Hindi Poems on Childhood या बचपन पर हिन्दी कविताएँ. इस आर्टिकल में बहुत सारी हिन्दी कविताओं का एक संग्रह दिया गया है जिनका विषय बचपन (Childhood) पर आधारित है.
Hindi Poems on Childhood – बचपन पर हिन्दी कविताएँ
Contents
- 1 Hindi Poems on Childhood – बचपन पर हिन्दी कविताएँ
- 1.1 बचपन का घर / तरुण भटनागर
- 1.2 बचपन में / हेमन्त देवलेकर
- 1.3 बचपन के किस्से सुनो जी बड़ों के / रमेश तैलंग
- 1.4 बचपन की जेल / विवेक चतुर्वेदी
- 1.5 बचपन, यौवन, वृद्धपन.. / हिमांशु पाण्डेय
- 1.6 बचपन / कृष्ण कुमार यादव
- 1.7 बचपन / कल्पना लालजी
- 1.8 बचपन का गाँव / रंजना जायसवाल
- 1.9 बचपन से पहले / राज रामदास
- 1.10 बचपन / श्रीप्रसाद
- 1.11 तुम्हारी आँखों का बचपन / जयशंकर प्रसाद
- 1.12 बचपन की यादें / प्रीति ‘अज्ञात’
- 1.13 बचपन / बिन्देश्वर प्रसाद शर्मा ‘बिन्दु’
- 1.14 मेरा बचपन / किरण मिश्रा
- 1.15 बचपन हर ग़म से बेगाना होता है / रविन्द्र जैन
- 1.16 बचपन का सूरज / सुरेश यादव
- 1.17 बचपन की कविता / मंगलेश डबराल
- 1.18 मेरा नया बचपन / सुभद्राकुमारी चौहान
- 1.19 बचपन-4 / मुनव्वर राना
- 1.20 Related Posts:
बचपन का घर / तरुण भटनागर
जब बचपन के घर से,
माता-पिता के घर से, बाहर चला था,
तब खयाल नहीं आया,
कि यह यात्रा एक आैर घर के लिए है,
जो निलर्ज्जता के साथ छीन लेगा,
मुझसे मेरे बचपन का घर।
यंू दे जाएगा एक टीस,
जिसे लाखों लोग महसूस करते हैं,
क्योंिक दुनियादारी होते हुए,
रोज़ छूट रहे हैं,
लाखों लोगों के,
लाखों बचपन के घर।
कितना अजीब है,
जो हम खो देते हैं उमर् की ढलान पर,
वह फिर कभी नहीं लौटता,
जैसे देह से प्राण निकल जाने के बाद फिर कुछ नहीं हो पाता,
ठीक वैसे ही गुम जाता है बचपन का घर।
माता-पिता, भाई-बहन,
प्यार, झगड़ा, जि़द, दुलार, सुख ़ ़ ़
सब चले जाते हैं,
किसी ऐसे देश में,
जहां नहीं जाया जा सकता है,
जीवन की हर संभव कोशिश के बाद भी,
वहां कोई नहीं पहंुच सकता।
ना तो चीज़ों को काटा-छांटा जा सकता है
आैर ना गुमी चीज़ों को जोड़ा जा सकता है,
पूरा दम लगाकर भी,
फिर से नहीं बन सकता है, बचपन का घर।
हम सब,
माता-पिता, भाई-बहन,
आज भी कई बार इकट्ठा होते हैं,
बचपन के घर में,
पर तब वह घर एक नया घर होता है,
वह बचपन का घर नहीं हो पाता है।
बचपन में / हेमन्त देवलेकर
समुंदर बचपन में बादल था
किताब बचपन में अक्षर
माँ की गोद जितनी ही थी धरती बचपन में
हर पकवान बचपन में दूध था
पेड़ बचपन में बीज
चुम्मियां भर थी प्रार्थनाएं बचपन में
सारे रिश्तेदार बचपन में खिलौने थे
हर वाद्य बचपन में झुनझुना
हंसी की चहचहाहट भर थे गीत बचपन में
ईश्वर बचपन में माँ था
हर एक चीज़ को
मुंह में डालने की जिज्ञासा भर था विज्ञान बचपन में
और हर नृत्य बचपन में
तेरी उछल-कूद से ज्यादा कुछ नहीं था
बचपन के किस्से सुनो जी बड़ों के / रमेश तैलंग
दादाजी ने सौ पतंगे लूटीं
टाँके लगे, हड्डियाँ उनकी टूटी,
छत से गिरे, न बताया किसी को,
शैतानी करके सताया सभी को,
बचपन के किस्से सुनो जी बड़ों के।
मम्मी ने स्कूल में मार खाई,
मैडम की अपनी हँसी थी उड़ाई,
कापी मंे नंबर भी खुद ही बढ़ाए,
पर किसमें हिम्मत थी, घर में बताए?
