Bhagat Singh Poems अर्थात इस आर्टिकल में आप पढेंगे, भगत सिंह पर हिन्दी कविताएँ, जिन्होंने भारत देश की आज़ादी के लिए अपने दोनों साथियों राजगुरु और सुखदेव के साथ बलिदान दे दिया था, लेकिन फिर भी वे अमर हैं! अलग-अलग कवियों ने उनपर कवितायेँ लिखी हैं.
Bhagat Singh Poems – भगत सिंह पर हिन्दी कविताएँ
Contents
- 1 Bhagat Singh Poems – भगत सिंह पर हिन्दी कविताएँ
- 1.1 भगत सिंह / नीलाभ
- 1.2 भगतसिंह से / शैलेन्द्र
- 1.3 शहीदों की याद में / अज्ञात रचनाकार
- 1.4 नई सदी में भगत सिंह की स्मृति / शशिप्रकाश
- 1.5 तुम्हे कैसे याद करूँ भगत सिंह? / अशोक कुमार पाण्डेय
- 1.6 भगत सिंह से ऊँचा / विजेता मुद्गलपुरी
- 1.7 भगत सिंह की माशूका / सीमा संगसार
- 1.8 भगत सिंह / श्वेता राय
- 1.9 तुम कौन थे भगत सिंह / राजीव रंजन प्रसाद
- 1.10 भगत सिंह के नाम / मुकेश मानस
- 1.11 भगत सिंह ने पहली बार / पाश
- 1.12 भगत सिंह के लिए / त्रिपुरारि कुमार शर्मा
- 1.13 भगत सिंह / उदयप्रताप सिंह
- 1.14 भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के बलिदान / श्रीकृष्ण सरल
- 1.15 Related Posts:
भगत सिंह / नीलाभ
एक आदमी
अपने अंशों के योग से
बड़ा होता है
ठहरिए !
इसे मुझको
ठीक से कहने दीजिए ।
एक ज़िन्दा आदमी
बड़ा होता है
अपने अंशों के योग से
अपन बाक़ी तो
उससे कम ही
ठहरते आए हैं ।
भगतसिंह से / शैलेन्द्र
भगतसिंह ! इस बार न लेना काया भारतवासी की,
देशभक्ति के लिए आज भी सज़ा मिलेगी फाँसी की !
यदि जनता की बात करोगे, तुम गद्दार कहाओगे–
बम्ब सम्ब की छोड़ो, भाषण दिया कि पकड़े जाओगे !
निकला है कानून नया, चुटकी बजते बँध जाओगे,
न्याय अदालत की मत पूछो, सीधे मुक्ति पाओगे,
काँग्रेस का हुक्म; ज़रूरत क्या वारंट तलाशी की !
मत समझो, पूजे जाओगे क्योंकि लड़े थे दुश्मन से,
रुत ऐसी है आँख लड़ी है अब दिल्ली की लंदन से,
कामनवैल्थ कुटुम्ब देश को खींच रहा है मंतर से–
प्रेम विभोर हुए नेतागण, नीरा बरसी अंबर से,
भोगी हुए वियोगी, दुनिया बदल गई बनवासी की !
गढ़वाली जिसने अँग्रेज़ी शासन से विद्रोह किया,
महाक्रान्ति के दूत जिन्होंने नहीं जान का मोह किया,
अब भी जेलों में सड़ते हैं, न्यू-माडल आज़ादी है,
बैठ गए हैं काले, पर गोरे ज़ुल्मों की गादी है,
वही रीति है, वही नीति है, गोरे सत्यानाशी की !
सत्य अहिंसा का शासन है, राम-राज्य फिर आया है,
भेड़-भेड़िए एक घाट हैं, सब ईश्वर की माया है !
दुश्मन ही जब अपना, टीपू जैसों का क्या करना है ?
शान्ति सुरक्षा की ख़ातिर हर हिम्मतवर से डरना है !
पहनेगी हथकड़ी भवानी रानी लक्ष्मी झाँसी की !
1948 में रचित
शहीदों की याद में / अज्ञात रचनाकार
रचनाकाल: सन 1931
फांसी का झूला झूल गया मर्दाना भगतसिंह,
दुनिया को सबक दे गया मस्ताना भगतसिंह।
राजगुरु से शिक्षा लो, दुनिया के नवयुवको!
