Hindi Poems on Birds या पक्षियों पर हिन्दी कविताएँ. इस आर्टिकल में बहुत सारी हिन्दी कविताओं का एक संग्रह दिया गया है जिनका विषय पक्षियों (Birds) पर आधारित है.
Hindi Poems On Birds – पक्षियों का हिन्दी कविताएँ
Contents
- 1 Hindi Poems On Birds – पक्षियों का हिन्दी कविताएँ
- 1.1 पक्षी और तारे / आलोक धन्वा
- 1.2 पशु-पक्षी / नरेश अग्रवाल
- 1.3 शहर में आग-पक्षी / निकलाई असेयेफ़
- 1.4 एक रात के बिछड़ने तै दो पक्षी काल हो लिए / दयाचंद मायना
- 1.5 एक पक्षी / सुतिन्दर सिंह नूर
- 1.6 मुझे पता है क्यों गाता है पिंजरे का पक्षी / बालकृष्ण काबरा ’एतेश’ / माया एंजलो
- 1.7 काश, हम पक्षी हुए होते / कुमार रवींद्र
- 1.8 एक अजनबी पक्षी / विनोद कुमार शुक्ल
- 1.9 सोने की चिड़िया और प्रवासी पक्षी / राकेश प्रियदर्शी
- 1.10 पक्षियों जैसा आदमी / अमरजीत कौंके
- 1.11 पक्षी / नरेश अग्रवाल
- 1.12 पक्षी बिजली का तार और एक पेड़ / रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
- 1.13 खिड़की की कॉर्निस पर दो पक्षी हैं / लाल्टू
- 1.14 पक्षी उड़ आएँगे / महेंद्रसिंह जाडेजा
- 1.15 उड़-उड़ जाते पक्षी/ अशोक लव
- 1.16 जहाज पर पक्षी / वेणु गोपाल
- 1.17 पक्षी और बादल / रामधारी सिंह “दिनकर”
- 1.18 पक्षी भी रोते हैं / विष्णु नागर
- 1.19 Related Posts:
पक्षी और तारे / आलोक धन्वा
पक्षी जा रहे हैं और तारे आ रहे हैं
कुछ ही मिनटों पहले
मेरी घिसी हुई पैंट सूर्यास्त से धुल चुकी है
देर तक मेरे सामने जो मैदान है
वह ओझल होता रहा
मेरे चलने से उसकी धूल उठती रही
इतने नम बैंजनी दाने मेरी परछाई में
गिरते बिखरते लगातार
कि जैसे मुझे आना ही नहीं चाहिए
पशु-पक्षी / नरेश अग्रवाल
बहुत सारे पशु-पक्षी
लाये गये हैं
जंगल से पकडक़र
अब आदमी पर
विश्वास करना
उनकी मजबूरी है
और शोर मचाना गुनाह ।
शहर में आग-पक्षी / निकलाई असेयेफ़
गिलास में रखी टहनी की ताजा महक
कमरे के भीतर से सीधा ले गई खेत में
बाहर थी बारिश और ओले
और गाँव को घेंरे रात के गीत।
पुस्तकों और मित्रों के साथ
बहस में उलझ गई थी महक,
ताजगी ने टुकड़े-टुकड़े कर दिये घर और विवेक के
सड़कें शोर कर रही थी बेवजह
रात को समेट कर कोई फेंक आया था झाड़ में।
सहमे-सहमे बादलों के बीच चमक रही थी बिजली
खिड़कियों को लुभाती बुला रही थी पास :
‘निकल आओ बाहर, ओ प्रिय,
मैं इतनी ऊँचाई पर हूँ नहीं
चाहो तो गिर सकती हूँ मेज पर तुम्हारे पास।
प्रिय, निकल आओ बाहर
घरों से, वाद-विवाद और जख्मों से
वरना हवाएँ घोंट डालेगी गला शहर का
रौंदे गये पुदीने के अपराध में।
अन्यथा चिमनियों को उगलना होगा धुआँ आकाश में
मुरझाना पड़ेगा सेवों को तुम्हारे उद्यान में,
तुमने मुझे पहचाना नहीं?
