Hindi Poems on Butterfly या तितली पर हिन्दी कविताएँ. इस आर्टिकल में बहुत सारी हिन्दी कविताओं का एक संग्रह दिया गया है जिनका विषय तितली (Butterfly) पर आधारित है.
Butterfly Poems in Hindi – तितली पर हिन्दी कविताएँ
Contents
- 1 Butterfly Poems in Hindi – तितली पर हिन्दी कविताएँ
- 1.1 तितली / राग तेलंग
- 1.2 तितली / दिनेश बाबा
- 1.3 तितली / निदा नवाज़
- 1.4 तितली / निरंकार देव सेवक
- 1.5 तितली उंगलियों वाले बच्चे-दो / अवतार एनगिल
- 1.6 तानाशाह और तितली / प्रेमचन्द गांधी
- 1.7 तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा / परवीन शाकिर
- 1.8 तितली / त्रिलोक सिंह ठकुरेला
- 1.9 दूब, गुलाब, तितली और मैं / राजकिशोर राजन
- 1.10 तितली / विज्ञान व्रत
- 1.11 तितली का घर / आर.पी. सारस्वत
- 1.12 तितली / सुमित्रानंदन पंत
- 1.13 फूल, पत्ती और तितली / समझदार किसिम के लोग / लालित्य ललित
- 1.14 तितली उंगलियों वाले बच्चे-एक / अवतार एनगिल
- 1.15 मैं तितली हूँ / सूर्यकुमार पांडेय
- 1.16 तमन्ना तितली की / शशि काण्डपाल
- 1.17 तितली से / महादेवी वर्मा
- 1.18 तितली / नर्मदाप्रसाद खरे
- 1.19 तितली-2 / निरंकार देव सेवक
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तितली / राग तेलंग
तितली
परदों वाले घर में रहती थी
हालांकि
कभी.कभार ही निकल पाती थी
घर से बाहर
और जब घर से बाहर निकलती थी देखते ही बनती थी
उसकी बाहें मचलने लगती थीं पंखों की तरह
हवा से बातें करने का हुनर
उमग उठता था भीतर उसके
सब देखते रह जाते थे उसे
वह किसी को तब नज़र भर देखती थी
जब कोई पुकारता था उसे
मन नही मन
ऐ ! तितली !!
तितली / दिनेश बाबा
तितली एक देवाली पर
वहीं सुबचनी जाली पर
पकड़ै के मनसूबा में
छलै बिछुतिया टेबा में
तितली के सुन्दर छै आँख
होकरा से सुन्दर छै पाँख
कलेॅ-कलेॅ हौ ठीक गेलै
तितली के नजदीक गेलै
टिकटिकिया खूंखार बड़ी
झपटै लेॅ तैय्यार खड़ी
मतर पकड़ के पहिनें तितली
उड़ी गेलै बेकहिने तितली
खीझी होकरो चाली पर
बैठलै उड़ी केॅ डाली पर
तितली / निदा नवाज़
(१)
वह वसंत की एक
तितली
और मैं
पतझड़ का
एक फूल
वह रंगों का
एक पर्व
और मैं
रंगों का विलाप
फिर यह संगम कैसा.
(२)
बस देखने में भली है
तितली
छूने से
पकड़ने से
नहीं रहती वह
तितली
रहता है
देह और आत्मा के बीच
फड़फड़ाता
बस एक कीड़ा.
