Hindi Poems on Clouds या बादलों पर हिन्दी कविताएँ. इस आर्टिकल में बहुत सारी हिन्दी कविताओं का एक संग्रह दिया गया है जिनका विषय बादलों (Clouds) पर आधारित है.
Hindi Poems On Clouds – बादलों पर हिन्दी कविताएँ
Contents
बादल देख डरी हो स्याम मैं बादल देख डरी / मीराबाई
बादल देख डरी हो स्याम मैं बादल देख डरी।
श्याम मैं बादल देख डरी।
काली-पीली घटा ऊमड़ी बरस्यो एक घरी।
श्याम मैं बादल देख डरी।
जित जाऊं तित पाणी पाणी हु भोम हरी॥
श्याम मैं बादल देख डरी।
जाका पिय परदेस बसत है भीजूं बाहर खरी।
श्याम मैं बादल देख डरी।
मीरा के प्रभु हरि अबिनासी कीजो प्रीत खरी।
श्याम मैं बादल देख डरी।
बादल / लक्ष्मीप्रसाद देवकोटा
हामी सन्तति हौं अगाध जलका
ग्रीष्मर्तुको जन्म हो,
हाम्रो जन्म हुँदा महोत्सव थियो,
सारा उज्यालो सफा,
हाँस्थे सूर्य र छालमा उछलिंदा
टल्पल् गरी नाच्तथे,
टाढासम्म हावा निमन्त्रित थिए,
चल्थे बडा तेजले।
हाम्रो व्योमविहारको मन थियो,
ऊँचा थियो कामना,
हामी सुस्त चढ्यौं सफा किरणका
साना मसीना सिंढी।
माथी-माथि चढ्यौं मिल्यौं र फिजियौं
आकाशको क्षेत्रमा
बोकी चल्छ हवा डुलाउन जगत्
डाँडा, पुरी, जङ्गल।
हेर्छौं दिव्य प्रदर्शिनी पृथिवीको,
डाँडा र मैदानको
खाल्डा, खोंच हिमालका र वनका
नङ्गा र उद्यानका।
नाला निर्मल नागबेलि जलका
ती निर्झरी, झाडिका
झुत्रा झोपडिका सफा सदनका
प्रासादका, वीथिका।
बादल को घिरते देखा है / नागार्जुन
अमल धवल गिरि के शिखरों पर,
बादल को घिरते देखा है।
छोटे-छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।
तुंग हिमालय के कंधों पर
छोटी बड़ी कई झीलें हैं,
उनके श्यामल नील सलिल में
समतल देशों से आ-आकर
पावस की उमस से आकुल
तिक्त-मधुर विषतंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।
ऋतु वसंत का सुप्रभात था
मंद-मंद था अनिल बह रहा
बालारुण की मृदु किरणें थीं
अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे
एक-दूसरे से विरहित हो
अलग-अलग रहकर ही जिनको
सारी रात बितानी होती,
निशा-काल से चिर-अभिशापित
बेबस उस चकवा-चकई का
बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें
उस महान् सरवर के तीरे
शैवालों की हरी दरी पर
प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।
शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर
दुर्गम बर्फानी घाटी में
अलख नाभि से उठने वाले
निज के ही उन्मादक परिमल-
के पीछे धावित हो-होकर
तरल-तरुण कस्तूरी मृग को
अपने पर चिढ़ते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।
कहाँ गय धनपति कुबेर वह
कहाँ गई उसकी वह अलका
नहीं ठिकाना कालिदास के
व्योम-प्रवाही गंगाजल का,
ढूँढ़ा बहुत किन्तु लगा क्या
मेघदूत का पता कहीं पर,
कौन बताए वह छायामय
बरस पड़ा होगा न यहीं पर,
जाने दो वह कवि-कल्पित था,
मैंने तो भीषण जाड़ों में
नभ-चुंबी कैलाश शीर्ष पर,
महामेघ को झंझानिल से
गरज-गरज भिड़ते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।
शत-शत निर्झर-निर्झरणी कल
मुखरित देवदारु कनन में,
शोणित धवल भोज पत्रों से
छाई हुई कुटी के भीतर,
रंग-बिरंगे और सुगंधित
फूलों की कुंतल को साजे,
इंद्रनील की माला डाले
शंख-सरीखे सुघड़ गलों में,
कानों में कुवलय लटकाए,
शतदल लाल कमल वेणी में,
रजत-रचित मणि खचित कलामय
पान पात्र द्राक्षासव पूरित
रखे सामने अपने-अपने
लोहित चंदन की त्रिपटी पर,
नरम निदाग बाल कस्तूरी
मृगछालों पर पलथी मारे
मदिरारुण आखों वाले उन
उन्मद किन्नर-किन्नरियों की
मृदुल मनोरम अँगुलियों को
वंशी पर फिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।
बादल क्या है / राजेश जोशी
बादल क्या ऊँट है
नीले रेगिस्तान में
जिसके पेट में पानी हिलता है!