मैं ही हूँ वह आग-पक्षी
फँसूँगा नहीं आग के पिंजरे में।
शहर भरा पड़ा है धुएँ, कीचड़ और कड़वाहट से,
सेठों की दुकानों में फड़फड़ाहट है, पर पते नहीं।
ओ प्रिय, भाग आओ बाहर पहाड़ी की तरफ
जिस पर सीढ़ी से चढ़ सकती हो तुम।
श्वेत सागर की लहरों जैसे चौंधियाते आकाश में
लक्ष्य साधा है खड़िया से भी सफेद लहर ने
भाषा और शहर दोनों पड़ गये हैं गूँगे
सन से कहीं अधिक चमकती वह
सबको लगा रही है अपने गले।
पेटी को गियर पर रखने में सफल हुआ
भोंपू में से भाप… साधारण-सी यह दंतकथा :
बारिश और ओलों के बीच टेढ़ी तीव्र गति से
अंगुलियों में सरासराहट पैदा करता है पूँछ का एक पर।
एक रात के बिछड़ने तै दो पक्षी काल हो लिए / दयाचंद मायना
एक रात के बिछड़ने तै दो पक्षी काल हो लिए
मनै अंजना गौरी का मुँह देखे, ग्यारा साल हो लिए…टेक
शादी करकै मुँह देख्या ना, यो मोटा गुनाह सै
मनै बात तलक कोन्या बूझी, जिस दिन तै होया ब्याह सै
वा क्यूकर डटती होगी अंजना साल ग्यारवां जा सै
जब पक्षी इतना प्रेम करैं, उस अंजना का के राह सै
हाँसी खेल पति बिन डटणा जुलम कमाल हो लिए…
हुए ग्यारह वर्ष रही गरीब तरस, दुख गात फुँकता होगा
मनैं बोहत सताई अंजना ब्याही का ब्रह्म दूखता होगा
ओढ़ण-पहरण न्हाण-खाण का टेम ऊकता होगा
रो-रो कै आख्यां का पाणी, रोज सूखता होगा
ईब चलकै भरणे चाहिए, जल बिन खाली ताल हो लिए…
किस्मत की माड़ी, करै धौली साड़ी, ना देखे चीर जरी सै
हँसली, कण्ठी, हार नार की सारी टूम धरी सै
जित मौके पै पाणी घलज्या, वे इब लग खुद हरी सै
मची हरियाली एक ना खाली, सब की गोद भरी सै
अंजना के साथ की बीरां कै तै, कई-कई लाल हो लिए…
कहै ‘दयाचन्द’ दुख भरै बीर, इसे मर्द कसाई धोरै
कदे ना हँस कै नार प्यार तै मनै बुलाई धोरै
मैं अंजना तै दूर रहूँ, सब लोग लुगाई धोरै
याड़ै दो दिन फौज डाट मंत्री मैं जांगा ब्याही धोरै
मनैं जो अंजना तै बचन भर, वो खत्म सवाल हो लिए…
एक पक्षी / सुतिन्दर सिंह नूर
तेरे आने के बाद
एक पक्षी
मेरे अन्दर घोंसला बनाता है
गहराइयों में खो जाता है।
तेरे जाने के बाद
एक पक्षी
खुले आकाश में उड़ता है
उकाब की भांति
अंतरिक्षों को चीरता है
और खो जाता है।
मूल पंजाबी भाषा से अनुवाद : सुभाष नीरव
मुझे पता है क्यों गाता है पिंजरे का पक्षी / बालकृष्ण काबरा ’एतेश’ / माया एंजलो
एक मुक्त पक्षी उछलता
हवा में और उड़ता चला जाता
जहाँ-जहाँ तक बहाव
समोता अपने पंख नारंगी सूर्य किरणों में
जमाता आकाश पर अपना अधिकार।
लेकिन वह पक्षी जो करता विचरण अपने सँकरे पिंजरे में
