मेरा देश दो चित्र (कविता का अंश) / चन्द्रकुंवर बर्त्वाल
Contents
- 1 मेरा देश दो चित्र (कविता का अंश) / चन्द्रकुंवर बर्त्वाल
- 2 मेरा देश है ये / वीरेंद्र मिश्र
- 3 मेरा भारत सिसक रहा है / महाराज सिंह परिहार
- 4 मेरा वतन वही है / इक़बाल
- 5 मेरे कैद देश की कविता / रेने देपेस्त्र
- 6 मेरे देश की आँखें / अज्ञेय
- 7 मेरे देश की तरह / अमृता भारती
- 8 मेरे देश के लाल / बालकवि बैरागी
- 9 मेरे देश में / महेन्द्र भटनागर
- 10 मेरे भारत का पार्थ / महाराज सिंह परिहार
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मेरा देश दो चित्र (कविता का अंश)
नगरों में, ग्रामों में चारों ओर खडे थे
क्षीण युवक, छायाओं में छिपते प्रंतों से।
यही देश है मेरा, मैने पूछा रोकर
ळां हां हां , यही यही, बोला कोई हंस-हंस कर।
(लखनऊ से लौटकर गुंजन कविता से )
मेरा देश है ये / वीरेंद्र मिश्र
लो अब गाता हूँ
कोई अंधकार की चादर मेरी ओर बढाए ना
जलता दीप है ये
इससे प्यार मुझको
कोई खुशहाली पर खूनी आँख उठाए ना
मेरा देश है ये
इससे प्यार मुझको
इसकी मिट्टी में है गर्मी काल की
इसमें ताकत है उठते भूचाल की
इतिहासों की गाथा इसके मूल में
एक चमकती दुनिया इसकी धूल में
इसके पवन झकोरों में वह प्यास है
सिर्फ़ बहारों को जिसका आभास है
संझा और सकारे ऐसे हैं कहाँ
सूरज चंदा औ’ सितारे ऐसे हैं कहाँ
श्याम घटा बिजली बरखा मन भावनी
रिमझिम बूँद फुहार चंदनियाँ सावनी
आल्हा की हुंकार, रमायन की कथा
वृन्दावन के रास गोपियों की व्यथा
त्योहारों की धूम दिवाली के दीये
होली के रंगों बिन कोई क्या जीये
मणिपुरी के नृत्यों की चंचल परी
और भरतनाट्यम पर छिड़ती बाँसुरी
यह सब मेरी दुनिया की आवाज़ है
इसपर ही तो होता मुझको नाज़ है
लो अब गाता हूँ–
हँसती-गाती राहों में अंगार बिछाए ना
पथ की धूल है ये
इससे प्यार मुझको
कोई खुशहाली पर खूनी आँख उठाए ना
मेरा देश है ये
इससे प्यार मुझको
झूमर, हँसली, पायल. नुपुर रागिनी
काजल मेंहदी, मेंहदी, महावर, क्वारी चाँदनी
शुभ शगुनों के मंगल कलश दुआर पर
अनब्याहे दृग उठते वन्दनवार पर
और एक दिन घर से जाती लाडली
कुंकुम की डोली में चंपा की कली
देस कहीं परदेस कहीं किसकी लगन
किसकी ममता डोरी मन किसमें मगन
और एक दिन संघर्षों की राह पर
जाता है परिवार बिलखता आह पर
साथ चली श्मशान उमंगों पर कफ़न
प्यासे मनवा प्यासे ही हो गए दफ़न
लेकिन इसका अर्थ नहीं होता मरण
मुझको जाना है न किसी की भी शरण
हँसी उड़ाने वाले जाते भूल हैं
मेरे मरघट में भी खिलते फूल हैं
इन पैरों में अभी सफ़र की प्यास है
इन अधरों पर तो अब भी उल्लास है
लो अब गाता हूँ–
कोई मधुऋतु इस पतझड़ पर दानी हाथ उठाए ना
मेरा बाग़ है ये
इससे प्यार मुझको
कोई खुशहाली पर खूनी आँख उठाए ना
मेरा देश है ये
इससे प्यार मुझको
मेरा भारत सिसक रहा है / महाराज सिंह परिहार
मौन निमंत्रण की बातें मत आज करो
अंधकार में मेरा भारत सिसक रहा है
सदियों से जो सतपथ का अनुगामी था
सत्य अहिंसा प्रेम सरलता का स्वामी था
आज हुआ क्यों शोर देश के चप्पे-चप्पे
वनवासी का धैर्य आज क्यों दहक रहा है
होता सपनों का खून यहाँ लज्जा लुटती चौराहे पर
द्रोणाचार्य की कुटिल सीख से खड़ा एकलव्य दोराहे पर
महलों की जलती आँखों से कुटियाएँ जल राख हुईं
और सुरा के साथ देश का यौवन चहक रहा है