बचपन के किस्से सुनो जी बड़ों के।
पापा थे कंचों के शौकीन ऐसे,
छुप-छुप चुराते थे दादा के पैसे,
गर्मी का मौसम हो या तेज सर्दी,
जमकर उन्होंने की अवारागर्दी,
बचपन के किस्से सुनो जी बड़ों के।
अब याद करते तो भरते ठहाके,
लेते हैं पूरे मजे फिर सुना के।
बचपन के किस्से सुनो जी बड़ों के।
बचपन की जेल / विवेक चतुर्वेदी
मेरा बचपन एक जेल में बीता
जिसके दरवाजे से मेरी बहनें मुझे
रोज ढकेल देती थीं भीतर
और निष्ठुर और कठोर ‘ना’ लिए
पिता खड़े रहते थे।
हम सबको भीतर कर अल सुबह
बंद होते जेल के उस हाथी दरवाजे
की किर्रर आज तक मेरे भीतर
गूंजती है
क्या कुछ नहीं बंद और खत्म हुआ
उस दरवाजे के साथ।
जेल में एक सी वर्दी पहने
उनींदी आँखों और थके पैरों वाले
हम नए पुराने कैदी
एक सफे में खड़े किए जाते थे
जेलरों का चहेता, एक पुराना कैदी
हमसे दुहरवाता था एक फरेबी प्रार्थना
जिसके लफ्जों के मानी का
वहाँ किसी को भी यकीन न था।
फुदकती गौरैयाँ, ऊगता सूरज,
गाय का नवजात बछड़ा,
पुराने टायर से बनी
शानदार गाड़ी, पतंग,
गुलाबी नींद,
घर के आँगन की रेशमी सुबह,
ये सब बस्ते में कैद हो जाने
से उपजी छटपटाहट में
कैसा गूँगा दुख था,
जिसे मैं जी भर कर रो भी
न सका।
मेरे आंसू भीतर उमगे,
वो जहाँ जहाँ बहे,
वहाँ खारे निशान वाली धारियाँ छिल गईं
उनका नमक आज तक मेरी
चेतना को छरछराता है।
हमें बैरकों में ठँूसा जाता था
रटाया जाता था कामुक
और वहशी राजाओं का इतिहास,
डरावना और बेखुर्द विज्ञान,
बेबूझ गणित।
अपने काम और हालात से
चिड़चिड़े जेलर हमारी नर्म खूंटियों
पर अपना भारी अभिमान टांगते
थुलथुल हठी जेलर।
काले धूसर तख्ते पर हमें
दिखाए जाते ज्यामितीय आकार,
उन त्रिभुजों के कोने
हमारी चेतना में धंस जाते।
वो चाहते थे हम बनें,
याद रखने की उम्दा मशीन
हमारे पाठ में कुछ
कविताएं भी थीं, कुछ कहानियाँ
जो उन जेलरों के हाथ
पड़ के नीरस हो जातीं।
बैरक की अधखुली खिड़की से
मैं देखा करता,
हवा में गोता लगाते
डोम कौए,
बैरक के छप्पर में
आजाद फिरते चमगादड़।
रोज शाम मैं, पैरोल पर छूटता था
और मोहल्ले की धूल भरी सड़कों पर
खेलने में भूल जाता था कि मैं कैदी हूँ,
पर जब रात गहराती
सुबह 7 बजे की सूली छेदने लगती
घर की दीवाल में जो पुरानी
घड़ी थी
सुबह 7 बजाने के लिए उसकी इतनी तेज़
रफ्तार क्यों थी।
नारंगी सपनों को रौंदता
समय का काला घोड़ा क्यों भागता
था सरपट
उन घड़ी के कांटों को सुबह सात बजे तक
जाने से रोकने, अधूरी नींद के
ख्वाब में, उन पर हाथ की उंगलियों
के बल मैं, लटक जाता था,
तब घड़ी के कांटे हो जाते चाकू जैसे संगलाख।
कितनी कितनी रातें,
कितनी कितनी बार
मैं उन कांटों को रोकने लटका
कितनी कितनी बार मेरी उंगलियाँ
कट कर घड़ी के डायल से चिपक गईं।
अब जब कभी मैं चाहता हूँ
बनाना एक छोटी चिड़िया का चित्र,
लिखना एक मुलायम सा गीत
तब मालूम होता है मुझे
मेरी उंगलियाँ नहीं हैं
चील बन अवसर के मुर्दाें से
उपलब्धियों का माँस नोचने
नाखून तो हैं
पर वो उंगलियां नहीं हैं
जो किसी सिर को सहलाती हैं
सितार बजाती हैं।
उस सीलन भरी जेल में
