देशभक्ति / मोहनलाल अरमान
Contents
- 1 देशभक्ति / मोहनलाल अरमान
- 2 देस की छाँव / सुधा ओम ढींगरा
- 3 देस-विभाजन-१ / हरिवंशराय बच्चन
- 4 धन्य सुरेन्द्र / प्रतापनारायण मिश्र
- 5 धोरां आळा देस जाग / मनुज देपावत
- 6 ध्वज-वंदना / रामधारी सिंह “दिनकर”
- 7 नहीं जी रहे अगर देश के लिए / उदयप्रताप सिंह
- 8 नारी चेतना / अज्ञात रचनाकार
- 9 नाला-ए-बुलबुल / अज्ञात रचनाकार
- 10 निवेदन / जय भारत / मैथिलीशरण गुप्त
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पिला दे जाम ज़रा मुल्क के मयख़ाने की,
फिर ज़रूरत न रहे साक़िया पैमाने की।
मसरूर आंखों में वो रंग गुलाबी आए,
मस्त बहके जो अदा देख ले मस्ताने की।
निसार मुल्क की खि़दमत में जां अगर हो मेरी,
फिर तमन्ना न मुझे दैरे हरम जाने की।
जुल्मे ज़ालिम से परेशान, मुज़्तरिब थे हम,
चर्ख़ तुझको क्या पड़ी है मेरे बहलाने की।
क़फ़स में करके मुझे यों न धमकियां दे तू,
याद कर ले मेरे नालों में असर आने की।
सितम की तेगे़ जफ़ा सुर्ख़ फ़ाम है अरमां,
हवस है दिल की शहादत पे ख़ू बहाने की।
रचनाकाल: सन 1931
देस की छाँव / सुधा ओम ढींगरा
साजन मोरे नैना भर-भर हैं आवें
देस की याद में छलक-छलक हैं जावें
याद आवे
वो मन्दिर
वो गुरुद्वारा
वो धर्मशाला
वो पुराना पीपल का पेड़
जिस तले बैठ
कच्ची अम्बियाँ थीं खाई
जेठ की भरी दुपहरी में
नंगे बदन
सँकरी गलियों में
दौड़ थी लगाई—-
सावन की झड़ी में
तेज फुहारों में
भीग-भीग कर
मन्दिर का दिया था जलाया
हाँ साजन,
मोरे नैना भर-भर हैं आवें
देस की याद में छलक-छलक हैं जावें .
तू काहे निर्मोही है हुआ
देस लौटने का नाम न लिया
गर्मी की चिलचिलाती धूप
सर्दी की ठिठुरन याद है आवे
यहाँ की हीटिंग-कूलिंग न भावे
यहाँ की चुप्पी भी खा जावे
तुझे भाये डालरॅ
मुझे भाये रौनक
तुझे भाये एकल परिवार
मुझे भाये संयुक्त परिवार
इन्ही मतभेदों में
लौट न पाई देस
रह गई परदेस
साजन,
तभी तो मोरे नैना भर-भर हैं आवें
देस की याद में छलक-छलक हैं जावें
छलक-छलक हैं जावें.
देस-विभाजन-१ / हरिवंशराय बच्चन
सुमति स्वदेश छोड़कर चली गई,
ब्रिटेन-कूटनीति से छलि गई,
अमीत, मीत; मीत, शत्रु-सा लगा,
अखंड देश खंड-खंड हो गया।
स्वतंत्रता प्रभात क्या यही-यही!
कि रक्त से उषा भिगो रही मही,
कि त्राहि-त्राहि शब्द से गगन जगा,
जगी घृणा ममत्व-प्रेम सो गया।
अजान आज बंधु-बंधु के लिए,
पड़ोस-का, विदेश पर नज़र किए,
रहें न खड्ग-हस्त किस प्रकार हम,
विदेश है हमें चुनौतियां दिए,
दुरंत युद्ध बीज आज बो गया।
धन्य सुरेन्द्र / प्रतापनारायण मिश्र
धनि-धनि भारत आरत के तुम एक मात्र हितकारी।
धन्य सुरेन्द्र सकल गौरव के अद्वितीय अधिकारी॥
कियो महाश्रम मातृभूमि हित निज तन मन धन वारी।
सहि न सके स्वधर्म निन्दा बस घोर विपति सिर धारी॥
उन्नति उन्नति बकत रहत निज मुख से बहुत लबारी।
करि दिखरावन हार आजु एक तुमही परत निहारी॥
दुख दै कै अपमान तुम्हारो कियो चहत अविचारी।
यह नहिं जानत शूर अंग कटि शोभ बढ़ावत भारी॥
धनि तुम धनि तुम कहँ जिन जायो सो पितु सो महतारी।
परम धन्य तव पद प्रताप से भई भरत भुवि सारी॥
धोरां आळा देस जाग / मनुज देपावत
धोरां आळा देस जाग रे, ऊंठां आळा देस जाग।
छाती पर पैणा पड़्या नाग रे, धोरां आळा देस जाग ।।
धोरां आळा देस जाग रे….