कदाचित ही वह हो पाता अपने क्रोध से बाहर
काट दिए गए हैं उसके पंख, बान्ध दिए गए हैं पैर
इसलिए खोलता अपना गला वह गान के लिए।
गाता है पिंजरे का पक्षी भयाकुल स्वर में
गीत अज्ञात पर जिसकी चाह आज भी
उसकी यह धुन सुनाई देती सुदूर पहाड़ी तक
कि पिंजरे का पक्षी गाता है मुक्ति का गीत।
मुक्त पक्षी का इरादा एक और उड़ान का
और मौसमी बयार बहती मन्द-मन्द
होती सरसराहट वृक्षों की
मोटी कृमियाँ करती प्रतीक्षा सुबह चमकीले लॉन में
और आकाश को करता वह अपने नाम।
लेकिन पिंजरे का पक्षी खड़ा है अपने सपनों की क़ब्र पर
दु:स्वप्न की कराह पर चीख़ती है उसकी परछाई
काट दिए गए हैं उसके पंख, बाँध दिए गए हैं पैर
इसलिए खोलता अपना गला वह गान के लिए।
गाता है पिंजरे का पक्षी
भयाकुल स्वर में गीत अज्ञात
पर जिसकी चाह आज भी
उसकी यह धुन सुनाई देती सुदूर पहाड़ी तक
कि पिंजरे का पक्षी गाता है मुक्ति का गीत।
मूल अँग्रेज़ी से अनुवाद : बालकृष्ण काबरा ’एतेश’
काश, हम पक्षी हुए होते / कुमार रवींद्र
काश !
हम पक्षी हुए होते
इन्हीं आदिम जंगलों में घूमते हम
नदी का इतिहास पढ़ते
दूर तक फैली हुई इन घाटियों में
पर्वतों के छोर छूते
रास रचते इन वनैली वीथियों में
फुनगियों से
बहुत ऊपर चढ़
हवा में नाचते हम
इधर जो पगडंडियाँ हैं
वे यहीं हैं खत्म हो जातीं
बहुत नीचे खाई में फिरती हवाएँ
हमें गुहरातीं
काश !
उड़कर
उन सभी गहराइयों को नापते हम
अभी गुज़रा है इधर से
एक नीला बाज़ जो पर तोलता
दूर दिखती हिमशिला का
राज़ वह है खोलता
काश !
हम होते वहीं
तो हिमगुफा के सुरों की आलापते हम
एक अजनबी पक्षी / विनोद कुमार शुक्ल
एक अजनबी पक्षी
एक पक्षी की प्रजाति की तरह दिखा
जो कड़ी युद्ध के
पहले बम विस्फोट की आवाज से
डरकर यहाँ आ गया हो।
हवा में एक अजनबी गंध थी
साँस लेने के लिए
कुछ कदम जल्दी-जल्दी चले
फ़िर साँस ली।
वायु जिसमें साँस ली जा सकती है
यह वायु की प्रजाति है
जिसमें साँस ली जा सकती है।
एक मनुष्य मनुष्य की प्रजाति की तरह
साइरन की आवाज सुनते हीं
जान बचाने गड्ढे में कूद जाता है।
गड्ढे किनारे टहलती हुई
एक गर्भवती स्त्री
एक मनुष्य जीव को जन्म देने
सम्भलकर गड्ढे में उतर जाती है
पर कोई मनुष्य मर जाता है।
इस मनुष्य होने के अकेलेपन में
मनुष्य की प्रजाति की तरह लोग थे।
सोने की चिड़िया और प्रवासी पक्षी / राकेश प्रियदर्शी
सोने की चिड़िया कहे जानेवाले देश में
सफेद बगुलों ने आश्वासनों के इन्द्रधनुषी
सपने दिखाकर निरीह मेमनों की आंखें
फोड़ डाली हैं
मेमने दाना-पानी की जुगाड़ में व्यस्त हैं.
