वह हृदय नहीं है पत्थर है / गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’
Contents
- 1 वह हृदय नहीं है पत्थर है / गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’
- 2 वाह रे भारत महान / पंकज चौधरी
- 3 विकल है देश / महेन्द्र भटनागर
- 4 विजयी विश्व तिरंगा प्यारा (झंडा गीत) / श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’
- 5 विदेशी वस्त्र / त्रिभुवन नाथ आज़ाद ‘सैनिक’
- 6 विद्यार्थी बिस्मिल की भावना / राम प्रसाद बिस्मिल
- 7 वीर बालिकाएं / अज्ञात रचनाकार
- 8 वो वक्त कभी तो आएगा / सपना मांगलिक
- 9 शहीदों की याद में / अज्ञात रचनाकार
- 10 शैदाए वतन / गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’
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जो भरा नहीं है भावों से
बहती जिसमें रसधार नहीं
वह हृदय नहीं है पत्थर है
जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं
वाह रे भारत महान / पंकज चौधरी
खाने-खेलने की उम्र में
कूडे़ के ढेर पर
पोलीथिन बीनते बच्चे
अपने देश के नहीं
जैसे जापान के बच्चे हैं
और उनकी धँसी हुई आँखें
पांजर में सटा हुआ पेट
और जिस्म पर दिखती हड्डियों की रेखाएँ?
अपने देश की नहीं
बल्कि सोमालिया की हैं
और उनकी अर्जित की हुई संपत्ति?
अपने देश भारत की है
वाह-वाह रे हमारा भारत महान!
विकल है देश / महेन्द्र भटनागर
गुलामी से विकल है देश, यह निष्प्राण-सा सारा,
उदासी और असफलता, पलायन का हुआ नारा !
दुखी, ठंड़ी मरण साँसें, मलिन जीवन, अमित बंधन,
कृशित तन, नग्न, मरणासन्न, कुंठितमन-निराशा क्षण !
प्रगति अवरुद्ध, विपदा लक्ष, शोषण है मनुज बंदी,
मिटा बिगड़ा समाजी तन, पतन की है लहर गंदी !
दशा युग की करुण है, आज वाणी में नहीं बँधती,
नहीं बँधती, विषम है साधना स्वर में नहीं सधती !
पड़ी कटु फूट आपस में, नहीं है मेल किंचित भी,
निरंतर बढ़ रहे नव दल, विभाजन है नवीन अभी !
कहाँ जनता ? पड़ी निर्जीव-सी बनकर, घिरा है तम,
निजी कुछ स्वार्थ में अंधे मनुज बस पूजते कि अहम् !
सिपाही छोड़ दो आलस, कहीं दुश्मन न खा जाये,
नहीं अब नींद के झोंके, बुरी हालत न आ जाये,
तुम्हारे देश के दीपक बुझाए जा रहे हैं जब,
नज़र के सामने लाकर मिटाए जा रहे हैं जब !
खड़े हो नाश के अन्तिम किनारे पर, सरल गिरना,
कि दुश्मन एक धक्के से मिटा देगा यहाँ वरना !