यहाँ सूर्य की किरणें बंद हैं अलमारी में
यहाँ नित्य मिटतीं हैं कलियाँ बीमारी में
जहाँ वृक्ष भी तन पर अगणित घाव लिए हों
उसी धरा में शूल मस्त हो महक रहा है
नेह निमंत्रण की बातें स्वीकार मुझे
मस्ती-राग-फाग की भी अंगीकार मुझे
पर कैसे झुठला दूँ मैं गीता की वाणी को
कुरुक्षेत्र में आज पार्थ भी धधक रहा है
मेरा वतन वही है / इक़बाल
चिश्ती ने जिस ज़मीं पे पैग़ामे हक़ सुनाया,
नानक ने जिस चमन में बदहत का गीत गाया,
तातारियों ने जिसको अपना वतन बनाया,
जिसने हेजाजियों से दश्ते अरब छुड़ाया,
मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है॥
सारे जहाँ को जिसने इल्मो-हुनर दिया था,
यूनानियों को जिसने हैरान कर दिया था,
मिट्टी को जिसकी हक़ ने ज़र का असर दिया था
तुर्कों का जिसने दामन हीरों से भर दिया था,
मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है॥
टूटे थे जो सितारे फ़ारस के आसमां से,
फिर ताब दे के जिसने चमकाए कहकशां से,
बदहत की लय सुनी थी दुनिया ने जिस मकां से,
मीरे-अरब को आई ठण्डी हवा जहाँ से,
मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है॥
बंदे किलीम जिसके, परबत जहाँ के सीना,
नूहे-नबी का ठहरा, आकर जहाँ सफ़ीना,
रफ़अत है जिस ज़मीं को, बामे-फलक़ का ज़ीना,
जन्नत की ज़िन्दगी है, जिसकी फ़िज़ा में जीना,
मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है॥
गौतम का जो वतन है, जापान का हरम है,
ईसा के आशिक़ों को मिस्ले-यरूशलम है,
मदफ़ून जिस ज़मीं में इस्लाम का हरम है,
हर फूल जिस चमन का, फिरदौस है, इरम है,
मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है॥
मेरे कैद देश की कविता / रेने देपेस्त्र
उठो! ओ मेरे अफ़्रीकी
अपनी काली चमड़ी के आहत गुलाब के लिए उठो
उठो ओ मेरे अफ़्रीकी
अपनी रात की रानी की नोंची गई हरेक पंखुड़ी के लिए उठो
उठो दक्षिण अफ़्रीका के हर कीचड़ भरे गड्ढे के लिए
कि वह तूफ़ानी वसंत के बवंडरों से तुम्हारे पद चिह्नों को सोख सके
कि बिखरे खून की चमक मिटाने का साहस कोई न करे
अपनी जनता की भरी-पूरी खुशहाली ओढ़
जा मेरे अफ़्रीका!
विश्व की उम्मीदों पर सवार हो
और तू लौट प्रबुद्ध हो कर
मिलाए गए सभी हाथों से
सभी पढ़ी गई किताबों से
बाँट कर खाई गई रोटियों से
उन सभी औरतों से जिनसे तूने संगति की होगी
उन सभी दिनों से जिन्हें जोता होगा तूने
कि मानवता का सुनहरा अनाज उपज सके।
मूल फ़्रांसिसी से अनुवाद : हेमन्त जोशी
मेरे देश की आँखें / अज्ञेय
नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं
पुते गालों के ऊपर
नकली भवों के नीचे
छाया प्यार के छलावे बिछाती
मुकुर से उठाई हुई
मुस्कान मुस्कुराती
ये आँखें –
नहीं, ये मेरे देश की नहीं हैं…
तनाव से झुर्रियाँ पड़ी कोरों की दरार से
शरारे छोड़ती घृणा से सिकुड़ी पुतलियाँ –
नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं…
वन डालियों के बीच से
चौंकी अनपहचानी
कभी झाँकती हैं
वे आँखें,
मेरे देश की आँखें,
खेतों के पार
मेड़ की लीक धारे
क्षिति-रेखा को खोजती
सूनी कभी ताकती हैं
वे आँखें…
उसने
झुकी कमर सीधी की
माथे से पसीना पोछा
डलिया हाथ से छोड़ी
और उड़ी धूल के बादल के
बीच में से झलमलाते
जाड़ों की अमावस में से
मैले चाँद-चेहरे सुकचाते
में टँकी थकी पलकें