सुखदेव से पूछो, कहां मस्ताना भगतसिंह।
रोशन कहां, अशफ़ाक़ और लहरी, कहां बिस्मिल,
आज़ाद से था सच्चा दोस्ताना भगतसिंह।
स्वागत को वहां देवगण में इंद्र भी होंगे,
परियां भी गाती होंगी ये तराना भगतसिंह।
दुनिया की हर एक चीज़ को हम भूल क्यों न जाएं,
भूलें न मगर दिल से मस्ताना भगतसिंह।
भारत के पत्ते-पत्ते में सोने से लिखेगा,
राजगुरु, सुखदेव और मस्ताना भगतसिंह।
ऐ हिंदियो, सुन लो, ज़रा हिम्मत करो दिल में,
बनना पड़ेगा सबको अब दीवाना भगतसिंह।
नई सदी में भगत सिंह की स्मृति / शशिप्रकाश
एक दुर्निवार इच्छा है
या एक पाग़ल-सा संकल्प
कि हमें तुम्हारा नाम लेना है एक बार
किसी शहर की व्यस्ततम सड़क के बीचो-बीच खड़ा होकर
एक नारे, एक विचार, एक चुनौती
या एक स्वगत-कथन की तरह,
जैसे कि पहली बार,
और अपने को एकदम नया महसूस करते हुए ।
नहीं,
यह कोई क़र्ज़ उतारना नहीं,
देश की छाती से कोई बोझ हटाना भी नहीं
विस्मृति की ग्लानि का,
(वह यूँ कि जब स्मृति थी
तब भी कितना था परिचय वास्तव में ?)
यह तो महज़
अन्धेरे में रख दिए गए एक दर्पण के बारे में
कुछ बातचीत करनी है अपने-आप से।
सोचना है कि अन्धेरे तक
किस तरह ले जाया गया था वह दर्पण
और किस तरह अन्धेरा लाया जा रहा है आज
हर उस जगह
जहाँ कोई दर्पण है।
जहाँ भी परावर्तन की सम्भावना,
किरणों का प्रवेश वर्जित है
और कहीं आग लग रही है
कहीं गोली चल रही है ।
हमें तुम्हारा नाम लेना है
उठ खड़े होने की तरह,
देश को धकापेल बनाने या
वाशिंगटन डी०सी० का कूड़ाघर बनाने की
बर्बर-असभ्य या
कला-कोविद कोशिशों के विरुद्ध ।
नहीं, यह कोई भाव-विह्वल श्रद्धाँजलि नहीं,
यह नीले पानी वाली उस गहरी झील तक
फिर एक यात्रा है
उग आए झाड़-झँखाड़ों के बीच
खो गया रास्ता खोजने की कोशिश करते हुए,
या शायद, कोई भी राह बनाकर वहाँ तक पहुँचने की जद्दोजहद-भर है,
या शायद ऐसा कुछ
जैसे हम किसी विचार के छूटे हुए सिरे को
पकड़ते हैं
आगे खींचने के लिए ।
हमें तुम्हारा नाम लेना है
इसलिए कि तुम्हारे नामलेवा नहीं ।
संसद के खंभे भी तुम्हारा नाम लेते हैं
बिना किसी उच्चारण दोष के
और वातानुकूलित सभागारों में
तुम्हारी तस्वीरें हैं और फूल-मालाएँ हैं
और धूपबत्तियों का ख़ुशबूदार धुआँ है ।
एक ख्यातिलब्ध राजनयिक कहता है
कि तुम प्रयोग कर रहे थे क्राँति के साथ
और बाज़ार सुनता है
और रक्त-सने हत्यारे हाथों से
विमोचित हो रही है
तुम्हारी शौर्य-गाथा पर आधारित नई बिकाऊ किताब
और एक बूढ़ा विलासी पियक्कड़-पत्रकार
अपने अख़बारी कालम में तुम्हें याद करता हुआ
अपने पूर्वजों के पाप धो रहा है ।
हमें तुम्हारा नाम लेना है
कि वे लोग ख़ूब ले रहे हैं तुम्हारा नाम
जिन्हें ख़तरा है
लोगों तक पहुँचने से तुम्हारा नाम
सही अर्थों में ।
इसलिए सुनिश्चित ऐतिहासिक अर्थों का
सन्धान करते हुए
हमें फिर थकी हुई नींद में डूबे
घरों तक जाना है लेकर तुम्हारा नाम ।
कई बार हमें विचारों को कोई नाम देना होता है