कुछ पुराने कैदी थे
जो ना मालूम कैसे
बहुत खुश रहने का हुनर
सीख चुके थे
और हमें भी खुश रहने के लिए
धमकाए जाने वार्डन की तरह मुस्तैद थे।
हम कैदियों को नीरस और उबाऊ पाठ
याद करने की सजाएँ मुकर्रर थीं
हमें थी, भिन्न
हमें कड़वा बीज गणित था,
अप्रिय तेज गंध वाले रसायन थे,
कभी हाथ न आने वाली भौतिकी थी।
कभी कभी सबसे बड़ा
उस जेल का अधिपति जेलर
हमसे मिलने आता
तब हमें बैरकों से
मैदान में खदेड़ा जाता
कंकड़ बिछे उस मैदान
की धूप में, हम सफे में बैठाए जाते
बड़ा जेलर हमें सिखाता अच्छा कैदी
बनने के गुर
उसकी बात जेल का नाम रौशन
करने से शुरू होती और खत्म।
ये अंधेरी सुरंग जैसे कभी
न खत्म होने वाले
जेल के दुख को काटने, कई बार
मैंने ज़िंदगी को भी काटना चाहा
पर हम छोटे थे
हमें नहीं मालूम थे
खुद को खत्म करने के बहुत कामयाब रास्ते
थर्मामीटर तोड़ पारा गुटकने के
कभी उस जेल के पिछवाड़े बने
पुराने कुएं में छलांग के,
कभी उस जेल की सबसे ऊंची
छत से कूद जाने के,
सुने हुए रास्ते थे
पर हमको न तो घर में
न तो उस जेल में
मरना सिखाया नहीं गया था
जैसे कि जीना भी नहीं सिखाया गया था
सो हम मर भी न सके।
हाँ! हमको जो रोज रोज जेल तक
छोड़ते थे, वो गाड़ीवान
खालिस और सच्चे आदमी थे,
बीड़ी पीने वाले,
रिक्शों के खाली पाइप में गुल्लक बना
दस-बीस पैसे के सिक्के जोड़ने वाले,
हमारे आस पास तब जो भी लोग थे
उनमें से यही थे जो
हमारा दुख समझते थे
और उस दुख को कम करने
कभी कभी
हमको कुल्फी खिलाते थे,
वो खूब जिंदादिल लोग थे
जो बचपन में कभी जेल नहीं गए थे
गरीब और फटेहाल,
गमछे-बंडी वाले,
हंसने-खांसने वाले,
चेचक के दाग वाले
सांवले चेहरे खूब याद हैं।
बरस दर बरस बिता
जब मैं उस जेल से निकला
तो एक अदृश्य टाई मेरे गले
में कस गई
प्लास्टिक की एक नकली
मुस्कराहट जड़ गई मेरे होंठों पर
जो कितना भी दुख रिसे,
पिघलती नहीं थी।
अब मैं एक छंटा हुआ शरीफ था
एक रोबोट
अब मैं आसानी से चूस सकता था
किसी का खून
चालाकियों की परखनली के रसायन को
पढ़ना मैं खूब जान चुका था
यहाँ तक कि वो खतरनाक
रसायन बनाना भी मैं सीख चुका था।
जो जो मैं भगवान के घर से
सीखकर आया था वो सब,
भुलाया गया मुझे उस जेल में
सभी नदियाँ, वहाँ सुखाई गईं,
सभी जंगल जलाए गए,
सभी पक्षी चुप कराए गए,
सभी पहाड़ बौने किए गए,
मेरे भीतर जो भी मुलायम था
वो सब खुरदुरा किया गया।
आज बरसों के बाद
मैं उस जेल के सामने
फिर आकर खड़ा हूँ
देखता हूँ
जेल की इमारत कुछ और
रंगीन हो गई है
जैसे कि कभी जहर रंगीन होता है।
मेरी देह एक डायनामाइट हो गई है
वो बचपन की जेल जो मेरी
शिराओं तक में
दौड़ गई है उसको उड़ाना चाहता हूँ
पर शीशे की तरह पिघलकर
ये जेल जो मेरे खून में बह रही है
मैं इसको निकाल नहीं सकता
ये मेरा सच है जिसे मैं
बचपन से अब तक ढोता हूँ।
जब भी मेरे भीतर कुछ उपजता है
सच्चा और क्ँवारा,
मेरा खून ही उसको धो डालता है।
मैं इस जेल को बार-बार
ना कहना चाहता हूँ
मैं इस अंधी सुरंग को
ना कहना चाहता हूँ
मैं बचपन के स्कूल को
ना कहना चाहता हूँ।
बचपन, यौवन, वृद्धपन.. / हिमांशु पाण्डेय
बचपन !