उठ खोल उनींदी आंखड़ल्यां, नैणां री मीठी नींद तोड़
रे रात नहीं अब दिन ऊग्यो, सपनां रो कू़डो मोह छोड़
थारी आंख्यां में नाच रह्या, जंजाळ सुहाणी रातां रा
तूं कोट बणावै उण जूनोड़ै, जुग री बोदी बातां रा
रे बीत गयो सो गयो बीत, तूं उणरी कू़डी आस त्याग ।
छाती पर पैणा पड़्या नाग रे ,धोरां आल़ा देश जाग रे ! ऊंटा आल़ा देश जाग !
खागां रै लाग्यो आज काट, खूंटी पर टंगिया धनुष-तीर
रे लोग मरै भूखां मरता, फोगां में रुळता फिरै वीर
रे उठो किसानां-मजदूरां, थे ऊंठां कसल्यो आज जीण
ईं नफाखोर अन्याय नै, करद्यो कोडी रो तीन-तीन
फण किचर काळियै सापां रो, आज मिटा दे जहर-झाग ।
छाती पर पैणा पड़्या नाग रे ,धोरां आल़ा देश जाग रे ! ऊंटा आल़ा देश जाग !.
रे देख मिनख मुरझाय रह्यो, मरणै सूं मुसकल है जीणो
ऐ खड़ी हवेल्यां हँसै आज, पण झूंपड़ल्यां रो दुख दूणो
ऐ धनआळा थारी काया रा, भक्षक बणता जावै है
रे जाग खेत रा रखवाळा, आ बाड़ खेत नै खावै है
ऐ जका उजाड़ै झूंपड़ल्यां, उण महलां रै लगा आग ।
छाती पर पैणा पड़्या नाग रे ,धोरां आल़ा देश जाग रे ! ऊंटा आल़ा देश जाग !
ऐ इन्कलाब रा अंगारा, सिलगावै दिल री दुखी हाय
पण छांटां छिड़कां नहीं बुझैली, डूंगर लागी आज लाय
अब दिन आवैला एक इस्यो, धोरां री धरती धूजैला
ऐ सदां पत्थरां रा सेवक, वै आज मिनख नै पूजैला
ईं सदां सुरंगै मुरधर रा, सूतोडां जाग्या आज भाग ।
छाती पर पैणा पड़्या नाग रे ,धोरां आल़ा देश जाग रे ! ऊंटा आल़ा देश जाग !
ध्वज-वंदना / रामधारी सिंह “दिनकर”
नमो, नमो, नमो…
नमो स्वतंत्र भारत की ध्वजा, नमो, नमो!
नमो नगाधिराज-शृंग की विहारिणी!
नमो अनंत सौख्य-शक्ति-शील-धारिणी!
प्रणय-प्रसारिणी, नमो अरिष्ट-वारिणी!
नमो मनुष्य की शुभेषणा-प्रचारिणी!
नवीन सूर्य की नई प्रभा, नमो, नमो!
नमो स्वतंत्र भारत की ध्वजा, नमो, नमो!
हम न किसी का चाहते तनिक, अहित, अपकार
प्रेमी सकल जहान का भारतवर्ष उदार
सत्य न्याय के हेतु, फहर फहर ओ केतु
हम विरचेंगे देश-देश के बीच मिलन का सेतु
पवित्र सौम्य, शांति की शिखा, नमो, नमो!
नमो स्वतंत्र भारत की ध्वजा, नमो, नमो!
तार-तार में हैं गुंथा ध्वजे, तुम्हारा त्याग
दहक रही है आज भी, तुम में बलि की आग
सेवक सैन्य कठोर, हम चालीस करोड़
कौन देख सकता कुभाव से ध्वजे, तुम्हारी ओर
करते तव जय गान, वीर हुए बलिदान
अंगारों पर चला तुम्हें ले सारा हिन्दुस्तान!
प्रताप की विभा, कृषानुजा, नमो, नमो!
नमो स्वतंत्र भारत की ध्वजा, नमो, नमो!