या कोई संकेत-चिह्न
और हम माँगते हैं इतिहास से ऐसा ही कोई नाम
और उसे लोगों तक
विचार के रूप में लेकर जाते हैं ।
हमें तुम्हारा नाम लेना है
एक बार फिर
गुमनाम मंसूबों की शिनाख्त करते हुए
कुछ गुमशुदा साहसिक योजनाओं के पते ढूँढ़ते हुए
जहाँ रोटियों पर माँओं के दूध से अदृश्य अक्षरों में लिखे
पत्र भेजे जाने वाले हैं, खेतों-कारख़ानों में दिहाड़ी पर
खटने वाले पच्चीस करोड़ मज़दूरों,
बीस करोड़ युवा बेकारों,
उजड़े बेघरों और आधे आसमान की ओर से ।
उन्हें एक दर्पण, नीले पानी की एक स्वच्छ झील,
एक आग लगा जंगल और धरती के बेचैन गर्भ से
उफ़नने को आतुर लावे की पुकार चाहिए।
गन्तव्य तक पहुँचकर
अदृश्य अक्षर चमक उठेंगे लाल टहकदार
और तय है कलोग एक बार फिर इंसानियत की रूह में
हरक़त पैदा करने के बारे में सोचने लगेंगे ।
तुम्हारा नाम हमें लेना है
उस समय के विरुद्ध
जब सजीव चीज़ों में निष्प्राणता भरी जा रही है
एक उज्ज्वल सुनसान में
जहाँ रहते हैं शिल्पी और सर्जक बस्तियाँ बसाकर,
और कभी दिन थे, जब हालांकि अन्धेरा था,
पर अनगिन कारीगर हाथों ने
मिटटी, राख, रक्त, पानी, धूप और कामनाओं-संकल्पों से—
स्मृतियों-सपनों को गूँथकर गए थे लोग
विचारों ने बनाया था जिन्हें सजीव-गतिमान.
तुम्हारा नाम हमें लेना है
कि अधबने रास्ते कभी खोते नहीं,
हरदम कचोटते रहते हैं वे दिलों में
जागते रहते हैं
और पीढ़ियों तक धैर्यपूर्ण प्रतीक्षा के बाद
वे फिर आगे चल पड़ते हैं
और जब भी
पहुँचते हैं अपनी चिर वांछित मंज़िल तक,
तो वहाँ से
एक नई राह आगे चलने लगती है ।
तुम्हारा नाम हमें लेना है
विस्तृत और आश्चर्यजनक सागर विश्वास करते हुए और
इतिहास का लंगर छिछले पानी में डालने की
कोशिशों के ख़िलाफ़,
और विचारों के ख़िलाफ़ जारी
चौतरफ़ा युद्ध के खिलाफ़
और उम्मीद जैसे शब्दों को
संग्रहालयो में रख देने के ख़िलाफ़ ।
…या तो हमें कविता में लानी है यह बात
या फिर किसी भी तरह की काव्य-कला के
आग्रह के बिना ही कह देना है कि
यह सत्ता पलट देनी होगी
जो पूरी नहीं करती हमारी बुनियादी ज़रूरतें
और छीनती है हमारे बुनियादी अधिकार
और विद्वज्जन हैं कि मुख्य सडकें छोड़कर
पिछवाड़े की गंदगी और कूड़े भरी गलियों से होकर
आ-जा रहे हैं
ढूँढ़ते हुए कविता का अर्थात
मेर्कूरी अव्देविच की तरह
और तकिये में सोने की गिन्नियाँ छुपाए
तीर्थाटन पर निकलने को तैयार हैं भिक्षुवेश में
यदि समय कोई ऐसा वैसा आ-जाए तो ।
…बल्कि सबसे अच्छा तो यह होगा कि
बेहद ईमानदार निजी दुखों, प्यार, झाग, आदिम सरोकारों,
शब्दों, तरलत, मौन, चिंतन के अकेलेपन,
जनता के सुनसान, पुरस्कार-कामना-बोझिल मन,
सीढ़ियों, रस्सियों, नक़बजनी के औज़ारों और
निर्लिप्त ख़बरों से भरी
धूसर, चमकीली या साँवली-सलोनी निर्दोष-सी कविताओं के
पाठ के बाद, किसी शाम, जब अपनी पारी आए
तो बस दुहरा दिए जाएँ
तुम्हारे ये सीधे-सादे शब्द :
“इन्क़लाब ज़िन्दाबाद !”