तुम औत्सुक्य की अविराम यात्रा हो,
पहचानते हो, ढूढ़ते हो रंग-बिरंगापन
क्योंकि सब कुछ नया लगता है तुम्हें ।
यौवन !
तुम प्रयोग की शरण-स्थली हो,
आजमाते हो, ढूँढ़ते हो नयापन
क्योंकि सबमें नया स्वाद मिलता है तुम्हें ।
वृद्ध-पन !
तुम चाह से पगे परिपक्व आश्रय हो,
तुम भी उत्कंठित होते हो, ललचाते हो
उन्हीं रंगबिरंगी चीजों में अनुभव आजमाते हो ।
बचपन / कृष्ण कुमार यादव
मैं डरता हूँ
अपना बचपना खोने से
सहेज कर रखा है उसे
दिल की गहराईयों में
जब भी कभी व्यवस्था
भर देती है आक्रोश मुझमें
जब भी कभी सच्चाई
कड़वी लगती है मुझे
जब भी कभी नहीं उबर पाता
अपने अंतर्द्वंद्वों से
जब भी कभी घेर लेती है उदासी
तो फिर लौट आता हूँ
अपने बचपन की तरफ
और पाता हूँ एक मासूम
एवं निश्छल-सा चेहरा
सरे दुख-दर्दों से परे
अपनी ही धुन में सपने बुनता ।
बचपन / कल्पना लालजी
कैसे भूलू बचपन की यादों को मैं
कहाँ उठा कर रखूं किसको दिखलाऊँ
संजो रखी है कब से कहीं बिखर न जाए
अतीत की गठरी कहीं ठिठर न जाये
पिछवाड़े के आले में जो गुडिया बैठी है
फीके पड़ गए रंग अकड अब भी वैसी है
लकड़ी का घोडा सिंहासन था जो मेरा
स्टोर के कोने में सोया पड़ा है
पहरेदार जो था घर का कभी
सालों से अब भी वहीँ खड़ा है
गलियारों में खिलखिलाकर गूंजती
हंसी मानों अब भी है बरसती
ठिठुरती हुई सर्दी की रातों में
चट होती मूंगफली बातों ही बातों में
लिहाफ से आज भी वही खुशबू आती है
खींचातानी उसकी अब भी गाती है
और न जाने ऐसी कितनी चीजें
आज तन्हा हो गईं हैं
खो गए हैं साथी उनके अनजाने मोडों पर
पगडंडियाँ आज भी वहीँ खडीं हैं
बचपन का गाँव / रंजना जायसवाल
मेरे सपनों में बसा है
अपने बचपन का गाँव
जहाँ सूरज उठता था
कुँए की मुंडेर से
और सो जाता था
मुँह छिपाकर अरहर के खेतों में
जहाँ दुपहर की छाँह
अलसाई सी
दुबकी रहती थी
नीम तले
जहाँ बारिश में
भींगते थे
गाते थे गीत
मेढकों को मारकर
माँफी माँगते थे बादलों से
‘कान दर्द करे धोबी का
हमारा ना करे ‘
जहाँ बैलों के कंधे पर बैठे
कौओं को उड़ाते थे
ढेले मार-मारकर
कुए में झाँककर
पुकारते थे कोई नाम
और सुनते हे प्रतिध्वनि
कान लगाकर
जहाँ आम के टिकोरे
कुछ कलछौर फालसे
