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण मानी जाती है । इसके अतिरिक्त राधाकृष्णन जी के खोज- भरपूर लेख विश्व की प्रसिद्ध पत्रिकाओं में .सम्मान सहित प्रकाशित किए जाते रहे ।
ऐसे लेखों से प्रभावित होकर ही डॉ. राधाकृष्णन को आक्सफोर्ड के मैनचैस्टर कॉलेज में व्याख्यान देने के लिए बुलाया गया । इन व्याख्यानों के परिणामस्वरूप इनकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘ द हिंदू व्यू ऑफ लाइफ ‘ प्रकाशित हुई तथा इससे उन्हें अद्वितीय दार्शनिक रूप मैं प्रसिद्धि प्राप्त हुई । इसी पुस्तक के माध्यम से उन्होंने भारतीय दर्शन के चरित्र को पश्चिमी जगत के सामने रखा । विद्वानों का मत है कि इस संबंध में डी. राधाकृष्णन की भूमिका शंकराचार्य की तरह रही । राधाकृष्णन के सभी लेखों में जौ विधि चलती है वह उपनिषदों की परंपरा वाली है । उपनिषदों की परंपरा यह है कि उसमें किसी भी सिद्धांत को बहुत -ही सरल तरीके से प्रस्तुत किया जाता है ।
डॉ. राधाकृष्णन ने भी यही तरीका अपनाया । अपने इसी दृष्टांत के कारण वे पूर्व को पश्चिम से तथा पश्चिम को पूर्व की बात समझाने मैं निपुण हो गए । डी. राधाकृष्णन ने बहुत समय तक ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ाया । साथ में ही उन्हें इंग्लैंड के दूसरे शहरों में भी व्याख्यान देने का अवसर मिला । इस प्रकार उन्हें कई शहरों में सम्मान प्राप्त हुआ । यहां तक कि एक बार तो पोप ने भी डॉ. साहिब का सम्मान किया ।
कृष्णन जी चाहे अपने धर्म के दृष्टिकोण में परिपक्व थे परन्तु वे दूसरे धर्मों के दृष्टिकोण में भी उदार थे तथा उन्हें दिल खोलकर समझने का प्रयत्न भी करते थे । अपने समूचे दर्शन के आधार पर उनका यह मत रहा कि बीसवीं सदी के पदार्थवादी युग में भी धर्म का बहुत महत्त्व है । 1939 ई में इन्हें बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी का उपकुलपति नियुक्त किया गया । भारत की स्वतत्रता प्राप्ति के पश्चात् 1948 ई में इन्हें यूनिवर्सिटी ग्राटस कमीशन का मुखिया बनाया गया ।
उस दौरान उन्होंने यूनिवर्सिटी विद्या के विकास के लिए बहुत ही प्रशंसनीय कार्य किए । १९५२ ई में इन्हें भारत का उपराष्ट्रपति बनाया गया तथा 1962 ई में इन्हें भारत का राष्ट्रपति चुना गया । 1949 ई में इन्हें राजदूत बनाकर रूस भेजा गया । उस समय भारत तथा रूस के आपसी संबंध बहुत अच्छे नहीं थे परन्तु उन्होंने अपनी प्रतिभा के बल पर दोनों देशों के जटिल संबंधों को बहुत ही अच्छे संबंधों में बदल दिया । उपराष्ट्रपति पद पर रहते हुए उन्होंने अपने सभी फर्ज बहुत अच्छे तरीके से निभाए । उपराष्ट्रपति को राज्यसभा की प्रधानगी भी करनी पड़ती है ।
इस कार्य को भी उन्होंने पूरी योग्यता के साथ निभाया । 1918 ई में उन्होंने फिलॉसफी संबंधी अंग्रेजी में पुस्तक लिखी जिसे बहुत ही प्रशंसा मिली । 1954 ई में इन्हें भारत के सबसे बड़े सम्मान ‘ भारत रत्न’ से विभूषित किया गया । 1955 ई में इन्हें फ्रांस ने सम्मानित किया । 1957 ई में इन्हें मंगोलिया की ओर से प्रशंसा पत्र दिया गया तथा इन्हें ‘मास्टर ऑफ विजडम ‘ कहा गया । जर्मनी की ओर से इन्हें पीस प्राइज दिया गया ।
वास्तव में डॉ. राधाकृष्णन जी भारतीय संस्कृति की सुंदरता तथा महानता के प्रतीक थे । वे जब भी व्याख्यान देते थे तो ऐसा लगता था मानो किसी प्राचीन गुरुकुल का कोई आचार्य अपने विद्यार्थियों को शिक्षा दे रहा हो । इनका कद लबा, बटन दरमियाना तथा चेहरा गबा था । सिर पर दक्षिणी ढग से बंधी पगडी इनकी भारतीयता को विशेष गहराई देती थी ।
वे सफेद अचकन, धोती तथा चमकते जूते पहनते थे । कभी-कभी पतलून तथा बद गले का लबा कोट भी पहन लेते थे । पत्रकारों से मिलने से वे सदा संकोच करते थे तथा बच्चों के साथ वे सदा खुश रहते थे । लगभग एक वर्ष बीमार रहने के बाद 17 अप्रैल, 1975 ई की रात को मद्रास के एक नर्सिग होम में इन्होंने प्राण त्याग दिए । भारत में ही नहीं विश्व में उनकी मौत पर शोक छा गया । वे अपनी कृतियों के माध्यम से सदा अमर रहेंगे ।
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