Hindi Poems on Books या किताबों पर हिन्दी कविताएँ. इस आर्टिकल में बहुत सारी हिन्दी कविताओं का एक संग्रह दिया गया है जिनका विषय किताबों (Books) पर आधारित है.
Hindi Poems on Books – किताबों पर हिन्दी कविताएँ
Contents
- 1 Hindi Poems on Books – किताबों पर हिन्दी कविताएँ
- 1.1 किताबों का बादशाह / भारत भूषण तिवारी / मार्टिन एस्पादा
- 1.2 किताब / नीलेश रघुवंशी
- 1.3 किताबें / रश्मि रेखा
- 1.4 किताबें / सुभाष शर्मा
- 1.5 मैं किताब खरीद कर पढ़ना चाहता हूँ / देवेन्द्र आर्य
- 1.6 नई किताबें / कुंवर नारायण
- 1.7 किताबों की दुनिया / मुकेश मानस
- 1.8 किताबें / सफ़दर हाशमी
- 1.9 किताब पढ़कर रोना / रघुवीर सहाय
- 1.10 Related Posts:
किताबों का बादशाह / भारत भूषण तिवारी / मार्टिन एस्पादा
कमीलो के साथ किताबें हर कहीं
सफर करतीं, झुर्रीदार चेहरे वाले बेताल
की तरह हिदायतें देती हुई
नजूमी ने हथेली जैसे दबोच ली उसकी
और चेताया उसे
अल सल्वाडोर के बारे में
जहाँ सरहद पर पहरेदार तलाशी लेते हैं किताबों की
उखाड़ लेते है किताबों के पन्ने भी
चे और बगावत जैसे
गैरकानूनी लफ्जों की तस्करी करती हुई
किताबें जैसे थीं डकैत
किताबों की ख़ातिर,
उसकी रीढ़ में राइफल चुभोई गयी
खातिर किताबों के
उसकी ठुड्डी को कुचला एक कुहनी ने;
किताबों की खातिर,
बिजली के तारों ने हौले से लहराईं
शाखें ज़ालिम चिंगारियों की
छद्मावरण ओढ़े कप्तान ने उसे
दीवालतोड़ घूँसे और तर्कसंगत फासीवादी फलसफे
की तालीम देने की कोशिश की;
उसे समझाने में लगे पहरेदार
बार-बार वही सवाल पूछे-पूछ कर उसे
टिकाए रखा खाट पर तब तक
जब तक कोठरी में दाखिल न हो गयी सुबह
और फैल गयी फर्श पर बिना किसी की नज़र पड़े;
जीप में सख्त खामोशी रख कर
नौसैनिक भिड़ गये उसे मनाने के लिए
और बिना किताबों और पैसों के
उसे सरहद पर छोड़ आये अकेला
पर वह नहीं माना
उसके अपार्टमेंट में किताबें फलती-फूलती हैं
किताबों का प्रकोप हो जैसे
ढेर जमा होतीं, बिखरतीं-पड़तीं,
अल सल्वाडोर में
ट्रेज़री पुलिस और सेना के कप्तानों के
बुरे ख़्वाबों को स्याह कर देने वाले टिड्डों के झुंड की भाँति
झुंड छपे हुए शब्दों का,
किताबों के बादशाह
कमीलों के अधीन
कोई प्लेग
किताब / नीलेश रघुवंशी
प्रकाशको!