तुम्हे कैसे याद करूँ भगत सिंह? / अशोक कुमार पाण्डेय
जिन खेतों में तुमने बोई थी बंदूकें
उनमे उगी हैं नीली पड़ चुकी लाशें
जिन कारखानों में उगता था
तुम्हारी उम्मीद का लाल सूरज
वहां दिन को रोशनी
रात के अंधेरों से मिलती है
ज़िन्दगी से ऐसी थी तुम्हारी मोहब्बत
कि कांपी तक नही जबान
सू ऐ दार पर
इंक़लाब जिंदाबाद कहते
अभी एक सदी भी नही गुज़री
और ज़िन्दगी हो गयी है इतनी बेमानी
कि पूरी एक पीढी जी रही है
ज़हर के सहारे
तुमने देखना चाहा था
जिन हाथों में सुर्ख परचम
कुछ करने की नपुंसक सी तुष्टि में
रोज़ भरे जा रहे हैं
अख़बारों के पन्ने
तुम जिन्हें दे गए थे
एक मुडे हुए पन्ने वाले किताब
सजाकर रख दी है उन्होंने
घर की सबसे खुफिया आलमारी मैं
तुम्हारी तस्वीर ज़रूर निकल आयी है
इस साल जुलूसों में रंग-बिरंगे झंडों के साथ
सब बैचेन हैं
तुम्हारी सवाल करती आंखों पर
अपने अपने चश्मे सजाने को
तुम्हारी घूरती आँखें डरती हैं उन्हें
और तुम्हारी बातें गुज़रे ज़माने की लगती हैं
अवतार बनने की होड़ में
तुम्हारी तकरीरों में मनचाहे रंग
रंग-बिरंगे त्यौहारों के इस देश में
तुम्हारा जन्म भी एक उत्सव है
मै किस भीड़ में हो जाऊँ शामिल
तुम्हे कैसे याद करुँ भगत सिंह
जबकि जानता हूँ की तुम्हे याद करना
अपनी आत्मा को केंचुलों से निकल लाना है
कौन सा ख्वाब दूँ मै
अपनी बेटी की आंखों में
कौन सी मिट्टी लाकर रख दूँ
उसके सिरहाने
जलियांवाला बाग़ फैलते-फैलते
… हिन्दुस्तान बन गया है
भगत सिंह से ऊँचा / विजेता मुद्गलपुरी
अजगुत ई नरहा सेखी के लगै छै
भगत सिंह से ऊँचा ट्रफीके लगै छै
चलो आय देखै ले हालत भगत सिंह के
जिनकर ऋणी छै ई भारत समूचा
जे चौक छीकै भगत सिंह चौराहा
जहाँ पर ट्रफीक छै भगत सिंह से ऊँचा
भारत के अमर सपुतो के ई गिंजन
एस.पी., कलक्टर के ठीके लगै छै
भगत सिंह से ऊँचा ट्रफीके लगै छै
कन्हूँ से आबो बिना ऐने लगिच्चा
शहीद भगत सिंह दिखाइये नै परतो
अ, जों पिपरपाँती से आबो त देखो
भगत सिंह जी तनियों लौकाइये नै परतो
त, चश्मा लगाबी के खोजै ले परतो
अलोपित दसा मुरती के लगै छै
भगत सिंह से ऊँचा ट्रफीके लगै छै
जहाँ छै भगत सिंह के त्यागी कहानी
हुआँ अब सुरू छै दू-टकिया तसीली
अ, जों ई उलहना तों नेता के देभो ते
नेता जी करतो बिचक-कठदलीलो
भगत सिंह चौराहा ट्रफीक चौक भेलै
केहन राह ई उनन्ती के लगै छै
भगत सिंह से ऊँचा ट्रफीके लगै छै
ट्रफीके के डर से गाँधी जी राजीव जी
छतरी के मुन्हाँ से ऊँचा उठल छिन
चंशेखर आजाद, बाबू कुमर सिंह
