आज़ादी / राम प्रसाद बिस्मिल
Contents
- 1 आज़ादी / राम प्रसाद बिस्मिल
- 2 आज़ादी या मौत / स्वामी नारायणानंद ‘अख़्तर’
- 3 आगे बढ़ेंगे / अली सरदार जाफ़री
- 4 अहद / साग़र निज़ामी
- 5 असहयोग कर दो / गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’
- 6 अयि! भुवन मन मोहनी / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
- 7 अपने देश का हाल / अजित कुमार
- 8 अज्ञात देश से आना / भगवतीचरण वर्मा
- 9 अजब देस / दिनेश कुमार शुक्ल
- 10 अर्पण तुझपर दिल और जान / सपना मांगलिक
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इलाही ख़ैर! वो हरदम नई बेदाद करते हैं,
हमें तोहमत लगाते हैं, जो हम फ़रियाद करते हैं।
कभी आज़ाद करते हैं, कभी बेदाद करते हैं।
मगर इस पर भी हम सौ जी से उनको याद करते हैं।
असीराने-क़फ़स से काश, यह सैयाद कह देता,
रहो आज़ाद होकर, हम तुम्हें आज़ाद करते हैं।
रहा करता है अहले-ग़म को क्या-क्या इंतज़ार इसका,
कि देखें वो दिले-नाशाद को कब शाद करते हैं।
यह कह-कहकर बसर की, उम्र हमने कै़दे-उल्फ़त मंे,
वो अब आज़ाद करते हैं, वो अब आज़ाद करते हैं।
सितम ऐसा नहीं देखा, जफ़ा ऐसी नहीं देखी,
वो चुप रहने को कहते हैं, जो हम फ़रियाद करते हैं।
यह बात अच्छी नहीं होती, यह बात अच्छी नहीं करते,
हमें बेकस समझकर आप क्यों बरबाद करते हैं?
कोई बिस्मिल बनाता है, जो मक़तल में हमंे ‘बिस्मिल’,
तो हम डरकर दबी आवाज़ से फ़रियाद करते हैं।
आज़ादी या मौत / स्वामी नारायणानंद ‘अख़्तर’
अबस ज़िंदगी का गुमां है, भरत है,
गुलामी में जीना न मरने से कम है।
सितमगर ने हमको जो ग़फ़लत में पाया,
तुरत दामे-फ़ितरत में अपने फंसाया,
कहा और कुछ, और कुछ कर दिखाया,
दिखाकर के अमृत, ज़हर को पिलाया,
न उठने की ताक़त, न चलने का दम है!
वो कहते हैं हमसे कि ख़ामोश रहना,
सहो चोटें दिल पर, जुबां से न कहना,
रहे पेट ख़ाली, रहे तन बरहना,
वफादार हो तुम, जफ़ाओं को सहना,
खुली गर जुबां, तो वहीं सर क़लम है!
दिए ज़ख्म पर ज़ख्म सैयाद तूने,
सुनी बेकसों की न फ़रियाद तूने,
न रहने दिया हमको आज़ाद तूने,
किया हर तरह हमको बरबाद तूने,
ये है जुलम कैसा, ये कैसा सितम है?
तुझे भी क़सम है, जो रहने क़सर दे,
ये है ज़ख्म ताज़ा, नमक इनमें भर दे,
उठा अपना ख़ंजर, अभी क़त्ल कर दे,
है वाजिब तुझे यह, उड़ा धड़ से सर दे,
किया चाहता तू जो हम पर करम है!
सितमगर है गर ताबो-ताक़त पे नाज़ां,
तो हैं हम भी अपनी सदाक़त पे कुरबां,
यही दिल की हसरत, यही दिल में अरमां,
कि आज़ाद हों या फ़ना होवें, दे जां,
हटेगा न पीछे, बढ़ा जो क़दम है!
जिएंगे तो आज़ाद होकर रहेंगे,
जहां में कि बरबाद होकर रहेंगे,
सितमगर ही या शाद होकर रहेंगे,
कि हम शाद, आबाद होकर रहेंगे,
खुली अब हैं आँखें, खुला सब भरम है!