कम करो किताबों का दाम
किताबें नहीं हैं महँगी शराब
पालो अपने अंदर इच्छा
दौड़ पड़ें बच्चे किताबों के पीछे
दौड़ते हैं जैसे तितली पकड़ने को ।
मैं रखना चाहती हूँ
किताब को उतने ही पास
जितने नज़दीक रहते हैं मेरे सपने
किताबो, तुम साथ रहो
हमारी अधूरी इच्छाओं के
कहीं सिक्कों के जाल में
गुम न हो जाये इच्छाओं का अकेलापन ।
मैं उपहार में देना चाहती हूँ किताबें उन्हें
जो होते-होते मेरे छिप गए
लुका-छिपी के खेल में-
उन्हें भी एक किताब
जो हो नहीं सके मेरे कभी
बाईस बरस की इस ज़िंदगी में
लिख नहीं सकी एक किताब पर भी अपना नाम ।
ओ महँगी किताबो
तुम थोड़ी सस्ती हो जाओ
मैं उतरना चाहती हूँ
तुम्हारी इस रहस्यमयी दुनिया में ।
किताबें / रश्मि रेखा
अपने गहरे एकांत में
बहुत आत्मीय बातें करती हैं क़िताबें
दस्तक देकर आमंत्रित करती हैं
अपने शब्दों के साथ
एक सुदूर लम्बी यात्रा के लिए
नींद में धुलती हैं शमशेर की कविताऍ
साँसों में समा जाती हैं ग़ालिब की शायरी
आत्मा में गहरे उतर आती है मीरां
आसपास ही होते है फैज और मीर
आलमारी में लगी किताबों में
नक्षत्रों सी जगमगाती
कितनी अपनी लगती हैं वे क़िताबें
पिछली उतरती गर्मियों में
जो तुमने दी थीं
चन्दन की उत्कीर्ण कलम के साथ
किताबें / सुभाष शर्मा
एक दिन किताब खोलते ही
मेहँदी रचे दो हाथ नजर आए
और शब्द चित्र प्रेम-पत्र
जो सुगंधित कर रहे थे
पूरी किताब/आलमारी और कोठरी ।
मैंने किताब बंद कर दी
रखने के लिए सुगंध की धरोहर
थोड़ी देर में खोली
दोनों हाथों में मेहँदी
आपस में मिलने से
लाल भभूक हो गई थी
जीवन-रेखा और हृदय-रेखा के बीच
आँखें उग आई थीं
भाग्य-रेखा धनुष बन गई थी
और सूर्य-रेखा तीर
उँगलियाँ भरे तरकश-सी खड़ी थीं
दाहिना अँगूठा
कभी एकलव्य की याद दिलाता था,
कभी द्रोणाचार्य की ।
मणिबंध पर
राखी/चूड़ियों की जगह
निकल रही थी बरगद की जड़ें
तब मेरे सपने साकार होने लगे
शून्य आकार होने लगे ।
चाकू-सी किताबों के
तेज धारदार शब्दों से
मैं बनाना चाहता हूँ अपना घर
अन्यथा किताबों के पन्ने फड़फड़ाने से
भय है
देश के टखनों और सपनों
के टूटने का
किताबें हर चौराहे-नुक्कड़ पर
जोर-जोर से कह रही हैं –
ऐ लेखक मित्रो !
बुआई का मौसम शुरू हो गया है
कलम की नोक से
स्याही की बूँदें नहीं,
नए बीच गिराओ
हर फूल के साथ
काँटे भी बिछाओ
अन्यथा कविता-कहानी का
गर्भपात मत करो,
सिर्फ जज्बात मत भरो
पृष्ठभूमि की माटी साक्षी है –
क्रांति
खूब गेहूँ उपजाकर
नारों की फसल काटकर,
पुतले जलाकर,
इश्क-हुस्न की लोरी सुनाकर,
साकी-जाम छलकाकर नहीं,
ताजी गरम रोटी
के दोनों फलकों को
कृपाण ढाल बनाकर ही लाई जा सकती है ।
अब किताबों से निकलकर
शब्दों की असंख्य कतारें
लगती जा रही हैं
रातें लाली पड़ते ही
पिघलती जा रही हैं
कोणों, आयतों और वर्गों को सुनकर
बेचैन हो रहे हैं शैतान
वे समझने लगे हैं
किताबें आवाम की आवाज हैं
लोगों के आह्वान पर
वे दुकानों से निकलकर
आ गई हैं सड़कों पर ।
मैं किताब खरीद कर पढ़ना चाहता हूँ / देवेन्द्र आर्य
किताब ख़रीद कर पढ़ना चाहता हूँ
मगर हिनाई महसूस होती है
ख़रीद कर पढ़ूँ वो भी साहित्य की क़िताब
तो मतलब साफ़ है कि साहित्यकार नहीं हूँ
हूँ भी तो टुटपुंजिया
यशः प्रार्थी
न अध्यक्षता लायक न विमोचन लायक
न समीक्षक
साहित्यकार होता या किसी पत्रिका का सम्पादक
तो लोग चिरौरी की मुद्रा में
सादर समर्पित करते अपनी किताब
ख़रीद कर वे ही पढ़ते हैं जिनकी कोई हैसियत नहीं होती
और जिनकी हैसियत होती है वे मुफ़्त मिली किताब
कभी नहीं पढ़ते
किसी किताब की दूकान पर
किसी बड़े साहित्यकार को कभी जेब में हाथ डालते
देखा है आपने ?
अव्वल तो वे खादी सिल्क का कुर्ता पहनते हैं बर्राख
जिसमें पर्स रखो तो जेब लटक जाती है
बड़ा ख़राब लगता है लटका-लटका अन्डू की तरह
दोयम यह कि ख़रीद कर ही पढ़ना था
तो नाम के आगे डा० किसलिए लगा है ?