करै ले बगावत लगै छै अरल छिन
अजगुत ई बात जे कि चुप्पी लगैने छै
मारल अकल आदमी के लगै छै
भगत सिंह से ऊँचा ट्रफीके लगै छै
सैंतालिस में जे रहथिन माला से घेरल
उहे छथिन चटकल के भाला से घेरल
हमरा जे बाहर करलखिन गुलामी से
से छथिन पिंजड़ा जलाला से घेरल
कि लेनिन के झटका भगत सिंह क लगलै
अब की होतैगन गाँधी जी के लगै छै
भगत सिंह से ऊँचा ट्रफीके लगै छै
भगत सिंह की माशूका / सीमा संगसार
दो चुटिया बाँधे
उस अल्हड़ लड़की ने
अभी-अभी तो
जमीं पर पाँव रखा ही था
दुनिया अभी गोल होने की प्रक्रिया में थी
और / पृथ्वी चपटी होती जा रही थी…
उसकी नजरें अभी
पृथ्वी के उन अवांछित फलों पर,
ठीक से टिकी भी नहीं थी
जिसे चख लेने पर
भंग हो जाती है सारी नैतिकताएँ!
ठीक उसी वक़्त
उसकी नज़रें
तीर से भी आक्रामक
उस क्रांतिकारी नज़र से
ऐसे विंध गयी
की उसे वह फल खाना
याद ही न रहा
जिसे खाने के लिए वह
उतरी थी ज़मीं पर…
भगत सिंह तो उसी दिन शहीद हो गए थे
जिस दिन उनकी नजरें
इस माशूका से मिली थी!
प्रेम की कोंपलें फूटने से पहले ही
उन्हें दफना देना
हमारे देश की प्रथा रही है
उन दोनों को भी
यह रस्म अदायगी करनी पड़ी…
भगत सिंह जेल के सीखचों से
निहारते रहे अपनी माशूका का चेहरा
और वह अल्हड़ लडकी
पथ्थरों को फेंक–फेंक कर
गिनती रही
उन बेहिस वक़्त की रवायतों को…
वह आजीवन कुंवारी मासूमा
जिसका कौमार्य कभी भंग नहीं हुआ
आज भी कूकती है
अमिया के बागों में
और / भगत सिंह वहीँ उसकी डालों पर
झूल रहे हैं
फाँसी का फंदा बनाकर…
कुछ कहानियाँ कभी ख़तम नहीं होती
और / कुछ प्रेम कवितायें लिखी नहीं दुहराई जाती हैं…
भगत सिंह / श्वेता राय
मेघ बन कर छा गये जो, वक्त के अंगार पे।
रख दिए थे शीश अपना, मृत्यु की तलवार पे॥
तज गये जो वायु शीतल, लू थपेड़ो में घिरे।
आज भी नव चेतना बन, वो नज़र मैं हैं तिरे॥
मुक्ति से था प्रेम उनको, बेड़ियाँ चुभती रहीं।
चाल उनकी देख सदियाँ, हैं यहाँ झुकती रहीं॥
मृत्यु से अभिसार उनका, लोभ जीवन तज गया।
आज भी जो गीत बनकर, हर अधर पर सज गया॥
तेज उनका था अनोखा, मुक्ति जीवन सार था।
इस धरा से उस गगन तक, गूँजता हुंकार था॥
छू सका कोई कहाँ पर, चढ़ गये जो वो शिखर।
आज भी इतिहास में वो, बन चमकते हैं प्रखर॥
आज हम आज़ाद फिरते, उस लहू की धार से।
चूमते थे जो धरा को, माँ समझ कर प्यार से॥
क्या करूँ कैसे करूँ मैं, छू सकूँ उनके चरण।
देश हित बढ़ कर हृदय से, मृत्यु का कर लूँ वरण॥
कर रही उनको नमन…
खिल रहा उनसे चमन..