हमें गो कि दिक़्क़त उठानी पड़ेगी,
उन्हें खु़द-ब-ख़ुद मुंह की खानी पड़ेगी,
ये आदत पुरानी मिटानी पड़ेगी,
सरे-बज़्म गरदन झुकानी पड़ेगी,
हमें नाज़ बेजा उठाने से रम है!
चमन में न फिर गै़र का कुछ ख़तर हो,
वतन अपना आज़ाद हो, औज पर हो,
बुजुर्गों का तुम में अगर कुछ असर हो,
दिखा दो, ज़माने में फिर ऊंचा सर हो,
ग़ज़ब का ये ‘अख़्तर’ का तजेऱ्-रक़म है!
रचनाकाल: सन 1930
आगे बढ़ेंगे / अली सरदार जाफ़री
वो बिजली-सी चमकी, वो टूटा सितारा,
वो शोला-सा लपका, वो तड़पा शरारा,
जुनूने-बग़ावत ने दिल को उभारा,
बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!
गरजती हैं तोपें, गरजने दो इनको
दुहुल बज रहे हैं, तो बजने दो इनको,
जो हथियार सजते हैं, सजने दो इनको
बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!
कुदालों के फल, दोस्तों, तेज़ कर लो,
मुहब्बत के साग़र को लबरेज़ कर लो,
ज़रा और हिम्मत को महमेज़ कर लो,
बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!
विज़ारत की मंज़िल हमारी नहीं है,
ये आंधी है, बादे-बहारी नहीं है,
जिरह हमने तन से उतारी नहीं है,
बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!
हुकूमत के पिंदार को तोड़ना है,
असीरो-गिरफ़्तार को छोड़ना है,
जमाने की रफ्तार को मोड़ना है,
बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!
चट्टानों में राहें बनानी पड़ंेगी,
अभी कितनी कड़ियां उठानी पड़ेंगी,
हज़ारों कमानें झुकानी पड़ेंगी,
बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!
हदें हो चुकीं ख़त्म बीमो-रजा की,
मुसाफ़त से अब अज़्मे-सब्रआज़मां की,
ज़माने के माथे पे है ताबनाकी,
बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!
उफ़क़ के किनारे हुए हैं गुलाबी,
सहर की निगाहों में हैं बर्क़ताबी,
क़दम चूमने आई है कामयाबी,
बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!
मसाइब की दुनिया को पामाल करके,
जवानी के शोलों में तप के, निखर के,
ज़रा नज़्मे-गीती से ऊंचे उभर के,
बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!
महकते हुए मर्ग़ज़ारों से आगे,
लचकते हुए आबशारों से आगे,
बहिश्ते-बरीं की बहारों से आगे,
बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!
अहद / साग़र निज़ामी
जब तिलाई रंग सिक्कों को
जब मेरी गै़रत को दौलत से लड़ाया जाएगा,
जब रंगे इफ़लास को मेरी दबाया जाएगा,
ऐ वतन! उस वक़्त भी मैं तेरे नग़्मे गाऊंगा।
और अपने पांव से अंबारे-ज़र ठुकराऊंगा!
जब मुझे पेड़ों से उरियां करके बांधा जाएगा,
गर्म आहन से मेरे होठों को दाग़ा जाएगा,
जब दहकती आग पर मुझको लिटाया जाएगा,
ऐ वतन! उस वक़्त भी मैं तेरे नग़्मे गाऊंगा।
तेरे नग़्मे गाऊंगा और आग पर सो जाऊंगा!
ऐ वतन! जब तुझ पे दुश्मन गोलियां बरसाएंगे,
सुखऱ् बादल जब फ़ज़ाओं पे तेरी छा जाएंगे,
जब समंदर आग के बुर्जों से टक्कर खाएंगे,
ऐ वतन! उस वक़्त भी मैं तेरे नग़्मे गाऊंगा।
तेग़ की झंकार बनकर मिस्ले तूफ़ां आऊंगा!
गोलियां चारों तरफ़ से घेर लेंगी जब मुझे,
और तनहा छोड़ देगा जब मेरा मरकब मुझे,
और संगीनों पे चाहेंगे उठाना सब मुझे,
ऐ वतन! उस वक़्त भी मैं तेरे नग़्मे गाऊंगा।
मरते-मरते इक तमाशा-ए-वफ़ा बन जाऊंगा!