बादल क्या हाथी है
जो सूंड में भरकर नदी
पानी इधर-उधर उड़ाता है !
बादल क्या है
आख़िर उसके आते ही
मेरा मन इतना ख़ुश क्यों
हो जाता है
क्या मेरे अन्दर के पानी
और उसके अन्दर के पानी में
कोई नाता है!
बादल क्या है
बादल कुआ तितली है
जो समुद्र का पराग-केसर
चुरा कर ले जाता है
और सारी धरती पर खिलाता है
पानी के फूल!
बादल क्या है !
बादल का पानी / अजय पाठक
बरस गया बादल का पानी!
बिजली चमकी दूर गगन में,
कंपन होते प्राण भवन में,
तरल-तरल कर गई हृदय को,
निष्ठुर मौसम की मनमानी।
बरस गया बादल का पानी!
धुली आस कोमल अंतर की,
बही संपदा जीवन भर की,
फिर भी लेती रहीं लहरियाँ
हमसे निधियों की कुरबानी।
बरस गया बादल का पानी!
धार-धार में तेज़ लहर है,
लहरों में भी तेज़ भँवर है,
सपनों का हो गया विसर्जन,
घेरे आशंका अनजानी।
बरस गया बादल का पानी!
बादल / सुमित्रानंदन पंत
सुरपति के हम हैं अनुचर ,
जगत्प्राण के भी सहचर ;
मेघदूत की सजल कल्पना ,
चातक के चिर जीवनधर;
मुग्ध शिखी के नृत्य मनोहर,
सुभग स्वाति के मुक्ताकर;
विहग वर्ग के गर्भ विधायक,
कृषक बालिका के जलधर !
भूमि गर्भ में छिप विहंग-से,
फैला कोमल, रोमिल पंख ,
हम असंख्य अस्फुट बीजों में,
सेते साँस, छुडा जड़ पंक !
विपुल कल्पना से त्रिभुवन की
विविध रूप धर भर नभ अंक,
हम फिर क्रीड़ा कौतुक करते,
छा अनंत उर में निःशंक !
कभी चौकड़ी भरते मृग-से
भू पर चरण नहीं धरते ,
मत्त मतगंज कभी झूमते,
सजग शशक नभ को चरते;
कभी कीश-से अनिल डाल में
नीरवता से मुँह भरते ,
बृहत गृद्ध-से विहग छदों को ,
बिखरते नभ,में तरते !
कभी अचानक भूतों का सा
प्रकटा विकट महा आकार
कड़क,कड़क जब हंसते हम सब ,
थर्रा उठता है संसार ;
फिर परियों के बच्चों से हम
सुभग सीप के पंख पसार,
समुद तैरते शुचि ज्योत्स्ना में,
पकड़ इंदु के कर सुकुमार !
अनिल विलोरित गगन सिंधु में
प्रलय बाढ़ से चारो ओर
उमड़-उमड़ हम लहराते हैं
बरसा उपल, तिमिर घनघोर;
बात बात में, तूल तोम सा
व्योम विटप से झटक ,झकोर
हमें उड़ा ले जाता जब द्रुत
दल बल युत घुस बातुल चोर !
व्योम विपिन में वसंत सा
खिलता नव पल्लवित प्रभात ,
बरते हम तब अनिल स्रोत में
गिर तमाल तम के से पात ;
उदयाचल से बाल हंस फिर
उड़ता अंबर में अवदात
फ़ैल स्वर्ण पंखों से हम भी,
करते द्रुत मारुत से बात !