नहीं जी रहे अगर देश के लिए / उदयप्रताप सिंह
चाहे जो हो धर्म तुम्हारा चाहे जो वादी हो ।
नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो ।
जिसके अन्न और पानी का इस काया पर ऋण है
जिस समीर का अतिथि बना यह आवारा जीवन है
जिसकी माटी में खेले, तन दर्पण-सा झलका है
उसी देश के लिए तुम्हारा रक्त नहीं छलका है
तवारीख के न्यायालय में तो तुम प्रतिवादी हो ।
नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो ।
जिसके पर्वत खेत घाटियों में अक्षय क्षमता है
जिसकी नदियों की भी हम पर माँ जैसी ममता है
जिसकी गोद भरी रहती है, माटी सदा सुहागिन
ऐसी स्वर्ग सरीखी धरती पीड़ित या हतभागिन ?
तो चाहे तुम रेशम धारो या पहने खादी हो ।
नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो ।
जिसके लहराते खेतों की मनहर हरियाली से
रंग-बिरंगे फूल सुसज्जित डाली-डाली से
इस भौतिक दुनिया का भार ह्रदय से उतरा है
उसी धरा को अगर किसी मनहूस नज़र से खतरा है
तो दौलत ने चाहे तुमको हर सुविधा लादी हो ।
नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो ।
अगर देश मर गया तो बोलो जीवित कौन रहेगा?
और रहा भी अगर तो उसको जीवित कौन कहेगा?
माँग रही है क़र्ज़ जवानी सौ-सौ सर कट जाएँ
पर दुश्मन के हाथ न माँ के आँचल तक आ पाएँ
जीवन का है अर्थ तभी तक जब तक आज़ादी हो ।
नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो ।
चाहे हो दक्षिण के प्रहरी या हिमगिरी वासी हो
चाहे राजा रंगमहल के हो या सन्यासी हो
चाहे शीश तुम्हारा झुकता हो मस्जिद के आगे
चाहे मंदिर गुरूद्वारे में भक्ति तुम्हारी जागे
भले विचारों में कितना ही अंतर बुनियादी हो ।
नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो ।
नारी चेतना / अज्ञात रचनाकार
जो कुछ पड़ेगी मुझ पे मुसीबत उठाऊंगी,
खि़दमत करूंगी मुल्क की और जेल जाऊंगी।
घर-भर को अपने खादी के कपड़े पिन्हाऊंगी,
और इन विदेशी लत्तों को लूका लगाऊंगी।
चरख़ा चला के छीनूंगी उनकी मशीनगन,
आदा-ए-मुल्को-क़ौम को नीचा दिखाऊंगी।
अपनी स्वदेशी बहनों को ले-ले के साथ में,
भट्टी पे हर कलाल के धरना बिठाऊंगी।
जाकर किसी भी जेल में कूटूंगी रामबांस,
और कै़दियों के साथ में चक्की चलाऊंगी।
रचनाकाल: सन 1932
नाला-ए-बुलबुल / अज्ञात रचनाकार
रचनाकाल: सन 1930
दे दे मुझे तू ज़ालिम, मेरा ये आशियाना,
आरामगाह मेरी, मेरा बहिश्तख़ाना।
देकर मुझे भुलावा, घर-बार छीनकर तू,
उसको बना रहा है, मेरा ही कै़दख़ाना।
उसके ही खा के टुकड़े, बदख़्वाह बन गया तू,
मुफ़लिस समझ के जिसने, दिलवाया आबो-दाना।
मेहमां बना तू जिसका, जिससे पनाह पाई,
अब कर दिया उसी को, तूने यों बेठिकाना।
उसके ही बाग़ में तू, उसके कटा के बच्चे,
मुंसिफ़ भी बन के ख़ुद ही तू कर चुका बहाना।
दर्दे-जिगर से लेकिन चीखूंगी जब मैं हरदम,
गुलचीं सुनेगा मेरा पुर-दर्द यह फ़साना।
सोजे़-निहां की बिजली सर पर गिरेगी तेरे,
ज़ालिम! तू मर मिटेगा, बदलेगा यह ज़माना।
मुझको न इस तरह का, अब कुछ मलाल होगा,
गुलज़ार फिर बनेगा मोहन का कारख़ाना।
निवेदन / जय भारत / मैथिलीशरण गुप्त
निवेदन