खून से रंगीन हो जाएगी जब तेरी बहार,
सामने होंगी मेरे जब सर्द लाशें बेशुमार,
जब मेरे बाजू पे सर आकर गिरेंगे बार-बार,
ऐ वतन! उस वक़्त भी मैं तेरे नग़्मे गाऊंगा।
और दुश्मन की सफ़ों पर बिजलियां बरसाऊंगा!
जब दरे-जिंदां खुलेगा बरमला मेरे लिए,
इंतक़ामी जब सज़ा होगी रवा मेरे लिए,
हर नफ़स जब होगा पैग़ामे क़ज़ा मेरे लिए,
ऐ वतन! उस वक़्त भी मैं तेरे नग़्मे गाऊंगा।
बादाकश हूं, ज़हर की तल्ख़ी से क्या घबराऊंगा!
हुक्म आखि़र क़त्लगह में जब सुनाया जाएगा,
जब मुझे फांसी के तख़्ते पर चढ़ाया जाएगा,
जब यकायक तख़्ता-ए-ख़ूनी हटाया जाएगा।
ऐ वतन! उस वक़्त भी मैं तेरे नग़्मे गाऊंगा।
अहद करता हूं कि मैं तुझ पर फ़िदा हो जाऊंगा!
असहयोग कर दो / गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥
कठिन है परीक्षा न रहने क़सर दो,
न अन्याय के आगे तुम झुकने सर दो।
गँवाओ न गौरव नए भाव भर दो,
हुई जाति बेपर है तुम इसको पर दो॥
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥
मानते हो घर-घर ख़िलाफ़त का मातम,
अभी दिल में ताज़ा है पंजाब का ग़म।
तुम्हें देखता है ख़ुदा और आलम,
यही ऐसे ज़ख़्मों का है एक मरहम
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥
किसी से तुम्हारी जो पटती नहीं है,
उधर नींद उसकी उचटती नहीं है।
अहम्मन्यता उसकी घटती नहीं है,
रुदन सुन के भी छाती फटती नहीं है।
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥
बड़े नाज़ों से जिनको माँओं ने पाला,
बनाए गए मौत के वे निवाला।
नहीं याद क्या बाग़े जलियाँवाला,
गए भूल क्या दाग़े जलियाँवाला।
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥
ग़ुलामी में क्यों वक़्त तुम खो रहे हो,
ज़माना जगा, हाय, तुम सो रहे हो।
कभी क्या थे, पर आज क्या हो रहे हो,
वही बेल हर बार क्यों बो रहे हो ?
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥
हृदय चोट खाए दबाओगे कब तक,
बने नीच यों मार खाओगे कब तक,
तुम्हीं नाज़ बेजा उठाओ कब तक,
बँधे बन्दगी यों बजाओगे कब तक।
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥
नजूमी से पूछो न आमिल से पूछो,
रिहाई का रास्ता न क़ातिल से पूछो।
ये है अक़्ल की बात अक़्ल से पूछो
तुम्हें क्या मुनासिब है ख़ुद दिल से पूछो॥
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥
ज़ियादा न ज़िल्लत गवारा करो तुम,
ठहर जाओ अब वारा-न्यारा करो तुम।
न शह दो, न कोई सहारा करो तुम,
फँसो पाप में मत, किनारा करो तुम॥
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥
दिखाओ सुपथ जो बुरा हाल देखो,
न पीछे चलो जो बुरी चाल देखो।
कृपा-कुंज में जो छिपा काल देखो,
भरा मित्र में भी कपट जाल देखो॥
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥
सगा बन्धु है या तुम्हारा सखा है,
मगर देश का वह गला रेतता है।
बुराई का सहना बहुत ही बुरा है,
इसी में हमारा तुम्हारा भला है॥
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥
धराधीश हो या धनवान कोई,
महाज्ञान हो या कि विद्वान कोई।
उसे हो न यदि राष्ट्र का ध्यान कोई,
कभी तुम न दो उसको सम्मान कोई॥
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥
अगर देश ध्वनि पर नहीं कान देता,
समय की प्रगति पर नहीं ध्यान देता।
वतन के भुला सारे एहसान देता,
बना भूमि का भार ही जान देता॥
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥
उठा दो उसे तुम भी नज़रों से अपनी,
छिपा दो उसे तुम भी नज़रों से अपनी।