तितली / निरंकार देव सेवक
मै अपने घर से निकली,
तभी एक पीली तितली ।
पीछे से आई उड़कर,
बैठ गई मेरे सिर पर ।
तितली रानी बहुत भली,
मैं क्या कोई फूल-कली ।
तितली उंगलियों वाले बच्चे-दो / अवतार एनगिल
देस के उत्तर में,
उत्तर के पूरब में
मिर्ज़ापुर ज़िले के
अनेक छोटे गाँवों मे
हर सुबह
दो लाख नन्हें अब्दुल
सूरज के साथ-साथ उठ जाते हैं।
और
गूँजता रहता है दिन भर
दोपहर
की धूप में
उन हथकरघों पर
राग देस
देस राग
इसी तरह
सूरज के साथ-साथ
साँझ ढलते ही
अंधी दीवारों के
अंधियारे कोनों में
छिप जाते हैं
दो लाख कबिरे सूरज
सात बजे से सात बजे तक
कुल्लू उस्ताद
जो ख़ुद कालीन बुनता था
बच्चों पर निगरानी रखता है
आँख में घिरते अँधेपन से बेबस
जब कभी
नन्हा अब्दुल
काग़ज़ पर बना डिज़ाईन
कालीन पर उतारते हुए
ग़लत गाँठ बुनता है
काना कल्लू
उसे बाँस की छड़ी से धुनता है
बारह घण्टॉं की
इस उनींदी यात्रा में
अब्दुल रोटी खा सकता है
कालीन की राजकुमारी का
गीत गा सकता है
लघुशंका जा सकता है
पीठ भी खुजला सकता है।
कल सुबह कालीनों की नई खेप
विदेश जाएगी
इसलिये, आज शाम ढले भी
नन्हा अब्दुल
हर तैयार कालीन पर
एक-एक पर्चा टाँक रहा है
जिस पर साफ सुन्दर अक्षरों में छपा है :
केवल बालिगों के श्रम से निर्मित ।
तानाशाह और तितली / प्रेमचन्द गांधी
( हिटलर की जीवनी पढ़ते हुए )
न जाने वह कौनसा भय था
जिससे घबराकर वह बेहद खूबसूरत तितली
तालाब के पानी में गिर पड़ी
भीगे पंखों से उसने उड़ने की कोशिश की
लेकिन उसकी हल्की कोमल काया
पानी पर बस हल्की छपाक-छपाक में ही उलझ गयी
किनारे पर की गंदगी में अनेक जीव थे
जो उसे खा सकते थे
लेकिन नन्ही तितली की चीख उनके कानों तक नहीं पहुँची
तितली ने ईश्वर से प्रार्थना की
ईश्वर ने भविष्य के तानाशाह की आँखों को
तितली की कारूणिक स्थिति देखने को विवश किया
छटपटाती तितली को देखकर उसका मन पसीज गया
उसे तैरना नहीं आता था
फिर भी वह पानी में कूद पड़ा
बड़े जतन के बाद वह तितली को बचाकर लाया
गुनगुनी धूप में तितली जल्द ही सूखकर उड़ने लगी
भविष्य के तानाशाह के कन्धे पर
वह तमगे की तरह बैठी और बाग़ीचे की तरफ उड़ चली
भविष्य के तानाशाह को तितली बहुत पंसद आई
अगले दिन से उसने सफाचट चेहरे पर
तितली जैसी सुंदर मूंछें उगानी शुरू कर दीं
उस तितली के उसने बहुत से चित्र बनाये
उसकी भिनभिनाहट की उसने
कुछ सिम्फनियों से तुलना की
जिस दिन तानाशाह की ताजपोशी हुई
तितलियाँ बहुत घबरायीं
अचानक वे एक दूसरे राष्ट्र में जा घुसीं
तानाशाह ने तितलियों की तलाश में सेना दौड़ा दी
सैनिकों ने तलाशी के लिए
रास्ते भर के फूल
अपने टोपियों और संगीनों में टाँग लिये
लेकिन तितलियाँ उन्हें नहीं मिलीं
तानाशाह ने इस विफलता से घबराकर
तितलियों की छवियाँ तलाश की
जिन सुंदर पुस्तकों में तितलियाँ
और उनके सपने हो सकते थे
वे सब उसने जलवा डालीं
जहाँ कहीं भी तितलियों जैसी
खूबसूरत ख़्वाबजदा दुनिया हो सकती थी
वे सब नष्ट करवा डालीं
अपने आखि़री वक़्त में तानाशाह
पानी में डूबी तितली की तरह चीखा
लेकिन उसे बचाने कोई नहीं आया
जिस बंकर में तानाशाह ने मृत्यु का वरण किया
उसके बाहर उसी तितली का पहरा था
जिसे तानाशाह ने बचाया था.
तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा / परवीन शाकिर
बिछड़ा है जो एक बार तो मिलते नहीं देखा
इस ज़ख़्म को हमने कभी सिलते नहीं देखा
इस बार जिसे चाट गई धूप की ख़्वाहिश
फिर शाख़ पे उस फूल को खिलते नहीं देखा
यक-लख़्त गिरा है तो जड़ें तक निकल आईं
जिस पेड़ को आँधी में भी हिलते नहीं देखा
काँटों में घिरे फूल को चूम आयेगी तितली
तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा
किस तरह मेरी रूह हरी कर गया आख़िर
वो ज़हर जिसे जिस्म में खिलते नहीं देखा
तितली / त्रिलोक सिंह ठकुरेला
रंग बिरंगी चंचल तितली
सबके मन को हरती ।
फूल फूल पर उड़ती रहती
जीवन में रंग भरती॥
जाने किस मस्ती में डूबी
फिरती है इठलाती।
आखिर किसे खोजती रहती
हरदम दौड़ लगाती॥
पीछे पीछे दौड़ लगाता
हर बच्चा मतवाला ।
तितली है या जादूगरनी
सब पर जादू डाला॥
काश, पंख होते अपने
तितली सी मस्ती करते।
हम भी औरों के जीवन में
खुशियों के रंग भरते॥
दूब, गुलाब, तितली और मैं / राजकिशोर राजन
दूब को देखा मैंने गौर से
और हथेलियों से सहलाता रहा
दूब तो दूब ठहरी
लगी थी पृथ्वी को हरा करने में निःशब्द
सुबह का खिला गुलाब था
उसकी रंगत, कँटीली काया और सब्ज़ पत्तों को देखा
बाँट रहा था पृथ्वी को सुगन्ध निःशब्द
मैंने एक तितली का पीछा किया
वह फूलों से अलग बैठी थी घास पर
वह भी मना रही थी उत्सव रंगपर्व का निःशब्द
दूब, गुलाब, तितली सभी निःशब्द
पृथ्वी को समर्पित
मेरे पास सिर्फ़ शब्द थे और भाव
जिनसे लिखी जा सकती थीं कुछ कविताएँ
उस दिन मुझे भरोसा हुआ
दूब, गुलाब, तितली की तरह
मेरे पास भी कुछ है, देने के लिए पृथ्वी को
और उनकी तरह
मेरी भी जगह है पृथ्वी पर।
तितली / विज्ञान व्रत
रंग बाँटती फिरती है,
मौसम की धड़कन तितली!
इंद्रधनुष है पंखों में
बिजली तड़पे अंगों में,
फूलों पर लिखती फिरती
गीत प्यार के रंगों में।
जैसे कोई सपना हो-
किसी फूल का मन तितली!
मन में रेशम सी हलचल
तन में लहरों सी चंचल,
यूँ तो छलना लगती है
फिर भी है भोली निश्छल।
फूल-फूल पर लिखती है-
जीवन की थिरकन तितली!
कभी पास में आती जब
मेरे पास ठहरती कब,
छूती नहीं जरा भी कुछ
टॉफी, बिस्कुट रक्खें सब।
ये क्या, सब कुछ छोड़ चुने-
फूलों का आँगन तितली!
तितली का घर / आर.पी. सारस्वत
सज-धज करके कैसी आई,
मैडम बटर फ्लाई।
इस डाली से उस डाली तक
झट से उड़कर जाती,
फूल-फूल के पास पहुँचकर
हँस-हँसकर बतलाती
हँसते रहना ही जीवन है
सुन लो मेरे भाई!
रंग-बिरंगे पंखों से यह
अपनी ओर लुभाती,
जब भी चाहूँ इसे पकड़ना
लेकिन हाथ न आती!
ऐसी बात इसे दादी जी
है किसने समझाई?
चींटी का घर, चूहों का घर
चिड़िया का भी घर है,
नहीं मिला पर तितली का घर
तुमको पता, किधर है?
ढूँढ़ रहा हूँ कब से, अब तक
दिया नहीं दिखलाई!
तितली / सुमित्रानंदन पंत
नीली, पीली औ’ चटकीली
पंखों की प्रिय पँखड़ियाँ खोल,
प्रिय तिली! फूल-सी ही फूली
तुम किस सुख में हो रही डोल?
चाँदी-सा फैला है प्रकाश,
चंचल अंचल-सा मलयानिल,
है दमक रही दोपहरी में
गिरि-घाटी सौ रंगों में खिल!
तुम मधु की कुसुमित अप्सरि-सी
उड़-उड़ फूलों को बरसाती,
शत इन्द्र चाप रच-रच प्रतिपल
किस मधुर गीति-लय में जाती?
तुमने यह कुसुम-विहग लिवास
क्या अपने सुख से स्वयं बुना?
छाया-प्रकाश से या जग के
रेशमी परों का रंग चुना?