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा (झंडा गीत) / श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा,
झंडा ऊंचा रहे हमारा।
सदा शक्ति बरसाने वाला,
प्रेम सुधा सरसाने वाला,
वीरों को हरषाने वाला,
मातृभूमि का तन-मन सारा।। झंडा…।
स्वतंत्रता के भीषण रण में,
लखकर बढ़े जोश क्षण-क्षण में,
कांपे शत्रु देखकर मन में,
मिट जाए भय संकट सारा।। झंडा…।
इस झंडे के नीचे निर्भय,
लें स्वराज्य यह अविचल निश्चय,
बोलें भारत माता की जय,
स्वतंत्रता हो ध्येय हमारा।। झंडा…।
आओ! प्यारे वीरो, आओ।
देश-धर्म पर बलि-बलि जाओ,
एक साथ सब मिलकर गाओ,
प्यारा भारत देश हमारा।। झंडा…।
इसकी शान न जाने पाए,
चाहे जान भले ही जाए,
विश्व-विजय करके दिखलाएं,
तब होवे प्रण पूर्ण हमारा।। झंडा…।
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा,
झंडा ऊंचा रहे हमारा।
रचनाकाल : 1924
विदेशी वस्त्र / त्रिभुवन नाथ आज़ाद ‘सैनिक’
सितमगर की हस्ती मिटानी पड़ेगी,
हमें अपनी करके दिखानी पड़ेगी।
कभी उफ़ न लाएंगे अपनी जुबां पर,
मुसीबत सभी कुछ उठानी पड़ेगी।
बहुत हो चुका, अब सहें हम कहां तक,
ये बेईमानी सारी हटानी पड़ेगी।
विदेशी वसन और नशे की जिनिस पर,
हमें अब पिकेटिंग करानी पड़ेगी।
नमक को बनाकर और कर बंद करके,
आज़ादी की झंडी उड़ानी पड़ेगी।
करेंगे हम आज़ाद भारत को अपने,
विदेशी हुकूमत मिटानी पड़ेगी।
विद्यार्थी बिस्मिल की भावना / राम प्रसाद बिस्मिल
देश की ख़ातिर मेरी दुनिया में यह ताबीर[1] हो
हाथ में हो हथकड़ी, पैरों पड़ी ज़ंजीर हो
सर कटे, फाँसी मिले, या कोई भी तद्बीर[2] हो
पेट में ख़ंजर दुधारा या जिगर में तीर हो
आँख ख़ातिर तीर हो, मिलती गले शमशीर हो
मौत की रक्खी हुई आगे मेरे तस्वीर हो
मरके मेरी जान पर ज़ह्मत[3] बिला ताख़ीर[4] हो
और गर्दन पर धरी जल्लाद ने शमशीर हो
ख़ासकर मेरे लिए दोज़ख़ नया तामीर[5] हो
अलग़रज़[6] जो कुछ हो मुम्किन वो मेरी तहक़ीर[7] हो
हो भयानक से भयानक भी मेरा आख़ीर हो
देश की सेवा ही लेकिन इक मेरी तक़्सीर[8] हो
इससे बढ़कर और भी दुनिया में कुछ ताज़ीर[9] हो
मंज़ूर हो, मंज़ूर हो मंज़ूर हो, मंज़ूर हो
मैं कहूँगा ’राम’ अपने देश का शैदा हूँ मैं
फिर करूँगा काम दुनिया में अगर पैदा हूँ मैं
वीर बालिकाएं / अज्ञात रचनाकार
रचनाकाल: सन 1930
हम देख चुकी हैं सब कुछ, पर अब करके कुछ दिखला देंगी,
निज धर्म-कर्म पर दृढ़ होकर, कुछ दुनिया को सिखला देंगी।
है क्या कर्त्तव्य हमारा अब, पहचान लिया हमने उसको,
अरमान यही अब दिल में है, लंदन का तख़्त हिला देंगी।
समझो न हमें कन्याएं हैं, हम दुष्टनाशिनी दुर्गा हैं,
कर सिंहनाद आज़ादी का, दुष्टांे का दिल दहला देंगी।
राष्ट्रीय ध्वजा लेकर कर में, गाएंगी राष्ट्रगीत प्यारे,
दौड़ाकर बिजली भारत में, मुर्दे भी तुरत जिला देंगी।
बेड़ियां गुलामी की काटें, आज़ाद करेंगी भारत को,
उजड़े उपवन में भारत के, अब प्रेम-प्रसून खिला देंगी।
कंपित होगी धरती ही क्यों, ये आसमान हिल जाएगा,
कविरत्न वज्र की भांति तड़प, रिपुदल का दिल दहला देंगी।
वो वक्त कभी तो आएगा / सपना मांगलिक
कोहरे की गिरफ्त से निकलकर
कुछ पल में ही, आज़ाद हो जाएगा
बिखरा के सुनहरी किरणें सूरज
जग में उजियारा फैलायगा
वो वक़्त कभी तो आएगा
सूखी धरती तपती रेतों पर
बदरी को रहम तो आएगा
उमड़-घुमड़ फिर गरज गरजकर
बादल सावन बरसायेगा
वो वक़्त कभी तो आएगा
अमावस की रात से बचकर
चाँद भी चांदनी विख्ररायेगा
भूल अन्धेरा पूर्णिमा के दिन
पूर्ण चाँद बन जाएगा
वो वक़्त कभी तो आएगा
जब निजहित भूलके जन-जन
राष्ट्रहित को धर्म बनाएगा
दूर होगा भ्रष्टाचार और आतंक तब
देश अपना स्वर्ग बन जाएगा
वो वक़्त कभी तो आएगा
शहीदों की याद में / अज्ञात रचनाकार
रचनाकाल: सन 1931
फांसी का झूला झूल गया मर्दाना भगतसिंह,
दुनिया को सबक दे गया मस्ताना भगतसिंह।
राजगुरु से शिक्षा लो, दुनिया के नवयुवको!