पत्तियों में छिपे करौंदे
हमारी राल टपकाते थे
चोरी को उकसाते थे
बचपन से पहले / राज रामदास
बचपन से पहले
जवानी बीतगे
अब ना पूछ हमसे
दिन कटे है कैसे
पर्दा से छानल अँजोर में
परछाईं के छन्ना में
ओकर याद जियावत।
बचपन / श्रीप्रसाद
बचपन तो बचपन होता है
चढ़ो पेड़ पर जल्दी
नन्ही नीना हँसे जा रही
लगी हाथ में हल्दी
छुकछुक छुकछुक रेल चल रही
देती जरा दिखाई
इसकी ही आवाज रात में
पड़ती रोज सुनाई
बचपन में देखा करता था
इसी रेल को जाते
कोयल के मीठे स्वर-सी
मीठी सीटी में गाते
बचपन में तैरा करता था
नदी पास में ही थी
कैसे आई नदी? कथा
नानी ने एक कही थी
बचपन में खेतों पर जाता
ऊधम भी करता था
बाबा अच्छे थे, लेकिन
ताऊ से मैं डरता था
मित्र कई थे, साथ उन्हीं के
मैं पढ़ने जाता था
साथ खेलता था, वापस फिर
साथ-साथ आता था
बचपन में पेड़ों के ऊपर
डाला करता झूला
पंख बीन लाता मोरों के
मुझे नहीं है भूला
बचपन की यादें आती हैं
कक्षा की, पढ़ने की
किसी बात पर कभी-कभी
मित्रों से ही लड़ने की
नदी बह गई, चला गया वह
बचपन प्यारा-प्यारा
पर यादें बनकर बैठा है
मन में बचपन सारा।
तुम्हारी आँखों का बचपन / जयशंकर प्रसाद
तुम्हारी आँखों का बचपन !
खेलता था जब अल्हड़ खेल,
अजिर के उर में भरा कुलेल,
हारता था हँस-हँस कर मन,
आह रे वह व्यतीत जीवन !
तुम्हारी आँखों का बचपन !
साथ ले सहचर सरस वसन्त,
चंक्रमण कर्ता मधुर दिगन्त ,
गूँजता किलकारी निस्वन ,
पुलक उठता तब मलय-पवन.
तुम्हारी आँखों का बचपन !
स्निग्ध संकेतों में सुकुमार ,
बिछल, चल थक जाता तब हार,
छिडकता अपना गीलापन,
उसी रस में तिरता जीवन.
तुम्हारी आँखों का बचपन !
आज भी है क्या नित्य किशोर-
उसी क्रीड़ा में भाव विभोर-
सरलता का वह अपनापन-
आज भी है क्या मेरा धन !
तुम्हारी आँखों का बचपन !
बचपन की यादें / प्रीति ‘अज्ञात’
कैसा सूनापन था उस दिन
घर के हर इक कोने में
नानी तू जिस दिन थी लेटी
पतले एक बिछौने में
फूलों-सा नाज़ुक दिल मेरा
सबसे पूछा करता था
कहाँ गया, मेरा वो साथी
जो सुख से झोली भरता था
कैसे तू अपने हाथों से
हर पल मुझे खिलाती थी
माथे की सलवटों में तेरी
बिंदिया तक मुस्काती थी
तू प्यार से मिलती, गले लगाती
जाने क्यूँ रोया करती थी?