क्या बाहर से आया, रंगिणि!
उर का यह आतप, यह हुलास?
या फूलों से ली अनिल-कुसुम!
तुमने मन के मधु की मिठास?
चाँदी का चमकीला आतप,
हिम-परिमल चंचल मलयानिल,
है दमक रही गिरि की घाटी
शत रत्न-छाय रंगों में खिल!
–चित्रिणि! इस सुख का स्रोत कहाँ
जो करता निज सौन्दर्य-सृजन?
’वह स्वर्ग छिपा उर के भीतर’–
क्या कहती यही, सुमन-चेतन?
रचनाकाल: मई’१९३५
फूल, पत्ती और तितली / समझदार किसिम के लोग / लालित्य ललित
दिल की गहराई से
चाहो
फूल को पत्ती को
और फुदकती कूदती तितली को
कुछ देर फूल को
सहलाओ
पत्ती को पुचकारो
देखोगे तुम
आहिस्ता से आ बैठेगी
तुम्हारी हथेली पर तितली
बिल्कुल वैसे ही
जैसे किसी अनजान अजनबी
बच्चे की ओर –
निष्कपट भाव से देखो
मुस्कराओ
तो पाओगे
बच्चा भी तुम्हें भाव से
देखेगा
तो मेरे दोस्त
एक दूसरे को इसी भाव से
देखो
तो कटुता मिट जाएगी
हमेशा-हमेशा के लिए
क्या तुम नहीं चाहते
कि सब मिल जाए
सब एक हो जाए
देखो एक माला के एक फूल को
देखो
जो अलग छिटका पड़ा है
उसकी गंध होगी तो
पर वो बात नहीं होगी
जो माला की होती है
तो मानो मेरा कहना !
एक सूत्र में रहो
टूटन में क्या है ?
जुड़कर रहो
मजाल है तुम्हें कोई
डिगा दे
तुम्हें कोई हिला दें
समूची धरातल पर
दिखने लगेगा असर
और तुम पाओगे तुम्हारे साथ
होंगे सभी लोग
जिन्हें तुम चाहते हो
और सच्चे मन की मुराद
हमेशा पूरी होती है
अगर किसी को भी चाहो
तो निष्कपट चाहो
पूरे मन से चाहो
पूरी शिद्दत से चाहो
देखो तुम्हारे हाथ में भी
आ बसी हैं तितलियां
देखो तो !
पत्ती भी मुस्कराने लगी है
और फूल भी
अरे समूचा बगीचा ही
मुस्कराने लगा है
गीत खुशी के गाने लगा है
तितली उंगलियों वाले बच्चे-एक / अवतार एनगिल
तीन सियाले पहले
उस औरत ने
बित्ता भर छत
और मुट्ठी भर भात के लिए
तितली के दस पँख
गिरवी रखे थे
ये पँख
उसके सात वर्षीय बेटे के
नन्हें हाथों की उंगलियाँ थीं
दस उंगलियाँ
जाने कब से
पचास साल पुरानी खड्डी पर
नायाब कालीन बुन रही है
हर रात एक शरारती बच्चा
कुल्लू उस्ताद की कानी आँख से
बचकर
उड़ निकलता है
पहुँचता
अपने गाँव
भागता
डगर-डगर
मेढ़-मेढ़
ठगा-सा
हैरान-सा
मुँह बाए
देखता
गुम्बदनुमा सतरंगा धनक
धनक तले एक महल
महल का लोह-द्वार
लोहद्वार में चिने
तितलियों के पँख़-पँख
अनेक पँख
मैं तितली हूँ / सूर्यकुमार पांडेय
मैं उड़ी इधर, मैं उड़ी उधर,
मैं तितली हूँ, उड़ती दिन-भर।
हर फूल मुझे रंगीन लगा
हर डाली मुझको प्यारी है,
जब भी मैं यहाँ-वहाँ उड़ती
तब संग-संग हँसती क्यारी है।
मैं उड़ी कल्पना के नभ में–
अपने सतरंगे पंखों पर।
मैं यहाँ गयी, मैं वहाँ गयी
लेकर पराग घर आयी हूँ,
मैं सबको अच्छी लगती हूँ
मैं सबके मन को भायी हूँ।
मैं सुन्दर सपने देख रही–
इन पंखुड़ियों के बिस्तर पर।
तमन्ना तितली की / शशि काण्डपाल
मैं तितली,
बिन पंख,
बिन रंग,