सुखदेव से पूछो, कहां मस्ताना भगतसिंह।
रोशन कहां, अशफ़ाक़ और लहरी, कहां बिस्मिल,
आज़ाद से था सच्चा दोस्ताना भगतसिंह।
स्वागत को वहां देवगण में इंद्र भी होंगे,
परियां भी गाती होंगी ये तराना भगतसिंह।
दुनिया की हर एक चीज़ को हम भूल क्यों न जाएं,
भूलें न मगर दिल से मस्ताना भगतसिंह।
भारत के पत्ते-पत्ते में सोने से लिखेगा,
राजगुरु, सुखदेव और मस्ताना भगतसिंह।
ऐ हिंदियो, सुन लो, ज़रा हिम्मत करो दिल में,
बनना पड़ेगा सबको अब दीवाना भगतसिंह।
शैदाए वतन / गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’
हम भी दिल रखते हैं सीने में जिगर रखते हैं,
इश्क़-ओ-सौदाय वतन रखते हैं, सर रखते हैं।
माना यह ज़ोर ही रखते हैं न ज़र रखते हैं,
बलबला जोश-ए-मोहब्बत का मगर रखते हैं।
कंगूरा अर्श का आहों से हिला सकते हैं,
ख़ाक में गुम्बदे-गरर्दू को मिला सकते हैं॥
शैक़ जिनको हो सताने का, सताए आएँ;
रू-ब-रू आके हों, यों मुँह न छिपाए, आएँ।
देख लें मेरी वफ़ा आएँ, जफ़ाएँ आएँ,
दौड़कर लूँगा बलाएँ मैं बलाए आएँ।
दिल वह दिल ही नहीं जिसमें कि भरा दर्द नहीं,
सख्तियाँ सब्र से झेले न जो वह मर्द नहीं॥
कैसे हैं पर किसी लेली के गिरिफ़्तार नहीं,
कोहकन है किसी शीरीं से सरोकार नहीं।
ऐसी बातों से हमें उन्स नहीं, प्यार नहीं,
हिज्र के वस्ल के क़िस्से हमे&##2306; दरकार नहीं।
जान है उसकी पला जिससे यह तन अपना है,
दिल हमारा है बसा उसमें, वतन अपना है॥
यह वह गुल है कि गुलों का भी बकार इससे है,
चमन दहर में यक ताज़ा बहार इससे है।
बुलबुले दिल को तसल्ली ओ’ करार इसके है,
बन रहा गुलचीं की नज़रों में य्ह खार इससे है।
चर्ख-कजबाज़ के हाथों से बुरा हाल न हो,
यह शिगुफ़्ता रहे हरदम, कभी पामाल न हो॥
आरजू है कि उसे चश्मए ज़र से सींचे,
बन पड़े गर तो उसे आवे-गुहर से सींचे।
आवे हैवां न मिले दीदये तर से सींचे,
आ पड़े वक़्त तो बस ख़ूने जिगर से सींचे।
हड्डियाँ रिज़्के हुमाँ बनके न बरबाद रहें,
घुल के मिट्टी में मिलें, खाद बने याद रहे॥
हम सितम लाख सहें शायर-ए-बेदाद रहें,
आहें थामे हुए रोके हुए फ़रियाद रहें।
हम रहें या न रहें ऐसे रहें याद रहें,
इसकी परवाह है किसे शाद कि नाशाद रहें।
हम उजड़ते हैं तो उजड़ें वतन आबाद रहे,
हो गिरिफ़्तार तो हों पर वतन आज़ाद रहे॥
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