तेरे गालों के गड्ढों से मैं
लिपट के सोया करती थी
पर मन मेरा था अनजाना-सा
कुछ भी नहीं समझता था
तुझसे जुदा होने का तब
मतलब तक नहीं अखरता था
अब आँगन की मिट्टी खोदूँ
तेरी रूहें तकती हूँ
संग तेरे जो चली गईं
खुशियाँ तलाश वो करती हूँ
आँसू बनकर गिरती यादें
बस इक पल को तू दिख जाए
पर दुनिया कहती है, मुझसे ये
जो चला गया, फिर न आए
बचपन / बिन्देश्वर प्रसाद शर्मा ‘बिन्दु’
जिसका सींचा था बचपन किया प्यार जीवन के मन में
उसका भी अब क्या कहना कितना मंहगा है ये धन में।
दोपहरी के धूप में छाया तेरे लिए था सब कुछ लाया
दूध-मलाई माखन मिश्री ले आता था एक ही छन में।
रोते थे तो मैं भी रोता सो जाते थे तो मैं भी सोता
जागते तो मैं था हाजिर सब कुछ भूला इसी लगन में।
लोरी गा-गाकर बहलाया रोज सबेरे तुमको नहलाया
अपनी फिकर छोडके तुमको रहने लगा इसी मगन में।
मॉ बनके जब चलना आया तोतली सी बोली मन भाया
क्षन में अंदर क्षन में बाहर चैन नहीं थोडा भी तन में।
मुन्ना अब लगा था पढ़ने रोज पर रोज लगा था बढने
मीठी बोली सिखला करके रखते थे जैसे मधुवन में।
लंदन भेज दिये पढने को मोटर कार दिये चढ़ने को
जब वो वापस घर में आया विष भरा था उसके फन में।
अब वह कहता हू आर यू तब मैं समझा इसका भ्यू
जान गये अब होना क्या है सोचने लगे अब अपने मन में।
जिसको सींचा था बचपन में प्यार किया जीवन के मन में
उसका भी अब क्या कहना कितना मंहगा है ये धन में।
मेरा बचपन / किरण मिश्रा
जहाँ खेतो में उगते है गीत
साँझा चूल्हे में पकते है गीत
वही कहीं किसी गीत के साथ
देखना पेड़ पर
पहन कर दुशाला पहने चढ़ा होगा बचपन मेरा
उसे तह कर ले आना पास मेरे
की ज़िन्दगी बेताब है उससे मिलने को
००
तुम्हें उस देश में
एक ख़ुशनुमा टुकड़ा मिलेगा
वक़्त का
जो छूटा बचपन में
यक़ीनन पता देगा वो तुम्हें
ख़ुशी का ।
००
मेरा बचपन खो गया है
मालवा के वन में
उस को ले आना नहीं तो
मर जाएँगी मेरी अठखेलियाँ ।
००
पलाश से लदे हुए
जंगल को देखा तुम ने
वैसे ही हज़ारो प्रश्नों से लदा मेरा बचपन था
तुम जा रहे हो ढूँढ़ने उसे
सुनो वो करंज, कुसुम या महुआ पर झूल रहा होगा
या बैठा होगा किसी खपरैल की छत पर
पतंग की डोर थामे
उस डोर को खीच ही लाना
अबकी बार अन्तस की गहराई से बाँधूगी उसे फिर से ज़िन्दगी जीनी जो है
००
जहाँ हो धूप के रंग
छाँव के रंग
उदासी के रंग
तो पल में आनन्द के रंग
धरती के रंग
आसमान के रंग
वो और कुछ नहीं
बचपन ही तो है
बचपन हर ग़म से बेगाना होता है / रविन्द्र जैन
बचपन हर ग़म से बेगाना होता है
बचपन हर ग़म …
कोई फ़िक़्र न चिन्ता मस्ती का आलम
जीवन खेल सा लगता है
सुख मिलते हैं राहों में फिर के
घर तो जेल सा लगता है
हो इसी उमर में ख़ुशियों का ख़ज़ाना होता है
बचपन हर ग़म …
हम ढूँढते हैं जीवन भर वो ख़ुशियाँ
बचपन में जो पाते हैं
वो हँसते हुए दिन गाती वो रातें
लौट कर फिर नहीं आते हैं
हो यादों के साए में वक़्त बिताना होता है
बचपन हर ग़म …
बचपन का सूरज / सुरेश यादव
बचपन का सूरज
छोटा था
निकल कर तालाब से सुबह-सुबह
पेड़ पर टंग जाता था
खेत पर जाते हुए
टकटकी बाँधे – मैं
देखता रह जाता था
कभी-कभी तो
चलते-चलते रुक कर
खड़ा हो जाता था
बबूल के काँटों में
सूरज को उलझा कर
बैठता जब मेड़ पर
सूरज को फिर
पसरा छोड़ देता
सरसों के खेत पर
कज़री बाग में छिपते हुए सूरज को
फलांगते हुए कच्ची छतें
निकाल कर लाता था बाहर
और जी चाही देर खेल कर
बेचारे सूरज को
डूब जाने देता था – थका जान कर
बचपन का सूरज
छोटा था
मैं भी छोटा था
बड़ा हो गया हूँ
इतना कि मन सब जान गया है
सूरज भी बड़ा हो गया है
इतना कि ‘ठहर गया है’
धरती घूमने लगी है
जबसे – सूरज के चारों ओर
मैं धरती पर घूमने लग जाता हूँ
जब कभी ताकता हूँ अब
‘ठहरा हुआ सूरज’
…डूबने लग जाता हूँ
बचपन की कविता / मंगलेश डबराल
जैसे जैसे हम बड़े होते हैं लगता है हम बचपन के बहुत क़रीब हैं ।
हम अपने बचपन का अनुकरण करते हैं । ज़रा देर में तुनकते हैं और
ज़रा देर में ख़ुश हो उठते हैं । खिलौनों की दूकान के सामने देर तक
खड़े रहते हैं । जहाँ जहाँ ताले लगे हैं हमारी उत्सुक आँखें जानना चाहती
हैं कि वहाँ क्या होगा । सुबह हम आश्च्रर्य सेचारों ओर देखते हैं जैसे
पहली बार देख रहे हों ।
हम तुरंत अपने बचपन में पहुँचना चाहते हैं । लेकिन वहाँ का कोई
नक्शा हमारे पास नहीं है । वह किसी पहेली जैसा बेहद उलझा हुआ
रास्ता है । अक्सर धुँए से भरा हुआ । उसके अंत में एक गुफ़ा है जहाँ