गिरा दो उसे तुम भी नज़रों से अपनी,
हटा दो उसे तुम भी नज़रों से अपनी॥
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥
न कुछ शोरगुल है मचाने से मतलब,
किसी को न आँखें दिखाने से मतलब।
किसी पर न त्योरी चढ़ाने से मतलब,
हमें मान अपना बचाने से मतलब॥
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥
कहाँ तक कुटिल क्रूर होकर रहेगा,
न कुटिलत्व क्या दूर होकर रहेगा।
असत् सत् में सत् शूर होकर रहेगा,
प्रबल पाप भी चूर होकर रहेगा॥
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥
भुला पूर्वजों का न गुणगान देना,
उचित पाप पथ में नहीं साथ देना।
न अन्याय में भूलकर हाथ देना,
न विष-बेलि में प्रीति का पाथ देना॥
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥
न उतरे कभी देश का ध्यान मन से,
उठाओ इसे कर्म से मन-वचन से।
न जलाना पड़े हीनता की जलन से,
वतन का पतन है तुम्हारे पतन से॥
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥
डरो मत नहीं साथ कोई हमारे,
करो कर्म तुम आप अपने सहारे।
बहुत होंगे साथी सहायक तुम्हारे,
जहाँ तुमने प्रिय देश पर प्राण वारे॥
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥
प्रबल हो तुम्हीं सत्य का बल अगर है,
उधर गर है शैतान ईश्वर इधर है।
मसल है कि अभिमानी का नीचा सर है,
नहीं सत्य की राह में कुछ ख़तर है॥
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥
अगर देश को है उठाने की इच्छा,
विजय-घोष जग को सुनाने की इच्छा।
व्रती हो के कुछ कर दिखाने की इच्छा,
व्रती बन के व्रत को निभाने की इच्छा॥
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥
अगर चाहते हो कि स्वाधीन हों हम,
न हर बात में यों पराधीन हों हम।
रहें दासता में न अब दीन हों हम,
न मनुजत्व के तत्त्व से हीन हों हम॥
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥
न भोगा किसी ने भी दुख-भोग ऐसा,
न छूटा लगा दास्य का रोग ऐसा।
मिले हिन्दू-मुस्लिम लगा योग ऐसा,
हुआ मुद्दतों से है संयोग ऐसा॥
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥
नहीं त्याग इतना भी जो कर सकोगे,
नहीं मोह को जो नहीं तर सकोगे।
अमर हो के जो तुम नहीं मर सकोगे,
तो फिर देश के क्लेश क्या हर सकोगे॥
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥
अयि! भुवन मन मोहनी / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
अयि! भुवन मन मोहनी
निर्मल सूर्य करोज्ज्वल धरणी
जनक-जननी-जननी।। अयि…
अयि! नली सिंधु जल धौत चरण तल
अनिल विकंपित श्यामल अंचल
अंबर चुंबित भाल हिमाचल
अयि! शुभ्र तुषार किरीटिनी।। अयि…
प्रथम प्रभात उदय तव गगने
प्रथम साम रव तव तपोवने
प्रथम प्रचारित तव नव भुवने
कत वेद काव्य काहिनी।। अयि…
चिर कल्याणमयी तुमि मां धन्य
देश-विदेश वितरिछ अन्न
जाह्नवी, यमुना विगलित करुणा
पुन्य पीयूष स्तन्य पायिनी।। अयि…
अयि! भुवन मन मोहिनी।
रचनाकाल: सन 1930
अपने देश का हाल / अजित कुमार
प्यार की बातें मना जिस देश में,
प्यार के गाने वहाँ सबसे अधिक ।
जहाँ पर बन्धन समाजिक बहुत हैं,
वहाँ के गायक-सुकवि खासे रसिक ।
इश्किया अन्दाज में लिखते सभी,
जहाँ होने चाहिए थे कवि-श्रमिक ।
अज्ञात देश से आना / भगवतीचरण वर्मा
मैं कब से ढूँढ़ रहा हूँ
अपने प्रकाश की रेखा
तम के तट पर अंकित है
निःसीम नियति का लेखा
देने वाले को अब तक
मैं देख नहीं पाया हूँ,
पर पल भर सुख भी देखा
फिर पल भर दुख भी देखा।
किस का आलोक गगन से
रवि शशि उडुगन बिखराते?