सफेद बगुले आलीशान पंचतारा होटलों
में आजादी का जश्न मना रहे हैं
प्रवासी पक्षियों के समूह सोने की चिड़िया
कहे जाने वाले देश के वृक्षों पर अपने घोंसले
बना रहे हैं और देशी चिड़ियों के समूह
खाली वृक्ष की तलाश में भटक रहे हैं
कुछेक साल देशी चिड़िया को लगातार सौंदर्य
का ताज पहनाया गया और प्रवासी पक्षी
अपना स्थान बनाने की खुशी में गीत गुनगुना रहे हैं
वृक्ष पर बैठे प्रवासी पक्षियों की बीट से
पुण्य भूमि पर पाश्चात्य गंदगी फैल रही है
विश्व गुरु कहे जानेवाले देश में गुरु पीटे जा रहे हैं
और चेले प्रेमिकाओं संग व्यस्त हैं
शिक्षा व्यवस्था का बोझ गदहों की पीठ पर
लाद दिया गया है
अपने निहित स्वार्थ के लिए सफेद
बगुले लगातार देश को बांटने की साजिश में लगे हैं
देश जितना बंटेगा कुर्सियां उतनी ही सुरक्षित होंगी
महाभारत आज भी जारी है
भूखे-नंगे लोग युद्ध क्या करेंगे, मारे जा रहे हैं
बिसात आज भी बिछी है
द्युत खेला जा रहा है ‘कौन बनेगा करोड़पति’
जैसे टीवी सीरियल देखकर बच्चे ही नहीं,
तथाकथित बुद्धिजीवी भी फोन डायल कर रहे हैं
हवा में तैर रहा है बिना परिश्रम के
करोड़पति बनने का सवाल –
प्रवासी पक्षी अगली सदी तक कितने अण्डे देंगे?
पक्षियों जैसा आदमी / अमरजीत कौंके
साँझ ढले
वह घने पेड़ों के पास आता
साईकिल से उतर कर
हैंडल से थैला उतारता
घँटी बजाता
घँटी की टनाटन सुन कर
पेड़ों से उड़ते
छोटे-छोटे पक्षी आते
उसके सिर पर
कुछ उसके कँधें पर बैठ जाते
कुछ साईकिल के हैंडल पर
जैसे दावत खाने के लिये
आन सजते शाही मेहमान
वह अपने थैले में से
दानों की एक मुट्ठी निकालता
अपनी हथेली खोलता
पक्षी उसके हाथों पर बैठ कर
चुग्गा चुगने लगते
चहचहाते
उसके हाथ उन के लिए
प्लेटें जैसे
शाही दावत वाली
सोने चांदी की
चुग्गा चुग कर
पक्षी उड़ जाते
वह आदमी खाली थैला
हैंडल से लटकाता
घँटी बजाता
चला जाता
हैरान होता देख कर मैं
पक्षियों की यह अनोखी दावत
कितना सुखद अहसास है
ऐसे समय में
परिंदों को चुग्गा चुगाना
लेकिन पक्षियों को
हथेलियों पर चुग्गा चुगाने के लिये
पहले खुद पक्षियों जैसा
पड़ता है होना।
पक्षी / नरेश अग्रवाल
कितने अच्छे लगते हैं
ये पक्षी
जब उतरते हैं धीरे-धीरे
आसमान से
बहते हुए पत्तों की तरह
और अपना पूरा शरीर
ढ़ीला-ढ़ाला कर
रख देते हैं जमीन पर
फिर कुछ देर खाते-पीते हैं
फुदकते हैं इधर-उधर और
वापस उड़ जाते हैं
अपनी पूरी ताकत से,
बिना किसी शोर के बादलों में
वाष्पित जल की तरह ।
देखता हूँ हर दिन
इसी तरह इनका आना और जाना
और चिन्तित नहीं देखा इन्हें कभी
आने वाले कल के लिए ।
पक्षी बिजली का तार और एक पेड़ / रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
जब पेड़ था तो पक्षी उसके दोस्त थे
एक दिन पेड़ न जाने कहाँ चला गया