एक राक्षस रहता है । कभी कभी वहाँ घर से भागा हुआ कोई लड़का
छिपा होता है । वहाँ सख़्त चट्टानें और काँच के टुकड़े हैं छोटे छोटे
पैरों के आसपास ।
घर के लोग हमें बार बार बुलाते हैं । हम उन्हें चिट्ठियाँ लिखते हैं ।
आ रहे हैं आ रहे हैं आएँगे हम जल्दी ।
(1990)
मेरा नया बचपन / सुभद्राकुमारी चौहान
बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।
गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥
चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?
ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?
बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥
किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया।
किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥
रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे।
बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥
मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया।
झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया॥
दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे।
धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे॥
वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई।
लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई॥
लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँगीली थी।
तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी॥
दिल में एक चुभन-सी थी यह दुनिया अलबेली थी।
मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी॥
मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने।
अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने॥
सब गलियाँ उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं।
प्यारी, प्रीतम की रँग-रलियों की स्मृतियाँ भी प्यारी हैं॥
माना मैंने युवा-काल का जीवन खूब निराला है।
आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है॥
किंतु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना।
चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना॥
आ जा बचपन! एक बार फिर दे दे अपनी निर्मल शांति।
व्याकुल व्यथा मिटानेवाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति॥
वह भोली-सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप।
क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप?
मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।
नंदन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी॥
‘माँ ओ’ कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आयी थी।
कुछ मुँह में कुछ लिये हाथ में मुझे खिलाने लायी थी॥
पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतुहल था छलक रहा।
मुँह पर थी आह्लाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा॥
मैंने पूछा ‘यह क्या लायी?’ बोल उठी वह ‘माँ, काओ’।
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा – ‘तुम्हीं खाओ’॥
पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया।
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया॥
मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ।
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ॥
जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया।
भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया॥
बचपन-4 / मुनव्वर राना
मैं वो मेले में भटकता हुआ इक बच्चा हूँ
जिसके माँ-बाप को रोते हुए मर जाना है
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कुछ खिलौने कभी आँगन में दिखाई देते
काश हम भी किसी बच्चे को मिठाई देते
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क़सम देता है बच्चों की, बहाने से बुलाता है
धुआँ चिमनी हमको कारख़ाने से बुलाता है
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किताबों के वरक़ तक जल गए फ़िरक़ापरस्ती में
ये बच्चा अब नहीं बोलेगा बस्ता बोल सकता है
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इन्हे फ़िरक़ापरस्ती मत सिखा देना कि ये बच्चे
ज़मीं से चूम कर तितली के टूटे पर उठाते हैं
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इनमें बच्चों की जली लाशों की तस्वीरें हैं
देखना हाथ से अख़बार न गिरने पाए
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