छू सकूँ उनके चरण…
तुम कौन थे भगत सिंह / राजीव रंजन प्रसाद
मकड़ियों ने हर कोने को सिल दिया है
उलटे लटके चमगादड़
देख रहें हैं
कैसे सिर के बल चलता आदमी
भूल गया है अपनी ज़मीन
दीवारों पर की सीलन का
फफूंद की आबादी को
दावत पर आमंत्रण है
दरवाज़ों पर दीमक की फौज़
फहराती है आज़ादी का परचम
दाहिने-बाएँ थम…
मैडम का जन्मदिन है
जनपथों के ट्रैफिक जाम है
साहब का मरणदिन है
रेलडिब्बे के ट्वायलेट तक में लेट कर
आदमी की ख़ाल पहने सूअर
बढे आते हैं रैली को
थैली भर राशन उठायें
कि दिहाड़ी भी है, मुफ्त की गाड़ी भी है
देसी और ताड़ी भी है..
और तुम भगतसिंह?
पागल कहीं के
इस अह्सान फ़रामोश देश के लिये
“आत्म हत्या” कर ली?
अंग्रेजी जोंक जब यह देश छोड कर गयी
तो कफ़न खसोंट काबिज हो गये
अब तो कुछ मौतें सरकारी पर्व हैं
जिनके बेटों पोतों को विरासत में कुर्सियाँ मिली हैं
निपूते तुम! किसको क्या दे सके?
फाँसी पर लटक कर जिस जड़ को उखाड़ने का
दिवा-स्पप्न था तुम्हारा
वह अमरबेल हो गयी है
आज 23 मार्च है…
आज किसी बाग में फूल नहीं खिलते
कि एक सरकारी माला गुंथ सके
मीडिया को आज भी
किसी बलात्कार का
लाईव और एक्सक्लूसिव
खुलासा करना है
सारे संतरी मंत्री की ड्यूटी पर हैं
और सारे मंत्री उसी भवन में इकट्ठे
जूतमपैजार में व्यस्त हैं
जिसके भीतर बम पटक कर तुम
बहरों को सुनाना चाहते थे…
बहरे अब अंधे भी हैं
तुम इस राष्ट्र के पिता-भ्राता या सुत
कुछ भी तो नहीं
तुम इस अभागे देश के कौन थे भगतसिंह
भगत सिंह के नाम / मुकेश मानस
तुम नहीं रहे तो क्या
तुम्हारे विचार तो हैं
जब तक हवा में रवानी रहेगी
सागर में मचलता रहेगा पानी
और पंछियों में बनी रहेगी
उड़ने की चाहत
जब तक आंखों में बचे रहेंगे सपने
और बाज़ुओं में नौजवानी
जब तक बचा रहेगा ये देश
और इसकी कहानी
जब तक लगा रहेगा इंसान
इंसान बने रहने की ज़िद में
तब तक बचे रहेंगे तुम्हारे विचार
तब तक जीवित रहोगे तुम
हमारे भीतर
23मार्च,1990-1992, पुरानी नोटबुक से
भगत सिंह ने पहली बार / पाश
भगत सिंह ने पहली बार पंजाब को
जंगलीपन, पहलवानी व जहालत से
बुद्धिवाद की ओर मोड़ा था
जिस दिन फाँसी दी गई
उनकी कोठरी में लेनिन की किताब मिली
जिसका एक पन्ना मुड़ा हुआ था
पंजाब की जवानी को
उसके आख़िरी दिन से
इस मुड़े पन्ने से बढ़ना है आगे, चलना है आगे
भगत सिंह के लिए / त्रिपुरारि कुमार शर्मा
भगत सिंह!
कुछ सिरफिरे-से लोग तुमको याद करते हैं
जिनकी सोच की शिराओं में तुम लहू बनकर बहते हो
जिनकी साँसों की सफ़ेद सतह पर
वक़्त-बेवक़्त तुम्हारे ‘ख़याल की बिजली’ कौंध जाती है
मैं उनकी बात नहीं कर रहा हूँ भगत!
जो तुम्हारी जन्मतिथि पर,
‘इंक़लाब-इंक़लाब’ चिल्लाते हैं और आँखों में
सफ़ेद और गेरुआ रंगों की साज़िश का ज़हर रखते हैं
जिसकी हर बूँद में
अफ़ीम की एक पूरी दुनिया होती है
जिसके नशे में गुम है आज सारा भारत
बड़े तूफ़ान की आशंका लगती है!