उठायीं –
और कितने काल-सागरों के पार तैर आयीं
मेरे देश की आँखें…
(पुरी-कोणार्क, 2 जनवरी 1980)
मेरे देश की तरह / अमृता भारती
स्वतन्त्र हुए
देश की तरह था
वह-
उसका माथा
उसकी हँसी-
मेरे देश की तरह
दिव्य,
अविभाज्य
और
सम्पूर्ण ।
मेरे देश के लाल / बालकवि बैरागी
पराधीनता को जहाँ समझा श्राप महान
कण-कण के खातिर जहाँ हुए कोटि बलिदान
मरना पर झुकना नहीं, मिला जिसे वरदान
सुनो-सुनो उस देश की शूर-वीर संतान
आन-मान अभिमान की धरती पैदा करती दीवाने
मेरे देश के लाल हठीले शीश झुकाना क्या जाने।
दूध-दही की नदियां जिसके आँचल में कलकल करतीं
हीरा, पन्ना, माणिक से है पटी जहां की शुभ धरती
हल की नोंकें जिस धरती की मोती से मांगें भरतीं
उच्च हिमालय के शिखरों पर जिसकी ऊँची ध्वजा फहरती
रखवाले ऐसी धरती के हाथ बढ़ाना क्या जाने
मेरे देश के लाल हठीले शीश झुकाना क्या जाने।
आज़ादी अधिकार सभी का जहाँ बोलते सेनानी
विश्व शांति के गीत सुनाती जहाँ चुनरिया ये धानी
मेघ साँवले बरसाते हैं जहाँ अहिंसा का पानी
अपनी मांगें पोंछ डालती हंसते-हंसते कल्याणी
ऐसी भारत माँ के बेटे मान गँवाना क्या जाने
मेरे देश के लाल हठीले शीश झुकाना क्या जाने।
जहाँ पढाया जाता केवल माँ की ख़ातिर मर जाना
जहाँ सिखाया जाता केवल करके अपना वचन निभाना
जियो शान से मरो शान से जहाँ का है कौमी गाना
बच्चा-बच्चा पहने रहता जहाँ शहीदों का बाना
उस धरती के अमर सिपाही पीठ दिखाना क्या जाने
मेरे देश के लाल हठीले शीश झुकाना क्या जाने।
मेरे देश में / महेन्द्र भटनागर
आज
मेरे देश के आकाश पर
काली घटाएँ वेदना की
घिर रही हैं !
कड़कड़ा कर गाज
टूटे,
फूस-मिट्टी के हज़ारों छप्परों पर
गिर रही है !
और गहरा हो रहा है
ज़िन्दगी की शाम का
फैला अँधेरा,
पड़ रहा
चमगादड़ों का, उल्लुओं का,
मौत के सौदागरों का,
ख़ून के प्यासे हज़ारों दानवों का,
ज़िन्दगी के दुश्मनों का
भूत की छाया सरीखा
आज डेरा।
कर दिये वीरान
कितने लहलहाते खेत
जीवन के,
सुनायी दे रहे स्वर
दुख, अभावों और क्रन्दन के !
मेरे भारत का पार्थ / महाराज सिंह परिहार
कौन हमारे नंदनवन में बीज ज़हर के बोता है
अफ़सोस मेरे भारत का पार्थ अभी तक सोता है
आज चंद्र की शीतलता आक्राँत हुई है।
किरणें रवि की भी अब शांत हुई हैं
मौन हवाएँ भी मृत्यु को आमंत्रण देती
पाषाणी दीवारे भी अब नहीं नियंत्रण करती
शब्दकार भी आज अर्थ में खोता है
अफ़सोस मेरे भारत का पार्थ अभी तक सोता है
हम भूल गए सांगा के अस्सी घावों को
भुला दिया हमने अपने पौरुष भावों को
दिनकर की हुंकार विलुप्त हुई अम्बर में
सीता लज्जित आज खड़ी है स्वयंवर में
राम-कृष्ण की कर्मभूमि में क्रन्दन होता है
अफ़सोस मेरे भारत का पार्थ अभी तक सोता है
बौनी हो गई परम्पराएँ आज धरा की
लुप्त हो गईं मर्यादाएँ आज धरा की
मौन हो गई जहाँ प्रेम की भी शहनाई
बेवशता को देख वेदना भी मुस्काई
रोटी को मोहताज वही जिसने खेतों को जोता है
अफ़सोस मेरे भारत का पार्थ अभी तक सोता है
अब सत्ता के द्वारे दस्तक नहीं बजेगी
क़दम-क़दम पर अब क्रांति की तेग चलेगी
निर्धन के आँसू अगर अंगार बन गए
महलों की खुशियाँ भी उसके साथ जलेंगी
देख दशा त्रिपुरारी का नृत्य तांडव होता है
अफ़सोस मेरे भारत का पार्थ अभी तक सोता है
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