दीन भारत के किसान / गोपालशरण सिंह
Contents
- 1 दीन भारत के किसान / गोपालशरण सिंह
- 2 देखना देश को / विष्णुचन्द्र शर्मा
- 3 देश के कवियों से / हरिवंशराय बच्चन
- 4 देश के नाविकों से / हरिवंशराय बच्चन
- 5 देश के नेताओं से / हरिवंशराय बच्चन
- 6 देश के नौजवान के सपने / विनोद तिवारी
- 7 देश के सपने फूलें फलें / श्रीकृष्ण सरल
- 8 देश के सैनिकों से / हरिवंशराय बच्चन
- 9 देश को शौक से खाते रहिए / शेरजंग गर्ग
- 10 देश कोई रिक्शा तो है नहीं / सुरेश सेन निशांत
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कर रहे हैं ये युगों से
ग्राम में अज्ञात-वास,
अंग जीवन का बनी है
जन्म से ही भूख-प्यास,
किन्तु हरते क्लेश हैं निज
देश को कर अन्न-दान
दीन भारत के किसान ।
हैं सदा संतुष्ट रहते
क्लेश भी सहकर विशेष,
लोभ को न कदापि देते
चित्त में करने प्रवेश,
याचना करते नहीं रख
कर हृदय में स्वाभिमान
दीन भारत के किसान ।
विश्व परिवर्तित हुआ पर
ये बदलते हैं न वेश,
छोड़ते हैं ये नहीं निज
अंध-कूपों का प्रदेश,
बंद रखते हैं सदा किस
मोह से निज आँख-कान
दीन भारत के किसान ।
भूमि के हैं भक्त ये जो
नित्य देती अन्न-वस्त्र,
बैल है सम्पत्ति इनकी
और हल हैं दिव्य अस्त्र,
ज्ञान-वृद्धि हुई बहुत पर
रह गए भोले अजान
दीन भारत के किसान ।
घूमता है वारिदों के
साथ इनका भाग्य-चक्र,
रंग में इनके हृदय के
है रंगा सुरचाप वक्र,
यदि हुई पर्याप्त कृषि तो
हो गए सम्पत्तिवान
दीन भारत के किसान ।
हो रहा विज्ञान का है
विश्व में कब से विकास ?
पर न इनके पास अब तक
है पहुँच पाया प्रकाश,
देश की अवनत दशा पर
मोह वश देते न ध्यान
दीन भारत के किसान ।
देश में क्या हो रहा है
है इन्हें कुछ भी न ज्ञान,
है इन्हें दिखता न जग में
रुचिर नवयुग का विहान,
निज पुराने राग का बस
कर रहे हैं नित्य गान
दीन भारत के किसान ।
(काव्य-संग्रह ‘ग्रामिका’ से)
देखना देश को / विष्णुचन्द्र शर्मा
देखना
देश को !
फिर बतलाना :
कितना कौन बदला है !
कितना कौन पिछड़ा है !
देखना देश को
फिर-फिर इतिहास में
अमेरिका के नीचे या पीछे खड़े
भारतवर्ष की
कहानी बतलाना :
चीन या
क्यूबा के जन-जन को ।
रचनाकाल : 2003
देश के कवियों से / हरिवंशराय बच्चन
सुवर्ण मृत्तिका हुई कलम छुई,
अमृत हर एक बिंदु लेखनी चुई,
कलम जहाँ गई वहाँ विजय हुई,
विफल रही नहीं कभी न भारती।
कलम लिए चले कि तुम कला चली,
कि कल्पना रहस्य-अंचला चली,
कि व्योम-स्वर्ग-स्वप्न-श्रृंखला चली,
तुम्हें स्वदेश-पुतलियां निहारतीं।
करो विचित्र इंद्रधनु-विभा परे,
तजो सुरम्य हस्ति-दंत-घरहरे,
न अब नखत निहारकर निहाल हो,
न आसमान देखते रहो खड़े,
तुम्हें ज़मीन देश की पुकारती।
देश के नाविकों से / हरिवंशराय बच्चन
कुछ शक्ल तुम्हारी घबराई-घबराई-सी
दिग्भ्रम की आँखों के अन्दर परछाईं सी,
तुम चले कहाँ को और कहाँ पर पहुँच गए।
लेकिन, नाविक, होता ही है तूफान प्रबल।
यह नहीं किनारा है जो लक्ष्य तुम्हारा था,
जिस पर तुमने अपना श्रम यौवन वारा था;
यह भूमि नई, आकाश नया, नक्षत्र नए।
हो सका तुम्हारा स्वप्न पुराना नहीं सफल।
अब काम नहीं दे सकते हैं पिछले नक्शे,
जिनको फिर-फिर तुम ताक रहे हो भ्रान्ति ग्रसे,
तुम उन्हें फाड़ दो, और करो तैयार नये।
वह आज नहीं संभव है, जो था संभव कल।
देश के नेताओं से / हरिवंशराय बच्चन
विनम्र हो ब्रिटेन-गर्व जो हरे,
विरक्त हो विमुक्त देश जो करे,
समाज किसलिए न देख हो दुखी,
कि उस महान को खरीद बंक ले।
स्वदेश बाग-डोर हाथ में लिए,
विशाल जन-समूह साथ में लिए,
कभी नहीं उचित कि हो अधोमुखी
प्रवेश तुम करो प्रमाद–पंक में।
करो न व्यर्थ दाप, होशियार हो,
फला कभी न पाप, होशियार हो,
प्रसिद्ध है प्रकोप जन-जनार्दनी,