मैं उनकी बात कर रहा हूँ भगत!
जो समझते हैं कि तुम्हारी ज़रूरत आज भी उतनी ही है
जितनी उस वक़्त थी
(मुझे लगता है कि हर शख़्स में एक भगत सिंह होता है)
तुम्हारे और मेरे वक़्त में बहुत फ़र्क आया है ‘भगत’
तुम ज़मीन में बंदूक बोते थे
बारूद की फसल तो हम भी काटते हैं
मगर हमारे उद्देश्य बदल गए हैं
तुम्हारा उद्देश्य दूसरों से ख़ुद को बचाना था
हमारा उद्देश्य दूसरों को ख़ुद से मिटाना है!
काश! कि यह बात हम सब समझ पाते
और अपने भीतर के भगत सिंह को जगाते!
भगत सिंह / उदयप्रताप सिंह
भक्त मात्रभूमि के थे भूमिका स्वतंत्रता की
नाम के भगत सिंह काम आग-पानी के ।
बहरे विधायकों के कान में धमाका किया
उग्र अग्रदूत बने क्राँति की कहानी के ।
दासता के दायकों को काल विकराल हुए
देश को सिखाए उपयोग यों जवानी के ।
फाँसी चूमते समय भी मात् र जयघोष किया
सारा देश कुर्बान तेरी कुर्बानी के ।
भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के बलिदान / श्रीकृष्ण सरल
भगत सिंह प्रायः यह शेर गुनगुनाते रहते थे-
जबसे सुना है मरने का नाम जिन्दगी है
सर से कफन लपेटे कातिल को ढूँढ़ते हैं।।
२३ मार्च १९३१ को सायंकाल ७ बजकर २३ मिनट पर भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु फाँसी के फंदे पर झूल गए। श्रीकृष्ण सरल द्वारा लिखी गई कविता उनके ग्रंथ क्रान्ति गंगा से साभार यहाँ दी जा रही है।
आज लग रहा कैसा जी को कैसी आज घुटन है
दिल बैठा सा जाता है, हर साँस आज उन्मन है
बुझे बुझे मन पर ये कैसी बोझिलता भारी है
क्या वीरों की आज कूच करने की तैयारी है?
हाँ सचमुच ही तैयारी यह, आज कूच की बेला
माँ के तीन लाल जाएँगे, भगत न एक अकेला
मातृभूमि पर अर्पित होंगे, तीन फूल ये पावन,
यह उनका त्योहार सुहावन, यह दिन उन्हें सुहावन।
फाँसी की कोठरी बनी अब इन्हें रंगशाला है
झूम झूम सहगान हो रहा, मन क्या मतवाला है।
भगत गा रहा आज चले हम पहन वसंती चोला
जिसे पहन कर वीर शिवा ने माँ का बंधन खोला।
झन झन झन बज रहीं बेड़ियाँ, ताल दे रहीं स्वर में
झूम रहे सुखदेव राजगुरु भी हैं आज लहर में।
नाच नाच उठते ऊपर दोनों हाथ उठाकर,
स्वर में ताल मिलाते, पैरों की बेड़ी खनकाकर।
पुनः वही आलाप, रंगें हम आज वसंती चोला
जिसे पहन राणा प्रताप वीरों की वाणी बोला।
वही वसंती चोला हम भी आज खुशी से पहने,
लपटें बन जातीं जिसके हित भारत की माँ बहनें।
उसी रंग में अपने मन को रँग रँग कर हम झूमें,
हम परवाने बलिदानों की अमर शिखाएँ चूमें।
हमें वसंती चोला माँ तू स्वयं आज पहना दे,
तू अपने हाथों से हमको रण के लिए सजा दे।
सचमुच ही आ गया निमंत्रण लो इनको यह रण का,
बलिदानों का पुण्य पर्व यह बन त्योहार मरण का।
जल के तीन पात्र सम्मुख रख, यम का प्रतिनिधि बोला,
स्नान करो, पावन कर लो तुम तीनो अपना चोला।
झूम उठे यह सुनकर तीनो ही अल्हण मर्दाने,