सो बेहतर है
पी०एफ० निकाल कर छपवाई जाएँ किताबें
चढ़ावे की तरह चढ़ाई जाती रहें साहित्य के बाबाओं को
और फिर वहाँ से पहुँचें रद्दी वाले के पास
जैसे भव्य मन्दिरों में चढ़े लडडू
घूम के फिर उन्हीं दुकानों में पहुँच जाते हैं
जहाँ से ख़रीदे गए थे
मैं समीक्षार्थ समर्पित पुस्तकें
रद्दी से अधिया दाम पर ले आता हूँ इस उम्मीद में
कि किताब ख़रीद कर पढ़ने की मेरी हिनाई
एक न एक दिन ख़त्म होगी ज़रूर।
नई किताबें / कुंवर नारायण
नई नई किताबें पहले तो
दूर से देखती हैं
मुझे शरमाती हुईं
फिर संकोच छोड़ कर
बैठ जाती हैं फैल कर
मेरे सामने मेरी पढ़ने की मेज़ पर
उनसे पहला परिचय…स्पर्श
हाथ मिलाने जैसी रोमांचक
एक शुरुआत…
धीरे धीरे खुलती हैं वे
पृष्ठ दर पृष्ठ
घनिष्ठतर निकटता
कुछ से मित्रता
कुछ से गहरी मित्रता
कुछ अनायास ही छू लेतीं मेरे मन को
कुछ मेरे चिंतन की अंग बन जातीं
कुछ पूरे परिवार की पसंद
ज़्यादातर ऐसी जिनसे कुछ न कुछ मिल जाता
फिर भी
अपने लिए हमेशा खोजता रहता हूँ
किताबों की इतनी बड़ी दुनिया में
एक जीवन-संगिनी
थोडी अल्हड़-चुलबुली-सुंदर
आत्मीय किताब
जिसके सामने मैं भी खुल सकूँ
एक किताब की तरह पन्ना पन्ना
और वह मुझे भी
प्यार से मन लगा कर पढ़े…
किताबों की दुनिया / मुकेश मानस
कुछ किताबों में कांटे होते है
जिन्हें खोलते ही कांटे
आंखों में चुभ जाते हैं
कुछ किताबों में फूल होते हैं
जिन्हें खोलते ही
दिल में समा जाते हैं
अच्छी किताब
फूलों की किताब होती है
जिसके हर वरके पर
मुहब्बत की गंध् होती है
रचनाकाल:1988
किताबें / सफ़दर हाशमी
किताबें करती हैं बातें
बीते जमानों की
दुनिया की, इंसानों की
आज की कल की
एक-एक पल की।
खुशियों की, गमों की
फूलों की, बमों की
जीत की, हार की
प्यार की, मार की।
सुनोगे नहीं क्या
किताबों की बातें?
किताबें, कुछ तो कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।
किताबों में चिड़िया दीखे चहचहाती,
कि इनमें मिलें खेतियाँ लहलहाती।
किताबों में झरने मिलें गुनगुनाते,
बड़े खूब परियों के किस्से सुनाते।
किताबों में साईंस की आवाज़ है,
किताबों में रॉकेट का राज़ है।
हर इक इल्म की इनमें भरमार है,
किताबों का अपना ही संसार है।
क्या तुम इसमें जाना नहीं चाहोगे?
जो इनमें है, पाना नहीं चाहोगे?
किताबें कुछ तो कहना चाहती हैं,
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं!
-साभार: दुनिया सबकी
किताब पढ़कर रोना / रघुवीर सहाय
रोया हूँ मैं भी किताब पढकर के
पर अब याद नहीं कौन-सी
शायद वह कोई वृत्तांत था
पात्र जिसके अनेक
बनते थे चारों तरफ से मंडराते हुए आते थे
पढता जाता और रोता जाता था मैं
क्षण भर में सहसा पहचाना
यह पढ़ता कुछ और हूँ
रोता कुछ और हूँ
दोनों जुड गये हैं पढना किताब का
और रोना मेरे व्यक्ति का
लेकिन मैने जो पढा था
उसे नहीं रोया था
पढने ने तो मुझमें रोने का बल दिया
दुख मैने पाया था बाहर किताब के जीवन से
पढ़ता जाता और रोता जाता था मैं
जो पढ़ता हूँ उस पर मैं नही रोता हूँ
बाहर किताब के जीवन से पाता हूँ
रोने का कारण मैं
पर किताब रोना संभव बनाती है.
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