पर्वत से लघु धूलि.धूलि से
पर्वत बन ,पल में साकार —
काल चक्र से चढ़ते गिरते,
पल में जलधर,फिर जलधार;
कभी हवा में महल बनाकर,
सेतु बाँधकर कभी अपार ,
हम विलीन हों जाते सहसा
विभव भूति ही से निस्सार !
हम सागर के धवल हास हैं
जल के धूम ,गगन की धूल ,
अनिल फेन उषा के पल्लव ,
वारि वसन,वसुधा के मूल ;
नभ में अवनि,अवनि में अंबर ,
सलिल भस्म,मारुत के फूल,
हम हीं जल में थल,थल में जल,
दिन के तम ,पावक के तूल !
व्योम बेलि,ताराओं में गति ,
चलते अचल, गगन के गान,
हम अपलक तारों की तंद्रा,
ज्योत्सना के हिम,शशि के यान;
पवन धेनु,रवि के पांशुल श्रम ,
सलिल अनल के विरल वितान !
व्योम पलक,जल खग ,बहते थल,
अंबुधि की कल्पना महान !
धूम-धुआँरे ,काजल कारे ,
हम हीं बिकरारे बादल ,
मदन राज के बीर बहादुर ,
पावस के उड़ते फणिधर !
चमक झमकमय मंत्र वशीकर
छहर घहरमय विष सीकर,
स्वर्ग सेतु-से इंद्रधनुषधर ,
कामरूप घनश्याम अमर !
बादल ओ! / केदारनाथ सिंह
हम नए-नए धानों के बच्चे तुम्हें पुकार रहे हैं-
बादल ओ! बादल ओ! बादल ओ!
हम बच्चे हैं,
(चिड़ियों की परछाई पकड़ रहे हैं उड़-उड़)
हम बच्चे हैं,
हमें याद आई है जाने किन जन्मों की-
आज हो गया है जी उन्मन!
तुम कि पिता हो-
इन्द्रधनुष बरसो!
कि फूल बरसो,
कि नींद बरसो-
बादल ओ!
हम कि नदी को नहीं जानते,
हम कि दूर सागर की लहरें नहीं माँगते।
हमने सिर्फ तुम्हें जाना है,
तम्हें माँगते हैं।
आर्द्रा के पहले झोंके में तुम को सूँघा है-
पहला पत्ता बढ़ा दिया है।
लिए हाथ में हाथ हवा का-
खेतों की मेड़ो पर घिरते तुम को देखा है,
ओठों से विवश छू लिया है।
ओ सुनो, अन्न-वर्षी बादल
ओ सुनो, बीज-वर्षी बादल
हम पंख माँगते हैं,
हम नए फेन के उजले-उजले
शंख माँगते हैं,
हम बस कि माँगते हैं
बादल! बादल!
घर बादल, आँगन बादल,
सारे दरवाज़े बादल!
तन बादल, मन बादल,
ये नन्हें हाथ-पाँव बादल-
हम बस कि माँगते हैं बादल, बादल।
तुम गरजो-
पेड़ चुरा लेंगे गर्जन,
तुम कड़को-
चट्टानों में बिखर जाएगी वह कड़कन।
तुम बरसो-
फूट पड़ेगी प्राणों की उमड़न-कसकन!
फिर हम अबाध भीजेंगे, झूमेंगे-
ये हरी भुजाएं
नील दिशाओं को छू आएँगी-
फिर तुम्हें वनों में पाखी गाएंगे,
फिर नए जुते खेतों से हवा-हवा बस जाएगी!
फिर नयन तुम्हें जोहेंगे जूही के जादू-वन में,
आमों के पार
साँझ के सूने टीलों पर!
फिर पवन उँगलियाँ तुम्हें चीन्ह लेंगी-
पौधों में, पत्तों में, कत्थई कोंपलों में!
तुम कि पिता हो-
कहीं तुम्हारे संवेदन में भी तो वही कंप होगा-
जो हमें हिलाता है!
ओ सुनो रंग-वर्षी बादल,
ओ सुनो गंध-वर्षी बादल,
हम अधजनमे धानों के बच्चे
तुम्हें माँगते हैं।
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