लगे गूँजने और तौव्र हो, उनके मस्त तराने।
लगी लहरने कारागृह में इंक्लाव की धारा,
जिसने भी स्वर सुना वही प्रतिउत्तर में हुंकारा।
खूब उछाला एक दूसरे पर तीनों ने पानी,
होली का हुड़दंग बन गई उनकी मस्त जवानी।
गले लगाया एक दूसरे को बाँहों में कस कर,
भावों के सब बाँढ़ तोड़ कर भेंटे वीर परस्पर।
मृत्यु मंच की ओर बढ़ चले अब तीनो अलबेले,
प्रश्न जटिल था कौन मृत्यु से सबसे पहले खेले।
बोल उठे सुखदेव, शहादत पहले मेरा हक है,
वय में मैं ही बड़ा सभी से, नहीं तनिक भी शक है।
तर्क राजगुरु का था, सबसे छोटा हूँ मैं भाई,
छोटों की अभिलषा पहले पूरी होती आई।
एक और भी कारण, यदि पहले फाँसी पाऊँगा,
बिना बिलम्ब किए मैं सीधा स्वर्ग धाम जाऊँगा।
बढ़िया फ्लैट वहाँ आरक्षित कर तैयार मिलूँगा,
आप लोग जब पहुँचेंगे, सैल्यूट वहाँ मारूँगा।
पहले ही मैं ख्याति आप लोगों की फैलाऊँगा,
स्वर्गवासियों से परिचय मैं बढ, चढ़ करवाऊँगा।
तर्क बहुत बढ़िया था उसका, बढ़िया उसकी मस्ती,
अधिकारी थे चकित देख कर बलिदानी की हस्ती।
भगत सिंह के नौकर का था अभिनय खूब निभाया,
स्वर्ग पहुँच कर उसी काम को उसका मन ललचाया।
भगत सिंह ने समझाया यह न्याय नीति कहती है,
जब दो झगड़ें, बात तीसरे की तब बन रहती है।
जो मध्यस्त, बात उसकी ही दोनों पक्ष निभाते,
इसीलिए पहले मैं झूलूं, न्याय नीति के नाते।
यह घोटाला देख चकित थे, न्याय नीति अधिकारी,
होड़ा होड़ी और मौत की, ये कैसे अवतारी।
मौत सिद्ध बन गई, झगड़ते हैं ये जिसको पाने,
कहीं किसी ने देखे हैं क्या इन जैसे दीवाने?
मौत, नाम सुनते ही जिसका, लोग काँप जाते हैं,
उसको पाने झगड़ रहे ये, कैसे मदमाते हें।
भय इनसे भयभीत, अरे यह कैसी अल्हण मस्ती,
वन्दनीय है सचमुच ही इन दीवानो की हस्ती।
मिला शासनादेश, बताओ अन्तिम अभिलाषाएँ,
उत्तर मिला, मुक्ति कुछ क्षण को हम बंधन से पाएँ।
मुक्ति मिली हथकड़ियों से अब प्रलय वीर हुंकारे,
फूट पड़े उनके कंठों से इन्क्लाब के नारे ।
इन्क्लाब हो अमर हमारा, इन्क्लाब की जय हो,
इस साम्राज्यवाद का भारत की धरती से क्षय हो।
हँसती गाती आजादी का नया सवेरा आए,
विजय केतु अपनी धरती पर अपना ही लहराए।
और इस तरह नारों के स्वर में वे तीनों डूबे,
बने प्रेरणा जग को, उनके बलिदानी मंसूबे।
भारत माँ के तीन सुकोमल फूल हुए न्योछावर,
हँसते हँसते झूल गए थे फाँसी के फंदों पर।
हुए मातृवेदी पर अर्पित तीन सूरमा हँस कर,
विदा हो गए तीन वीर, दे यश की अमर धरोहर।
अमर धरोहर यह, हम अपने प्राणों से दुलराएँ,
सिंच रक्त से हम आजादी का उपवन महकाएँ।
जलती रहे सभी के उर में यह बलिदान कहानी,
तेज धार पर रहे सदा अपने पौरुष का पानी।
जिस धरती बेटे हम, सब काम उसी के आएँ,
जीवन देकर हम धरती पर, जन मंगल बरसाएँ।।
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