मैं जब भी फ़ोटो खींचता हूँ
चाहता हूँ पक्षी शाखों पर मिलें
बिजली के तारों से बचता हूँ
मेरे कैमरे में भी कुछ तार हैं
फ़्रेम में अक्सर तार आ ही जाते है ।
मुझे तारों से शिकायत नहीं
पर वे फ़्रेम में आते हैं और पेड़ को हटा कर
खिड़की की कॉर्निस पर दो पक्षी हैं / लाल्टू
खिड़की की कॉर्निस पर दो पक्षी हैं
चिड़िया कहता हूँ उन्हें
मन ही मन कई सारे नाम दुहराता
मैना, चिरैया आदि सोचते हुए फूलों के नाम भी सोचने लगता हूँ
यहाँ से हर रोज़ पक्षी दिखते हैं
ऋतुओं के साथ पक्षी बदलते हैं
आजकल कोई देसी नामों से उन्हें नहीं पहचानता
इण्डियन फ़ेज़ेंट का हिन्दी नाम कौन है जानता
पक्षियों के नाम न जानने से जो तकलीफ़ थी, फूलों के नाम सोचने पर वह कम हुई है
जैसे कोई बुख़ार उतर-सा गया है, या तुम्हारे न होने की तकलीफ़ कम हो
गई है
तुमसे दूर रहना भी एक बीमारी है
जिसे किसी अस्पताल में जाँचा नहीं जा सकता
मैं बीमार और डाक्टर भी मैं हूँ
अनजाने ही पक्षियों फूलों के साथ सोचते हुए
अपना इलाज कर बैठता हूँ
देसी नाम भूलकर भूला बचपन
पक्षियों को दुबारा देखते हुए याद आता है टुकड़ों में
बचपन, कैशोर्य, कुछ निश्छल प्रतिज्ञाएँ ।
प्रतिज्ञाएँ सोचते हुए डर लगता है
इंकलाब जैसे शब्द अब कविता में थोड़े ही लिखे जा सकते हैं
जो वैज्ञानिक है उसे विज्ञान
जो अर्थशास्त्री उसे अर्थशास्त्र लिखना है
मैं जो सपनों की चीर-फाड़ करता हूँ
मुझे कभी तो लिखना है सपनों पर
आलोचक बतलाएँगे कि सपना आत्मीय शब्द नहीं है ।
खिड़की की कार्निस पर दो पक्षी हैं
चिडिय़ा कहता हूँ उन्हें ।
पक्षी उड़ आएँगे / महेंद्रसिंह जाडेजा
तुम रुको,
मैं अपने पदचिह्नों से कहता हूँ
कि वे चले आएँ
नहीं तो
रात में रास्ता नहीं मिलेगा
और
समय को मेरे पदचिह्न खो जाने की
चिंता हुआ करेगी ।
और देखो
फूल मुरझाएँ नहीं
सूरज को किसी पहाड़ के पीछे
रहने को कहना
और कोई पक्षी आए तो उसे
मेरा वह
खड़ी फ़सल जैसा
हरियाला गीत सुनाना ।
तितलियाँ फूलों के साथ
बातें करने को आएँगीं
वो सुनना
और मुझे आने में
अगर देर हो जाए तो
मेरा वह
खेत के खड़ी फ़सल जैसा
हरियाला गीत
तुम फिर से गाना,
पक्षी उड़ आएँगे…
मूल गुजराती भाषा से अनुवाद : क्रान्ति
उड़-उड़ जाते पक्षी/ अशोक लव
पक्षी नहीं रहते सदा
एक ही स्थान पर
मौसम बदलते ही बदल लेते हैं
अपने स्थान
सर्दियों में गिरती है जब बर्फ
छोड़ देते हैं घर-आँगन
उड़ते हैं
पार करते हैं हजारों-हज़ार किलोमीटर
और तलाशते हैं
नया स्थान
सुख-सुविधाओं से पूर्ण
अनुकूल परिस्थितियों का स्थान
सूरज जब खूब तपने लगता है
धरती जब आग उगलने लगती है
सूख जाते हैं तालाब
नदियाँ बन जाती हैं क्षीण जलधाराएँ
फिर उड़ जाते हैं पक्षी
शीतल हवाओं की तलाश में
फिर उड़ते हैं पक्षी हजारों-हज़ार किलोमीटर