किस अंधकार को लेकर
काले बादल घिर आते?
उस चित्रकार को अब तक
मैं देख नहीं पाया हूँ,
पर देखा है चित्रों को
बन-बनकर मिट-मिट जाते।
फिर उठना, फिर गिर पड़ना
आशा है, वहीं निराशा
क्या आदि-अन्त संसृति का
अभिलाषा ही अभिलाषा?
अज्ञात देश से आना,
अज्ञात देश को जाना,
अज्ञात अरे क्या इतनी
है हम सब की परिभाषा?
पल-भर परिचित वन-उपवन,
परिचित है जग का प्रति कन,
फिर पल में वहीं अपरिचित
हम-तुम, सुख-सुषमा, जीवन।
है क्या रहस्य बनने में?
है कौन सत्य मिटने में?
मेरे प्रकाश दिखला दो
मेरा भूला अपनापन।
अजब देस / दिनेश कुमार शुक्ल
न लेना न देना न खोना न पाना
न रोना न गाना न लिखना न पढ़ना
पंचर हुई सायकिल की तरह
खु़द को ढोता हुआ वो कहीं जा रहा है
उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा है
कि ये रास्ता किस तरफ़ जा रहा है
जो होना था वो क्यूँ हुआ इस तरह
उसने सोचा नहीं था कभी इस तरह
गये जाने वाले बहुत दूर आगे
वो आता हुआ लग रहा जा रहा है
न ताक़त न हिम्मत
न चाहत न राहत
न आगे न पीछे न ऊपर न नीचे
कहीं कोई सूरत नहीं दिख रही है
कोई उसको खींचे लिये जा रहा है,
अगर हार वो मान भी ले तो क्या है
सितमगर को पहचान भी ले तो क्या है
ये एक सिलसिला जो चला आ रहा है
उसे तोड़ने क्या कोई आ रहा है
नहीं दिख रहा दूर तक एक पुतला
और मुश्किल है इसको बियाबान कहना
हवा में भरी सिसकियों को दबाता
हुआ कोई सदियों जिए जा रहा है
अकेला नहीं वो ख़ुद इक क़ाफिला है
जो सपनों का सौदा लिये जा रहा है
कभी लुट रहा है कभी पिट रहा है
मगर पार सरहद किए जा रहा है,
पहुँचता है उस देश जिसमें न कुछ है
जमीं भी नहीं आस्मॉं भी नहीं है
नहीं कोई उस देस का रहने वाला
वही याद आता चला जा रहा है ।
अर्पण तुझपर दिल और जान / सपना मांगलिक
अर्पण तुझपर दिल और जान
मेरे देश महान, हे भारत देश महान
उतर हिमालय के सर से गंगा मैया
चूम तुझे करे कलकल का गान
सूरज,चाँद,सितारे से लकदक करता
नीले अम्बर का सुन्दर परिधान
गांधी, सुभाष, तिलक से सपूत तेरे
करें न्योछावर तुझ पर अपनी जान
माथे मुकुट सम हिमालय शोभित
बना जग में तेरा अभिमान
तुझसे ही तो अपनी शान
मेरे देश महान, हे भारत देश महान
सुमधुर ऋचाएं वेदों की,
गूंजी थी जहां पर पहली बार
सभ्यता और संस्कृति का तेरी,
माने लोहा सारा संसार
काशी में जहाँ बम भोले बिराजें
और अबधपुरी में जय श्री राम
वृंदावन की कुंज गलिन में
खेलें नटवर नागर घनश्याम
बलिहारी तुझपर मेरे प्राण
मेरे भारत देश महान, हे भारत देश महान
सुख शांति का सन्देश जहाँ नित देते
और करते हैं सबका सम्मान
यही प्रभु से प्रार्थना करते
हे प्रभु करो सदा सबका कल्याण
तेरे मान सम्मान की खातिर भारत माँ
दे देंगे हम हंसकर जान
नारी है यहाँ स्वरुप दुर्गा का
और नर में बिराजें श्री भगवान्
तू है मात सामान
मेरे भारत देश महान, हे भारत देश महान
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