मिले तुम्हें न शाप होशियार हो,
तुम्हें कहीं न राजमद कलंक दे।
देश के नौजवान के सपने / विनोद तिवारी
देश के नैजवान के सपने
हैं खुले आसमान के सपने
छू ही लेगा वो एक दिन आकाश
उसने देखे उड़ान के सपने
भाल ऊँचा किए निकलता है
पास हैं स्वाभिमान के सपने
अंकुरण में दिखाई पड़ते हैं
गाँव भर को किसान के सपने
गाँव से ले के वे शहर आए
रोती कपड़ा मकान के सपने
किसमे दम है जो तोड़ सकता हो
मेरे भारत महान के सपने
तीन रंग सत्य शिव औ’ सुन्दर के
देखो क़ौमी निशान के सपने
देश के सपने फूलें फलें / श्रीकृष्ण सरल
देश के सपने फूलें फलें
प्यार के घर घर दीप जले
देश के सपने फूलें फलें
देश को हमें सजाना है
देश का नाम बढ़ाना है
हमारे यत्न, हमारे स्वप्न,
बाँह में बाँह डाल कर चलें
देश के सपने फूलें फलें
देश की गौरव वृद्धि करें
प्रगति पथ पर समृद्धि करें
नहीं प्राणों की चिंता हो
नहीं प्रण से हम कभी टलें
देश के सपने फूलें फलें
साधना के तप में हम तपें
देश के हित चिन्तन में खपें
कर्म गंगा बहती ही रहे
निरन्तर हिम जैसे हम गलें
देश के सपने फूलें फलें
हमारी साँसों में लय हो
हमारी धरती की जय हो
साधना के प्रिय साँचे में
हमारे शुभ संकल्प ढलें
देश के सपने फूलें फले
देश के सैनिकों से / हरिवंशराय बच्चन
कटी न थी गुलाम लौह श्रृंखला,
स्वतंत्र हो कदम न चार था चला,
कि एक आ खड़ी हुई नई बला,
परंतु वीर हार मानते कभी?
निहत्थ एक जंग तुम अभी लड़े,
कृपाण अब निकाल कर हुए खड़े,
फ़तह तिरंग आज क्यों न फिर गड़े,
जगत प्रसिद्ध, शूर सिद्ध तुम सभी।
जवान हिंद के अडिग रहो डटे,
न जब तलक निशान शत्रु का हटे,
हज़ार शीश एक ठौर पर कटे,
ज़मीन रक्त-रुंड-मुंड से पटे,
तजो न सूचिकाग्र भूमि-भाग भी।
देश को शौक से खाते रहिए / शेरजंग गर्ग
देश को शौक से खाते रहिए।
चैन के ढोल बजाते रहिए।
क्रांती को भ्रांती बनाते रहिए,
शांती का शोर मचाते रहिए।
एक दो मंज़िलों का घर, क्या घर,
मंज़िलें रोज़ बढाते रहिए।
तर्क सब गर्क बढ़ाकर संपर्क,
हाँ फ़क़त हाँ में मिलाते रहिए।
धर्म का मर्म समझकर दुष्कर्म,
ख़ून इंसाँ का बहाते रहिए।
क्या दया और हया अब कैसी,
बेहयायी को भुनाते रहिए।
देश कोई रिक्शा तो है नहीं / सुरेश सेन निशांत
देश कोई रिक्शा तो है नहीं
जो फेफड़ों की ताक़त की दम पे चले
वह चलता है पैसों से
सरकार के बस का नहीं
देना सस्ती और उच्च शिक्षा
मुफ़्त इलाज भी
सरकार का काम नहीं
कल को तो आप कहेंगे
गिलहरी के बच्चे का भी
रखे ख़याल सरकार
वे विलुप्त होने की कगार पे हैं
परिन्दों से ही पूछ लो
क्या उन्हें उड़ना
सरकार ने सिखाया है..?
क्या उनके दुनके में
रत्ती-भर भी योगदान है सरकार का
जंगल में
बिना सरकारी अस्पताल के
एक बाघिन ने
आज ही दिया जन्म
तीन बच्चों को
एक हाथी के बच्चे ने
आज ही सीखा है नदी में तैरना
बिना सरकारी योगदान के
पार कर गया नीलगायों का झुण्ड
एक खौफ़नाक बहती नदी
सरकार का काम नहीं है
कि वो रहे चिन्तित
उन जर्जर पुलों के लिए
जिन्हें लाँघते है हर रोज़
ग़रीब गुरबा लोग
सरकार के पास नहीं है फुर्सत
हर ग़रीब आदमी की
चू रही छत का
रखती रहे वह ख़याल
और भी बहुत से काम है
जो करने हैं सरकार को
मसलन रोकनी है महँगाई
भेजनी है वहाँ सेना
जहाँ लोग बनने ही नहीं दे रहे हैं
सेज
सरकार को चलाना है देश
वह चलता है पैसों से
और पैसा है बेचारे अमीरों के पास
आज ही सरकार
करेगी गुज़ारिश अमीरों से
कि वे इस देश को
ग़रीबी में डूबने से बचाए
देश की भलाई के लिए
अमीर तस्करों तक के आगे
फैलाएगी अपनी झोली
बदले में देगी
उन्हें थोड़ी-सी रियायतें
क्योंकि देश कोई रिक्शा तो नहीं
जो फेफड़ों की ताक़त के दम पे चलें
वह तो चलता है पैसों से
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