अर्द्ध शताब्दि होने आई, जब मैंने ‘जयद्रथ-वध’ का लिखना प्रारम्भ किया था। उसके पश्चात् भी बहुत दिनों तक महाभारत के भिन्न-भिन्न प्रसंगों पर मैंने अनेक रचनाएँ कीं। उन्हें लेकर कौरव-पाण्डवों की मूल कथा लिखने की बात भी मन में आती रही परन्तु उस प्रयास के पूरे होने में सन्देह रहने से वैसा उत्साह न होता था।
अब से ग्यारह-बारह वर्ष पहले पर-शासन के विद्वेष्टा के रूप में जब मुझे राजवन्दी बनना पड़ा, तब कारागार में ही सहसा वह विचार संकल्प में परिणत हो गया काम भी हाथ में ले लेने से इस पर पूरा समय न लगा सका। आगे भी अनेक कारणों से क्रम का निर्वान न कर सका।
एक अतर्कित बाधा और आ गई। अपनी जिन पूर्व-कृतियों के सहारे यह काम सुविधापूर्वक कर लेने की मुझे आशा थी। वह भी पूरी न हुई। ‘जयद्रथ-वध’ से तो मैं कुछ भी न ले सका। युद्ध का प्रकरण मैंने और ही प्रकार से लिखा। अन्य रचनाओं में भी मुझे बहुत हेर-फेर करने पड़े। कुछ तो नये सिरे से पूरी की पूरी फिर लिखनी पड़ी तथापि इससे अन्त में मुझे सन्तोष ही हुआ और इसे मैंने अपनी लेखनी का क्रम विकास ही समझा।
जिन्हें अपने लेखों में कभी कुछ परिवर्तन करने की आवश्यकता नहीं जान पड़ती, उनके मानसकि विकास की पहले ही इतिश्री हो चुकी होती है। अन्यथा एक अवस्था तक मनुष्य की बुद्धि पोषण प्राप्त करती है, नये-नये अनुभव और विचार आते रहते हैं और अपनी सीमाओं में अनुशीलन भी वृद्धि पाता है। द्रष्टाओं की दूसरी बात है। परन्तु मेरे ऐसे साधारण जन के लिए यह स्वाभाविक ही है। कुछ दिन पूर्व गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की एक पाण्डुलिपि के कुछ पृष्ठों के प्रतिबिम्ब प्रकाशित हुए थे। उनमें अनेक स्थलों पर काट-कूट दिखाई देती थी। यह अलग बात है कि उनकी काट-कूट में भी चित्रणकला फूट उठती थी।
किसी समय हमारे मन में कोई भाव ऐसे सूक्ष्म रूप में आता है कि उसे हम ठीक ठीक पकड़ नहीं पाते। आगे स्पष्ट हो जाने की आशा से उसे जैसे तैसे ग्रहण कर लेना पड़ता है। कभी किसी भाव को प्रकट करने के लिए उसी समय उपयुक्त शब्द नहीं उठते। आपबीती ही कहूँ। कुणाल का एक गीत मैं लिख रहा था। उसकी टेक यों बनी-
नीर नीते से निकलता-देख लो यह रहँट चलता।
लिखने के अनन्तर भी जैसे लिखना पूरा नहीं लगा। सोचना भी नहीं रुका। तब इस प्रकार परिवर्तन हुआ-
तोय तल से ही निकलता।
‘नीचे से’ के स्थान पर ‘तल से’ ठीक हुआ जान पड़ा, तथापि चिन्तन शान्त नहीं हुआ ! अन्त में-
तत्त्व तल से ही निकलता।
वन जाने पर ही सन्तोष हुआ। अस्तु।
अपने पात्रों का आलेखन मैं कैसा कर सका, इस सम्बन्ध में मुझे कुछ नहीं कहना है। वह पाठकों के सम्मुख है। उसके विषय में स्वयं पाठक जो कुछ कहेंगे, उसे सुनने के लिए मैं अवश्य प्रस्तुत रहूँगा। इस समय तो उनकी सेवा में यही निवेदन है कि वे कृपा कर मेरा अभिवादन स्वीकार करें-जय भारत !
मैथिलीशरण
जय भारत
‘‘जीवन-यशस्-सम्मान-धन-सन्तान सुख मर्म के;
मुझको परन्तु शतांश भी लगते नहीं निज धर्म के !
युधिष्ठिर
श्रीगणेशाय नमः
जय भारत
मनुज-मानस में तरंगित बहु विचारस्रोत,
एक आश्रय, राम के पुण्याचरण का पोत।
नमो नारायण, नमो नर-प्रवर पौरुष-केतु,
नमो भारति देवि, वन्दे व्यास, जय के हेतु !
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