फिर तलाशते हैं नया स्थान
और बनाते हैं उसे अपना घर
ऋतुएं होती रहती हैं परिवर्तरित
पक्षी करते रहते हैं परिवर्तरित स्थान
पक्षियों के उड़ जाते ही
छा जाता है सन्नाटा
पंखों में नाचने वाली हवा
उदास होकर बहती है खामोशियों की गलियों में
वेदानाओं से व्यथित वृक्ष हो जाते हैं पत्थर
शापित अहल्या के समान
खिखिलाते पत्तों की हंसी को
लील जाती है काली नज़र
बन जाती है इतिहास
पक्षियों की जल-क्रीड़ाएं
उदास लहरें लेती रहती हैं
ओढ़कर निराशा की चादरें
पुनः होती है परिवर्तरित
पुनः आ जाते हैं पक्षी
हवाएँ गाने लगती हैं स्वागत गीत
चहकती हैं
अल्हड़ युवती-सी उछलती-कूदती हैं
झूमाती-झूलाती टहनी-टहनी पत्ते-पत्ते
बजने लगते हैं लहरों के घूँघरू
लौट आते हैं त्योहारों के दिन
वृक्षों, झाड़ियों नदी किनारों पर
एक तीस-सी बनी रहती है फिर भी
आशंकित रहते हैं सब
उड़ जायेंगे पुनः पक्षी एक दिन
जहाज पर पक्षी / वेणु गोपाल
उड़ना
बार-बार
और हर बार उसी जहाज पर लौट आना
अब नहीं होगा।
दूर ज़मीन दिखाई पड़ने लगी है
जहाज
बस, किनारा छूने ही वाला है
लेकिन
मैं फिर भी बेचैन हूँ
अब तक तो सब-कुछ तय था।
उड़ान की दिशाएँ भी।
उड़ान की नियति भी कि अपार
जलराशि के ऊपर थोड़ी देर पंख
फड़फड़ा लेना है
और फिर दुबारा लौटकर फिर वहीं आ जाना है।
अब
सब-कुछ मेरी मरज़ी पर निर्भर होगा
चाहूँ तो पहाड़ों की तरफ़ जा सकूंगा
जंगल की तरफ़ भी। या फिर से
आ सकूंगा किनारे पर खड़े जहाज की तरफ़।
भावी आज़ादी पंखों में फुरहरी
जगा रही है। ख़ुद को
बदलते पा रहा हूँ। और यह सब
ज़मीन के चलते
जो दिखाई पड़ने लगी है
पक्षी हूँ। पर
आसमान से ज़्यादा
ज़मीन से जुड़ा हूँ।
आँखों में अब ज़मीन ही ज़मीन है…।
और वे पेड़, जिन पर अगली रातों में
बसेरा करूंगा
वे पहाड़, जिन्हें पार करूंगा।
वे जंगल, जहाँ ज़िन्दगी बीतेगी
और ये सब एक निषेध है
कि पक्षी को
समुद्री-यात्रा पर जा रहे जहाज की ओर
मुँह नहीं करना चाहिए।
पक्षी और बादल / रामधारी सिंह “दिनकर”
ये भगवान के डाकिये हैं,
जो एक महादेश से
दूसरे महादेश को जाते हैं।
हम तो समझ नहीं पाते हैं,
मगर उनकी लायी चिठि्ठयाँ
पेड़, पौधे, पानी और पहाड़
बाँचते हैं।
हम तो केवल यह आँकते हैं
कि एक देश की धरती
दूसरे देश को सुगन्ध भेजती है।
और वह सौरभ हवा में तैरती हुए
पक्षियों की पाँखों पर तिरता है।
और एक देश का भाप
दूसरे देश का पानी
बनकर गिरता है।
पक्षी भी रोते हैं / विष्णु नागर
उसके दोस्त ने उसे समझाया
मत रो, फफक-फफककर मत रो
पक्षी क्या कभी रोते हैं?
उसने जवाब दिया, तो क्या मैं पक्षी हूँ?
फिर उसने कुछ रूककर कहा-
लेकिन तुझे क्या पता…
पक्षी भी रोते हैं, रोते हैं, बहुत रोते हैं
और वह फिर से रोने लगा।
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