लेकिन मैं तितली…
उड़ती आँगन पार,
कल्पना के पंख लगा,
हो आती पर्वत पार,
पंखो को अंग लगा,
ना रोके कोई, ना टोके,
मैं तितली…
जान पाई न छुवन फूलों की,
ना ही रस से भीगी नहाई,
ना जानी खुशबू, कड़वी मीठी,
ना ओस से पर भिगा पाई,
ना दौड़ा कोई नन्हा बालक,
मुझे छूने को नंगे पाँव,
ना हाथों के बीच किसी के,
समा पाई…
गिनती हूँ पलों को,
जो बदलते हैं सालों में,
करती हूँ इन्तजार,
पंखों के उग आने का…
चाहूँ कलियों की बहार,
और रंग चारों तरफ,
झूमूं मैं भी फूल-फूल,
डाली- डाली,
भिगोऊँ अपने पैर,
इस पराग से, उस केसर तक…
कर दूँ जंगल हरा भरा,
बों दूं फूलोँ की क्यारियाँ,
गाऊँ गीत रात दिन,
बना दूँ ये दुनियाँ,
एक गुलिस्तान…
ताकि जी सकें हजारों तितलियाँ,
स्वछंद…रंगभरी,
और कर दें इस संसार को,
और भी हसीन,
जहाँ सूरज निकलने से ना शरमाये,
और चाँद भी ख़ुशी ख़ुशी उग आये,
तितलियों के गीत हों,
और रंग ही रंग भर जाएँ…
मन ही मन ये गीत दोहराऊँ,
काश मैं वो दुआ की तितली बन जाऊँ,
दे सकूँ वो विरासत,
आने वाली नाजुक नस्ल को,
यकीन दिलाऊँ
मैं तितली हूँ…
तमाम जीने की खासियत के साथ,
सतरंगी तितली…
तितली से / महादेवी वर्मा
मेह बरसने वाला है
मेरी खिड़की में आ जा तितली।
बाहर जब पर होंगे गीले,
धुल जाएँगे रंग सजीले,
झड़ जाएगा फूल, न तुझको
बचा सकेगा छोटी तितली,
खिड़की में तू आ जा तितली!
नन्हे तुझे पकड़ पाएगा,
डिब्बी में रख ले जाएगा,
फिर किताब में चिपकाएगा
मर जाएगी तब तू तितली,
खिड़की में तू छिप जा तितली।
तितली / नर्मदाप्रसाद खरे
रंग-बिरंगे पंख तुम्हारे, सबके मन को भाते हैं,
कलियाँ देख तुम्हें खुश होतीं, फूल देख मुसकाते हैं!
रंग-बिरंगे पंख तुम्हारे सबका मन ललचाते हैं,
तितली रानी, तितली रानी, यह कह सभी बुलाते हैं!
पास नहीं क्यों आती तितली, दूर-दूर क्यों रहती हो?
फूल-फूल के कानों में जा-जाकर क्या कहती हो?
सुंदर-सुंदर प्यारी तितली, आँखों को तुम भाती हो!
इतनी बात बता दो हमको, हाथ नहीं क्यों आती हो?
इस डाली से उस डाली पर, उड़-उड़ कर क्यों जाती हो?
फूल-फूल का रस लेती हो, हमसे क्यों शरमाती हो!
तितली-2 / निरंकार देव सेवक
दूर देश से आई तितली
चंचल पंख हिलाती,
फूल-फूल पर, कली-कली पर
इतराती-इठलाती ।
यह सुन्दर फूलों की रानी
धुन की मस्त दीवानी,
हरे-भरे उपवन में आई
करने को मनमानी ।
कितने सुन्दर पर हैं इसके
जगमग रंग-रंगीले,
लाल, हरे, बैंजनी, वसन्ती,
काले, नीले, पीले ।
कहाँ-कहाँ से फूलों के रंग
चुरा-चुरा कर लाई,
आते ही इसने उपवन में
कैसी धूम मचाई ।
डाल-डाल पर, पात-पात पर
यह उड़ती फिरती है,
कभी ख़ूब ऊँची चढ़ जाती है
फिर नीचे गिरती है ।
कभी फूल के रस-पराग पर
रुककर जी बहलाती,
कभी कली पर बैठ न जाने
गुप-चुप क्या कह जाती ।
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